गंगा तीरे वालों को कैंसर का अभिशाप

मुंबई। अगर आप गंगा के तटीय इलाकों में रहते हैं तो आपके गाल ब्लाडर यानी पित्ताशय के कैंसर का मरीज होने की आशंका बढ़ जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में इस तरह का कैंसर गंगा नदी के आस-पास के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों में सबसे ज्यादा पाया गया है। यह नतीजा गंगा तट पर बसे उत्तर प्रदेश और बिहार के 19 गांवों में हाल में किए गए एक अध्ययन से सामने आया है।
यहां शुरू हुए इंटरनेशनल हेपैटो-पैनक्रिएटो-बिलिअरी एसोसिएशन [आईएचपीबी] के आठवें सम्मेलन में विशेषज्ञों ने गुरुवार को यह जानकारी दी।
आईएचपीबी और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ पापुलेशन स्टडीज के विशेषज्ञों ने बिहार में वैशाली और पटना के ग्रामीण इलाकों तथा उत्तर प्रदेश में वाराणसी में किए गए अध्ययन में पाया कि प्रत्येक एक लाख की आबादी पर 20 से 25 लोग पित्ताशय के कैंसर के मरीज थे। इन लोगों के ऊतकों और बालों का अध्ययन किया गया तो इनमें कैडमियम, मरकरी और सीसा जैसे भारी तत्वों की मौजूदगी पाई गई। आस-पास मौजूद चमड़ा शोधन करने वाले कारखानों से निकलने वाले बेकार पदार्थो में इन तत्वों की मौजूदगी होती है। इंसानों में इन खतरनाक तत्वों की मौजूदगी की एक बड़ी वजह भी यही है।
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नदी महोत्सव के निष्कर्ष को लागू करेगी सरकार

आशीष बिल्लौरे
होशंगाबाद. अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव के निष्कर्ष को राज्य सरकार चरणबद्ध ढंग से लागू करेगी। नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए हर संभव प्रयास होंगे। यह बात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शनिवार को यहां नदी महोत्सव के शुभारंभ अवसर पर कही।

नर्मदा-तवा संगम पर बांद्राभान में नर्मदा समग्र द्वारा तीन दिवसीय महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में देश-विदेश के 500 से अधिक विशेषज्ञ और शोधार्थी शामिल हुए हैं। कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि नदियों का हमारे जीवन में खास महत्व है।

नर्मदा तट से लगे ग्रामीण क्षेत्रों में नर्मदा को मां के समान पूजा जाता है। उन्होंने कहा कि नर्मदा परिक्रमा पथ को विकसित करने के लिए प्रदेश सरकार खास प्रयास कर रही है। परिक्रमा पथ में पुल-पुलिया तथा विश्रामगृह आदि का चरणबद्ध रूप से निर्माण कराया जाएगा।

उद्घाटन सत्र में गांधी शांति प्रतिष्ठान के कार्यकर्ता व पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने कहा कि नर्मदा का शाब्दिक अर्थ नर्मदा यानी आनंद प्रदान करने वाला होता है। नर्मदा पिछले 30 लाख वर्र्षो से प्रवाहित है और आनंद प्रदान कर रही है। उपभोक्तावाद के इस युग में हमने नदी को मां के स्थान पर दासी समझ लिया है। हम नदियों से अपेक्षा रखते हैं कि वह हमारे खेतों के लिए पानी दे, बिजली बनाए और हमें पीने का पानी दे।

बदले में हम तमाम कूड़ा करकट इसमें डालकर आसपास की सफाई कर लें। इस सोच ने नदियों को प्रदूषित कर रखा है। यदि हमें नदियों को बचाना है तो इसकी पवित्रता बनाए रखनी होगी। प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल बेगड़ ने अपनी रोचक शैली में कहा कि पानी के तीन प्रमुख गुण होते हैं। पहला यह भगवान की तरह अवतरित होता है। आकाश में यह बादलों के रूप में धरती पर नदियों, समुद्रों के रूप में तथा जमीन के नीचे पाताल में भू-गर्भ जल के रूप में होता है। दूसरा पानी महारास रचाता है। पानी का वाष्पीकरण होता है।

हवाओं के साथ मिलकर यह दूर-दूर की यात्रा करता है और फिर वर्षा के रूप में बरस जाता है। नदियों की धारों को रोककर हम इन्हें विनाश की ओर धकेल रहे हैं। इस महोत्सव में हम सभी को ऐसे ही विषयों पर चर्चा करनी है।

अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव के सूत्रधार अनिल माधव दवे ने कहा कि नदी को जीवमान इकाई के रूप में मानना चाहिए। नदी को जो लोग ‘वाटर बाडी’ मानते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि नदी का अपना जीवन है और वह जीवन देती है। कार्यक्रम में महिला बाल विकास मंत्री कुसुम महदेले, चिंतक गोविंदाचार्य, सांसद सरताज सिंह, रामपाल सिंह, विधायक मधुकर हण्रे, गिरिजाशंकर शर्मा, पापुनि अध्यक्ष विजयपाल सिंह, भंडार गृह निगम अध्यक्ष राजेंद्र सिंह, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अध्यक्ष एससी गौतम, राजेश गुप्ता, कमिश्नर पुखराज मारू, आईजी प्रदीप रूणवाल, कलेक्टर जीपी तिवारी, एसपी एसके सक्सेना सहित देश-विदेश से आए पर्यावरणविद् और शोधार्थी मौजूद थे।

मौजूद हैं आशा की कुछ किरण

श्रीपाद

नदी महोत्सव पर विशेष. सुवर्णसिरी-सुवर्ण अर्थात् सोना और सिरी अर्थात् नदी-विशाल ब्रrापुत्र की सबसे बड़ी सहायक नदी है। अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों से बहकर आती इसके बारे में कहा जाता है कि करीब 50 साल पहले तक इसके पानी में सोने के कण बहते हुए आते थे, जिसे इसके किनारे बसे लोग इकट्ठा करने की कोशिश में लगे रहते थे। इसी के चलते इसका नाम सुवर्णसिरी पड़ा जो आज सुबानसिरी हो गया है। कहते हैं कि ऊपर तिब्बत में एक विशाल भूस्खलन से सोने का स्रोत हमेशा के लिए बाधित हो गया।

लेकिन अरुणाचल में इस नदी से और अन्य नदियों से एक अलग प्रकार का सोना जलविद्युत उगलवाने की होड़ मची हुई है। इस अकेले राज्य ने सितंबर 2007 तक 24,471 मेगावाट बिजली बनाने हेतु 39 समझौतों पर हस्ताक्षर कर लिए थे। अगर हम देखें कि पूरे देश में आजादी के बाद के 50 वर्षो में कुल 25,000 मेगावाट जलविद्युत क्षमता निर्मित की गई थी, तो समझ सकते हैं कि यह कितना बड़ा प्रयास होगा।

इनके तहत अरुणाचल प्रदेश में बड़ी संख्या में बड़े बांध बनाए जाएंगे। देश के अन्य हिस्सों में हुए गंभीर परिणामों की अनदेखी करते हुए अरुणाचल इस आधुनिक सोने को अधिक से अधिक और जल्दी से जल्दी निकालने में लग गया है। विकास के नाम पर नदियों से पानी की हर बूंद निचोड़ लेने की प्रक्रिया आजादी के समय से ही चली है। परिणामस्वरूप देश की विशालतम नदियां भी नाले में तब्दील हो चुकी हैं। उस पर नदियां मल निकास व उद्योगों को प्रदूषित पानी छोड़ने का सबसे सुलभ स्थान बन गई हैं।

पांच नदियों की कृपादृष्टि के कारण जिस भूमि का नाम पंज+आब अर्थात् पांच पानी रखा गया, उस पंजाब की प्रमुख नदी है सतलुज। इस नदी से 1882 से ही पंजाब में बड़े पैमाने पर सिंचाई हो रही थी। आजादी के बाद महाकाय भाखड़ा बांध बना, जिसका उद्देश्य था नदी का एक भी बूंद पानी व्यर्थ समुद्र में न जाए। सिंचाई बढ़ी,साथ में हजारों हेक्टेयर जमीन में दलदल व क्षारीयकरण फैला, हजारों लोग विस्थापित हुए.. और नदी खत्म हो गई।कटु सच्चाई यही है कि उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, हमारे देश की सभी नदियों का कमोबेश यही हाल है।

लाखों किसान, मछुआरे और अन्य लोगों की जीविका खत्म हो गई। लाखों लोग विस्थापित हो गए। जंगल डूब गए। जो इन त्रासदियों से बचे, वह प्रदूषित पानी का शिकार हुए। यमुना जैसी बड़ी नदी भी कैसे प्रदूषित पानी का बहाव मात्र बनकर रह गई है, यह हर दिल्लीवासी जानता है। कई नदियों का पानी तो अब समंदर तक पहुंचता ही नहीं। गोदावरी नदी पर इतने बांध बने हैं कि नदी का लगभग सारा पानी खींच लिया जाता है।

इसके चलते इसके डेल्टा क्षेत्र (जहां नदी सागर में मिलती है) में बड़े पैमाने पर जमीन का कटाव हुआ है और कई गांव विस्थापित हो गए हैं। नदियां खत्म होने की सबसे बड़ी हानि का शायद हम आकलन भी नहीं कर पाएंगे। नदियां हमारी संस्कृति, सौंदर्य, धर्म सभी का केंद्र स्थान रही हैं। इनकी क्षति हम गिन तो नहीं सकते, पर महसूस तो वो हर व्यक्ति कर रहा है जिसका जीवन नदियों के साथ जुड़ा हुआ है।
अरुणाचल प्रदेश में बन रहे देश के सबसे बड़े और सबसे ऊंचे 3000 मेगावाट क्षमता के दिबांग बांध परियोजना से वहां की इदु-मिशमी समाज के लोग बड़े पैमाने पर प्रभावित होंगे। केरल में चालकुडी नदी की घाटी में बसे लोग इस पर प्रस्तावित अथिरापल्ली बांध का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संसाधनों की क्षति के अलावा इस विरोध का सबसे प्रमुख कारण है कि इस बांध से अथिरापल्ली का बेहद सुंदर जलप्रपात खत्म हो जाएगा। साठ साल से विकास के नाम पर नदियों के इस विनाश के चित्र में आशा की कई किरणों हैं। बड़े बांध, प्रदूषण आदि के खिलाफ लड़ाइयों के साथ-साथ देश में कई लोग नदियों को पुनर्जीवित करने की कोशिशों में भी लगे हैं।

इसका एक उदाहरण है पंजाब के संत बलबीरसिंह सींचेवाल। सिखों के लिए सबसे पवित्र नदियों में स्थान रखने वाली काली बेंई नदी मल निकास और प्रदूषित पानी छोड़ने से गंदे नाले में तब्दील हो गई थी। संत बलबीरसिंह ने अपने अनुयायियों को आह्वान किया, खुद गंदे पानी में उतरे और नदी की सफाई शुरू की। एक के पीछे एक चलते हजारों लोग इसमें जुट गए। संत ने नदी किनारे के शहरों से अपील की कि मैला पानी नदी में न छोडें़, जो नहीं माने, उनका मैला पानी जबरन रोक दिया गया, पर उसके निपटान की वैकल्पिक व्यवस्था भी तैयार करने में मदद की।

इसी तरह की मिसाल बन गया है राजस्थान में ‘तरुण भारत संघ’ का प्रयास। इस सूखे क्षेत्र में गांव, समाज ने सैकड़ों की तादाद में पारंपरिक जोहड़ (तालाब) बनाए, बारिश का पानी रोका, और जो नदियां सालों से खत्म हो चुकी थीं, फिर से जीवित हो गई, बारहमासी हो गइर्ं।
विकास की गति और तेज करते हुए उसे 10 प्रतिशत से भी आगे ले जाने की दौड़ में हमारी नदियों पर, सभी जल संसाधनों पर संकट और गंभीर हो गया है। ऐसे में संत बलबीरसिंह और तरुण भारत संघ जैसे प्रयास हमारे लिए एक मिसाल बन सकते हैं, बनने चाहिए।
-लेखक मंथन अध्ययन केंद्र, बड़वानी से जुड़े हैं।

गंगा एक्सप्रेस वे-पचास लाख क्विंटल अनाज की पैदावार घट जाएगी

अंबरीश कुमार
लखनऊ, बलिया-नोएडा एक्सप्रेस वे के चलते पहले चरण में प्रदेश की ४0 हजर एकड़ क्षेत्रफल का रकबा खेती से अलग हो जाएगी । जबकि एक दशक बाद एक लाख एकड़ उपजऊ भूमि गैर कृषि कार्यो में इस्तेमाल होगी। जिसके चलते पचास लाख क्विंटन अनाज का उत्पादन कम होगा। यह निष्कर्ष किसी राजनेता का नहीं बल्कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में गंगा नदी पर शोध के लिए १९८५ में गठित गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यूके चौधरी और उनकी टीम का है।
प्रोफेसर चौधरी गंगा नदी का विस्तृत एवं सूक्ष्म अध्ययन कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस परियोजना के चलते न सिर्फ गंगा का प्रदूषण बढ़ेगा बल्कि गंगा बेसिन की जलवायु पर असर पड़ेगा। प्रोफेसर चौधरी की रपट के बाद भारतीय जनता पार्टी के विधायक दल के नेता ओम प्रकाश सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जनेश्वर मिश्र, अजित सिंह, अमर सिंह, राजबब्बर समेत कई सांसदों को पत्र भेजकर इस परियोजना को रोकने की गुजरिश की है।
बीएचयू के वैज्ञानिक प्रोफेसर यूके चौधरी के निष्कर्ष इस परियोजना को लेकर माहौल गरमा सकते हैं। चौधरी की रपट की कुछ बिंदु इस प्रकार है। गंगा एक्सप्रेस वे चूंकि ड्रेनेज पाथ को काटेगा इसलिए वाटर शेड की दिशा ??बदल जएगी। भूमिगत जल में बढ़ोत्तरी होगी जो विशाल वाटर शेड के मृदाक्षरण का कारण हो। वाटर शेड का कटाव एक्सप्रेस वे के एकत तरफ पानी के दबाव को बढ़ाएगा तथा दूसरी तरफ भूमिगत जल के रिसाव क्रिया में तीव्रता लाएगा। इसके चलते एक्सप्रेस वे से भयावह कटाव होगा। गंगा एक्सप्रेस वे चूंकि माइक्रो वाटर शेड को एक हजर किलोमीटर में काटेगी इसलिए एक्सप्रेस वे का एक किनारा राजमार्ग के अगल-बगल की विशाल उपजऊ जमीन पर जल भराव करेगा।

एक्सप्रेस वे पर चलने वाली गाड़ियों से लगातार कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन मीनो आक्साइड आदि गैसे नदी से निस्तारित होने वाली वाष्पीकरण की रफ्तार को बढ़ाकर जल प्रवाह कम कर देगी जिससे जल में आक्सीजन की मात्रा घट जएगी। इसके अलावा एक्सप्रेस वे और गंगा के बीच की उपजऊ भूमि गंगा द्वारा बालू जमाव व मृदाक्षरण से प्रभावित होते गंगा का बेसिन न रह कर बाढ़ क्षेत्र में तब्दील हो जएगी। इसके चलते हजरों एकड़ का गंगा का उपजऊ बेसिन क्षेत्र नष्ट हो जएगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात है उपजऊ जमीन का गैरकृषि क्षेत्र में चले जना। उत्तर प्रदेश में कृषि भूमि का रकबा लगातार कम हो रहा है। वर्ष १९८४ में प्रदेश में कृषि भूमि का रकबा १८४ लाख हेक्टेयर था जो २00६ आते-आते १६८ लाख हेक्टेयर रह गया। हालांकि खाद्यान्न उत्पादन फिलहाल चार लाख मीट्रिक टन पर स्थिर है। लेकिन जहां २0२४-२५ तक प्रदेश की आबादी करीब २५ करोड़ तक पहुंच जाएगी वहीं खाद्यान्न का उत्पादन और घट जएगा। उस समय ६00 मीट्रिक टन खाद्यान्न की जरूरत होगी। ऐसे में खेती का रकबा घटना घातक होगा।

गंगा नदी नहीं बल्कि धर्म-गोविन्दाचार्य

वाराणसी-जाने माने चिंतक के.एन. गोविन्दाचार्य ने कहा है कि गंगा सिर्फ नदी ही नहीं बल्कि देश की धर्म एवं संस्कृति है और उसका प्रवाह निरन्तर बने रहना चाहिए।

गंगा सागर से चली गंगा प्रवाह यात्रा के यहाँ पहुँचने पर रविवार की रात राजेन्द्र प्रसाद घाट पर एक समारोह में उन्होंने कहा कि संस्कृति की रक्षा के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए जो देश को आर्थिक रूप से खोखला कर दे एवं हमारी संस्कृति और संस्कार को नुकसान पहुँचाए।

गोविन्दाचार्य ने कहा कि हमने पिछले पचास सालों में गंगा को बहुत प्रदूषित किया है। अब ऐसा न हो। इस मसले पर यदि समाज नहीं चेता तो अनर्थ हो जाएगा एवं वह दिन दूर नहीं जब गंगा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। गंगा को सिकुड़ने एवं प्रदूषित होने से हमें हर हाल में बचाना होगा। इसके लिए हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।

नदियों में डाले जाएंगे खास तरह के सिक्के

नर्मदापुरम यहां नर्मदा और तवा नदियों के पवित्र संगम पर शनिवार से शुरू हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव की पूर्णाहुति बांद्राभान घोषणा पत्र के साथ हुई। खास बात यह रही कि महोत्सव के आयोजक नर्मदा समग्र न्यास ने घोषणा पत्र के चुनिंदा बिन्दुओं पर काम शुरू करने के लिए अपनी कार्ययोजना भी घोषित कर दी। इसका दिलचस्प पहलू यह है कि नदियों के प्रदूषण में कमी लाने के लिए उनमें धार्मिक श्रध्दावश डाले जाने वाले रुपए पैसे क आम सिक्कों की जगह लेने के लिए खास किस्म के सिक्के पेश किए जाएंगे। नर्मदा समग्र की ओर से आईआईटी, रूड़की के सहयोग से ऐसा सिक्का बनवाया गया है, जिसमें 96 फीसद तांबा और 4 फीसद चांदी है। मिश्रित धातु के ऐसे सिक्के अगले एक साल में देश की पांचवी सबसे बड़ी नर्मदा के सभी घाटों पर श्रध्दालुओं के लिए मुहैया करा दिए जाएंगे।
अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव के सूत्रधार और नर्मदा समग्र के न्यासी अनिल माधव दवे ने बताया कि नदियों में सिक्के डालने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके तहत पहले ताबें के सिक्के अर्पित किए जाते थे जो नद जल में प्रदूषण दूर कर उसे शुध्द करने का काम करते थे। बाद में ताबें की जगह ऐसी धातुओं के सिक्कों का चलन शुरू हो गया जो नदियों में प्रदूषण घटाने के बजाय इसमें इजाफा करते हैं। इस समस्या का समाधान खोजने के प्रयास करने पर आईआईटी, रूड़की के विशेषज्ञों ने 96 फीसद ताबें और 4 फीसद चांदी वाले सिक्के बनाने की विस्तृत योजना पेश की। विशेषज्ञों के मुताबिक ये सिक्के नदी में डालने पर पानी को साफ करने में मददगार साबित होंगे। नर्मदा समग्र ने ऐसे सिक्के तैयार कराए हैं। ये सिक्के अभी महंगे हैं इसलिए कोशिश हो जारी है कि एक सिक्का दो रुपए तक में बन जाए। नदी महोत्सव में देश-विदेश से आए सुधी जनों ने ऐसे सिक्के नर्मदा नदी को अर्पित भी किए।
नदियों की चिंता और उन पर काम करने वालों की ओर से यहां नदी तट पर बैठकर तैयार किए गए घोषणा पत्र में शासन, समाज और नागरिक संस्थाओं का ध्यान इन बिंदुओं की ओर खींचा गया है-

1- नदी औन जन के बीच प्रेम बढ़ाने की दिशा में काम हो। संस्कृति व परंपराओं को भूल जाने के कारण जब नदी और जन का यह प्रेम सूख जाता है, तब नदी सिर्फ जल स्रोत बनकर रह जाती है, जबकि यह प्रेम बढ़ने पर नदी मां बन जाती है।
2- हर नदी की अपनी जमीन, अपना प्रवाह और अपना विशिष्ट संसार होता है जो प्रशासनिक इकाइयों से स्वतंत्र रहता है। इसलिए नदी पर होने वाले अध्ययनों, कामों और प्रयत्नों की आधारभूमि नदी बेसिन को बनाया जाना चाहिए।
3- नदियों के प्रवाह पथ उनकी ओर से अनंतकाल तक किए गए अथक प्रयासों से बनते हैं। इन प्रवाह पथों को बचाने के लिए पिछली सदी के अधिकतम बाढ़ स्तर को नदी का किनारा माना जाए और इसे नदी के लिए छोड़ दिया जाए।
4- नदियों पर चिंतन व काम करने वालों और किसी भी रूप में नदियों के प्रति अनुराग रखने वाले सभी लोगों, समुदायों व संस्थाओं को एक विचार मंच पर लाने और एक दिशा में गतिमान करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नदी जनपद का गठन हो।
5- नदियों का अपना अर्थशास्त्र होता है। इसलिए उनकी बैंकिंग व्यवस्था विकसित होनी चाहिए। हर नदी का अपना खाता हो ताकि उसके संसाधनों के आमद खर्च पर नजर रखने के लिए संतुलन पत्र (बैलेंसशीट) बन सके। इसमें नदी की प्रत्यक्ष व परोक्ष आमदनी और खर्चों का समय समय पर आंकलन हो। इसके आधार पर नदी क्या था, क्या है और क्या होनी चाहिए।
6- नदियों के उद्गम और छोटी-छोटी शुरुआती जलधाराओं का स्वास्थ्य नदियों की दशा और दिशा सूयक है। इसलिए नदी उद्गम और प्रारंभिक व दूसरे चरण की जलधाराओं के संरक्षण के उल्लेखनीय प्रयासों को पुरस्कृत करने की व्यवस्था हो।
7- नदी जीवन के विविध पक्षों से जुड़े विषयों पर मैदानी शोध परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाए और
8- सहेली नदी तंत्रों पर काम करने वाले सुधी जनों के बीच ज्ञान, विचारों और अनुभवों के आदान-प्रदान के अवसर बढ़ाने के लिए कोई व्यवस्था बने।

इस घोषणा पत्र के अनुसर में नर्मदा समग्र न्यास ने अपनी कार्ययोजना घोषित की ह। इसके तहत देश की सात पवित्र नदियों में शुमार नर्मदा के किनारों को बचाने की पहल की जाएगी। इन नदी किनारों को फिर से हरियाली की चुनरी ओढ़ाई जाएगी। श्रध्दालु देवियों की तरह नदियों को भी कपड़े की लाल चुनरी चढ़ाते है। समर्थ श्रध्दालुओं को प्रेरित किया जाएगा कि उनमें से हर एक नर्मदा मैया के कम से कम दो सौ मीटर तक के किनारे को हरियाली चुनरी पहनाने के लिए आर्थिक योगदान दे। खुद वृक्षारोपण कर उसी सार संभाल में हाथ बंटाए। नर्मदा के सभी घाटों पर जल शुध्द करने वाले सिक्के मुहैया कराने के अलावा नर्मदा बेसिन में सराहनीय काम करने वालों को पुरस्कृत किया जाएगा। नर्मदा पर 25 किमी लंबाई तक सबसे अच्दा काम करने वाले कार्यकर्ता को सर्वाधिक राशि का ईनाम दिया जाएगा। सौ किमी तक और उसके बाद इससे अधिक लंबाई में नदी तंत्र पर काम करने वालों का भी अलग अलग पुरस्काराें से नवाजा जाएगा। नदी को कम से कम प्रदूषित करने वाले डिटरजेंट रहित साबुन भी घाटों पर उपलब्ध कराए जाएंगे। नर्मदा समग्र अगला अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव भी इस जगह 2010 में आयोजित करेगा।
महोत्सव के समापन समारोह में राज्यपाल बलराम जाखड़ का कहना था कि मानव जीवन की रक्षा तभी संभव है जब प्रकृति का पर्याप्त संरक्षण किया जाए। नदियां हमारी जीवनदायिनी मां हैं। उनकी रक्षा के लिए ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण करना जरूरी है। तरक्की जरूरी है लेकिन प्रकृति के विनाश की कीमत पर विकास की प्रवृत्ति रोकी जानी चाहिए। उन्होंने र्प्यावरण संरक्षण और मानव कल्याण की दृष्टि से नदी महोत्सव के आयोजन को सराहनीय प्रयास बताया। संस्कृति व जनसंपर्क राज्यमंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने घोषणा की कि उनका विभाग महोत्सव में विशेषज्ञों की ओर से पेश किए गए आलेखों व विचारों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित कराएगा। इससे भविष्य के लिए एक दस्तावेज उपलब्ध हो सकेगा।
मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित जल कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह ने चेताया कि धधकता ब्रहम्मांड और बदलते मौसम नदियों पर आए संकट का सीधा दुष्परिणाम हैं। नदी राज, समाज व सृष्टि तीनों की है। पर सरकार, शहर और उद्योगरूपी लुटेरे इसबे सामने नदियों को ही लूटने-खसोटने में जुटे हैं। वे बात तो रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद बढ़ाने की करते हैं। पर क्या प्रकृति का विनाश किए बना विकास नहीं हो सकता? पूरा भारत मानता है कि पानी बाजार की चीज नहीं है। कुंभ की परंपरा नदियों की चिंता से उनमें सुधार से जुड़ी है। पर अब कुंभ मेलों में भी नदियों के शोषण, प्रदूषण व अतिक्रमण की रोकथाम की आवाज नहीं आती।

पानी-पानी छत्तीसगढ

कहते हैं सूरज की रोशनी, नदियों का पानी और हवा पर सबका हक़ है। लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ की कई नदियों पर निजी कंपनियों का कब्जा है. दुनिया में सबसे पहले नदियों के निजीकरण का जो सिलसिला छत्तीसगढ़ में शुरु हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ की इन नदियों में आम जनता नहा नहीं सकती, पीने का पानी नहीं ले सकती, मछली नहीं मार सकती. सेंटर फॉर साइंस एंड इनवारनमेंट की मीडिया फेलोशीप के तहत पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा किए गए अध्ययन का यह हिस्सा आंख खोल देने वाला है. आइये पढ़ते हैं, क्रमवार रूप से यह पूरी रिपोर्ट। इस बार दूसरी किस्त।


पानी-पानी छत्तीसगढ
आलोक प्रकाश पुतुल

एक नवंबर, 2001 को अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ को पानीवाला राज्य कहते हैं. 1,37, 360 वर्ग किलोमीटर में फैले इस राज्य हर गांव में छह आगर और छह कोरी तालाब की परंपरा रही है. आगर मतलब बीस और कोरी मतलब एक. यानी कुल 126 तालाब. राज्य में लगभग 1400 मिलीमीटर औसत बरसात भी होती है, लेकिन इन सबों से कहीं अधिक लगभग ढ़ाई करोड की आबादी वाला छत्तीसगढ़ राज्य नदियों पर आश्रित है. यह राज्य पाँच नदी कछार में बंटा हुआ है-महानदी कछार 75,546 वर्ग किलोमीटर, गोदावरी कछार 39,577 वर्ग किलोमीटर, गंगा कछार 18,808 वर्ग किलोमीटर, नर्मदा कछार 2,113 वर्ग किलोमीटर और ब्राम्हणी कछार 1,316 वर्ग किलोमीटर.

महानदी, शिवनाथ, इंद्रावती, जोंक, केलो, अरपा, सबरी, हसदेव, ईब, खारुन, पैरी, माँड जैसी नदियां राज्य में पानी की मुख्य आधार हैं. आँकड़ों के अनुसार राज्य में कुल उपयोगी जल 41,720 मिलीयन क्यूबिक मीटर है, जिसमें से 7203 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है. 59.90 हज़ार मिलियन क्यूबिक मीटर सतही जल में से 41.720 हज़ार मिलियन क्य़ूबिक मीटर सतही जल इस्तेमाल योग्य है. जिसमें से फिलहाल 7.50 हज़ार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल हो रहा है. भूजल के मामले में भी राज्य बेहद समृद्ध है. छत्तीसगढ़ में भूजल की मात्रा 13,678 मिलियन क्य़ूबिक मीटर है, जिसमें से 11,600 मिलियन क्य़ूबिक मीटर इस्तेमाल योग्य है.

लेकिन ये सब आंकड़े भर हैं. ऐसे आंकड़े, जिनमें सारे दावे के बाद भी आम जनता और खास कर किसानों की पहूंच से यह पानी लगातार दूर होता चला जा रहा है. पानी और नदियों पर आधारित सारी अर्थव्यवस्था चरमरा कर रह गई है. राज्य की अधिकांश नदियां निजी कंपनियों के कब्जे में हैं और आम जनता के लिए उन नदियों से एक बूंद पानी लेना भी गुनाह है. इन नदियों से निस्तार बंद है. इन में मछुवारे अब अपना जाल नहीं फैला सकते. नदियों के किनारे-किनारे फसल लगा कर करोड़ो रुपए कमाने वाले किसान-मज़दूर अब बेरोजगार हैं. किसी जमाने में नदियों पर बनने वाले बांध के पीछे एकमात्र कारण होता था, फसलों की सिंचाई. अब राज्य की हरेक नदी पर बनने वाले बांध का एकमात्र उद्देश्य होता है औद्योगिक घरानों को पानी उपलब्ध कराना. हालत ये हो गई कि छत्तीसगढ़ में सरकार ने पिछले कुछ सालों से गरमी के दिनों में फसलों को पानी देने पर घोषित तौर पर प्रतिबंध लगा दिया.
नदियों से शुरु हो कर नदियों में खत्म होने वाले आम आदमी का जीवन अब नदियों को दूर-दूर से निहारता है, जहां नदियां अब केवल स्मृति का हिस्सा हैं.

नदियों पर कब्जे की कहानी कोई एकाएक शुरु नहीं हुईं. यह सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से हुआ. राज्य की अलग-अलग नदियां एक-एक कर निजी हाथों में सौंपी जाने लगीं.

तमाम विरोध और संघर्ष के बाद राज्य की सरकारों ने नदियों को निजी हाथों से मुक्त कराने की घोषणाएं की, दावे किए, सपने दिखाए. लेकिन इसके ठीक उलट हरेक सरकार ने किसी न किसी नदी को नए सिरे से किसी निजी उद्योग के हाथों में गिरवी रखने से कभी गुरेज नहीं किया.

नदियों को औद्योगिक घरानों के हाथों में सौंपने का जो सिलसिला मध्य प्रदेश से शुरु हुआ था, वह छत्तीसगढ़ में आज भी जारी है.

नदिया बिक गई पानी के मोल
छत्तीसगढ़ में महानदी और शिवनाथ दो ऐसी नदियां रही हैं जो राज्य के 58.48 प्रतिशत क्षेत्र के जल का संग्रहण करती हैं. शिवनाथ मूलतः दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर और जाँजगीर-चाँपा से होते हुए महानदी में मिल जाती है.

पानी के बाज़ार सजाने के सिलसिले की शुरुआत इसी शिवनाथ से हुई. औद्योगिक विकास केंद्रों के सहयोग के लिए 1981 में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम (रायपुर) लिमिटेड, रायपुर का गठन किया गया था. 26 जून 1996 को दुर्ग औद्योगिक केंद्र बोरई की मेसर्स एचईजी लिमिटेड ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को एक पत्र लिखकर कहा कि वर्तमान में उन्हें 12 लाख लीटर पानी की आपूर्ति की जा रही है लेकिन अगले दो महीने बाद से उन्हें हर रोज़ 24 लाख लीटर अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होगी, जिसकी व्यवस्था सुनिश्चित की जाए.

औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने शिवनाथ नदी में उपलब्ध पानी का आकलन करने के बाद मेसर्स एचईजी लिमिटेड को 20 अगस्त, 1996 को पत्र लिखते हुए बताया कि आगामी कुछ दिनों में एचईजी को 25 लाख लीटर पानी की आपूर्ति की जा सकती है और प्रस्तावित बीटी पंप लग जाने के बाद 36 लाख लीटर पानी की आपूर्ति संभव हो पाएगी. लेकिन औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने फरवरी से जून तक शिवनाथ में कम पानी का हवाला देते हुए इस अवधि में पानी की आपूर्ति में असमर्थता व्यक्त की. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने इसके लिए मेसर्स एचईजी लिमिटेड को संयुक्त रुप से शिवनाथ नदी पर एनीकट बनाने का प्रस्ताव दिया. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर का तर्क था कि उनके पास इस एनीकट के निर्माण के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और अतिरिक्त पानी की जरुरत भी एचईजी लिमिटेड को है, इसलिए उसे संयुक्त रुप से एनीकट निर्माण का प्रस्ताव दिया गया.

इसके बाद औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर और मेसर्स एचईजी लिमिटेड के बीच अधिकृत बैठकों में पानी को लेकर खिचड़ी पकनी शुरु हो गई. इन सरकारी बैठकों में क्या-क्या निर्णय हुए और इन बैठकों में कौन-कौन शामिल हुआ, इसका सच किसी को नहीं पता लेकिन सरकारी अफसर चाहते थे कि मेसर्स एचईजी लिमिटेड के साथ का इस तरह कागज़ी कारवाई की जाए जिससे मेसर्स एचईजी लिमिटेड एनीकेट बनाने के काम से हाथ खींच ले और यह काम किसी ऐसी एजेंसी को दे दिया जाए, जिससे औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के अफसरों का अपना हित सधे. यहां तक कि इन बैठकों की कार्रवाई के अलग-अलग फर्जी विवरण भी सरकारी अफसरों ने तैयार कर कागजी खानापूर्ति की कोशिश की और वे इसमें सफल भी हुए.

इसके बाद एनीकेट बनाने के बजाय पहले से ही स्थापित जल प्रदाय योजना को कथित रूप से बिल्ड ओन ऑपरेट और ट्रांसफर यानी बूट आधार पर जल प्रदाय योजना स्थापित करने के लिए निविदा निकाली गई. इस निविदा में टिल्टिंग गेट्स का प्रावधान रखा गया था. मज़ेदार तथ्य ये है कि इस निविदा से पहले ही 14 अक्टूबर, 1997 को राजनांदगाँव की कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड ने मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को एक पत्र में सूचना दी थी कि ऑटोमैटिक टिल्टिंग गेट्स उनके द्वारा विकसित किए गए हैं और इनका पेटेंट उनके पास है. मतलब ये कि टिल्टिंग गेट्स का प्रावधान रख कर यह साफ कर दिया गया कि जल प्रदाय योजना स्थापित करने का काम कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड या उसकी सहमति से ही कोई और कंपनी ले सकती है. और अंततः हुआ भी यही.

हद तो यह हो गई कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने बोरई की अपनी पूरी अधोसंरचना और लगभग पाँच करोड़ रुपये की संपत्ति बूट आधार पर जल प्रदाय योजना स्थापित करने के लिए केवल एक रुपये की टोकन राशि लेकर कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड के मालिक कैलाश सोनी को सौंप दी.
शिवनाथ नदी को निजी क्षेत्र को सौंपे जाने की जाँच को लेकर गठित छत्तीसगढ़ विधानसभा की लोकलेखा समिति ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के संचालक की कार्यशैली को संदेहास्पद बताते हुए कहा कि “औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के प्रबंध संचालकों की व्यक्तिगत रुचि एवं कारणों तथा येन-केन प्रकारेण मेसर्स एचईजी लिमिटेड को जानबूझकर सोची समझी नीति के अंतर्गत परिदृश्य से बाहर करने की कूटरचित योजना के कारण परिदृश्य से ओझल कर दिया गया.... इस योजना से मेसर्स एचईजी लिमिटेड का जल प्राप्त करने का हित जुड़ा हुआ था. उसके साथ जो आरंभिक शर्तें निर्धारित हुई थीं, वे भी तुलनात्मक रुप से शासन के हित में लाभकारी थी. इसके बावजूद मेसर्स एचईजी लिमिटेड के साथ जल प्रदाय की लाभकारी योजना को अंतिम रूप न देकर बूट आधार पर तुलनात्मक रूप से अलाभकारी शर्तों के साथ जल प्रदाय के क्षेत्र में अनुभवहीन निजी संस्थान के साथ नियमों के विपरीत अनुबंध निष्पादित करते हुए बूट आधार पर एनीकट निर्माण एवं जल प्रदाय के अनुबंध से सम्पूर्ण योजना का प्रयोजन उद्देश्य एवं औचित्य ही समाप्त हो गया. फलस्वरुप शासन को जल प्रदाय के प्रथम दिवस से ही हानि उठानी पड़ रही है....जल प्रदाय योजना की परिसम्पत्तियां निजी कंपनी को लीज़ पर मात्र एक रुपये के टोकन मूल्य पर सौंपा जाना तो समिति के मत में ऐसा सोचा समझा शासन को सउद्देश्य अलाभकारी स्थिति में ढकेलने का कुटिलतापूर्वक किया गया षड़यंत्र है, जिसका अन्य कोई उदाहरण प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मिलना दुर्लभ ही होगा....दस्तावेजों से एक के बाद एक षडयंत्रपूर्वक किए गए आपराधिक कृत्य समिति के ध्यान में आये, जिसके पूर्वोदाहरण संभवतः केवल आपराधिक जगत में ही मिल सकते हैं. प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई शासकीय अधिकारी उद्योगपति के साथ इस प्रकार के षड़यंत्रों की रचना कर सकता है, यह समिती की कल्पना से बाहर की बात है.”

बहरहाल सारे नियम कायदे कानून को ताक पर रख कर कैलाश इंजीनीयरिंग कंपनी लिमिटेड राजनांदगाँव द्वारा इस प्रोजेक्ट के लिए प्रस्तावित कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड को जल प्रदाय योजना का काम 5 अक्टूबर, 1998 को सौंप दिया. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने रेडियस वाटर लिमिटेड के साथ जो अनुबंध किया गया, उसके अनुसार यह अनुबंध 4 अक्टूबर, 2000 से 4 अक्टूबर, 2020 तक प्रभावी रहेगा. हालांकि निविदा में अनुभव और पूंजी का जो हवाला दिया गया था, उस पर यह कंपनी कहीं भी खरी नहीं उतरती थी. यहां तक कि रेडियस के साथ अनुबंध करने से पहले औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने सिंचाई विभाग, राजस्व विभाग समेत सरकार के किसी भी उपक्रम से न तो स्वीकृति ली और ना ही इस बात की जानकारी किसी विभाग को दी गई. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर रेडियस पर किस तरह मेहरबान थी, इसे निविदा औऱ अनुबंध के हरेक हिस्से में साफ देखा जा सकता है. बूट आधार पर निर्माण का मतलब ये होता है कि निर्माण और उसके रख रखाव का काम कंपनी अपने संसाधनों से करेगी. लेकिन औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने एक तो अपने संसाधन सौंप दिए, दूसरा यह अनुबंध भी कर लिया कि इस योजना में खर्च होने वाले लगभग 9 करोड़ रुपए में से 650 करोड़ रुपये कर्ज से और 2.50 करोड़ रुपए इक्विटी शेयर के रुप में रेडियस प्राप्त करेगा.
औद्योगिक क्षेत्र बोरई से प्रति माह 3.6 एम.एल.डी पानी की आपूर्ति फैक्टरियों को की जा रही थी. रेडियस वॉटर लिमिटेड को जब जल प्रदाय योजना का काम सौंपा गया, उसी दिन से रेडियस वॉटर लिमिटेड ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को 4 एम एल डी पानी की गारंटी दी. इसका मतलब यह हुआ कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर की बोरई परियोजना में 4 एम एल डी पानी की आपूर्ति क्षमता इस निविदा के पहले से ही थी. ऐसे में फिर सहज ही सवाल उठता है कि आखिर फिर जल प्रदाय योजना स्थापित करने की जरुरत क्यों पड़ी ? औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर और रेडियस वॉटर लिमिटेड के बीच 22 वर्षों के लिए यह अनुबंध भी किया गया कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर 4 एमएलडी पानी ले चाहे न ले, उसे 4 एमएलडी का भुगतान अनिवार्य रुप से करना होगा. जबकि सच्चाई ये थी कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को अधिकतम 2.4 एमएलडी पानी की ही जरुरत थी. भुगतान की जो दर रखी गई वह भी चौंकाने वाली थी. रायपुर के मुरेठी में शिवनाथ नदी से ही पानी लिए जाने पर सिंचाई विभाग को एक रुपए प्रति क्यूबिक का भुगतान किया जाता रहा है. लेकिन रेडियस को 12.60 रुपये प्रति क्यूबिक की दर से भुगतान करने का अनुबंध किया गया.

जमीन के भीतर भी जलसंकट

भास्कर न्यूज

उदयपुर. भूजल विभाग ने जिले की सभी पंचायत समितियों में उपलब्ध भूजल की मात्रा पर चिंता जताई है। अभी गर्मी शुरू नहीं हुई है, इसलिए पानी की खपत कम है, लेकिन जेठ की तपिश तक पेयजल की खपत में इजाफा होना तय है। जिले की 11 पंचायत समितियों में से 8 को अति दोहित (ओवर ड्राफ्टेड) और 3 को संवेदनशील घोषित किया गया है।
राज्य सरकार के जोधपुर स्थित भूजल विभाग ने उदयपुर की भूजल स्थिति पर चिंता जताई है। विभाग के सीनियर हाइड्रोलोजिस्टों का मत है कि उदयपुर जिले में भूजल दोहन पर कानूनन रोक न लगाई गई तो अगले कुछ सालों में जमीन के भीतर पानी पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।
चार श्रेणी के इलाके
भूजल विभाग ने जिले की भूमि को भूजल के दोहन और पुनर्भरण (रिचार्ज) के तुलनात्मक आधार पर 4 श्रेणियों में बांटा है। पहली सुरक्षित श्रेणी है। इस श्रेणी के क्षेत्रों में भूजल प्रचुर मात्रा में है। यहां जितना पानी जमीन में समाता है, उससे कम मात्रा में बाहर निकाला जाता है। दूसरी श्रेणी अर्धसंवेदनशील है। जिसमें जितना पानी पाताल में जाता है, उसका 70 से 90 प्रतिशत हिस्सा काम में लिया जाता है। तीसरी श्रेणी है संवेदनशील, जिसमें पुनर्भरण जल का 90 से 100 प्रतिशत हिस्सा उपयोग में लिया जाता है। चौथी श्रेणी है अतिसंवेदनशील।
इसमें जमीन में समाने वाले पानी के मुकाबले कहीं अधिक पानी बाहर खींचा जाता है। भूजल विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक जिले की कोटड़ा, खेरवाड़ा व सराड़ा पंचायत समितियों को भूजल उपलब्धता के क्षेत्र में संवेदनशील श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। गिर्वा-उदयपुर, बड़गांव, गोगुंदा, झाड़ोल, मावली, भींडर, सलूंबर और धरियावद पंचायत समितियों को अति दोहित माना गया है।
भूजल पुनर्भरण नहीं होता आसानी से
उदयपुर जिले के भूगर्भ में कठोर चट्टानें यानी हार्ड रॉक की परत है। हार्ड रॉक को मेटामार्फिक रॉक कहते हें। इन चट्टानों को भेदकर पानी अंदर एकत्र होना बहुत मुश्किल होता है। चट्टानों की दरारों से होकर पानी भीतर के जलस्रोतों तक पहुंचता है। इसके विपरीत मारवाड़ अंचल के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर आदि क्षेत्रों में भूजल स्रोतों का भरना अपेक्षाकृत कहीं आसान है। मारवाड़ में बालुई चट्टानें (सेडिमेंट्री रॉक्स) हैं, जिसकी वजह से जल आसानी से पाताल में पहुंचकर संग्रहित हो जाता है।
इनका कहना है
उदयपुर जिले में भूजल उपलब्धता की स्थिति बेहद चिंताजनक है। हार्ड रॉक के कारण वर्षा जल आसानी से धरती में नहीं समा पाता है। घरेलू कार्य, कृषि व व्यावसायिक उपयोग के लिए भूजल का बेशुमार दोहन हो रहा है। जिले की धरियावद पंचायत समिति औसत से अधिक वर्षा होने के बावजूद अति दोहित श्रेणी में शामिल है। उदयपुर जिले को चिंताजनक भूजल स्थिति से बाहर निकालने के लिए यहां भूजल दोहन पर नियंत्रण करना होगा और वाटर हार्वेस्टिंग कार्यक्रम को प्रभावी रूप से लागू करना होगा।
—एस.के.खाब्या, सीनियर हायड्रोलोजिस्ट

जमीन के भीतर भी जलसंकट

भास्कर न्यूज

उदयपुर. भूजल विभाग ने जिले की सभी पंचायत समितियों में उपलब्ध भूजल की मात्रा पर चिंता जताई है। अभी गर्मी शुरू नहीं हुई है, इसलिए पानी की खपत कम है, लेकिन जेठ की तपिश तक पेयजल की खपत में इजाफा होना तय है। जिले की 11 पंचायत समितियों में से 8 को अति दोहित (ओवर ड्राफ्टेड) और 3 को संवेदनशील घोषित किया गया है।
राज्य सरकार के जोधपुर स्थित भूजल विभाग ने उदयपुर की भूजल स्थिति पर चिंता जताई है। विभाग के सीनियर हाइड्रोलोजिस्टों का मत है कि उदयपुर जिले में भूजल दोहन पर कानूनन रोक न लगाई गई तो अगले कुछ सालों में जमीन के भीतर पानी पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।
चार श्रेणी के इलाके
भूजल विभाग ने जिले की भूमि को भूजल के दोहन और पुनर्भरण (रिचार्ज) के तुलनात्मक आधार पर 4 श्रेणियों में बांटा है। पहली सुरक्षित श्रेणी है। इस श्रेणी के क्षेत्रों में भूजल प्रचुर मात्रा में है। यहां जितना पानी जमीन में समाता है, उससे कम मात्रा में बाहर निकाला जाता है। दूसरी श्रेणी अर्धसंवेदनशील है। जिसमें जितना पानी पाताल में जाता है, उसका 70 से 90 प्रतिशत हिस्सा काम में लिया जाता है। तीसरी श्रेणी है संवेदनशील, जिसमें पुनर्भरण जल का 90 से 100 प्रतिशत हिस्सा उपयोग में लिया जाता है। चौथी श्रेणी है अतिसंवेदनशील।
इसमें जमीन में समाने वाले पानी के मुकाबले कहीं अधिक पानी बाहर खींचा जाता है। भूजल विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक जिले की कोटड़ा, खेरवाड़ा व सराड़ा पंचायत समितियों को भूजल उपलब्धता के क्षेत्र में संवेदनशील श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। गिर्वा-उदयपुर, बड़गांव, गोगुंदा, झाड़ोल, मावली, भींडर, सलूंबर और धरियावद पंचायत समितियों को अति दोहित माना गया है।
भूजल पुनर्भरण नहीं होता आसानी से
उदयपुर जिले के भूगर्भ में कठोर चट्टानें यानी हार्ड रॉक की परत है। हार्ड रॉक को मेटामार्फिक रॉक कहते हें। इन चट्टानों को भेदकर पानी अंदर एकत्र होना बहुत मुश्किल होता है। चट्टानों की दरारों से होकर पानी भीतर के जलस्रोतों तक पहुंचता है। इसके विपरीत मारवाड़ अंचल के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर आदि क्षेत्रों में भूजल स्रोतों का भरना अपेक्षाकृत कहीं आसान है। मारवाड़ में बालुई चट्टानें (सेडिमेंट्री रॉक्स) हैं, जिसकी वजह से जल आसानी से पाताल में पहुंचकर संग्रहित हो जाता है।
इनका कहना है
उदयपुर जिले में भूजल उपलब्धता की स्थिति बेहद चिंताजनक है। हार्ड रॉक के कारण वर्षा जल आसानी से धरती में नहीं समा पाता है। घरेलू कार्य, कृषि व व्यावसायिक उपयोग के लिए भूजल का बेशुमार दोहन हो रहा है। जिले की धरियावद पंचायत समिति औसत से अधिक वर्षा होने के बावजूद अति दोहित श्रेणी में शामिल है। उदयपुर जिले को चिंताजनक भूजल स्थिति से बाहर निकालने के लिए यहां भूजल दोहन पर नियंत्रण करना होगा और वाटर हार्वेस्टिंग कार्यक्रम को प्रभावी रूप से लागू करना होगा।
—एस.के.खाब्या, सीनियर हायड्रोलोजिस्ट

नदिया बिक गई पानी के मोल

आलोक प्रकाश पुतुल
कहते हैं सूरज की रोशनी, नदियों का पानी और हवा पर सबका हक़ है। लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं है. छत्तीसगढ़ की कई नदियों पर निजी कंपनियों का कब्जा है. दुनिया में सबसे पहले नदियों के निजीकरण का जो सिलसिला छत्तीसगढ़ में शुरु हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ की इन नदियों में आम जनता नहा नहीं सकती, पीने का पानी नहीं ले सकती, मछली नहीं मार सकती. सेंटर फॉर साइंस एंड इनवारनमेंट की मीडिया फेलोशीप के तहत पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा किए गए अध्ययन का यह हिस्सा आंख खोल देने वाला है. आइये पढ़ते हैं, क्रमवार रूप से यह पूरी रिपोर्ट।


पानी का मोल कितना होता है ?
इस सवाल का जवाब शायद छत्तीसगढ़ में रायगढ़ के बोंदा टिकरा गांव में रहने वाले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार से बेहतर कोई नहीं समझ सकता.
26 जनवरी, 1998 से पहले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार को भी यह बात कहां मालूम थी.
तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था और रायगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था. मध्यप्रदेश के इसी रायगढ़ में जब जिंदल स्टील्स ने अपनी फैक्टरी के पानी के लिए इस जिले में बहने वाली केलो नदी से पानी लेना शुरु किया तो गाँव के गाँव सूखने लगे. तालाबों का पानी कम होने लगा. जलस्तर तेजी से गिरने लगा. नदी का पानी जिंदल की फैक्ट्रीयों में जाकर खत्म होने लगा. लोगों के हलक सूखने लगे.
फिर शुरु हुई पानी को लेकर गाँव और फैक्ट्री की अंतहीन लड़ाई. गाँव के आदिवासी हवा, पानी के नैसर्गिक आपूर्ति को निजी मिल्कियत बनाने और उस पर कब्जा जमाने वाली जिंदल स्टील्स के खिलाफ उठ खड़े हुए. गाँववालों ने पानी पर गाँव का हक बताते हुए धरना शुरु किया. रायगढ़ से लेकर भोपाल तक सरकार से गुहार लगाई, चिठ्ठियाँ लिखीं, प्रर्दशन किए. लेकिन ये सब कुछ बेकार गया. अंततः आदिवासियों ने अपने पानी पर अपना हक के लिए आमरण अनशन शुरु किया.
बोंदा टिकरा के गोपीनाथ सौंरा कहते हैं - "मेरी पत्नी सत्यभामा ने जब भूख हड़ताल शुरु की तो मुझे उम्मीद थी कि शासन मामले की गंभीरता समझेगा और केलो नदी से जिंदल को पानी देने का निर्णय वापस लिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ "
भूख हड़ताल पर बैठी सत्यभामा सौंरा की आवाज़ अनसुनी रह गई. लगातार सात दिनों से अन्न-जल त्याग देने के कारण सत्यभामा सौंरा की हालत बिगड़ती चली गई और 26 जनवरी 1998 को जब सारा देश लोकतांत्रिक भारत का 48वां गणतंत्र दिवस मना रहा था, पानी की इस लड़ाई में सत्यभामा की भूख से मौत हो गई.
सत्यभामा के बेटे कृष्ण कुमार बताते हैं- “इस मामले में मेरी मां की मौत के ज़िम्मेवार जिंदल और प्रशासन के लोगों पर मुकदमा चलना था लेकिन सरकार ने उलटे केलो नदी को निजी हाथ में सौंपने के खिलाफ मेरी मां के साथ आंदोलन कर रहे लोगों को ही जेल में डाल दिया. ”
इस बात को लगभग दस साल होने को आए.
इन दस सालों में सैकड़ों छोटी-बड़ी फैक्ट्रियाँ रायगढ़ की छाती पर उग आईं हैं. पूरा इलाका काले धुएं और धूल का पर्याय बन गया है. सितारा होटलें रायगढ़ में खिलखिला रही हैं. आदिवासियों के विकास के नाम पर अलग छत्तीसगढ़ राज्य भी बन गया है. कुल मिला कर ये कि आज रायगढ़ और उसका इलाका पूरी तरह बदल गया है.
नहीं बदली है तो बस नदी की कहानी.

एक दिन जल विहीन हो जाएगी धरती

एजेंसी

न्यूयॉर्क. खगोलविदों ने दावा किया है कि आज से लगभग 7.6 अरब वर्ष बाद सूर्य हमारी धरती को सुखाकर रख देगा। तब धरती की कक्षा भी परिवर्तित हो जाएगी। ससैक्स यूनिवर्सिटी के खगोलविदों का कहना है कि सूर्य का धीरे-धीरे हो रहा विस्तार धरती की सतह का तापमान बढ़ा देगा, जिससे समुद्रों का पानी वाष्प बनकर उड़ना शुरु हो जाएगा। इसके बाद समुद्र उबलकर सूख जाएंगे और भाप बना पानी उड़कर अंतरिक्ष में पहुंच जाएगा। अरबों साल बाद धरती बेहद गर्म, सूखी और न रहने लायक हो जाएगी।
फैलना शुरू हो जाएगा सूर्य-इससे पहले खगोलविदों ने हिसाब लगाया था कि आखिरकार धरती नष्ट होने से बच जाएगी, लेकिन उन्होंने मरते सूर्य की बाहरी सतह द्वारा पैदा किए जाने वाले प्रभावों का अध्ययन नहीं किया था।
गुरुत्वाकर्षण खिंचाव कम होगा-प्रमुख खगोलविद डॉ. रॉबर्ट स्मिथ ने कहा हमने पहले बताया था कि सूर्य फैलना शुरु हो जाएगा। इससे तेज हवाओं के रूप में इसका भार भी कम होगा। इस कारण धरती पर सूर्य का गुरूत्वाकर्षण खिंचाव कम हो जाएगा। इससे धरती की घूमने की कक्षा बाहरी ओर मुड़ जाएगी।
यह स्थिति सूर्य के फैलने से ठीक पहले होगी। जब धरती अपनी कक्षा से भटककर सूर्य की ओर खिंचेगी तो सूर्य का ताप धरती पर ज्यादा तेज गति से पहुंचना शुरू हो जाएगा और धीरे-धीरे सभी महासागरों का पानी ताप के चलते भाप बनना आरंभ हो जाएगा। परिणामस्वरूप यह सारा पानी अंतरिक्ष की ओर उड़ जाएगा।
शनि घिरा है अदृश्य, आंशिक वलयों से
खगोलविदों ने शनि ग्रह के दो नन्हें चंद्रमा की कक्षाओं के निकट उच्च ऊर्जा वाले कणों के घने गुबार के बीच दरारें खोज निकाली हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि शनि तकरीबन अदृश्य और आंशिक वलयों से घिरा है।
नासा के मुताबिक कैसिनी उपग्रह से ली गई तस्वीरों के जरिये खगोलविद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रानों की अनवरत झड़ी के बीच दो अजीबोगरीब दरारें हैं।
कैसिनी उपग्रह जब शनि के निकट पहुंचा था, उसे इन इलेक्ट्रान की बारिश झेलना पड़ी थी। ये दरारें हाल में खोजे गए शनि के दो चंद्रमा मेथान और एंथ की कक्षाओं के बिल्कुल साथ-साथ-हैं। ये दोनों चंद्रमा मिमास और इंसेलाडस की कक्षाओं के बीच स्थित हैं।

एक दिन जल विहीन हो जाएगी धरती

एजेंसी

न्यूयॉर्क. खगोलविदों ने दावा किया है कि आज से लगभग 7.6 अरब वर्ष बाद सूर्य हमारी धरती को सुखाकर रख देगा। तब धरती की कक्षा भी परिवर्तित हो जाएगी। ससैक्स यूनिवर्सिटी के खगोलविदों का कहना है कि सूर्य का धीरे-धीरे हो रहा विस्तार धरती की सतह का तापमान बढ़ा देगा, जिससे समुद्रों का पानी वाष्प बनकर उड़ना शुरु हो जाएगा। इसके बाद समुद्र उबलकर सूख जाएंगे और भाप बना पानी उड़कर अंतरिक्ष में पहुंच जाएगा। अरबों साल बाद धरती बेहद गर्म, सूखी और न रहने लायक हो जाएगी।
फैलना शुरू हो जाएगा सूर्य-इससे पहले खगोलविदों ने हिसाब लगाया था कि आखिरकार धरती नष्ट होने से बच जाएगी, लेकिन उन्होंने मरते सूर्य की बाहरी सतह द्वारा पैदा किए जाने वाले प्रभावों का अध्ययन नहीं किया था।
गुरुत्वाकर्षण खिंचाव कम होगा-प्रमुख खगोलविद डॉ. रॉबर्ट स्मिथ ने कहा हमने पहले बताया था कि सूर्य फैलना शुरु हो जाएगा। इससे तेज हवाओं के रूप में इसका भार भी कम होगा। इस कारण धरती पर सूर्य का गुरूत्वाकर्षण खिंचाव कम हो जाएगा। इससे धरती की घूमने की कक्षा बाहरी ओर मुड़ जाएगी।
यह स्थिति सूर्य के फैलने से ठीक पहले होगी। जब धरती अपनी कक्षा से भटककर सूर्य की ओर खिंचेगी तो सूर्य का ताप धरती पर ज्यादा तेज गति से पहुंचना शुरू हो जाएगा और धीरे-धीरे सभी महासागरों का पानी ताप के चलते भाप बनना आरंभ हो जाएगा। परिणामस्वरूप यह सारा पानी अंतरिक्ष की ओर उड़ जाएगा।
शनि घिरा है अदृश्य, आंशिक वलयों से
खगोलविदों ने शनि ग्रह के दो नन्हें चंद्रमा की कक्षाओं के निकट उच्च ऊर्जा वाले कणों के घने गुबार के बीच दरारें खोज निकाली हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि शनि तकरीबन अदृश्य और आंशिक वलयों से घिरा है।
नासा के मुताबिक कैसिनी उपग्रह से ली गई तस्वीरों के जरिये खगोलविद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रानों की अनवरत झड़ी के बीच दो अजीबोगरीब दरारें हैं।
कैसिनी उपग्रह जब शनि के निकट पहुंचा था, उसे इन इलेक्ट्रान की बारिश झेलना पड़ी थी। ये दरारें हाल में खोजे गए शनि के दो चंद्रमा मेथान और एंथ की कक्षाओं के बिल्कुल साथ-साथ-हैं। ये दोनों चंद्रमा मिमास और इंसेलाडस की कक्षाओं के बीच स्थित हैं।

गंगा, तू कहां रे

ओम कबीर

इतिहास में गंगा के बारे में उल्लेख है कि राजा भगीरथ ने अपने हजार पुरखों को पवित्र करने के लिए इसे धरती पर लाया था। लेकिन वही गंगा आज इसने लिए अभिशाप बन गई है। गंगा एक्सप्रेस वे इसके अनवरत प्रवाह के बीच अपनी जीवनचर्या बनाने वाले लोगों के लिए बला बन चुकी है। तो क्या बदलते समय के साथ गंगा भी बदल गई है। इसका जवाब शायद हां होगा। गंगा सचमुच बदल गई है। लोगों ने गंगा के साथ खिलवाड़ किया है। अब यह पतित पावनी नहीं रह गई। इसके किनारे बसे शहरों ने इसे मुंह चिढ़ाया है। गंगा कहां तक बर्दाश्त करती। सारी सीमाएं टूट गई थी। गंगा के दोहन के बाद लोगों को विकास की बात आई। तो फिर सामने थी वही गंगा। अपने में सिमटी। लोगों की निगाहों से बचते बचाते। कागजों पर खींच दी गईं रेखाएं। गंगा ने कुछ नहीं कहा। पर विकास की आशंका ने लोगों का जीवन प्रवाह रोक दिया। फिर उनके सामने कुछ नहीं बचा। जो बाकी था वह उनका असहाय जीवन है और आशंकाएं। तीसरा कोई है तो वह गंगा है। मगर लाचार। कुछ दिनों बाद इसके किनारों को चूमते हुए १५० की स्पीड से कारें प्रतिस्पर्धा करेंगी। इसकी लहरों के साथ। मगर लाखों का जीवन तबाह हो जाएगा। कल तक जिस घरों में लोग जीवन के सपने देखते थे उन्हीं घरों के ऊपर से कारें दौड़ेगी। रौंदते हुए। शायद उनके सपनों को। कुछ भी शेष नहीं बचेगा। जो कुछ बचेगा वह सिर्फ और सिर्फ गंगा होगी.

यमुना के जहरीले पानी से घडि़यालों की मौत

नई दिल्ली। चंबल क्षेत्र के घड़ियालों के लिए बुरी तरह प्रदूषित यमुना नदी का जहरीला पानी जानलेवा साबित हो रहा है और इससे अब तक करीब 93 घड़ियाल दम तोड़ चुके हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक घडि़याल विशेषज्ञ फ्रिट्ज हूचजेमेयर के मुताबिक यमुना के प्रदूषित जल में पली-बढ़ी एक खास तरह की मछली उत्तर प्रदेश के चंबल के घड़ियालों तक जहर पहुंचाने का जरिया बन रही है। हूचजेमेयर ने घडि़यालों की कब्रगाह बनते जा रहे उत्तर प्रदेश के चंबल क्षेत्र का दौरा किया और क्षेत्र से टिलिपिया नामक एक अफ्रीकी मछली को पकड़ा। उन्होंने टिलिपिया मछली की त्वचा में बेहद खतरनाक किस्म का जहर पाया।
हूचजेमेयर ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि चंबल के घड़ियाल बड़े चाव से इन मछलियों का सेवन करते हैं। मछली के जरिए विष घडि़यालों में पहुंच जाता है। विष इतना घातक होता है कि सीधे घडि़यालों की किडनी पर असर करता है जिसके कारण उनकी मौत हो जाती है।
टिलिपिया मछली में पाया जाने वाला यह विष कौन-सा है, इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है। हालांकि हूचजेमेयर ने विष की जड़ यमुना के जहरीले पानी में खोजने पर जोर दिया है। उल्लेखनीय है कि पिछले दो माह में करीब 93 घड़ियालों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो चुकी है। घडि़यालों की अचानक मौत को देखते हुए जांच के लिए विशेषज्ञों का एक दल भेजा गया था। अधिकतर घडि़यालों की मौत उत्तर प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाले चंबल इलाके में हुई।
विशेषज्ञों के मुताबिक मगरमच्छ जहर से बच जाते हैं क्योंकि वे मछली के आहार पर ही निर्भर नहीं हैं। मगरमच्छ मेंढक और दूसरी तरह की सुरक्षित मछलियों का सेवन भी करते हैं। जबकि घडि़याल टिलिपिया मछली को बेहद चाव से खाते हैं। इसलिए जहर की चपेट में अधिकतर घडि़याल ही आते हैं। उल्लेखनीय है कि घडि़याल लुप्तप्राय जीवों की सूची में शामिल प्रजाति है। इसलिए उनकी मौत को बेहद गंभीरता से लिया जा रहा है।

मैली हो गई नर्मदा

नदियों में नर्मदा का स्थान श्रेष्ठ माना गया है। कई मायनों में इसे गंगा से भी ज्यादा महत्व है कि तपस्या में बैठे भगवान शिव के शरीर के पसीने से नर्मदा प्रकट हुई। नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अलौकिक सौंदर्य से ऐसी चमत्कारी लीलाएं दिखाई कि खुद शिव-पार्वती हंसते-हंसते हांफने लगे। तभी उन्होंने नामकरण करते हुए कहा- देवी, तुमने हमारे दिल को हर्षित कर दिया। इसलिए तुम्हारा नाम हुआ नर्मदा। नर्म का अर्थ है- सुख और दा का अर्थ है- देने वाली। इसका एक नाम रेवा भी है, लेकिन में नर्मदा ही लोकग्राह्य हो गया।
मध्य प्रदेश के अनुपपुर जिला मुख्यालय से करीब साठ किलोमीटर दूर पूर्वी दिशा में मेकल पर्वत श्रृंखला में समुद्र तल से 1067 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरकंटक पौराणिक महत्व का है बल्कि नर्मदा, सोन समेत छोटी बड़ी कुल ग्यारह नदियों का उद्गम स्थल भी है। इतना ही नहीं, यह सोन और नर्मदा के प्रेम और बिछोह का मूक साक्षी भी है।
इसे प्रकृति की विचित्रलीला कहें या अजीबोगरीब संयोग या फिर निष्फल प्रेम का नतीजा कि एक ही स्थान से निकली दो नदियां सोन और नर्मदा बिल्कुल विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है। सोन लगभग 758 किलोमीटर का सफर तय करके पटना के पास गंगा में विलीन हो जाती है, जबकि नर्मदा तकरीबन 1300 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर गुजरात के अरब सागर में समाहित हो जाती है।
नर्मदा चिर कुंवारी मानी जाती है और इसके पीछे भी प्रणय और परिणय से संबंधित कई पौराणिक गाथाएं हैं। एक कथा के अनुसार राजकुमारी नर्मदा राजकुमार सोनभद्र से विवाह करने को तैयार थी। उसने जोहिला को प्रेम संदेश देकर सोन के पास भेजा, मगर सोन जोहिला पर आसक्त हो गया। जोहिला के आने में विलम्ब होते देख जर्ब नर्मदा विवाह मंडप के निकट पहुंची तो दोनों को एक साथ हंसी-मजाक करते देख हतप्रभ रह गई। तभी उसने सोन की बेवफाई से क्षुब्ध होकर उसे पहाड़ से नीचे धकेल दिया और खुद पश्चिम दिशा की तरफ चल दी। इस प्रकार नर्मदा बिन ब्याही रह गई।
नर्मदा का अमरकंटक में इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि यहां के चौबीस से ज्यादा मंदिरों में बारह तो सिर्फ नर्मदा से संबंधित हैं। एक भाई की बगिया है, जहां कभी नर्मदा भ्रमण करती थी। कपिल धारा जलप्रपात में नर्मदा की जलधारा 150 फुट ऊंचे पहाड़ से नीचे गिरती है, वहीं दुग्धधारा में दस फुट की ऊंचाई से। यहां नर्मदा की अविरल धारा जब चट्टान पर गिर कर व्याप्त रहस्यमयी खामोशी को भंग करती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपना दर्द चीख-चीख बयां कर रही है।
पौराणिक ग्रंथों में नर्मदा का काफी गुणगान मिलता है, पर इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मध्य प्रदेश की जीवनरेखा मानी जाने वाली नर्मदा को अपने उद्गम स्थल से ही ही अस्तित्व की चुनौती मिल रही है। अनियोजित विकास की अंधी दौड़, मनुष्य के स्वार्थ और अधकचरी धार्मिकता ने आज न सिर्फ नर्मदा कुंड को खतरे में डाल दिया है, बल्कि अमरकंटक के नैसर्गिक सौंदर्य, जंगल की हरीतिमा और स्वच्छ पर्यावरण को भी विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। आज हरे-भरे जंगल की जगह कंक्रीट के जंगल उग आए हैं और ब्राह्मी, शंखपुष्पी, गुलबकाबली, सर्पगंधा जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटियां खत्म होती जा रही हैं। जैवी विविधता के समक्ष अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया है। यहां तक कि अमरकंटक का मूल स्वरूप भी खतरे में पड़ गया है। आश्रमों के वैभव विस्तार, अतिक्रमण और खेती के लोभ ने कपिला, गायत्री, सावित्री जैसी नदियों के स्रोतों को ही खत्म कर दिया है। आज नर्मदा भी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। कपिलधारा के ऊपर वह पतली, रुग्ण और निस्तेज दिखती है।
नर्मदा के सौंदर्य पर मंडराते खतरे और विविध आयामी समस्याओं को लेकर संदर लाल बहुगुणा, मेधा पाटेकर, बाबा आम्टे जैसे समाजसेवियों पर्यावरणविदों ने समय-समय पर आवाजें उठाईं, बावजूद इसके सुधार की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई। नतीजतन गंगा की मानिंद नर्मला का जल भी मैला हो गया है।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक सुशील कुमार सिंह ने नर्मदा जल पर अपने चार वर्षों के शोध में पाया कि अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक नर्मदा का जल भयावह रूप से प्रदूषित है। मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, नीलकंठेश्वर आदि स्थानों पर वह ज्यादा प्रदूषित है।

सूखती 'सदानीरा' के सौभाग्य के लिए समागम

आत्मदीप
नर्मदापुरम (बांद्राभान), कैसे लौटाया जा सकता है नदियों को उनसे छीना गया जीवन? नदी संसार के विविध पक्षों पर विचार और काम करने वाले देश-विदेश के करीब 500 सुधीजन यहां नदी किनारे बैठकर इसके उपाय खोजने और सुझाने में जुट गए हैं। यह जमघट होशंगाबाद जिला मुख्यालय से दस किलोमीटर दूर नर्मदा और तवा नदियों के पवित्र संगम तट पर लगा है। 'नर्मदा समग्र' न्यास ने यहां भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव आयोजित किया है। शनिवार से शुरू हुआ यह वैचारिक समागम सोमवार तक चलेगा। इसके लिए पवित्र नर्मदा मैया के रेतीले किनरे पर नर्मदापुरम बसाया गया है। इसमें देश की प्रमुख नदियों के नाम पर अलग-अलग नगर बनाए गए हैं।
सभागार भी नद जल के रंग (एक्वाकलर) का और उसका नदी की ओर का हिस्सा पारदर्शी बनाया गया है। इसमें बैठकर नदी के सामने नदियों की बात करने वालों की चिंता का मुख्य विषय यह है कि कैसे अकाल मौत का शिकार हो रही नदियों को पुनर्जीवन दिया जाए। नदियों में घटता पानी कैसे बढ़ाया जाए। नद जल में बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम कैसे हो। नदियों के किनारे, जमीन और जलग्रहण क्षेत्र को कैसे बचाया जाए। नदियों से जुड़े जन-जीवन, संस्कृति, खेती, जैव विविधता की रक्षा कैसे की जाए। शासन और समाज को नदी का अर्थशास्त्र कैसे समझाया जाए। इन सब महत्वपूर्ण कामों में सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं और समाज की भूमिका क्या हो। तीन दिनों तक चलने वाले विभिन्न सत्रों में इस सब पर व्यापक मंथन होगा।
नर्मदा समग्र के न्यासी, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित मध्य प्रदेश जन अभियान परिषद के उपाध्यक्ष और चिंतक, लेखक अनिल माधव दवे कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय नदी महोत्सव सिर्फ संगोष्ठी नहीं है। इसमें नदियों पर चिंतन और काम करने वालों के साथ नदियों से जुड़े गांव वाले भी जुटे हैं। वे आठ समूहों में बंट कर नदियों से जुड़े 12 विषयों पर अलग-अलग चर्चा करेंगे। उसके निष्कर्षों के आधार पर रपट तो तैयार होती ही, कार्य योजना भी बनेगी। उस पर अमल की शुरुआतभी होगी। सबसे पहले देश की पांचवी सबसे बड़ी नदी और 7 पवित्र नदियों में शुमार नर्मदा में जल आवक बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। केंद्रीय जल आयोग की रपट के मुताबिक मध्य प्रदेश में अमरकंटक से निकल कर गुजरात में खंभात की खाड़ी में गिरने वाली 1,312 किलोमीटर लंबी नर्मदा में बीते डेढ़ दशक में पानी की आवक 50 फीसद घट गई है। नदियों को बचाने की अहम जरूरत शासन की समझ में इसलिए नहीं आती, क्योंकि यह समाज की समझ में नहीं आती।
जब इस जरूरत को समाज समझ लेगा, तब यह सरकार की समझ में भी आ जाएगी। इसलिए हम समाज को समझाने के कदम उठाने जा रहे है।
प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट का भी कहना है कि हमारे दोश् में अभी तक पर्यावरण और नदियों की बदहाली राजनेताओं के सरोकार का विषय नहीं बन पाया है। वैज्ञानिक अपने शोध और आम लोग अपने अनुभव व वेदना के आधार पर जिस विकास को पर्यावरण के लिए घातक बताते हैं, उसे ही क्रियान्वित किया जाता है। देश को 63 फीसद पानी देने वाली गंगा, सिंधु व ब्रह्मपुत्र नदियां ग्लेशियरों के पिघलने से संकट में घिर गई हे। तेजी से बढ़ते उद्योग, रासायनिक खेती, शहरी गंदगी अतिक्रमण और जल ग्रहण क्षेत्र के जंगल कटने से नदियां सिकुड़ती, सूखती और मरती जा रही हैं। आज विश्व की 225 नदी घाटियों पर खतरा मंडरा रहा है। सरकारें और समाज मूकदर्शक बनकर नदियों को मरते देख रहे हैं।
नदी महोत्सव का शुभारंभ करने आए नर्मदा किनारे पले-बढ़े मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना था कि नदियों के संरक्षण व संवर्ध्दन के सरकारी अभियान समाज के सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकते। शासन के अभियान से समाज का जुड़ना जरूरी है। बेहतर यह होगा कि ऐसे अभियानों में समाज आगे चले और सरकार उसके सहयोगी की भूमिका में पीछे चले। इस आयोजन के निष्कर्षों को अमलीजामा पहनाने के लिए सरकार चरणबध्द कार्यक्रम बनाएगी।
भारत में अभी हालात यह हैं कि नदियों के संरक्षण, शुध्दिकरण की किसी भी सरकारी योजना में तटवर्ती लोगों को भागीदार नहीं बनाया गया है। गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े जाने माने पर्यावरणविद जल कार्यकर्ता व लेखक अनुपम मिश्र ने 'नद्य: रक्षति रक्षत:' का मंत्र देते हुए नदियों पर काम करने वाले विभिन्न विचारधाराओं के कार्यकर्ताओं से एक मंच पर आने की अपील की। उन्होंने इस पर पीड़ा जताई कि मनुष्य अपने स्वार्थ के चलते सैकड़ों- हजारों सालों से बहती आ रही नदियों को भी दासी बना लिया है। नदी महोत्सव के सूत्रधार अनिल दवे ने कहा- 'नदी हमारे लिए जीवनदायिनी मां है, जीवनमान इकाई है। उसे टुकड़ों में नहीं, समग्र रूप में देखा जाना चाहिए।
नर्मदा नदी के अध्येता व लेखक और नर्मदा समग्र न्यास के अध्यक्ष अमृत लाल बेगड़ का कहना था कि जल ईश्वर स्वरूप है। वह सर्वव्यापी बादल के रूप में अवतरित होकर धरती पर अपनी रास रचाता है। विश्व में पानी का कोई विकल्प नहीं है। आज बढ़ते उपभोगवाद के कारण नदियों का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है। गंगा- यमुना जैसी महान पवित्र नदियां अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हैं। नदी से सबको पानी तो चाहिए पर नदी में पानी लाने, उसे बढ़ाने की चिंता न के बराबर है। इस मौके पर कई विशेषज्ञ मौजूद थे। उनमें डॉ. एवेल हरनाडाज व इरमा (वेनेज्यूला), डा. एलेटा मैकन (कनाडा), डा. मेन्यूला (आस्ट्रिया), रैनेव (जर्मनी), इनग्रिड जानसन (चिली), केरोला (पेरू), डा. मेनफेड जैक (आस्ट्रेलिया), डा. सुबोध शर्मा (नेपाल ), जहीर खान (बांग्लादेश), भारत के मत्स्य विशेषज्ञ डा. जेपी दुबे, लिम्नोजिस्ट डा. पीके विलसरे, आईआईटी रूड़की के डा. यूसी चौबे व आईआईएम इंदौर के डा. एस वेंकट प्रमुख हैं। उनके अलावा देश के प्रमुख कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित जल संरक्षण कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह, नदी विशेषज्ञ राधा भट्ट, दीनदयाल शोध संस्थान, नई दिल्ली के सचिव भरत पाठक, मप्र राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री डा. सोमपाल शास्त्री, मप्र विज्ञान व प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक डा. महेश शर्मा, चिंतक गोविंदाचार्य, पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री प्रहलाद पटेल, संस्कृतिकर्मी पूर्व सांसद नीतिश भारद्वाज (टीवी धारावाहिक महाभारत के 'कृष्ण'), पूर्व शिक्षा मंत्री राजकुमार पटेल, मप्र प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष व आयोजन समिति के संयोजक डा. एसपी गौतम, मप्र जन अभियान परिषद के कार्यकारी निदेशक और खंडवा जिला पंचायत के सीईओ के नाते जल संरक्षण का उल्लेखनीय काम कर चुके राजेश गुप्ता भी मौजूद थे।
मां नर्मदा की प्रतिमा के आगे दीप प्रज्ज्वलित कर नर्मदा की 41 सहायक नदियों का जल अर्पित कर और नर्मदा स्तुति का गान कर नदी महोत्सव का श्रीगणेश किया गया।

पर्यावरण कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है खनन व वन माफिया

नई दिल्ली। खनन और वन माफिया पर्यावरण कानून को रौंद रहे हैं। राजनेताओं व नौकरशाहों से उनकी सांठगांठ के नतीजे जमीनी स्तर पर दिखने लगे हैं। ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की अगुवाई में जुटे न्यायविदों, वरिष्ठ वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शनिवार को इस बात पर भी चिंता जताई कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले का हवाला देकर प्रभावित राज्यों की निचली अदालतें इस बाबत फरियाद सुनने से मना कर दे रही हैं।
'पर्यावरण कानूनों पर अदालती जरिया' विषय पर आयोजित सेमिनार के उद्धाटन के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने पर्यावरण कानूनों की अनदेखी पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि उनके समय में सुप्रीम कोर्ट ने ताज मामले में स्वत: संज्ञान लेकर वहां की औद्योगिक इकाइयों को बंद कराया था। आज खनन के वन माफिया सरकारी महकमों की सहायता लेकर अपने मंसूबे कामयाब कर रहा है।
उन्होंने साफ किया कि अदालत के फैसले में सरकारी पक्ष की प्रस्तुति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लिहाजा सरकारी तंत्र में इस बाबत दृढ़ संकल्प और कार्रवाई ही वन व खनन माफिया पर अंकुश लगा सकती है।
ओडीशा की नियामगिरि पहाड़ियों में बाक्साइट के खनन संबंधी याचिका पर सुप्रीमम कोर्ट की हरी झंडी पर इस बाबत संघर्षरत प्रफुल्ल सामंतरा ने कहा कि खनन माफिया ने अदालत को गुमराह किया। उन्होंने सरकारी तंत्र से सांठगांठ कर झूठ बोला कि परियोजना में वन भूमि का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, जबकि हकीकत है कि बाक्साइट के खनन व संयंत्र दोनों में वन भूमि का इस्तेमाल हो रहा है। इस बाबत वरिष्ठ वकील वेंकटमणि ने कहा कि सर्वोच्च अदालत का काम केवल फैसला या आदेश देना ही नहीं होना चाहिए बल्कि सरकार को जन सरोकार के लिए काम करने के लिए प्रेरित भी करना चाहिए।
इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय पारिख और संजय उपाध्याय ने भी अपने विचार रखे। पारिख ने कहा कि विश्व व्यापार संगठन सरकार पर हावी है। हर जगह मुनाफे व बाजार का मापदंड है। अदालतों को भी इस बाबत सतर्क रहना होगा।
संजय उपाध्याय ने गोवा में टाटा की हाउसिंग सोसाइटी के अदालती रोक और फिर सरकारी शह के बाद रोक हटाने के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि अदालतों को यह ध्यान देना चाहिए कि पर्यावरण कानून केवल कागजों में ही लागू न हो। खनन व वन माफिया केवल 'खानापूर्ति' कर प्राकृतिक स्रोतों का दोहन न कर सकें।
वक्ताओं ने विश्व के दूसरे देशों का हवाला देकर चिंता जताई कि कई देश अपने संसाधनों को बचा रहे हैं। प्राकृतिक स्रोत होने के बावजूद वे उनका आयात करते हैं, जबकि भारत में सरकारों ने इस बाबत आंख मूद ली है। इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट के दर्जनों फैसलों की चर्चा हुई। विशेषज्ञों ने इस बाबत मांग की कि सुप्रीम कोर्ट को खुद अपने फैसलों की निगरानी करने के लिए एक 'सेल' बनाना चाहिए ताकि फैसलों की आड़ लेकर जन सरोकारों को कुचला नहीं जा सके।

महाराष्ट्र के चंद्रपुर शहर में पानी वितरण निजी हाथों में

पूंजीवाद की प्रकृति की जरूरत यह होती है कि वह उपभोगवाद को और बढ़ाये। उपभोग इसकी आवश्यकता होती है। एक दिन 'द टाइम्स आफ इंडिया' के संपादकीय की मुख्य पंक्तियां 'उपभोग और आडंबर थी' थी। उसमें लिखा गया था कि यह अच्छी बात है कि आप अमीर किसान से कर मत लो ताकि वह ज्यादा से ज्यादा गाड़िया ले सके। यह टाइम्स आफ इंडिया की सलाह थी। इस सलाह से हमारे वाणिज्य मंत्री कमलनाथ सहमत हैं। इस साल 6 जनवरी को 'हिन्दुस्तान टाइम्स' ने एक विलासप्रियता सम्मेलन (लक्जरी कांफ्रेंस) करवाया। उस सम्मेलन में कमलनाथ ने कहा- 'विलासप्रियता केवल अमीरों की बात नहीं बल्कि यह गरीबों के लिए भी है। आप जितना ज्यादा शैम्पेन पियेंगे उतना ज्यादा गरीबों को काम मिलेगा।' हम सभी इसका मुकाबला करेंगे? इसके लिए हमारी रणनीति क्या होगी? आप ध्यान केंद्रित कीजिए क्योंकि यह साल और अगला साल विश्व बैंक और आई. एम. एफ. के लिए भारत में निजीकरण के ख्याल से विशेष वर्ष रहे हैं। यह प्रक्रिया बहुत पहले ही शुरू हो चुकी है।
निजीकरण और हमारी रणनीति :
महाराष्ट्र के चंद्रपुर शहर में पानी वितरण निजी हाथों में चला गया है। पानी के निजीकरण के परिणामस्वरूप यह हुआ कि सारा पानी गरीब इलाकों से अमीरों के इलाकों में जाने लगा। क्योंकि गरीब आदमी पानी का भुगतान नहीं कर सकता है। महाराष्ट्र ने यह काम पायलट प्रोजेक्ट के तहत लिया है। पानी वितरण का निजीकरण इस धरती के अंतिम संसाधन के रूप में बचा है जिसका निजीकरण होना अब तक शेष था। अगर आपको याद हो कि 2001 में सरकार ने यह घोषणा की थी कि 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम के तहत हम लोग गोल्फ मैदान बनवायेंगे। गोल्फ का मैदा काम के लिए अनाज कार्यक्रम के साथ! प्रतिवर्ष एक गोल्फ के मैदान में 18 लाख लीटर पानी की खपत होती है। राजस्थान के गांव को अगर तीन महीने छोड़ दिया जाए तो भी 18 लाख लीटर पानी इकट्ठा नहीं हो पायेगा। पहली रणनीति तो यही होनी चाहिए कि मूलभूत संसाधन ओर उपयोग के निजीकरण मत होने दीजिए। पहले ही पानी के निजीकरण को लेकर वे कुछ जगहों पर सफल हो चुके हैं। क्या आप जानते हैं यह कितना बुरा होगा। यहां तक कि वसंत विहार और चाणक्यपुरी में रहने वाले अमीर लोग भी पानी के निजीकरण का विरोध कर रहे हैं। कल्पना कीजिए कि गरीब लोग क्या करेंगे। पानी के निजीकरण के सवाल पर आप एक बड़ा मंच तैयार कर सकते हैं। किसान, गरीब और भूमिहीन मजदूर लोग समाप्त हो चुके हैं। अगर पानी निजी हाथों में एक बार चला गया तो पानी आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएगा। अत: पानी के निजीकरण पर एक लंबी लड़ाई होनी चाहिए। हम पानी के निजीकरण को इजाजत नहीं दे सकते हैं। स्वास्थ्य के निजीकरण का मुद्दा पहले ही हमसे दूर जा चुका है लेकिन जो हमारे पास शेष है वह सार्वजनिक हाथों में ही रहे, इसके लिए हमें लड़ना होगा। दूसरी रणनीति यह होनी चाहिए कि आप स्थानीय मुद्दों और स्थानीय समस्याओं की उपेक्षा नहीं करे। भूमि की समस्या पर इस देश में पिछले पचास वर्षों में कोई चर्चा नहीं हुई। यह मुद्दा अभी भी अधूरा और शेष है। हमारे देश में भूमि पर एकाधिकार, संसाधनों के अधिकार को लेकर बेईमानी, जंगल पर किसका अधिकार होगा आदि आज तक ज्वलंत समस्या के रूप में बरकरार हैं। इस पर बात चलानी होगी। ध्रुवीकरण को सतही तौर पर दोषी ठहराने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। दूसरी रणनीति यह हो कि हमारे देश के मूलभूत संसाधनों के स्वामित्व नियंत्रण के क्या अधिकार हैं, इसकी स्पष्टता के सवाल को लेकर लड़ना होगा। तीसरी रणनीति ध्रुवीय स्तर पर बहुत नियत बिन्दुओं को लेकर ही तैयार किया जाना चाहिए। आप जानते हैं सरकार बुरी तरह से सब कुछ बेच चुकी है। यहा तक कि विश्व व्यापार संघ के अंतर्गत जो भी प्रावधान मौजूद थे उसका उपयोग हम नहीं कर पाये। उदाहरण के तौर पर दुनिया में बाजार की मुक्त व्यवस्था के कारण आज हम सूती से बहुत जुड़ गए हैं। भारतीय सूती आप आयात और निर्यात बगैर किसी शुल्क के कर सकते हैं। निजी व्यापारी यहां आ सकते हैं। उन्होंने सार्वजनिक उपलब्धता केंद्रों को बंद करके उसकी जगह बहुत सारे निजी व्यापार केंद्र खोल दिये हैं। यवतमाल में आज का सबसे बड़ा कपास का खरीददार बिरला एग्रो है। अब छोटै व्यापारी खरीदार नहीं रहे। हमने न्यूनतम कर और टैरिफ की व्यवस्था लागू कर दी इसलिए अप आके देशी उत्पादों ाके समाप्त कर दिया जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने यह व्यवस्था लागू की थी। अगर आपको याद हो उस समय कृषि के उत्पाद पर मात्रात्मक प्रतिबंध लगाया गया था और आयात शुल्क हटा दिया गया था। इसलिए बिल क्लिंटन भारत आये थे। अब जॉर्ज बुश आये। मैं समझता हूं कि यह भी राष्ट्रीय बहस का एक मुद्दा है कि आयात से प्रतिबंध क्यों हटा दिया गया? क्या आयात हो, इस पर बहस होनी चाहिए। पंजाब और हरियाणा के किसान के गेहूं की दर से सरकार गेहूं 50 प्रतिशत अधिक मूल्य पर आयात कर रही है। सरकार गेहूं उस समय बाहर के देशों से आयात कर रही है जब पंजाब में गेहूं की नई फसल तैयार होकर बाजार में आयी है। इन नीतियों के चलते पंजाब के किसानों के उत्पाद का मूल्य गिर गया। सरकार आस्ट्रेलिया को गेहूं के लिए 50 प्रतिशत अधिक मूल्य देने को तैयार है। अत: इन तथ्यों के आधार पर भारत को अपने उत्पाद को विदेश में सस्ते दरों पर बेचने के अधिकार और कृषि उत्पादों पर मात्रात्मक अवरोध के अधिकारों की समीक्षा करनी चाहिए। चौथी रणनीति यह होनी चाहिए कि हम अपने स्वार्थों को थोड़ा कम करें और राष्ट्र के हित में एक मंच बनायें। पिछले दस सालों में हमने क्या किया है? हम लोग एक मोर्चा तैयार करें फिर संयुक्त राज्य से निजी व्यापारों में कटौती करें और दूसरे देशों पर भी कुछ प्रतिबंध लगायें। यह हम लोगों ने बहुत सारे मुद्दों पर किया है। अगर यह सरकारी स्तर पर नहीं यिका जा सकेगा तो इसे समाज के स्तर पर करना होगा। आप जानते हैं कि भारत के लोगों ने 2004 के चुनाव में ऐसा कर दिखाया है। उरूग्वे के लोगों ने निजीकरण पर रोक लगाने के लिए देश के संविधान को ही बदल डाला। एक आदमी बिजली के बगैर रह सकता है, परन्तु पानी के बगैर कल्पना भी बेमानी होगी। सके लिए लड़ाई शुरू होने जा रही है और यह होकर रहेगी। महाराष्ट्र में पहले ही एक कानून लागू हो चुका है। महाराष्ट्र जल संसाधन नियंत्रण प्राधिकरण पूरे तौर पर पानी से समाज के मालिकाना को समाप्त कर देगा। इससे सार्वजनिक जल निजी हाथों में चला जाएगा। आपकी अपनी लड़ाई किस बात के लिए है देख सकते हैं। अब अंतिम बात कहना चाहूं कि आप अपनी रणनीति को चुन सकते हैं। आप अपनी रणनीति तय कर सकते हैं। लेकिन आप गैर राजनीतिक होने का चयन नहीं कर सकते हैं। आपके पास कोई और विकल्प नहीं है।
स्वतंत्र मिश्र

संकट में घिरा पानी

अरविन्द कुमार शुक्ल

पिछली सदी के सारे युध्द तेल के लिए हुए, लेकिन इस सदी का युध्द पानी के लिए होगा। हम उस देश के वासी हैं, जहां जल पत्नी के लिए पति के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक तरह यह कहावत प्रसिध्द है कि पैसे को प्राण के पीछे कमाना और पानी की तरह बहाना चाहिए तो दूसरी तरफ यह कहावत भी प्रसिध्द है कि पति मर जाए, पर सर का घड़ा न गिरे। यह दोनों कहावतें एक ही देश भारत में कही जाती हैं। जी हां, जहां पैसे और पानी से अघाए लोग इसे बहाने की बात करते हैं, वहीं गरीबों से पैसे और बुंदेलखंड की महिलाओं से पानी की महत्ता का पाठ पढ़ने पर दोनों के बारे में एक देश की तस्वीर साफ हो जाती है। बुंदेलखंड समेत देश के तमाम पहाड़ी और पठारी भाग ऐसे हैं जहां महिलाओं की आधी उम्र केवल पानी भरने में ही खत्म हो जाती है।
लेकिन पानी के संदर्भ में देखें तो हमारी सरकार भी इन्हीं कहावतों की तरह ही द्वैत प्रकृति अख्तियार करती है। एक तरफ तो सरकार रेन वाटर हार्वेस्टिंग की बात करती है तो दूसरी तरफ देशी-विदेशी कंपनियों को टेंडर देकर भूगर्भ जल तक का दोहन करवाती है। असमान उत्पादन ने समूचे विश्व में पर्यावरणीय असंतुलन को बढ़ाया है। ऐसे में यह जरूरी है कि हमें विकास की योजनाएं बनाते समय प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उससे होने वाले दुष्प्रभावों का भी परीक्षण करना चाहिए।
जल प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार है। इसे प्राथमिक संसाधन का दर्जा भी प्राप्त है। यह मनुष्य की उत्तरजीविता, कृषि और औद्योगिक विकास और जैव समुदाय को संतुलित विकास रखने के लिए जरूरी है। इन सबके बावजूद जानने योग्य बात यह है कि हमारे द्वारा केवल दशमलव पांच फीसद जल ही उपयोग में लाया जाता है। जल का 97 फीसद हिस्सा समुद्र और झीलों में है। 2.5 फीसद बर्फ और ग्लेशियर है। इसके बावजूद यह अचंभित करने वाली बात है कि दुनिया के कई भागों में शुध्द जल के वितरण की स्थिति काफी दयनीय है। इसकी गंभीरता को वर्ल्ड वाटर कमीशन की रिपोर्ट से आसानी से समझा जा सकता है। इसके अनुसार 2025 तक हमें बीस फीसद की बढ़ोतरी अपने शुध्द जल के संरक्षण में करनी होगी क्योंकि तब दुनिया को आबादी छह अरब होगी। इस पर विश्व बैंक के उपाध्यक्ष मेल शेरागेल्डिन का यह कथन भी काफी समीचीन है कि इस सदी के सारे युध्द तेल के लिए लड़े गए। लेकिन 21वीं सदी का युध्द पानी के लिए होगा। (1995 की रिपोर्ट)
संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन के अनुसार, एशिया में शुध्द जल संरक्षण की उपलब्धता महज तीन हजार क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष है। भारत में 2005 से पहले यह एक हजार क्यूबिक मीटर से भी कम रही है। यह स्थिति खराब जल प्रबंधन का परिणाम है जिसे तेजी से बढ़ती जनसंख्या वाले राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।
नैग के अनुसार, भारत का योगदान प्रतिवर्ष चार सौ मिलियन हेक्टेयर जल ग्रहण करने का है। देश जल के अतिशय दोहन को इसी राह पर चलता रहा तो 2050 तक जल की स्थिति का भयानक होना तय है। तब यहां कुल जल की उपलब्धता 1403 क्यूबिक होगी और मांग 1700 क्यूबिक मीटर की होगी।
देश-दुनिया की कई तस्वीरों से रू ब रू कराती आंकड़ों की इस झलक की जमीनी हकीकत यानी अपने आस-पास देखते हैं। मतलब चर्चा अब देश के संदर्भ में। भारत में कुछ प्रदेशों को छोड़कर भू-जल की स्थिति सामान्यतया ठीक रही है। अब भूजल के अत्यधिक दोहन से बहुत से क्षेत्रों का जलस्तर नीचे जा रहा है। औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण सतही जल प्रदूषित हो रहा है। इस स्थिति में वर्षा जल का संचयन, स्वच्छ जल की मांग और आपूर्ति के अंतर को कम करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वैसे देश में सिंधु घाटी सभ्यता (300- 1500 ई. पू.) का गौरवशाली इतिहास भी हमें सबक सिखाने के लिए काफी है। कच्छ महत्वपूर्ण स्थल खंडीर टापू, धौलावीरा में वर्षा जल से संचित करने वाले अनेक जलाशय थे। ये जलाशय पूर्ण रूप से वर्षा जल संचयन और संरक्षण के लिए थे, क्योंकि भूजल खारा एवं कठोर था इसलिए प्राय: खेती किसानी समेत मीठे जल की जरूरतों के लिए किसान इन पर निर्भर थे। पिछले पंद्रह बीस वर्षों में भूजल में दस से पंद्रह मीटर तक की गिरावट आई है। कहीं-कहीं तो इससे भी ज्यादा। उत्तर प्रदेश में 1991 में सत्रह विकास खंड अतिदोहन की श्रेणी में थे जो 2002 में पचास से अधिक हुए और ये लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसका परिणाम कुएं, हैंडपंप और सूखते बोरबेल्स हमारे सामने हैं। पश्चिम के जनपदों में तो यह समस्या और भी गंभीर है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते सतही जल अत्यंत प्रदूषित हो गया है। उत्तर भारत की प्रमुख नदियां गंगा, यमुना, गोमती, केन इसका बेहतर उदाहरण है। पेयजल की आपूर्ति के लिए भी इसका दोहन बढ़ा है। लेकिन यह बहुत मामूली है।

नाइजीरिया में बांध के ढहने से 40 लोगों के मरने की आशंका

Nigeria
उत्तरी नाइजीरिया में एक बांध के टूटने से गुसाऊ शहर में बाढ़ आ जाने की वजह से कम-से-कम 40 लोगों के मरने की आशंका है ।
अधिकारियों ने बताया कि शनिवार को जब बांध में दरार आई तो करीब 500 घर बाढ़ में बह गए ।
अधिकारियों ने बताया कि भारी बारिश के बाद बांध के पीछे पानी के खतरे के निशान से ऊपर पहुंच जाने के बाद बांधकर्मी बाढ़ द्वारों को नहीं खोल पाए । पानी के दबाव की वजह से बांध की संरचना टूट गई ।
यह बांध ज़मफारा प्रांत की राजधानी के लिए पानी का मुख्य स्रोत रहा है ।
प्रांतीय गवर्नर अहमद यारिमा ने नाइजीरिया सरकार से भुक्तभोगियों को मदद पहुंचाने की अपील की है ।

हिमालय क्षेत्र में भूकंप की चेतावनी

भारत और अमरीका के वैज्ञानिकों के एक दल ने हिमालय क्षेत्र में एक बड़ा भूकंप आने की चेतावनी दी है.
चिंता के विषय
•भारत और तिब्बत एक दूसरे की तरफ़ हर शताब्दी में दो सेंटीमीटर सरक रहे हैं
•इस प्रक्रिया से बनने वाला दबाव इकठ्ठा होता जा रहा है

वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंप से बांग्लादेश, भूटान, भारत और पाकिस्तान के कम से कम पांच करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं.
भारत में पिछले दशक पांच बड़े भूकंप आए. लेकिन भूवैज्ञानिकों को आशंका है कि सबसे भयानक भूकंप आना अभी बाकी है. यह भविष्यवाणी कई तरह के भौगोलिक प्रमाणों के आधार पर की गई है. हिमालय पर्वत शृंखला ऐसे स्थान पर है जहां पृथ्वी की दो परतें मिलती हैं.

पृथ्वी की गति
दूरसंवेदी उपकरणों से पता चला है कि भारत और तिब्बत एक दूसरे की तरफ़ प्रति वर्ष दो सेंटीमीटर की गति से सरक रहे हैं. इस प्रक्रिया से हिमालय क्षेत्र पर दबाव बढ़ रहा है. अमरीका के कॉलारॉडो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रॉजर बिलहैम के नेतृत्व वाले वैज्ञानिकों के एक दल का कहना है कि इस दबाव को कम करने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा है और वह है भूकंप. आज हिमालय में संभावित भूकंप की वजह से गंगा के मैदानों में रहने वाले अधिकतर कस्बों और गांवों को ख़तरा है
बिलहैम, गौर और मोलनर, साइंस पत्रिका के लेखक
इन वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 200 वर्षों में हिमालय क्षेत्र में छह बड़े भूकंप आ चुके हैं.

साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस लेख में कहा गया है कि "1950 में हिमालय क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के बाद से भारत की आबादी दोगुनी हो गई है. गंगा के मैदान में शहरी आबादी 1905 में आए भूकंप के बाद से दस गुणा बढ़ चुकी है. उस वक़्त इमारतों के गिरने से साढ़े उन्नीस हज़ार लोग मरे थे. "आज हिमालय में संभावित भूकंप की वजह से गंगा के मैदानों में रहने वाले अधिकतर कस्बों और गांवों को ख़तरा है

मध्य प्रदेश के जलक्षेत्र में विश्व बैंक की परियोजनाएं

भाग – 3
जल क्षेत्र पुनर्रचना परियोजना
इसी प्रकार सितंबर 2004 में विश्व बैंक से 39,6 करोड़ डॉलर (1782 करोड़ रूपये) का कर्ज मिला है। इस कर्ज से ''मध्यप्रदेश जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना'' संचालित की जा रही है जिसके तहत 1986 के पूर्व निर्मित 654 छोटी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं तथा नहर तंत्रों का सुदृढ़ीकरण एवं आधुनिकीकरण किया जाना है। इससे प्रदेश के 30 जिलों में 4,95,000 हेक्टर में विश्वसनीय सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। कर्ज दस्तावेज में कहा गया है कि जीर्णशीर्ण सिंचाई तंत्रों के कारण वर्तमान में इसके आधे क्षेत्र में ही सिंचाई उपलब्ध हो पा रही है। हालांकि इस कर्ज का उपयोग पाँच नदी कछारों (चंबल, सिंध, बेतवा, केन और टोंस) में ही किया जाना है। लेकिन इसकी शर्तों के तहत किये जाने वाले नीतिगत बदलावों का प्रभाव पूरे राज्य के किसानों पर पड़ रहा है। अभी तक मिले संकेत बताते हैं कि राज्य पानी के निजीकरण की दिशा में बढने लगा है।
नया सिंचाई कानून - 27 नवंबर 2004 को जिस दिन प्रदेश की मंत्रिपरिषद् ने विश्व बैंक के इस कर्ज का अनुमोदन किया उसी दिन 'मध्यप्रदेश सिंचाई में कृषकों की भागीदारी (संशोधन) विधेयक 2004 ' को भी स्वीकृति दी।
सिंचाई दरों में वृध्दि - 16 नवंबर 2005 के केबिनेट निर्णय में सिंचाई योजनाओं के रखरखाव खर्च की पूर्ति हेतु सिंचाई दरों में प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत वृध्दि का निर्णय ले लिया गया। अब बगैर किसी निर्णय के परियोजना के समापन तक ये दरें बढ़ाई जाती रहेंगी। इसका अर्थ है कि जो किसान वर्ष 2005 में सिंचाई पर 100 रूपए प्रतिवर्ष खर्च कर रहा होगा उसे योजना समाप्ति तक 249 रूपए यानी ढाई गुना अधिक और 10 वर्ष बाद 620 रूपए यानी 6 गुना से अधिक राशि खर्च करनी होगी।
भू-व्यपवर्तन कानून में ढील - 4 अक्टूबर 2007 के केबिनेट निर्णय में ''आवास एवं पर्यावास नीति 2007'' के बहाने कृषि भूमि के गैरकृषि कार्यों में उपयोग हेतु अनुमति की प्रथा समाप्त कर दी गई है। हालांकि यह शर्त विश्व बैंक द्वारा वित्तापोषित जेएनएनयूआरम में शामिल थी लेकिन इससे रियल ऐस्टेट कारोबारियों द्वारा बड़े पैमाने पर कृषि जमीन देने से कृषि क्षेत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।
जल उपभोक्ता समूह - 2 वर्ष पूर्व प्रदेश में जल उपभोक्ता समूहों के चुनाव जोर-शोर में दलीय समर्थन के आधार पर हुए। इन चुनावों में धन का उपयोग आम चुनावों के बराबर ही देखने में आया। जल उपभोक्ता समूहों के चुनावों के दौरान अखबारों के पूरे पृष्ठ के विज्ञापन देखने को मिले जो सिध्द करता है कि अब यह क्षेत्र भी दबंगों के हाथों में जा रहा है।
नियामक तंत्र - दिसंबर 2005 तक जल नियामक तंत्र (State Water Tariff/Rights Regulatory Commission) से संबंधित कानून का प्रारूप तैयार हो जाना चाहिए था जो तैयार तो हो चुका था लेकिन अभी तक इसे विधानसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है लेकिन प्रक्रिया जारी है। 10 मई 2007 को भोपाल में ''जल नियामक आयोग के गठन की आवश्यकता'' पर विषय प्रोजेक्ट उदय (एडीबी सहायतित परियोजना) द्वारा एक कार्यशाला आयोजित की गई। प्रोजक्ट उदय के परियोजना संचालक श्री हरि रंजन राव ने कहा कि नियामक आयोग की आवश्यकता जैसे विषय पर कार्यशाला आयोजित करने वाला मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य है। इसके बाद अब जल नियामक कानून को अंतिम रूप् देने हेतु अगस्त 2007 में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक साधिकार समिति (High Power Panel) बना दी गई है। समिति में नगरीय प्रशासन मंत्री, नगरीय प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव सहित कुल 6 सदस्य हैं।

वर्तमान स्थिति
भौतिक कार्य - जून 2007 तक मिली जानकारी के अनुसार प्रदेश सरकार को विश्व बैंक से मात्र 13,289 करोड़ रूपये मिल पाए थे जो कि कुल कर्ज का मात्र 6.92% है।
परियोजना के तहत प्रदेश के पांच नदी कछारों के अंतर्गत आने वाले 654 पुराने बांधों और उनकी नहरों का आधुनिकीकरण किया जाना प्रस्तावित है। 6 अक्टूबर 2007 की जल संसाधन विभाग की विभागीय समीक्षा बैठक के दौरान 177 पुराने बाँधों और नहरों के आधुनिकीकरण का काम प्रारंभ होने की बात कही गई है। लेकिन विभाग की 22 नवंबर 2007 की विज्ञप्ति के अनुसार पहले चरण में 175 स्कीम माडर्नाइजेशन प्लान (एस.एम.पी.) विश्व बैंक को प्रस्तुत किए जाने हैं जिनमें से अब तक 146 प्लॉन प्रस्तुत किए जा चुके हैं। प्रस्तुत किए गए एसएमपी में से 22 नवंबर 2007 तक 46 को छोड़ कर शेष को विश्व बैंक ने अनापत्ति प्रमाण-पत्र (NOC) जारी कर दिए थे।
इसके अतिरिक्त परियोजना के तहत दिए जाने वाले कुल 15 सलाहकारी ठेकों में से जून 2007 तक उत्पादकता सुधार, डिजाईन और क्रियांवयन सहायता तथा टोपोग्राफिक एवं केडेस्ट्रेल सर्वे संबंधी 3 ठेके दिए जा चुके हैं।
दुबारा टेण्डर - जून 2006 में चम्बल दाई मुख्य नहर के 83 किमी से 169 किमी के 77 करोड़ रूपए के 2 अलग-अलग टेण्डर जारी किए गए थे। यही टेण्डर जून 2007 में पुन: जारी किए गए। कुल मिलाकर परियोजना 2 वर्ष पिछड़ गई है। इसके बावजूद कार्य की प्रक्रिया, उनका निरीक्षण, दस्तावेजों का उत्ताम रखरखाव और उपभोक्ता संतुष्टि के मापदण्ड के आधार पर विश्व बैंक सहायतित इस परियोजना को ISO 9001-2000 प्रमाण पत्र दे दिया गया है।
& डॉलर-रुपया विनिमय दर कर्ज स्वीकृति के समय की है।
मंथन अध्ययन केन्द्र, दशहरा मैदान रोड़, बड़वानी (मध्य प्रदेश) 451 551
फोन - 07290 222857ए ईमैल - manthan.kendra@gmail.com

मध्य प्रदेश के जलक्षेत्र में विश्व बैंक की परियोजनाएं

अधोसंरचना विकास हेतु कंपनी
मध्यप्रदेश की मंत्रिपरिषद ने 22 नवंबर 2007 को नगरीय निकायों के लिए 'मध्यप्रदेश शहरी अधोसंरचना कोष'4 गठित करने संबंधी निर्णय लिया। क्योंकि ये निकाय बाहरी वित्तीय ऐजेंसियों से लिये जाने वाले कर्ज की मार्जिन मनी भी चुकाने की स्थिति में नहीं है। उदाहरण के लिए एडीबी सहायतित योजना में नगरनिकायों को भी अपना अंशदान देना है। 300ण्5 लाख डॉलर की पूरी परियोजना में से अकेले इंदौर में करीब आधी राशि (127.7 लाख डॉलर).. खर्च होगी। लेकिन नगरनिगम की माली हालत ऐसी नहीं है कि वह अपने हिस्से का अंशदान 71ण्70 करोड़ रुपये जुटा पाए। इसलिए वर्ष 2005 – 06 के बजट प्रस्ताव में इस अंशदान राशि हेतु IFC तथा अन्य वित्ताीय संस्थाओं से ऋण लेने की संभावना तलाशने की चर्चा की गई है। अन्य नगरनिकायों की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है।
सबका एजेण्डा एक -
हाल ही में ब्रिटिश सरकार के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (DFID) ने लगभग 350 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता से मध्यप्रदेश में ''गरीबोन्मुख शहरी सेवाएँ'' कार्यक्रम शुरू किया है। इस राशि में से लगभग आधी राशि एडीबी परियोजना मे शामिल प्रदेश के चार शहरों भोपाल, ग्वालियर, इन्दौर एवं जबलपुर में झुग्गी बस्तियों एवं उनके रहवासियों के विकास के लिए संचालित कार्यों पर व्यय की जाएगी। इसके बारे में कहा गया है कि यह कार्यक्रम गरीबोन्मुखी जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन तथा अन्य वित्ता पोषक एजेन्सियों द्वारा प्रदत्ता कार्यक्रमों एवं राज्य शासन के कार्यक्रमों का 4 मध्यप्रदेश शहरी अधोसंरचना कोष में राज्य शासन का अंशदान 20 करोड़ रुपये होगा जिसके लिये ''मध्यप्रदेश नगरीय अधोसंरचना एवं वित्तीय सेवाएं मर्यादित'' (MP Urban Infrastructure and Financial Services Limited) का गठन किया जायेगा। इस कंपनी में 26 फीसदी अंश राज्य शासन के तथा शेष 74 फीसदी अंश निजी क्षेत्र की कंपनियों के रखे जायेंगे। इस कोष को पूल्ड फाईनेंस डेवलपमेंट फण्ड (पी.एफ.डी.एफ.) योजना के अंतर्गत राज्य साझा वित्ता इकाई (एस.पी.एफ.ई.) के रुप में नामांकित किया जायेगा।
.. हाल ही में डॉलर का मूल्य गिरने से इस परियोजना लागत बढ़ कर करीब 140 लाख डालर से अधिक हो चुकी है।
... प्रधानमंत्री द्वारा ली गई जेएनएनयूआरएम की पहली समीक्षा बैठक में 9 अक्टूबर 2007 को मदृप्रदृ के नगरीय प्रशासन आयुक्त श्री मलय श्रीवास्तव ने बताया कि नेहरू मिशन का रिफार्म एजेण्डा लागू करने में मध्यप्रदेश अव्वल है। इसके तहत 74 वाँ संशोधन लागू करना, शहरी सीलिंग कानून समाप्त करना, भवन अनुज्ञा प्रक्रिया का सरलीकरण, कृषि भूमि को गैर कृषि भूमि में बदलना प्रमुख है। भी समर्थन करता है। इसका अर्थ है कि सारी वित्ताीय एजेंसियों का एजेण्डा एक ही है, आर्थिक सुधार के माध्यम से सेवा के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों का प्रवेश करवाना। बस्तियों की स्थिति - इंदौर में परियोजना को प्रारंभ हुए करीब ढाई वर्ष गुजर चुका है लेकिन बस्तियों को इसके अभी कोई लाभ नजर नहीं आ रहे हैं। बस्तियों में काम करने वाली इंदौर की संस्था ''दीनबंधु'' ने शहर की 10 बस्तियों का अध्ययन कर पाया कि वहाँ परियोजना के कोई लाभ नहीं पहुँचे है। इन बस्तियों में पेयजल की सुविधा या तो है ही नहीं या फिर है भी तो न के बराबर है। पेयजल के लिए इन बस्तियों को निजी टेंकरों अथवा 2 . 3 किमी दूर के खेतों पर निर्भर रहना पड़ता है। दीनबंधु द्वारा सर्वेक्षित बस्ती भीमनगर के अच्छे विकास के लिए इंदौर नगरनिगम को ओडीए का पुरस्कार भी मिल चुका है। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जॉन मेजर स्वयं इस बस्ती को देखने आये थे। उल्लेखनीय है कि शहर की 174 बस्तियों में अधोसंरचना विकास हेतु विदेशी विकास सहायता (ओडीए) के तहत 64 करोड़ रुपए का अनुदान मिला था। 1400 की जनसंख्या वाली भीमनगर बस्ती में मात्र 2 सार्वजनिक नल है जिनमें एक दिन छोड़कर पानी सप्लाई होता है।
इंदौर का नर्मदा तृतीय चरण -
इंदौर में एडीबी परियोजना का एक प्रमुख घटक नर्मदा तृतीय चरण है। इसकी पाईपलाईन तथा सुरंग निर्माण हेतु 254ण्59 करोड़ रुपए का टेण्डर 20 अप्रैल 2007 को खोला गया। 23 जून 2007 को प्रदेश के मुख्यसचिव की अध्यक्षता वाली साधिकार समिति को इस योजना के टेण्डर जारी करने के पूर्व एडीबी के दिल्ली और मनीला कार्यालय से अधिकृत मंजूरी लेनी पड़ी। इसमें 150 किमी लम्बी पाईप लाईन के जरिए नर्मदा से 360 एमलडी पानी इंदौर लाया जाना है। इसके ठेके ग्रेफाईट इण्डिया (नाशिक), जेएमसी प्रोजेक्ट (अहमदाबाद), प्रतिभा कंस्ट्रक्शन (मुँबई) और एसईडब्ल्यू (हैदराबाद) को दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त स्वच्छता तथा विद्युतीय और यांत्रिक पुनर्वास संबंधी कुछ छोटे टेण्डर भी जारी हो चुके हैं।
राजनैतिक स्थिति -
एडीबी की सारी शर्तें मान लेने के बाद भी अभी तक राजनैतिक दल दर वृध्दि के प्रति सहज नहीं है। जब तक जरूरी न हो वे इससे बचने का ही प्रयास करते नजर आते हैं। भोपाल नगरनिगम में काँग्रेस पार्षद दल के सचेतक एवं पूर्व जलकार्य प्रभारी श्री सलीम एहमद के अनुसार कोई राजनैतिक दल दर वृध्दि नहीं चाहता। निगम आयुक्त ने भोपाल में एडीबी की शर्तों के तहत दरवृध्दि का प्रस्ताव 3 बार भेजा लेकिन उसे न तो नगरनिगम पास करना चाहता है और न ही मेयर इन काउंसिल। सब चाहते हैं कि सरकार ही एकतरफा निर्णय लेकर दर वृध्दि कर दें ताकि ठीकरा उनके सिर न फूटे। उल्लेखनीय है कि पिछली परिषद (कांग्रेसी मेयर सुश्री विभा पटेल के कार्यकाल में) के समय 2003 में जलदर 60 रुपए से बढ़ाकर 150 रूपए कर दी गई थी। तब विपक्षी भाजपा ने इसका विरोध किया था और कुछ दिनों बाद उमा भारती की सरकार आ जाने के बाद तत्कालीन नगरीय प्रशासन मंत्री श्री बाबुलाल गौर ने जलदर घटाकर पुन: 60 रुपए मासिक कर दी थी। लेकिन अब सरकार जलवृध्दि हेतु पुन: दबाव बना रहीं है। भोपाल नगरनिगम में 22 काँग्रेस, 4 निर्दलीय, और शेष 14 भाजपा के पार्षद हैं। मेयर भाजपा के श्री सुनील सूद है। इस प्रकार निगम काँग्रेस की तथा मेयर इन काउंसिल भाजपा की है। इस राजनैतिक स्थिति के कारण दोनों प्रमुख राजनैतिक दल दरवृध्दि के समर्थन का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। श्री सलीम एहमद के अनुसार अवैध कनेक्शनों को वैध करने का काम 2003 - 2004 में भी प्रारंभ किया गया था लेकिन करीब 50 कनेक्शनों को ही वैध किया जा सका। अभी यह अभियान बंद है।
श्री सलीम एहमद ने बताया कि अभी तक न तो व्यक्तिगत नल कनेक्शनों पर मीटर लगाए गए हैं और न ही झोनल मीटरिंग प्रारंभ की गई है। उन्होंने संपत्तिाकर बढ़ाने को अतार्किक बताते हुए कहा कि पहले से ही संपत्तिकर की दरें काफी अधिक है और लोग चुका नहीं पा रहे हैं। परियोजना हेतु Luise Berger Group Inc. (Project Management Consultant) और Infrastructure Professionals Enerprises (P) Limited (Implementation Consultant) को सलाहकार नियुक्त किया गया है। लुई बर्गर के डिप्टी टीम लीडर श्री एनएस शेखावत ने बताया कि परियोजना शहरों में सार्वजनिक नलों को खत्म किया जाना चाहिए। Sector Reform की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि वाटर सप्लाई की लागत वसूल की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि एडीबी बदलाव चाहता है इसलिए परियोजना के लिए थ्नदक की कमी नहीं रहेगी।
भोपाल के सिटी इंजीनियर श्री खरे ने कहा कि PHE के कर्मचारी नगरनिगम के अधीन हो गये हैं। यह निर्णय प्रशासनिक दृष्टि से ठीक है लेकिन Financial दृष्टि से गलत है। इससे नगरनिगम पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है।
इंदौर में निवासरत् मध्यप्रदेश के पूर्व जल संसाधन सचिव श्री एमएस बिल्लौरे ने बताया कि स्थापित कॉलोनियों का जलप्रदाय जरूरत के हिसाब से बढ़ाने के बजाय कम किया जा रहा है। जबकि नई पॉश कॉलोनियों को अधिक पानी दिया जा रहा है। एडीबी परियोजना से पॉश कॉलोनियों को ही अधिक फायदा भी होगा। सामाजिक कार्यकर्ता श्री अमूल्य निधि ने कहा कि एबी रोड़ और रिंग रोड़ पर बड़े पैमाने पर आवासीय परिसर और औद्योगिक मॉल्स बनने के कारण चिकित्सक नगर जैसी बस्तियों को पानी के लिए 2 . 2 किमी तक भटकना पड़ता है।
बदलावों का प्रभाव
• इंदौर नगरनिगम द्वारा सार्वजनिक नलों को निकट स्थित मकान मालिकों के नाम पंजीबध्द करने का प्रावधान सिर्फ इस उद्देश्य से ही लाया गया है ताकि लोग स्वयं इन्हें निकालने की माँग करें। इससे एक ओर नये सार्वजनिक नलों की माँग स्वत: बंद हो जाएगी तथा अभी जो सार्वजनिक नल लगे हैं उन्हें हटाने का बहाना भी निगम को मिल जाएगा। हालांकि अभी तक यह प्रावधान लागू नहीं हो पाया है।
• दर वृध्दि हेतु कम राजस्व के इंदौर नगरनिगम के तर्क में दम नहीं है। नगरनिगम की जानकारी के अनुसार पेयजल पर प्रतिवर्ष 90 करोड़ रूपए खर्च होते हैं लेकिन राजस्व प्राप्ति सिर्फ 8 करोड़ ही होती है। इस हिसाब से तो राजस्व घाटे की पूर्ति हेतु निगम को जलदरें कम से कम 11 गुना बढ़ानी होगी। सामाजिक कार्यकर्त्ता और पत्रकार श्री चिन्मय मिश्रा ने कहा कि जल दरें तो पहले से ही काफी अधिक है। नगरनिगम एक दिन छोड़कर पानी देता है अर्थात् 15 दिन जलप्रदाय के लिए 150 रूपए लिए जाते हैं। इस प्रकार प्रभावी मासिक बिल 300 रुपए होता है।
• राजस्व बढ़ाने के जो नये-नये तरीके निकाले जा रहे हैं उसे न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस तरीके से आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की समस्याएँ बढ़ेंगी। कचरा शुल्क नागरिकों पर कर का बोझ बढ़ाने वाला होगा।
• इंदौर में संपत्तिायों के आंकलन में निजी कंपनियों को शामिल करना निजीकरण की दस्तक के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे इन सेवाओं से सार्वजनिक निकाय का नियंत्रण कम होकर निजी क्षेत्र पर निर्भरता कायम होगी।
• नगरनिकायों को एकीकरण हेतु मेट्रोपोलिटन एरिया प्लानिंग एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (मैपडा) के गठन से नीतिगत बदलावों को प्रदेश स्तर पर लागू करने हेतु किया जा रहा है। अभी तक परियोजना नगरों को कर्जदाता एजेंसी की शर्तों के अनुसार स्थानीय स्तर पर बदलाव करने थे और स्थानीय राजनैतिक तथा अन्य परिस्थितियों के कारण कई बाद समय पर बदलाव संभव नहीं हो पा रहे हैं। भोपाल में भी नगरनिगम के राजनैतिक हालातों के कारण पेयजल की दरवृध्दि संभव नहीं हो पा रही है।
• प्रदेश के किसी भी नगरनिकाय की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी अंशदान राशि इंदौर नगरनिगम की तरह ही कहीं से कर्ज ही लेना पड़ेगा। लेकिन चूंकि अंशदान राशि भी बड़ी होती है तथा स्थानीय निकायों की बैलेंस शीट देखकर कोई वित्ताीय एजेंसी उन्हें कर्ज देने में संकोच करती है। रतलाम नगर निगम द्वारा एडीबी कर्ज अस्वीकार करने के कारणों में बड़ी अंशदान राशि भी एक कारण था। इसी स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए सरकार को ''मध्यप्रदेश शहरी अधोसंरचना कोष'' तथा ''मध्यप्रदेश नगरीय अधोसंरचना एवं वित्ताीय सेवाएं मर्यादित'' (MP Urban Infrastructure and Financial Services Limited) गठित करने का निर्णय लेना पड़ा। बहुत संभव है कि सरकार के इन कदमों से नगरनिकाय वित्तीय एजेंसियों से कर्ज लेने में सक्षम हो जाएंगें। लेकिन मुख्य समस्या लोगों की कर भुगतान की क्षमता बढ़ाने की है। पहले काम इस दिशा में होना चाहिए अन्यथा बड़े कर्जों के कारण बढ़ाए गए करों के बोझ से आम जनता दब जाएगी क्योंकि नगरनिकायों द्वारा कर्ज पानी के अलावा सड़क निर्माण, परिवहन आदि सेवाओं के लिए भी लिए जा रहे हैं।
• इस पूरी परियोजना में बस्तियों की उपेक्षा तय है क्योंकि परियोजना दस्तावेज में ही कुल परियोजना राशि का मात्र 2ण्31 प्रतिशत ही रखा गया है। इतनी कम राशि में गरीब बस्तियों का आश्वासन के अलावा और कुछ नहीं मिल सकता। ज्ञात रहे कि मध्यप्रदेश में 38 प्रतिशत शहरी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है।
• इन दिनों आमतौर पर देखा जा रहा है कि जलप्रदाय के लिए अत्यधिक महँगी योजनाएँ बनाई जा रही है। यदि सुधार एजेण्डे के तहत इन योजनओं की लागत, संचालन खर्च, लागत पर ब्याज और सुनिश्चित लाभ उपभोक्तओं से वसूला जाए तो सेवा शुल्क में होने वाली वृध्दि हर
वर्ग के लिए असहनीय होंगी। इंदौर में नर्मदा के पिछले 2 चरणों का अनुभव बताता है कि संचालन खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा (50 करोड़) बिजली का बिल है। पानी दूर के स्रोत से पर लम्बी पाईप लाईन का संधारण खर्च भी उसी अनुपात में अधिक होता है। सितंबर 2006 के आकलन के अनुसार इंदौर में 641ण्25 करोड़ की एडीबी परियोजना में से 471 करोड़ अकेले नर्मदा तृतीय चरण पर खर्च किए जाएँगे। 275 करोड़ नर्मदा से इंदौर पाईप लाईन (150 किमी लम्बी) पर तथा शेष 196 करोड़ मशीनरी तथा सिविल कार्यों पर खर्च होंगें। इसका वार्षिक संचालन खर्च 175 करोड़ (लागत का 37 प्रतिशत) होगा जिसमें विद्युत व्यय 82 करोड़, संधारण व्यय 50 करोड़ एवं कर्ज वापसी के 43 करोड़ रुपए शामिल हैं। निगम के आंकलन के अनुसार इंदौर तक पानी पहुँचाने की लागत 18 रूपये/घमी होगी।
जाहिर है। इतने महँगे पानी की कीमत कोई भुगतान नहीं कर पाएगा। इसलिए बहुत जरूरी है कि परियोजना खर्च घटाने हेतु इसकी वैकल्पिक योजना पर विचार किया जाए। इंदौर में तालाबों और कुएँ-बावड़ियों की एक समृध्द परम्परा रही है। पहले से निर्मित इन जलस्रोतों का पुनरूध्दार तथा विकास किया जाए तो आर्थिक लागत कम करने के साथ ही समस्या का स्थाई समाधान भी हो सकेगा। इस वैकल्पिक योजना का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि इसका संचालन/संधारण खर्च खासकर बिजली बिल काफी कम हो जाएगा। पानी की उपलब्धता अधिक भरोसमंद होगी। सारे खर्च कम हो जाने से संचालन लागत कम हो जाएगी और दरवृध्दि भी कम करनी होगी। लेकिन सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि इससे विभिन्न समुदायों के मध्य संभावित विवादों को टाला जा सकेगा। नर्मदा से पानी लेने पर आज कोई विवाद नहीं है लेकिन देश में जलविवादों को देखते हुए निकट भविष्य में इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
भाग - 2

मध्यप्रदेश के जलक्षेत्र में विश्व बैंक की परियोजनाएं

मध्यप्रदेश के जलक्षेत्र में सुधार हेतु एडीबी और विश्व बैंक के कर्जों से 2 परियोजनाएँ संचालित है। कर्जों की शर्तों के तहत इन वित्तीय एजेंसियों द्वारा थोपी गई अनावश्यक शर्तों का प्रभाव भी अब जल क्षेत्र में पड़ता दिखाई देने लगा है। अधिकारी और राजनेता भी अब वित्तीय एजेंसियों की भाषा बोलते नजर आ रहे हैं। पानी की बर्बादी रोकने के बहाने शुल्क वृध्दि को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। इन परियोजनाओं के प्रभाव अब दिखाई देने प्रारंभ हो गए हैं। 'मंथन' द्वारा इन परियोजनाओं के क्रियांवयन और इनके प्रभावों पर निगरानी की जा रही है। इन परियोजनाओं का अब तक का संक्षिप्त अपडेट प्रस्तुत है।

मध्यप्रदेश शहरी जलापूर्ति एवं पर्यावरण सुधार योजना
मध्यप्रदेश को एशियाई विकास बैंक (एडीबी) से 20 करोड़ डॉलर' (900 करोड़ रूपये) का कर्ज (क्र. IND - 32254) दिसंबर 2003 में स्वीकृत हुआ। इस कर्ज से ''मध्य प्रदेश शहरी जलापूर्ति एवं पर्यावरण सुधार परियोजना'' प्रारंभ की गई है जो सितंबर 2009 में पूरी होगी। कर्ज की प्रमुख शर्तों में सार्वजनिक नलों को समाप्त करना है। साथ ही जलदर एवं संपत्ति कर की वृध्दि, अन्य नये शुल्कों और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के माध्यम से जलप्रदाय व्यवस्था को लाभदायक बनाने की बात कही गई है। इस परियोजना भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर शहर शामिल हैं।
इंदौर नगरनिगम के प्रस्ताव क्रदृ 6ए दिनांक 16 मई 2006 के निम्न प्रावधानों से गरीबों के साथ-साथ आम मध्यम वर्ग के लिए भी पेयजल प्राप्त करना कठिन हो जायेगा।

सार्वजनिक नलों का खात्मा
• नया सार्वजनिक (बड़ा) नल कनेक्शन नहीं लगाया जाए।
• पहले से लगे सार्वजनिक नलों को उन लोगों के नाम पंजीबध्द किये जाएँ जिनके घरों के सामने ये नल लगे हैं। और इन्हीं लोगों के नाम से बिल जारी किये जाएँ।

जलदर वृध्दि
11 सितंबर 2006 से इंदौर नगरनिगम ने जलदर 90 से बढ़ाकर 150 रुपए/माह कर ही दी है। जलदर में वृध्दि का कारण जल क्षेत्र में राजस्व की कमी दर्शाया गया है।
• निगम के बजट प्रस्ताव दिनांक 16 मई 2006 के अनुसार जल कर नहीं चुकाने वालों के कनेक्शन काट दिए जाए और उन्हें बकाया राशि वसूलने के बाद भी पुन: बहाल न किया। उनसे पूरा कनेक्शन शुल्क 2,500 वसूलकर नया कनेक्शन दिया जाए। यह प्रावधान अभी लागू
होना शेष है।

कुएँ-बावड़ी से पानी लेने वालों से भी उगाही
निगम बजट प्रस्ताव दिनांक 16 मई 2006 में उन लोगों से भी वसूली का प्रस्ताव है जो नगरनिगम की सेवाएँ नहीं लेते। निजी कुओं, नलकूपों सहित अन्य स्रोतों से पानी लेने वाले ऐसे ' डॉलर-रुपया विनिमय दर कर्ज स्वीकृति के समय की है। नागरिकों से सामान्य घरेलू नल कनेक्शन के बराबर बिल वसूला जाना है। यह प्रावधान अभी लागू होना शेष है।
नये करों की शुरूआत
इंदौर नगरनिगम उन्हीं करों को लागू कर रहा है जो एडीबी कर्ज की शर्तों में शामिल हैं। वित्तीय वर्ष 2007.08 से कचरा प्रबंधन शुल्क भी प्रारंभ किया गया है। हालांकि अभी इसे व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तक ही सीमित रखा गया है जो कम से कम 1,000 रुपए/माह और अधिकतम 30,000 रुपए/माह होगा। इसे सभी परिवारों पर आरोपित किया जाएगा। घरेलू उपभोक्ताओं के लिए
जल-मलनिकासी एवं स्वच्छता शुल्क पानी के बिल का 25 से 40: आरोपित किया जाएगा जबकि ठोस कचरे हेतु 30 रुपया प्रतिमाह अलग से लिया जायेगा।

निजीकरण की राह
इंदौर शहर के कुछ हिस्सों में सफाई व्यवस्था, कचरा संग्रहण और Under assessed Property ds Assessment का काम निजी एजेंसियों से करवाने का प्रस्ताव किया गया है। नगरनिकायों का एकीकरण- जून 2007 में प्रदेश के नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री श्री जयंत मलैया ने बताया कि प्रदेश के नगरीय निकायों को एक कर मेट्रोपोलिटन एरिया प्लानिंग एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ;ड।च्क्।ध्द के गठन की प्रक्रिया अंतिम चरणों में है। श्री मलैया के अनुसार मैपडा में नगर विकास प्राधिकरण, नगर निगम, नगर एवं ग्राम निवेश विभाग के साथ ही अन्य विकास एजेंसियों को मिलाने की योजना है। मैपडा को मास्टर प्लान से लेकर विकास के हर काम करने का अधिकार होगा।
मैपडा के राज्यस्तरीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री होंगे और हर इकाई का अध्यक्ष कोई नेता होगा। बोर्ड में आसपास की ग्राम पंचायतों के सरपंचों को भी शामिल करने का कारण है कि इस ऐजेंडे को गाँव स्तर पर लागू करने में भी परेशानी न हो।

भाग - 1

खेतों में ज़हरीली दवाओं और खादों से साग - सब्जी , अन्न व जल सभी दूषित हो रहे हैं

एक सज्जन को मैं पहली बार इतना घबराए हुए देखकर अनायास पूछ बैठा , आप क्यों इतने मायूस हैं ? आज तो बड़ा उत्सव है। देख नहीं रहे हैं .. मूर्ति विसर्जन के लिए लोग कैसे ढोल - बाजों के साथ भक्ति में सराबोर हैं ! कितना मजा आ रहा है।

वह यूं ही खड़े - खड़े लाउडस्पीकर के कर्णभेदी संगीत के साथ झूमते - गाते , फूल उड़ाते , पटाखे फोड़ते , भक्तों को देख रहे थे , जो ट्रकों और ट्रैक्टरों आदि पर सवार देवी की प्रतिमा के आगे - पीछे चले जा रहे थे। नगर निगम के अ धिकारी व कर्मचारी पहली बार इतने क्रियाशील और मुस्तैद लगे।

पता चला कि वहां उन्होंने नदी में विसर्जन की सुविधा के लिए कुछ गड्ढे भी खोद डाले हैं। शायद पहली बार उन्होंने नगर निगम द्वारा पब्लिक की सुविधा के लिए क्रेन और बुल्डोजर की भीड़ जमाए देखा। उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि इतनी भीमकाय मशीनें आखिर अन्य दिनों कहां गायब रहती हैं !

निगमीय ट्रकों का यह कारवां भी और दिनों पता नहीं कहां लापता रहता है ! वे ताज्जुब कर रहे थे कि इतने मुस्तैद और साधन - सम्पन्न विभाग के होते हुए भी उसकी चाची की गलियां ही नहीं , नगर निगम का प्रांगण भी आखिर खुला कूड़ादान क्यों बना हुआ है।

आवारा सूअर कुछ विशेष काम निपटा रहे हैं सो भी बिना पेमेन्ट के। कुछ घंटों में सभी मूर्तियां विसर्जित की जा चुकी थीं। लोग भव्य व सफल विसर्जन के लिए समितियों और प्रशासन की खूब प्रशंसा कर रहे थे। पर , वह सज्जन नदी की वह भयावह दशा देखकर सन्न रह गए। ऐसा लग रहा था मानों किसी ने नदी में कुछ घोल दिया हो।

इतने में रंगों और कीचड़ से सराबोर एक बच्चा आकर उनसे बोला , अंकल.. अंकल ! कितना मजा आया ना ! हम तो गणेश पूजा , दुर्गा पूजा , लक्ष्मी पूजा और सभी पूजाओं में ऐसेच करते हैं। बहोत मजा आता है। यानी वर्ष में कई बार इस नदी की ही नहीं , बल्कि अन्य नदियों की भी यही हाल होता है। बनारस और पटना समेत अन्य नगरों व ग्रामों के गंगा तट ऐसी बेइज्जती झेल रही हैं , मानो इसके लिए मानव नहीं.. खुद जिम्मेदार हों।

फल - फूल , दान - पुण्य के अलावा अधजले शवों को गंगा कब तक पचाती रहेगी ? अब तो समुद्र की कार्बन - डाइ - ऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता भी क्षीण होती चली है। अगर हमारे पूर्वजों की सिर्फ राख ही गंगा में विसर्जित की जाती तो इसकी पवित्रता के साथ - साथ इसकी शुद्धता भी कायम रहती।

अपना उल्लू सीधा करने के लिए स्वार्थी इन्सान जब दूसरे इन्सान का गलत इस्तेमाल कर सकता है तो प्रकृति तो दूर की बात है। हमारी आस्था और करनी में कितना फर्क और विरोधाभास है। ब्रह्मांड को हम भगवान का ही अंश मानते हैं और उसी को हमने विकास व धार्मिक रीति - रस्मों के नाम पर भुनाया है।

अ धिकांश तालाबों को मजबूरन गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए दम तोड़ना पड़ता है। अवैध औद्योगिक कचरों व गंदे तरल पदार्थों को नदियां पी तो रही हैं , पर न भूलें कि बदले में हमें भी पिला रही हैं। दीपावली की तैयारी में पटाखे की कई दुकानें व फैक्ट्रियां सज रही हैं। पटाखों से उत्सर्जित टॉक्सिक गैसों से हमारी सांसों में आने वाली हवा का क्या होता है , इसकी जानकारी आम लोगों को शायद नहीं।

इस संबंध में वैज्ञानिक जानकारी से अनभिज्ञ होने के कारण ही कम से कम हम भारतीयों को जी भरकर त्यौहारों को मनाने की आदत - सी पड़ गई है। भारतीय उपभोक्ताओं की मूर्खता या जागरूकता की कमी को भांपते हुए उत्पादक कुछ भी बना और खिला सकता है। स्वास्थ्य के बारे में सजग होने से तो हम कब के मरे होते। पर क्या यह सच है , अब हमारे जन नहीं मर रहे हैं ?

कुओं , नलकूपों और अन्य जलस्रोतों में जल निर्मित नहीं होता , बल्कि नदी - नाले-तालाबों व समुद्र से ही रिसकर पेयजल के इन स्रोतों तक पानी पहुंचता है। खेतों में ज़हरीली दवाओं और खादों से साग - सब्जी , अन्न व जल सभी दूषित हो रहे हैं। नई - नई बीमारियां नजर आ रही हैं। कैंसर , लकवा , चर्म रोग , दिल और सांस सम्बंधी बीमारियां आज सामान्य बात हो गई हैं।

इन बातों को सोचते हुए वह सज्जन अब कुछ तनाव में रहने लगे हैं। पता नहीं , उसके तनाव का कारण साइकोलॉजिकल है या फिर एन्वॉयरमेन्टल पलूशन ! अब हर उत्सव में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने वालों से एक सवाल हमेशा करते रहते हैं , क्या हमारे अ धिकांश हिन्दू उत्सव पर्यावरण प्रदूषित करने वाले नहीं हैं ? वह आगे पूछते हैं , शास्त्रों में कहां लिखा है कि पूजा - पाठ , रीति - रस्म , उत्सव आदि के दौरान अपने इर्द - गिर्द प्रदूषण फैलाओ ? क्या धार्मिक कर्मकाण्ड और उत्सवों के आयोजन प्रदूषण रहित नहीं हो सकते ?

एच . लकड़ा

भयावह होती जा रही है दिनोंदिन जल संकट की स्थिति

महोबा। जल संचयन की प्राचीन संस्कृति को तिलांजलि देने का ही नतीजा है कि अब बुंदेलखंड को पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। तालाबों और पोखरों को पाटकर लोगों ने मकान और भवन खड़े कर दिये। फल ये मिला कि रहने के लिए तो सुंदर घर है पर पीने के लिए पानी नहीं है। कई घरों में तो बोरिंग करा अंधाधुंध तरीके से पानी खींचा जा रहा है जो जलस्तर के लिए खतरा साबित हो रहा है।

बुन्देलखण्ड में सूखे के कारण पानी की समस्या होना लाजमी है पर सच यह है कि पानी की कमी एक बड़ी राष्ट्रीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आ गई है। चार साल से वर्षा न होने से यहां हालात ज्यादा खराब हो गये है पर देश के ज्यादा तर हिस्सों में पानी की कमी महसूस की जाने लगी है। जल बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है और अब पानी का घोर अकाल हो रहा है। आने वाले समय में यह देश की सबसे बड़ी व विकराल समस्या होगी। इस बात को भूगर्भ वैज्ञानिक भी स्वीकार करते है। प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण इस देश या बुन्देलखण्ड में आखिर पानी की कमी कैसे हो गई। इस पर सेमिनार और राष्ट्रीय चिन्तन की आवश्यकता नहीं है। बड़ा सीधा सा कारण है हम परम्परागत जल स्त्रोतों का अनुरक्षण संरक्षण नहीं कर सके। घर बैठे आवश्यकता के मुताबिक पानी पाने के सुविधा भोगी प्रयास में हमने बोरिंग करा भूगर्भीय जल का दोहन शुरू कर दिया। यह चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हुआ हो या जल संस्थान व जल निगम की जलापूर्ति के जरिए। इन प्रयासों में हमने शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के परम्परागत व प्राचीन जल स्त्रोतों को तिलांजलि दे दी। पूर्व में हजारों ऐसे कुएं जिनमें चार-चार पम्पसेट लगाने के बाद भी उन्हें खाली कर पाना सम्भव नहीं हो पाया। महोबा मुख्यालय में एक दर्जन से ज्यादा बेहर थे। बेलाताल के धौंसा मंदिर का कुआं,बधउआ कुआं ऐसे जल स्त्रोत रहे है जो अकेले पूरे नगर की जलापूर्ति के लिये पर्याप्त से भी ज्यादा हुआ करते थे पर प्रशासनिक उपेक्षा और सुविधा भोगी समाज की अनदेखी से इनका अस्तित्व ही मिट गया है। यहां हजार साल पहले चंदेल शासकों द्वारा बनवाये गये तालाबों पर गौर करे तो जल संरक्षण की उनकी व्यवस्थित सोच की व्यापकता उजागर होती है। नगर के चारों ओर हजारों हेक्टेयर भूमि में तालाब पानी की सुविधा के साथ ही भूगर्भीय जल स्तर ठीक बनाये रखने की दृष्टि से ही बनवाये गये थे। आजादी के बाद अव्यवस्थित विकास और बेतुकी योजनाओं ने इन तालाबों में वर्षा जल आने के मार्ग ही अवरूद्घ कर दिये। और आज हालात बद से बदतर रूप अख्तियार करते जा रहे है। जल देने वाले तालाब,पोखर,कुएं सूख गये है और अब हैण्डपंपों ने भी जवाब देना शुरू कर दिया है।

एक जटिल समस्या है, जलवायु परिवर्तन

मार्टिन खोर
नोबल पुरस्कार प्राप्त् जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सरकारों की पेनल (आय.पी.सी.सी.) की ताजा रपट का सार पढ़ लेने मात्र से पर्यावरण परिवर्तन के बारे में नवीनतम जानकारियां संक्षिप्त् और सटीक रूप में हम सबके सामने है। मात्र २३ पृष्ठीय यह रपट (विज्ञान पर प्रभाव, पर्यारण परिवर्तन के असर एवं पर्यावरण परिवर्तन को कम करने के लिए आवश्यक नीतियां) आय.पी.सी.सी. द्वारा पूर्व में जारी की गई हजारों पृष्ठों में फैली तीन अलग-अलग रपटों का निचोड़ है। यह गंभीर संकलित रपट हमें आसन्न चुनौतियों के बीच पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखने के बारे में सुझाव भी देती है । उदाहरण के लिए पेनल अध्यक्ष राजेन्द्र पचौरी का कथन कि हम भले ही उत्सर्जन को बहुत सीमित कर लें और वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को इसी स्तर पर बनाए रखें तो भी समुद्री जलस्तर ०.०४ मीटर से १.४ मीटर तक बढ़ने की आशंका बनी रहेगी क्योंकि समुद्री जल के गर्म होने की क्रिया तो जारी रहेगी ही जिसके फलस्वरूप समुद्री क्षेत्र में फैलाव होना लाजमी है । उन्होंने बताया कि यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी वजह से तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन संभावित है जैसे निचले क्षेत्रों में जल प्लावन के खतरे होंगे और नदियों के डेल्टा प्रदेशों एवं निचले द्वीपों में भी इस वजह से बड़े दुष्प्रभाव प्रकट होंगे । इस कार्य में शामिल २५०० विशेषज्ञ वैज्ञानिक विश्लेषकों, १२५० लेखकों और १३० देशों के नीति निर्माताआें के साझा प्रयासों ने इसे इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज बनाया है। इस रपट का मुख्य संदेश यह है कि तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी में संदेह की गुंजाईश नहीं है और इस वजह से हवाआें की रफ्तार और समुद्री जल का तापमान भी साथ-साथ ही बढ़ेगा । जिसके परिणामस्वरूप समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा और बर्फबारी और पहाड़ों पर जमी बर्फ में और कमी आएगी । समुद्रों के जलस्तर की बढ़ती रफ्तार जो सन् १९६१ के १.८ मिलीमीटर प्रतिवर्ष की तुलना में सन् १९९३ में ३.१ मिलिमीटर प्रतिवर्ष तक जा पहुंची है इस समय सर्वाधिक चिंता का विषय है। इसकी मुख्य वजह है बढ़ते तापमान से हो रही घनत्व वृद्धि और ग्लेशियरों व पहाड़ी चोटियों पर जमी बर्फ और धु्रवों की बर्फ की चादरों का पिघलाव । अनुमान है कि २१वीं सदी के अंत तक समुद्री जलस्तर में वृद्धि का आंकड़ा १८ से ५९ सेंटीमीटर का स्तर छू लेगा । श्री पचौरी चेतावनी देते हुए कहते हैं कि तापमान में वृद्धि के कुछ असर आकस्मिक और अपरिवर्तनीय भी होंगे । उदाहरण के लिए ध्रुवों की बर्फ की चादर में हुआ थोड़ा-सा पिघलाव भी समुद्र के जलस्तर में कई मीटर की वृद्धि कर देगा। जिसके फलस्वरूप तटीय क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन होंगे । निचले क्षेत्रों में जल भराव होगा, नदियों के डेल्टा प्रदेशों और निचले टापुआें में भी जलप्लावन की सी स्थितियां निर्मित होंगी । यह रपट तापमान वृद्धि के असर पर क्षेत्रवार प्रकाश डालती है । जैसे अफ्रीका में २०२० तक ७.५ करोड़ से लेकर २५ करोड़ लोगो को इसके दुष्परिणाम भुगतना होंगे । कुछ देशों में तो वर्षा आधारित कृषि घटकर ५० प्रतिशत रह जाएगी । एशिया में आने वाली मुख्य परेशानियां इस तरह है संभावना है कि २०५० तक मध्य, दक्षिण, पूर्व एवं दक्षिण पूर्व एशिया में खासतौर से बड़े नदी संग्रहणों में मीठे जल में भारी कमी होगी । दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के तटीय क्षेत्रों खास तौर से बड़ी आबादी वाले वृहद डेल्टा प्रदेशों में समुद्रों और नदियों की बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा होगा । संभावित जलवायु चक्र परिवर्तन की वजह से पूर्वी दक्षिण एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में बाढ़ और सूखा जनित डायरिया की वजह से प्रदूषण और मृत्युदर में वृद्धि होगी । रपट चेतावनी देती है कि तापमान वृद्धि की शुरूआत हो चुकी है। सन् १९८० से अब तक के सर्वाधिक १२ गरम वर्षो की गणना करें तो हम पाएंगे कि सन् १९९५ से लेकर २००६ तक के बारह में से ग्यारह वर्ष पिछले १०० वर्षो में सर्वाधिक गरम थी, साथ ही पिछले १०० वर्षो में तापमान में ०.७४ डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है । आर्कटिक की बर्फ का दायरा २.७ प्रतिशत प्रति दशक की दर से सिकुड़ता जा रहा है । गर्मियों में तो यह ७.४ प्रतिशत दशक की दर से सिकुड़ रहा है । पृथ्वी के दोनोंही गोलार्धो में ग्लेशियरों एवं बर्फ की मात्रा में कमी आई है । रपट लगातार चेताती है कि यदि अब भी अगर कदम न उठाए गए तो वैश्विक उत्सर्जन की मात्रा में सन् २००० और २०३० के बीच २५ से ९० प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है । अगले बीस सालों में ०.२ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से तापमान वृद्धि की आशंका जताई गई है और अगर ग्रीन हाउस गैसों और एयरोसोल के घनत्व को सन् २००० के स्तर पर स्थित भी रख लिया जाए तब भी इसके ०.१ डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर से बढ़ने का आकलन किया गया है । उसके बाद के तापमान वृद्धि के आकलन उत्सर्जन के स्तर पर निर्भर करते हैं । रपट के अनुसार मौजूदा स्थिति आई.पी.सी.सी. द्वारा कुछ वर्ष पूर्व कराए गए आकलन से भी काफी खराब है । इसमें चिंता के पांच आधार बिंदु तय किए है । प्रकृति के लिए खतरा : १९८०-१९९९ के स्तर से तापमान का वैश्विक औसत अगर १.५ डिग्री सेंटीग्रेड से २.५ डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ता है तो वनस्पति और पशुआे की २० से ३० प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्त् होने के खतरे बढ़ जाएंगे । प्राकृतिक आपदाआे के खतरे : सूखा, गर्म हवाएं, बाढ़ में वृद्धि और अनेक अन्य दूरगामी परिणाम भी अनुमानित है । प्रभावों के प्रति सहनीयता: विभिन्न क्षेत्रों में असर भी भिन्न-भिन्न होगा, खासतौर से आर्थिक आधार पर पिछड़े लोगों पर पर्यावरण परिवहन का असर सर्वाधिक हुआ करता है । सामूहिक प्रभाव : कम गर्म होने वाले क्षेत्रों में पर्यावरण परिवर्तन के प्रारंभिक बाजार आधारित लाभ ज्यादा होने का अनुमान किया गया है जबकि ज्यादा गर्म होने वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक नुकसान आकलित है । एक बड़ा कारण और उसके खतरे : सैकड़ों वर्षो से जारी तापमान वृद्धि के परिणाम स्वरूप हुई घनत्व वृद्धि की वजह से समुद्री जलस्तर में वृद्धि बीसवीं सदी की अपेक्षा बहुत ज्यादा आकलित है, जिससे तटीय क्षेत्रों में कमी होगी और इससे जुड़े अन्य प्रभाव भी सामने आएंगे। रपट समक्ष बड़े खतरे से निपटने के उपायों पर जिसमें - शमन (ऊर्जा, परिवहन, उद्योग आदि क्षेत्रों में निवारक उपाय अपनाकर स्थिति को बदतर होने से रोकना), अनुकूलन (दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय) वित्त प्रबंध एवं तकनीक शामिल हैं पर चर्चा के साथ खत्म होती है । ***

गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के तहत शिवजी का जलाभिषेक

साहिबगंज। गंगा महासभा के तत्वाधान में गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के तहत शुक्रवार को चौक बाजार डाकीनाथ महादेव मंदिर में गंगोत्री के जल से शिव जी का जलाभिषेक किया गया। इसके पूर्व गुरुवार को देर शाम शहर के रेलवे जेनरल इंस्टीच्यूट में गंगे मातरम् कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसे संबोधित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान और चिंतक केएन गोविंदाचार्य ने कहा कि नदियों में बांध के निर्माण से गंगा का बहाव कम हो रहा है जिसके गंभीर परिणाम हो सकते है। इस अवसर पर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार व विचारक सत्यनारायण मौर्य ने अपने विचारों व कला की अमिट छाप लोगों पर छोड़ी। इस अवसर पर कार्यक्रम संयोजक जितेन्द्र जी सहित कई अन्य लोगों ने कार्यक्रम को संबोधित किया।
गुरुवार को देर शाम रेलवे जेनरल इंस्टीच्यूट में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए गोविंदाचार्य ने ग्लोवल वार्मिग को मानव समाज के लिए गंभीर खतरा बताया। उन्होंने कहा कि धरती के बढ़ते ताप से हिमालय का बर्फ तेजी से पिघलेगा जिससे भविष्य में गंगा सहित अन्य नदियों में पानी की कमी हो जाएगी। उन्होंने डिहरी बांध परियोजना का विरोध करते हुए कहा कि इससे नदी का बहाव कम होगा नदी की गहराई कम होगा। जिससे नदियों के जीव जंतु के जीवन पर संकट उत्पन्न हो जाएगा। उन्होंने कहा कि बांध के निर्माण से गंगा में गंदगी की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। इस अवसर पर अपने संबोधन में मुंबई से आये सत्यनारायण मौर्य ने पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति पर कुठाराघात करते हुए कहा कि हम अपनी सभ्यता व संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य सभ्यता के चकाचौंध में खो गये है। जिसके दुष्परिणाम हमारे आने वाली पीढ़ी को भुगतने पड़ेगे। आज हम अपने बच्चों को पूर्वजों से मिली संस्कार नही दे रहे। भारत विश्व का एक मात्र देश है जहां की माटी, नदी व पशु के साथ भी रिश्ता होता है। हम इसे माता कह कर संबोधित करते है। जो किसी दूसरे देश के साथ लागू नही होता। कार्यक्रम के दौरान श्री मौर्य ने विवेकानंद व गंगा माता की चंद मिनटों में आकर्षक तस्वीर बना लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। इस अवसर पर गंगे मातरम की गीत पर मां गंगा की आरती सहित कई भजन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर बोरियो विधायक ताला मरांडी, राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन राष्ट्रीय महामंत्री गंगा महासभा, आचार्य जितेन्द्र, अध्यक्ष राष्ट्रीय पानी मोर्चा, कमांडर एसडी सिंहा, डा. ऋतु राज कात्यायण, गंगा संस्कृति के प्रवाह यात्रा के संयोजक गोविंद शर्मा कमल भगत, शंकर साह, सुरेश बजाज, प्रदीप कुमार, सुनील खेतान, अशोक गुप्ता, सुरेश बजाज, मनोज पासवान, शंकर प्रसाद गुप्ता, शंकर दास, अशोक यादव, पवन सिंह, प्रमोद पाण्डेय, देवनंदन चौधरी, धर्मेन्द्र कुमार सहित भारी संख्या में लोग व कार्यकर्ता शामिल थे विदित हो कि व्यवसायीकरण और प्रदूषण से मुक्ति के लिए यह यात्रा गंगा सागर से गंगोत्री तक जन चेतना जगाने का कार्य कर रही है।

यमुना की धार बदलने को बांध बनाया, टकराव की आशंका

बागपत। रेत खनन करने को लेकर यमुना की धार बदलने को रात में बनाये गये बांध को देख नैथला खादर में फिर तनाव बन गया। इसको लेकर कभी भी माफिया और ग्रामीणों में टकराव हो सकता है।
दरअसल नैथला खादर में माफिया ने रेत खनन के लिए यमुना की धार बदलने को बांध बना दिया था। ग्रामीणों और माफिया के गुर्गों में जबरदस्त टकराव हो गया। फायरिंग और आगजनी तक की घटना घटी थी। उसी दौरान शासन के आदेश पर लखनऊ से आई खनन विभाग के प्रवर्तन दल की टीम ने वहां छापा मारा तो हालात चिंताजनक पाये। टीम ने शासन को रिपोर्ट दी थी कि खनन ने यमुना का पारिस्थितिक संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। टीम ने पूर्व विधायक समेत चौदह लोगों के खिलाफ अवैध खनन का मुकदमा बागपत कोतवाली पर दर्ज कराया था तथा एक करोड़ रुपये को जुर्माना भी लगाया था। किन्तु इसके बाद वहां दूसरे माफिया ने अपने पैर पसार लिए। एक सप्ताह पहले ही रेत खनन के लिए यमुना की धार बदलने को पोपलेन मशीनों से बांध बनवाया जा रहा था तो ग्रामीणों ने जबरदस्त विरोध किया। वहां फायरिंग और तोड़फोड़ तक हुई। किसी तरह खून खराबा होने से बचा, मगर अब फिर माफिया ने वहां अपनी कारस्तानी दिखानी चालू कर दी। ग्रामीणों के अनुसार माफिया ने रात में ही मशीनों से यमुना की धार बदलने के लिए बांध बनवा दिया। ज्यादातर बांध बन चुका। इसका पता जब नैथला के लोगों को लगा तो उनमें आक्रोश व्याप्त हो गया। इससे वहां फिर तनाव बनने लगा है और कभी भी माफिया तथा ग्रामीणों के बीच टकराव से खूनी संघर्ष हो सकता है। शायद प्रशासन को भी इसी का इंतजार है। पता चला है कि ग्रामीण इस बांध को ध्वस्त करने के लिए प्लान बना रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि बांध बनने से यमुना की धार बदलने से उनके गांव में कटान हो सकता है और खादर में उनके खेत पानी आने पर डूब सकते हैं। खनन का कार्य देखने वाले डिप्टी कलेक्ट्रेट श्री प्रकाश ने इस तरह का कोई बांध बनाये जाने की जानकारी से अनभिज्ञता जताई। कहा, अगर बांध बनाया गया होगा तो कार्रवाई की जाएगी।

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