भारत में सेनिटेशन की स्थिति-परिचय





दिल्ली में आयोजित (17-18 मई08) नेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन सस्टेनेबल सेनिटेशन में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री रघुवंश प्रसाद सिंह भारत में सेनिटेशन की स्थिति पर अपने विचार रखते हुए एक विकेंद्रीकृत सस्टेनेबल अप्रोच अपनाने के लिए आह्वान किया था।


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समृद्धि के पीपल उगाने लगा है पीपलखूंट

बांसवाडा, आदिवासियों के उत्थान और आदिवासी क्षेत्रों के समग्र विकास के लिए मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे के संकल्पों को साकार करने की अनवरत् जारी श्रृंखला के अन्तर्गत राज्य सरकार ने प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों, ख्ाासकर मेवाड, वागड और कांठल में जनजाति विकास की कई योजनाओं और कार्यक्रमों का सूत्रपात कर बहुआयामी विकास के ऐतिहासिक परिदृश्य का दिग्दर्शन कराया है।
इसी कडी में आदिवासी बहुल प्रतापगढ जिले के सृजन और विकास का जो नवीन अध्याय शुरू हुआ है वह अपने आप में अपूर्व कदम तो है ही, आदिवासी क्षेत्रों के विकास में नए युग के उदय की आधारशिला भी रख रहा है। प्रतापगढ जिले के गठन के बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे पहली बार प्रतापगढ जिले में कदम रख रही हैं और वह भी विकास के कई-कई आयामों के साथ।
पहली बार मुख्यमंत्री की यात्रा को लेकर शासन-प्रशासन से लेकर आम लोगों तक में उत्साह का अतिरेक दिख रहा है। मुख्यमंत्री प्रतापगढ जिले में अपने दौरे की शुरूआत बांसवाडा जिले से सटे पीपलखूंट क्षेत्र से कर रही हैं जो कि पहले बांसवाडा जिले का हिस्सा रहा है।
तहसील बनने से मिला सुकून पीपलखूंट क्षेत्र को
मुख्यमंत्री 22 अगस्त शुक्रवार को प्रतापगढ जिले की नवगठित पीपलखूंट तहसील का उद्घाटन करेंगी। अब तक पीपलखूंट में पंचायत समिति व उप तहसील का वजूद रहा था जिसे वर्तमान राज्य सरकार ने प्रतापगढ को जिला बनाकर तहसील के रूप में क्रमोन्नत कर दिया है।
इस तहसील में 27 ग्राम पंचायतें हैं जिनमें 18 पंचायतें बांसवाडा जिले से मिली हैं जबकि दो पंचायतें अरनोद तथा 7 पंचायतें प्रतापगढ पंचायत समिति से शामिल की गई हैं। पीपलखूंट में तहसील की स्थापना से आदिवासी बहुल समूचे क्षेत्र के लोगों को राजस्व और रोजमर्रा के काम-काज के लिए अब ज्यादा दूरी तय नहीं करनी पडेगी और जीवनचर्या और अधिक आसान हो जाएगी।
बोरीवानगढी बांध सुनाएगा खुशहाली का संगीत
मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे शुक्रवार को अपनी पीपलखूंट यात्रा के दौरान् बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना का लोकार्पण करेंगी। केसरपुरा ग्राम पंचायत अन्तर्गत बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना का कार्य जलसंसाधन विकास खण्ड बांसवाडा द्वारा कराया गया है। यह बांध स्थल बांसवाडा-प्रतापगढ मुख्य मार्ग पर पीपलखूंट से 18 किलोमीटर अन्तरंग पहाडी क्षेत्र में बनाया गया है।
इस बांध तक पहुंच के दो मार्ग हैं। बांसवाडा से पीपलखूंट, वहां से लाम्बाडाबरा व केसरपुरा तथा बोरी गांव। इस गांव से बांध स्थल पास ही है। इसी प्रकार बांसवाडा से माहीडेम, केलामेला व केसरपुरा से बोरी तक का रास्ता भी है।
माही नदी कछार के अन्तर्गत माही की सहायक एराव नदी के जल ग्रहण क्षेत्र के मध्य स्थानीय नाले के प्रवाह को अवरूद्ध कर बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना का निर्माण जल संसाधन विकास खण्ड बांसवाडा द्वारा किया गया है । इस योजना का निर्माण जनजाति वर्ग के लघु एवं सीमान्त काश्तकारों की भूमि में सिंचाई सुविधा उपलब्ध करवाने के मकसद से सन् 2006 में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक द्वारा वित्त पोषित योजना में आरंभ किया गया।
योजना की पुनःरक्षित कुल लागत राशि लगभग पांच करोड 75 लाख रुपए आंकी गई है । योजनान्तर्गत सतही वर्षा जल संग्रहण हेतु कुल 573 मीटर लम्बा बांध बनाया गया है। इसमें मिट्टी के बांध की लम्बाई 410 मीटर है जबकि मिट्टी के अनुलग्नक बांध (सेडल डेम) की लम्बाई 70 मीटर है। अध्रिग्रहित जल निस्सरण के लिए 93 मीटर लम्बा वेस्टवियर बनाया गया है। इसमें उपयोगी जल भराव की गहराई 11 मीटर(सील स्तर से पूर्ण भराव स्तर तक) है।
जल संसाधन खण्ड बांसवाडा के अधिशासी अभियन्ता दीपक दोसी के अनुसार बांध से 493 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधा प्रदत्त करने के सन्दर्भ में क्रमशः, 12.81 किलोमीटर एवं 6.78 किलोमीटर लम्बी दांयी मुख्य नहर एवं बांयी मुख्य नहर का निर्माण किया गया है। इससे 493 हैक्टर क्षेत्र में सिंचाई सुविधाओं का लाभ मिलने लगेगा। इनमें दांयी मुख्य नहर से 232 हेक्टेयर एवं बांयी मुख्य नहर से 261 हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र में सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। इस बांध से आगामी रबी सिंचाई 2008-2009 में सिंचाई के लिए जल प्रवाहित किया जाएगा।
यह योजना पीपलखूंट क्षेत्र के कई गांवों के किसानों के लिए वरदान है। इस योजना से जनजाति समुदाय के लघु एवं सीमान्त कृषकों को खेती-बाडी के लिए ंसंचाई सुविधा प्राप्त होगी। इससे ख्ाासकर बोरी, वानगढी, राणा की हरवर, मोजल एवं हिंगोतों की हरवर आदि गांव के 205 जनजाति परिवारों को प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सम्बल प्राप्त होगा। प्रत्यक्ष सिंचाई लाभ के अतिरिक्त, भूगर्भीय जल स्तर में वृद्धि, मत्स्य पालन, सामाजिक वानिकी आदि प्रकल्पों के सन्दर्भ में परोक्ष लाभ अर्जित होंगे।
पीपलखूंट जैसे पहाडी क्षेत्र में बरसाती पानी के बहकर चले जाने तथा जल संग्रहण के अभाव की वजह से अकाल जैसे हालातों के बार-बार उत्पन्न हो जाने की स्थितियों पर भी इस लघु सिंचाई योजना से अंकुश लगेगा। इस जनजाति क्षेत्र के लिए बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना आदिवासियों के लिए प्रदेश सरकार का महत्त्वपूर्ण तोहफा है।
बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना का जल ग्रहण क्षेत्र 14.75 वर्ग किलोमीटर (5.69 वर्ग मील) पसरा हुआ है। इसमें कुल जल उपलब्धता 164.78 मिलियन घन फीट, कुल भराव क्षमता 96.89 मिलियन घन फीट( 2.744 लाख घनमीटर) तथा इसकी उपयोगी भराव क्षमता 87.20 मिलियन घन फीट( 2.469 लाख घन मीटर) है।
बोरीवानगढी लघु सिंचाई योजना के अन्तर्गत प्रभावित डूब क्षेत्र 38.69 हेक्टर है। इस बांध की कुल लम्बाई 573 मीटर तथा बांध की अधिकतम ऊँचाई 19.70 मीटर है। इसका सिंचाई क्षेत्र (सी.सी.ए.) 493 हेक्टर तथा प्रस्तावित सिंचाई क्षेत्र(आई.सी.ए.) 353 हेक्टर निर्धारित है। इस बांध से सिंचाई की तीव्रता 71.60 प्रतिशत है।
दांयी मुख्य नहर प्रणाली की लम्बाई 12.81 किमी. सिंचित क्षेत्र 261 हेक्टर तथा रूपांकित जल प्रवाह क्षमता 6.462 क्यूसेक है। इसी प्रकार बांयी मुख्य नहर प्रणाली की लम्बाई 6.78 किमी. सिंचित क्षेत्र 232 हेक्टर एवं रूपांकित जल प्रवाह क्षमता 5.40 क्यूसेक है। 5 करोड 70 लाख रुपये अनुमानित लागत(पुनः रक्षित) वाली यह योजना विधिवत रूप में सन् 2006 में आरंभ कर दो वर्ष की अवधि में पूर्ण कर ली गई।
मुख्यमंत्री श्रीमती वसुन्धरा राजे के हाथों शुक्रवार को लोकार्पित होने वाला बोरीवानगढी बांध निश्चय ही पीपलखूंट क्षेत्र में खुशहाली के पीपल उगाने में कामयाब होगा। इससे क्षेत्र के आदिवासियों में खुशहाली का दौर शुरू होगा और खेती-बाडी से खलिहानों में समृद्धि आएगी।

होगेनक्कल विवाद फिर गरमाया

बेंगलूर। तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच चल रहा होगेनक्कल विवाद एक बार फिर गरमाता लग रहा है। कर्नाटक सरकार ने एक सप्ताह में तमिलनाडु द्वारा कोई रास्ता नहीं निकालने पर प्रधानमंत्री से मुलाकात करने का फैसला किया है।

राज्य के जल संसाधन मंत्री बस्वराज बोम्मई ने कहा है कि यदि तमिलनाडु सरकार ने होगेनक्कल जल परियोजना से जुड़े मुद्दों पर रुख स्पष्ट नहीं किया तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट की शरण में भी जा सकती है। उधर, राज्य के मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा ने विवाद के हल के लिए प्रधानमंत्री से दखल देने की अपील की है।

तमिलनाडु ने कावेरी नदी पर होगेनक्कल में एक पेयजल परियोजना को पूरा करने का फैसला किया है, जिसका कर्नाटक में भारी विरोध हो रहा है। बोम्मई ने कहा कि परियोजना का संयुक्त सर्वेक्षण कराने व कावेरी नदी के पानी के बंटवारे से जुड़े विवादित मुद्दों को सुलझाने के लिए राज्य सरकार ने तमिलनाडु को एक हफ्ते का समय देने का फैसला किया है। यदि उन्होंने सहयोग नहीं दिया तो अगले महीने एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का गठन किया जाएगा। यह प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मुलाकात कर अपना पक्ष रखेगा। हाल ही में तमिलनाडु के जल संसाधन मंत्री दोराई मुरूगन ने कहा था कि संयुक्त सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है।

उधर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा ने कहा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से विवाद में हस्तक्षेप करने और इसे हल करने का आग्रह किया है। एक दिन की निजी यात्रा पर चेन्नई आए येद्दयुरप्पा ने कहा कि वह इस मुद्दे का सौहार्दपूर्ण हल चाहते हैं। वह प्रधानमंत्री की मौजूदगी में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं।

लुप्तप्राय नदियों में शुमार है हमारी पवित्र गंगा - डॉ. महेश परिमल


कितनी श्रध्दा रखते हैं, हम सब अपनी गंगा मैया पर। फिर चाहे वह इलाहाबाद का तट हो या हरिद्वार का, लखनऊ हो या आगरा, हर जगह हम रोज सुबह देखते हैं कि लोग अपनी श्रध्दा को किस तरह से प्रदर्शित करते हैं। इनकी श्रध्दा ही इनका विश्वास है। अगर इन्हें यह कहा जाए कि गंगा अब हमारे देश में कुछ ही वर्षों की मेहमान है, तो इन्हें विश्वास नहीं होगा। पर इस कटु सत्य को हमें अब स्वीकार ही लेना चाहिए, क्योंकि गंगा अब अपना अस्तित्व खोते जा रही है। गंगा तट लगातार सिमटते जा रहे हैं, इसका प्रदूषण भी बढ़ रहा है। गंगा को शुध्द करने के सारे प्रयास नाकाम होते जा रहे हैं। गंगा अब मैली ही नहीं, बल्कि गटर के गंदे पानी वाली गंगा बन गई है। अब इसके पानी में वह बात नहीं रही। अब तो बोतल में बंद पानी अधिक दिनों तक सुरक्षित भी नहीं रह पाता। गंगा नदी अब अपनी आयु पूरी कर रही है। आज की युवा पीढ़ी जब तक अपनी जीवन संधया में पहुँचेंगे, तब तक गंगा नदी केवल पाठय पुस्तकों और पुरानी हिंदी फिल्मो तक ही सीमित रह जाएगी, यह तय है।
गंगा नदी में रोज ही हजारों टन फूल, लाखों गैलन सीवेज का पानी और हजारों गैलन प्रदूषणयुक्त रसायन विभिन्न माध्यम से पहुँच रहे हैं। हाल ही में महानगर दिल्ली में लोकशिक्षण के एक भाग के रूप में गंगा नदी पर केंद्रित एक डाक्यूमेंट्री फिल्म का प्रदर्शन किया। इस फिल्म का नाम है 'गंगा: रेस्क्यूइंग द रिवर इन डिस्ट्रेस'। इस फिल्म को बनाया एक विदेशी गंगा प्रेमी सुसान जी. जोन्स ने, इसमें सहयोग दिया पानी मोर्चा गंगा महासभा नामक एनजीओ ने। इस फिल्म में उन्होंने बताया है कि किस तरह से गंगा पर्वतराज हिमालय की गोद से निकलकर उत्तर के मैदानी इलाकों में प्रवेश कर अपना रौद्र रूप दिखाती है। उसके तट पर होने वाले अंतिम संस्कार, गंगा पूजा-आरती, गंगा में छोड़े जाने वाले दीये, फूल-हार, स्थानीय लोगों द्वारा मल-विसर्जन और स्नान और इसके अलावा बरतन-कपड़े की धुलाई को स्पष्ट रूप से दिखाने की कोशिश की है। दूसरी ओर जगह-जगह पर मिलने वाले रसायनों के कारण किस तरह से गंगा लगातार प्रदूषित होती जा रही है, फिल्म में इसे बखूबी दिखाया गया है।
पिछले एक दशक से पर्यावरण प्रेमी और वकील महेश मेहता गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए काम कर रहे हैं, गंगा में जहरीले रसायनों और गंदा पानी बहाने वाले तमाम निगमों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ना मामूली बात नहीं है। अफसोस के साथ वे बताते हैं कि मानव ने यदि प्र.ति के साथ छेड़छाड़ करना बंद नहीं किया, तो समूची जीवनसृष्टि ही खतरे में पड़ जाएगी। हाल ही में यूएनओ से जारी किए गए रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि गंगा को पानी की आपूर्ति करने वाले हिमालय के हिमखंड सन् 2030 तक पूरी तरह से पिघल जाएँगे। इन हिमखंडों से गंगा को 70 प्रतिशत पानी मिलता है। खासकर चैत और वैशाख में मैदानी इलाकों में जब गंगा बिलकुल सूख जाती है, तब गंगोत्री ही एकमात्र सहारा के रूप में उसकी मदद करती है। यही गंगोत्री अब 50 गज के हिसाब से सिकुड़ती जा रही है। आज से 20 वर्ष पहले गंगोत्री इतनी तेजी से नहीं पिघल रही थी, लेकिन अब उसका पिघलना तेजी से जारी है।
पानी मोर्चा गंगा महासभा के साथ सम्बध्दा निवृत्त कमांडेंट सुरेश्वर सिन्हा कहते हैं कि 2008 के मार्च में यूएनओ ने लुप्तप्राय होने वाले विश्व की दस नदियों की सूची जारी की है, जिसमें गंगा का नाम भी शामिल है। यह जानकर हर भारतीय दु:खी हो सकता है, पर किया क्या जा सकता है? प्र.ति से लगातार छेड़छाड़ के कारण गंगा ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के पर्यावरण पर संकट आ पड़ा है। हजारों वर्ष की पुराण प्रसिध्दा और एक से अधिक संस्कृति की साक्षी गंगा आज लुप्तप्राय नदियों की श्रेणी में आ गई है। यह खबर भारतीय को कँपकँपा सकती है। गंगा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया खंड में पेयजल की विशाल स्रोत के रूप में जानी जाती है। गंगा लुप्त न हो, इसके लिए एक-एक समझदार भारतीय नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी है।
कमांडेंट सिन्हा के अनुसार गंगा 50 करोड़ लोगों के लिए पेयजल और खेती के लिए पानी की पूर्ति करती है। किंतु अब उसकी यह आपूर्ति जल्द ही खतम हो जाती है। उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर रायों के लोग कम पढ़े-लिखे होने के कारण परिस्थितियों की भयावहता को ये समझ नहीं पा रहे हैं। दूसरी ओर हर पाँच साल में हाथ जोड़कर गरीबों के सामने गरीब बनकर वोटों की भीख माँगने वाले नेता इस स्थिति को समझना ही नहीं चाहते।
विशेषज्ञ कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब गंगा एक मौसमी नदी बनकर रह जाएगी। यदि बारिश अच्छी हुई तो गंगा के किनारे छलकते हुए मिलेंगे, परंतु गर्मी में गंगा नदी पूरी तरह से सूख जाएगी। 1568 मील लम्बी नदी के किनारे 100 से अधिक छोटे-बड़े शहर बसे हुए हैं। इनमें से बहुत ही थोड़े शहरों की अपनी सीवेज लाइन है, बाकी शहरों का गंदा पानी गंगा में ही बहाया जा रहा है। इसमें उद्योग कारखानों की गंदगी तो और भी बुरी हालत में है। यह सारे काम बेरोकटोक जारी हैं। गंगा में मिलने वाले इन प्रदूषणों को कम करने की दिशा में सरकार के सारे प्रसास नाकाफी साबित हो रहे हैं। हमारे सामने ही गंगा का पलायन हो रहा है। इसे हम जानते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। गंगा मैली नहीं थी, हमने ही उसे मैली कर दिया है। गंगा तो पवित्र नदी थी, जो अब पाठय पुस्तकों और पुरानी फिल्मों में ही देखने और जानने को मिलेगी। यह हमारा दुर्भाग्य ही है। गंगा हमारे पाप तो धो सकती थी, पर हमारा दुर्भाग्य नहीं बदल सकती। हर-हर गंगे.
डॉ. महेश परिमल

टेरी रिपोर्ट की महत्वपूर्ण बातें


कालाडेरा के कोकाकोला प्लांट के बारे में टेरी रिपोर्ट की महत्वपूर्ण बातें

2004 में कोकाकोला कंपनी के खिलाफ इंटरनेशनल-कैम्पेन ने कंपनी को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह भारत में अपने कोल्डड्रिंक और बोतलबंद पानी कारोबारी प्लांटों के स्वतंत्र आकलन की सहमति दे। टेरी द्वारा किए गये मूल्यांकन में कोकाकोला के भारत के पचास प्लांटों में से छह का मुआयना किया गया। इतने से ही यह बात प्रमाणित हो जाती है कि कोकाकोला कंपनी पहले से ही मौजूद समस्या पानी की भयानक कमी को और बढ़ाने के साथ ही जल-प्रदूषण के लिए भी उत्तरदायी है, इसी बात को कालाडेरा और वाराणसी के स्थानीय समुदायों के लोग भी लम्बे समय से कहते आ रहे हैं।
भारत में टेरी द्वारा आयोजित आंकलन में महसूस किया गया है कि कालाडेरा में जारी कोकाकोला के कार्यों से पानी की स्थिति लगातार बद से बदतर होती रहेगी और आसपास के समुदायों पर दबाव बना रहेगा।
इस रिपोर्ट में कालाडेरा कोकाकोला प्लांट के लिए चार सिफारिशें की गयी हैं:-

1. सबसे नजदीक के किसी जलाशय से पानी परिवहन करके ले आए। ( जो ढूँढना बहुत कठिन हैं )
2. जिन दिनों लोगों को पानी की कम जरूरत रहती हो, उन दिनों जल-भंडारण करे ( शायद मौजूद नहीं है! )
3. अधिशेष जल-क्षेत्र ढूँढ कर प्लांट वहां ले जाए। (जो राजस्थान में ढूँढना बहुत कठिन है)
4. प्लांट बंद करे।

कालाडेरा कोकाकोला प्लांट के बारे में टेरी-रिपोर्ट के कुछ अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्ष:-1. 1998 में केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा कालाडेरा क्षेत्र को डार्क-जोन के रूप में घोषित किया गया था इसके बावजूद कोकाकोला ने अपना प्लांट यहीं लगाने का निश्चय किया और 2000 में काम भी शुरू कर दिया। जब कोकाकोला कंपनी को पहले से ही यह मालूम था कि कालाडेरा में पानी की समस्या है तो उसने अपना प्लांट जानबूझकर वहां क्यों बनाया?
2. कोकाकोला ने 'पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन' का साथ देने से भी मना कर दिया जो प्लांट लगाने से पहले, पानी पर्यावरण और समुदाय पर पड़ने वाले उसके प्रभावों का अध्ययन कर रहा था।
3. कोकाकोला के कोल्डड्रिंक और बोतलबंद पानी का उत्पादन अप्रैल-मई और जून के महीनों में चोटी पर होता है- यानी कि कोकाकोला ऐसे समय में सबसे अधिक मात्रा में पानी का दोहन करती है जब स्थानीय समुदाय के पास कम से कम मात्रा में पानी उपलब्ध होता है।
4. कोकाकोला जल संरक्षण के लिए वर्षा जल संचयन पर ही सबसे ज्यादा निर्भर है। लेकिन चूंकि वर्षा बहुत कम होती है, इसलिए जल-पुनर्भरण के लिए किए जा रहे कामों की सार्थकता की संभावना बहुत महत्व की नहीं होती है।
5. टेरी की टीम ने दौरा करके कोकाकोला के वर्षा जल-संग्रहण ढांचों को भी देखा और पाया कि वे 'जीर्णशीर्ण' ही हैं, बहुत काम के नहीं हैं।
6. राजस्थान जल नीति-1999 इस बात की जोरदार आवाज में वकालत करती है कि विभिन्न क्षेत्रों में जल संसाधनों का बंटवारा 'आर्थिक और विवेकपूर्ण' आधार पर किया जाना चाहिए जिसमें सिंचाई, उर्जा उत्पादन और उद्योगों को पेयजल आपूर्ति पहली प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए।
7. इस आकलन में पाया गया है कि कोकाकोला के लिए अपने कारोबार (मुनाफा) की निरंतरता ही उसके लिए प्राथमिकता रही है, समुदाय के लिए पानी के मुद्दों और समस्याओं की उपेक्षा हुई है।

अधिक जानकारी के लिए कृपया देखें www.indiaresource.org या ईमेल info@indiaresource.org से सम्पर्क करें।

संत रविदासनगर में भी जमीन फटी

प्रदेश में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड इटावा, कानपुर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़ और लखनऊ के बाद अब संतरविदासनगर जिले में जमीन फट गई है। जानकारी के अनुसार जिले के सोनपुर, अमवा, माफी और इटेहरा गांवों में पिछले तीन दिन में हुई जमीन फटने की घटनाओं से सनसनी फैल गई है। सूचना मिलने पर वरिष्ठ अधिकारियों और विशेषज्ञों ने इन गांवों का दौरा किया तथा ग्रामीणों को आश्वस्त किया कि इस घटना से घबराने की कोई जरूरत नहीं हैं।

450 विकासखंडों में भूजल स्तर खतरे की हद से नीचे

विशेषज्ञों का मानना है कि जमीन फटने की घटनाएं भूगर्भ जल के अधिक दोहन की वजह से हो रही है। इसके मद्देनजर राज्य सरकार वर्षा जल के संरक्षण और भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिए जल्दी ही एक कानून बनाने की अपनी मंशा का मंगलवार को इजहार कर चुकी है। गौरतलब है कि जिले के सोनपुर और अनंगपुर गांव में दो साल पहले भी जमीन फटने की घटना हुई थी। इस बीच राज्य के करीब 25 स्थानों पर अब तक जमीन फटने की घटनाएं हो चुकी है।

इनमें से तेरह स्थान हमीरपुर जिले में है। इसके पूर्व राज्य का भूगर्भ जल विभाग पेयजल की किल्लत की आशंका के मद्देनजर पहले ही कृषि कायों के लिए भूगर्भ जल के अधिक दोहन को रोकने की सलाह दे चुका है। विभागीय सूत्रों का कहना है कि राज्य के 72 जिलों के 822 विकासखंडों में से 450 विकासखंडों में भूगर्भ जलस्तर खतरे की हद तक नीचे जा चुका है। केन्द्रीय भूगर्भ जल विभाग तथा उत्तर प्रदेश भूगर्भ जल विभाग द्वारा हाल में कराए गए संयुक्त सर्वेक्षण में पता चला है कि राज्य के 13 जिलों के 22 विकासखंडों में भूगर्भ जल का अधिक दोहन हो चुका है। इसके अलावा, 29 जिलों के 75 विकास खंडों में भी हालात खराब हो चुके हैं। आगरा-चम्बल पट्टी में भूगर्भ जल का स्तर 60 फीट से नीचे जा चुका है।
एजेंसी
लखनऊ, 20 जून

जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए नई तकनीक

विष्णु पांडे / कानपुर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और हरकोर्ट बटलर टैक्ोलॉजिकल इंस्टीटयूट (एचबीटीआई) ने प्राकृतिक संसाधन जल के प्रदूषण को रोकने के लिए एक नई तकनीकि को ईजाद किया है। यह नई तकनीकि आईआईटी कानपुर के पर्यावरणीय इंजीनियर विनोद तारे ने सैन सिस्टम तकनीक के आधार पर विकसित की है। इस तकनीक में प्रदूषण को रोकने के लिए जीरो डिस्चार्ज सिद्वांत का प्रयोग किया जाएगा। इस तकनीक में टायलेट में प्रयोग किये जाने वाले पानी को सफाई के बाद पुन: प्रयोग किया जा सकता है। इसमें अपशिष्ट पदार्थ के ठोस और तरल भाग को अलग-अलग टैकों में एकत्रित कर लिया जाएगा। इन टैंको में जमा ठोस अपशिष्ट को खाद और तरल अपशिष्ट को तरल उर्वरक के रुप में विकसित किया जा सकेगा। इसके लिए टायलेट सीट के नीचे पानी को अलग करने के लिए एक यंत्र लगाया जाएगा। तारे के अनुसार वर्तमान में टायलेट में अपशिष्ट को साफ करने के लिए स्वचछ पानी का प्रयोग किया जाता है। शहरों के सीवरों से नदी में जाने वाले पानी का लगभग 90 फीसदी हिस्सा बिना किसी दोहन के ही नदियों में पहुचाया जाता है, जो जल प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। इस तकनीकि से न केवल जल प्रदूषण को रोका जा सकेगा साथ ही श्रम और पूंजी के अतिव्यय को भी रोका जा सकेगा। तारे और उनके छात्रों द्वारा निर्मित की गई इस तकनीकि को भारतीय रेल द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई है और रेलवे अपनी आगामी परियोजना में इसका इस्तेमाल करने वाला है। इस बाबत डॉ तारे ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि इस तकनीकि का सबसे पहला प्रयोग चेन्नई और त्रिवेन्द्रम रेलवे के मध्य किया जाएगा। इसके अलावा यूनीसेफ भी इस तकनीकि के लिए आईआईटी से संपर्क कर रहा है। इसके अलावा जल क्षेत्रों में प्रदूषण की दर को नापने के लिए एचबीटीआई के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख दीपेश सिंह ने एक कंप्यूटर प्रोग्राम का निर्माण किया है। इससे किसी क्षेत्र में उपस्थित जल क्षेत्रों में प्रदूषण की जांच की जा सकेगी और समय-समय पर बदल रहें प्रदूषण के आंकड़ो को भी दिखाया जा सकेगा। दीपेश सिंह ने बताया कि इस तकनीकि से बिना किसी यंत्र की सहायता के किसी स्थान में जल की गहराई को भी नापा जा सकता है। अभी तक जल प्रदूषण को जांचने के लिए ट्रायल और एरर तकनीकि का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने भी इस तकनीकि को रायबरेली के 9 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगाने के लिए भी रुचि दिखाई है।

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