नदियों की आवाज - संदर्भ- पानी का संकट

नये प्रकार की आ रही गुलामी से हम बेखबर हैं। जीवन के आधार जल, जंगल, जमीन, अन्न व खुदरा व्यापार और नदियों पर कंपनियों का अधिकार हो रहा है। हमारा जल दूसरों के नियंत्रण में जा रहा है। बोतलबंद पानी दूध से भी महंगा बिक रहा हैं।

सन् 2002 की बनी जलनीति में सरकार ने प्रकृति प्रदत्त पानी का मालिकाना हक कम्पनियों को दे दिया है- जो पानी के साझे हक को खत्म करके किसी एक व्यक्ति या कंपनी को मालिक बनाती है। हमारा मानना है कि नई जलनीति ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी से और अधिक भयानक गुलामी के रास्ते खोलती है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमारी जमीन पर नियंत्रण करके अंग्रेजी राज चलाया था, आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पानी को अपने कब्जे में करने में जुटी हैं और सरकारें पानी का मालिकाना हक कंपनियों को देकर नई गुलामी को पुख्ता करने में लगी हैं।

भारत में इसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ में बहने वाली शिवनाथ नदी से हुई थी। उसे हमारे संगठन जल बिरादरी और वहां के समाज ने मिलकर रुकवाया था। अभी उड़ीसा के हीराकुंड बांध के पानी को किसानों से छीनकर दुनिया के बड़े-बड़े क़ारखानों को देने का मन वहां की सरकार ने बनाया तो, वहां के किसानों ने नेहरु की मूर्ति से लेकर गांधी मूर्ति तक लगभग 23 किमी. लम्बी 'मानव श्रृंखला' बनाकर उसको रुकवाने के लिए 'जल सत्याग्रह' किया।

इसी तरह राजस्थान में बीसलपुर बांध का पानी किसानों से छीनकर जयपुर- अजमेर शहर को देने की कोशिश का किसानों ने विरोध किया, जिसमें 5 किसान शहीद हुए। जल के लिए शहीद किसानों की कहानी, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अलग नहीं है। इसे यदि सरकारें नजरअंदाज करके मनमानी करतीं रहीं तो वर्तमान सरकार को भी आने वाला समय अंग्रेजों की तरह क्रूर कहेगा।

इसी के साथ हमें एक और चीज समझने की जरूरत है कि पानी के मामले में प्राय: पश्चिमी देशों का रवैया दोहरे मानदंड वाला ही रहता है। देखने में आया है कि पश्चिम के मुल्कों के द्वारा अपने और शेष विश्व के लिए पानी के बारे में बनाए गए नियम-कानून अलग-अलग होते हैं। शेष विश्व के लिए यूरोपीय यूनियन के नियम ज्यादातर पक्षपाती और दबाव पर ही आधारित होते हैं। इसलिए वे वह नहीं करते जिसको करने के लिए वे दूसरों को कहते हैं। आजकल यूरोप की नीतियों में बहुत बड़ा अंतर-विरोध दिख रहा है जो पानी के मामले में और गहरा होता जा रहा है।

पानी को विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के दायरे में लाने का मुख्य प्रस्तावक यूरोपीय यूनियन ही था। पिछले पाँच सालों में यूरोपीय यूनियन ने विकासशील देशों पर गैट और विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से दबाव डलवाकर उनके पानी सेक्टर को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खुलवा दिया। परंतु इसके ठीक विपरीत यूरोप के भीतर यूरोपीय यूनियन ने पानी तथा दूसरी संवेदनशील मुद्दों को उदारीकरण संबंधी बातचीत या चर्चाओं से निकाल दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने यूरोपीय यूनियन से जोरदार ढंग से अपील की है कि वह अपनी गैट के अंतर्गत माँगों को वापस ले। क्योंकि उदारीकरण और निजीकरण के अभी तक सिर्फ़ नकारात्मक प्रभाव ही सामने आए हैं। इसलिए राष्ट्र की जल नीति वैश्विक व्यापार वार्ताओं द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती।

'इंसाफ' द्वारा किए गये एक अध्ययन के अनुसार ''हो यह रहा है कि साफ पानी तक आम आदमी की पहुंच पहले के मुकाबले आज ज्यादा कठिन होती जा रही है। पानी आम आदमी की रोजमर्रा की जिन्दगी का अहम हिस्सा है, पर कंपनियों के मुनाफे की होड़ में फंसकर काफी खतरनाक स्थिति हो गयी है। समाज के मालिकाना हक को नकार कर सार्वजनिक जल व्यवस्था के संचालन को निजी हाथों में दिये जाने की प्रक्रिया एशिया में तेजी से बढ़ती जा रही है। पानी तथा इससे जुड़ी अन्य सुविधाओं की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होने से लोगों को पानी मिलना ही मुश्किल हो रहा है। मुनाफे के लालच के कारण उन इलाकों में पानी की सुविधाएं घटती जा रही हैं, जहां पानी से ज्यादा मुनाफा नहीं मिल पा रहा है। इस स्थिति में हाशिये पर रहने वाले गरीब तबके और खासकर महिलाओं पर इसकी मार अधिक पड़ती है। बढ़ी हुई कीमतें अदा न कर सकने के कारण ऐसे परिवारों के लिए पानी का जुगाड़ करना ही मुश्किल हो गया है।'' यूरोपीय यूनियन दुनिया का संयुक्त रूप से सबसे बड़ा पानी के लिए सब्सिडी देने वाले समूह है, जो कि 1.4 बिलियन यूरो प्रतिवर्ष सहायता करता है। दुर्भाग्यवश यूरोपीय सरकारें पिछले दशकों से अपने सहायता-बजट का सहायतार्थ दी गई दान राशि का एक बड़ा भाग पानी की आपूर्ति करने में खर्च करती हैं। निजीकरण को बढ़ावा देने में खर्च किया जाता है ताकि विकासशील देशों में जल के निजीकरण को बढ़ाया जा सके ।

फ्रांस दुनिया का सबसे बड़ा पानी व्यवसायी कंपनियों का देश है। डच सरकार की जलनीति में भी जबर्दस्त विरोधाभास हैं। नयी जलनीति के अनुसार घरेलू जल सप्लाई में निजी आपरेटरों की भूमिका को पूरी तरह खारिज कर दिया गया है, जबकि अंतरराष्ट्रीय नीति इसके ठीक विपरीत है। ऐसी ही नीति जर्मनी, स्वीडन और स्विटजरलैंड की भी है। पिछले वर्ष निजीकरण की नीति के असफ़ल होने के बाद एक बार फिर यूरोपीय देश पानी और सीवेज के निजीकरण को दुबारा नए तरीके से लॉच करना चाहते हैं। पर निजीकरण की राह में बोलीविया का अनुभव रोड़ा बना हुआ है। जहां पर सरकार ने सात साल पुराने पानी के निजीकरण से संबंधित समझौते को रद्द कर दिया है जो फ्रांस की बहुराष्ट्रीय कंपनी वेक्टेल सीवेज और सरकार के बीच हुआ था। इसका कारण था कंपनी द्वारा पानी की बेतहासा कीमतें बढाना। वहां पर लोग पानी पर सरकार के साथ-साथ आम लोगों का भी अधिकार चाहते हैं।

पानी पर टीआई संगठन का रवैया मौजू है कि विकासशील देशों के कई समुदायों में पानी के निजीकरण के खिलाफ लड़ाई अब जीवन और मौत का मामला बन चुका है। मौजूदा चुनौती पानी के निजीकरण की प्रक्रिया का विरोध कर इसकी दिशा को बदल देने की है। इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि पानी के निजीकरण का एक सार्वजनिक और प्रजातांत्रिक विकल्प ढूंढ़ा जाये। इस विकल्प को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक सामाजिक परिवर्तन लाये जायें, तथा जैसे-जैसे हमारा यह संघर्ष आगे बढ़ेगा, तो साफ हो जायेगा कि निजीकरण का मुद्दा विकासशील देशों के निरंतर शोषण, दमन और उन पर दबदबा कायम कर लेने के मुद्दों से अलग नहीं है।

इसीलिए पानी पर समाज की हकदारी आज बहुत जरूरी हो गयी है। आज जब सरकार 1857 को एक उत्सव की तरह लालकिले में मना रही है। कभी यमुना को रमणीक छटाओं, पवित्र पानी के साथ बहने वाली नदी; राज और समाज को चलाने वाली जलधारा मानकर यह लालकिला यमुना किनारे बनाया गया था और यहीं से लम्बे समय तक देश का 'राज' चला। आज वही यमुना नाले में तब्दील हो गयी है। फिर यमुना स्वच्छता के नाम पर 'यमुना एक्शन प्लान' आदि बना और कर्ज लेकर उस पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किया गया लेकिन यमुना नदी और गंदा नाला बनती गयी। हमेशा से यमुना दिल्ली को पानी पिलाती रही है। 22 किमी. लम्बी और 2 से 5 किमी. चौड़ाई में अपने निर्मल जल से भूजल भंडारों को भरती -बहती जाती थी। यमुना के दोनों तरफ तटबंध के क्षेत्र जो कि 'बाढ़ भराव' के क्षेत्र थे, दु:खद है कि अब वह होटल, हॉस्टल, मॉल्स आदि तरह- तरह के सीमेंट के कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हैं। (पीएनएन)

यमुना किनारे ही बनेगा खेलगांव - सरकार की मनमानी

नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनजर यमुना किनारे बन रहे खेल गांव को कहीं और ले जाने की संभावना को डीडीए ने पूरी तरह से खारिज किया है। डीडीए ने हाईकोर्ट को बताया कि खेलगांव का निर्माण यमुना किनारे ही होगा और यहां पर एथलीटों के लिए 1,160 फ्लैट बनाने की भी योजना है। डीडीए ने यह जवाब यमुना किनारे खेल गांव के निर्माण पर रोक लगाने संबंधी याचिका के संदर्भ में दिया है।

डीडीए के वकील राजीव बंसल ने कहा कि यमुना किनारे बन रहे खेल गांव को किसी भी सूरत में दूसरी जगह स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। उन्होंने तर्क दिया कि वर्ष 2003 में ओलंपिक प्रतिनिधिमंडल ने भारत का दौरा किया था। उस समय प्रतिनिधिमंडल को खेल गांव निर्माण के वैकल्पिक स्थान के तौर पर सफदरजंग हवाई अड्डा या प्रगति मैदान नहीं दिखाया गया था। ऐसे में खेल गांव यमुना किनारे से किसी दूसरी जगह नहीं बनाया जा सकता। याची ने तर्क दिया था कि डीडीए के प्रस्तावित जोनल प्लान के मुताबिक यमुना खादर में कोई भी पक्का निर्माण नहीं हो सकता जबकि डीडीए अब ऐसा निर्माण कर रहा है।

बहरहाल कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद डीडीए को निर्देश दिया कि सोमवार तक प्रस्तावित निर्माण की लेआउट योजना पेश की जाए। कोर्ट ने पूछा कि खेलगांव में कितने खिलाड़ियों को ठहराने की योजना है। उल्लेखनीय है कि गैर सरकारी संगठन 'तपस' द्वारा दाखिल याचिका में यमुना किनारे निर्माण पर रोक लगाने की मांग की गई थी। तर्क दिया गया कि केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने वर्ष 2002 में एक अधिसूचना जारी कर कहा था कि यमुना खादर क्षेत्र से भूजल नहीं निकाला जा सकता। मगर निर्माण कार्य होने पर बड़े स्तर पर भूजल का प्रयोग होगा। याचिका में कहा गया है कि यमुना खादर का संरक्षण करने में सरकार नाकाम साबित हो रही है और इससे नदी की पर्यावरण प्रणाली को नुकसान पहुंचा है। याची विनोद कुमार जैन ने कहा है कि डीडीए ने यमुना खादर में कुछ आवासीय परिसरों सहित विभिन्न परियोजनाओं का प्रस्ताव किया है, जो बहुत खतरनाक साबित होगा। निर्माण होने से दिल्ली की जनता पानी के लिए तरस जाएगी। इसलिए इस तरह के निर्माण पर रोक लगाई जानी चाहिए।

गंगा-यमुना को प्रदूषण से निजात दिलाने के तमाम अभियान

पिछले एक-डेढ़ दशक में पवित्र नदियों गंगा-यमुना को प्रदूषण से निजात दिलाने के तमाम अभियान चलाए जा रहे हैं। इन पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं। खासतौर से यमुना की साफ-सफाई पर विदेशी मदद से करोड़ों रुपये फूंके जा चुके हैं, पर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है। करोड़ों के खर्च के बावजूद यमुना साफ नहीं होती। अब एक नया शिगूफा छोड़ा गया है। कहा जा रहा है कि यमुना के किनारों का सौंदर्यीकरण किया जाएगा। सवाल है कि अगर नदी की जगह यमुना के नाम पर इसी तरह कचरे का नाला बहता रहेगा, तो किनारों के सौंदर्यीकरण का क्या लाभ? यह तो समस्या के ठोस निदान की जगह लीपापोती करने का ही प्रयास होगा। पहले नदियों को तो जीवित कीजिए, उनकी साफ-सफाई करके उनमें प्राणों का संचार कीजिए, उसके बाद ही उनके किनारों पर पार्क आदि बनाइए।
आर. वी. सिंह, रोहिणी, दिल्ली

'प्रतिबन्धित' तालाब


मिर्जापुर मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर स्थित भुड़कुड़ा गाँव, जहाँ संविधान और उसके न्यायालयों के फैसलों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। जहाँ आजादी के 60 साल बाद भी मनुवादी ढाँचा जस का तस बना हुआ है। जहाँ आज भी दबंगो द्वारा दलितों को सार्वजनिक तालाबों के इस्तेमाल पर 'प्रतिबन्ध' लगाया जाता है, जिसके कारण दलितों को बूँद-बूँद के लिए भी दूर तक भटकना पड़ता है। तालाब के किनारे स्थित इस दलित बस्ती में सामन्ती फरमानों के आगे जिन्दगी कैसे रेंगती है इसका अनुमान आप बस्ती के ही राम सहाय कें इस बात से लगा सकते है, 'साहब! हम पानी के पास रहकर भी प्यासे रहते हैं। हम पानी को देख तो सकते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते'।
घटना की पृष्ठभूमि बताते हुए गाँव के लोग कहते हैं कि पूरा मामला मजदूरी के पैसों को लेकर शुरू हुआ। पिछले साल दिसम्बर में गाँव के दबंग कुर्मियों ने अपनी बकाया मजदूरी माँगने पर मन्जू नामक दलित महिला की पिटाई कर दी थी। जिस पर दलितों ने पुलिसों में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की। पुलिस ने रिपोर्ट तो दर्ज नहीं की उल्टे मन्जू और उसके पति रामवृक्ष भारती को डाँटकर थाने से भगा दिया। इधर, दबंगों को जब पता चला कि दलितों ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत करने की जुर्रत की तो वे तिलमिला उठे। उन्होंने गाँव के प्रधान शशीलता के पति अवधेश सिंह पटेल के साथ मिलकर एक मात्र तालाब जिस पर, पूरी दलित बस्ती निर्भर थी, को कँटीले तारों से घेर कर दलितों को प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया।

प्यास से मरते दलितों ने जब मजबूरन आन्दोलन का रूख किया तब राजनीतिक दल भी अपने मुखौटे उतारने पर मजबूर हो गए। रामराज की बात करने वाली भाजपा और दलितराज की पैरोकार बसपान दोनों ने अपने 'सैध्दान्तिक' मतभेद भुलाकर दबंग कुर्मियों के पक्ष में खड़ा होना ही फायदेमंद समझा।

क्षेत्र के रसूखदार भाजपा विधायक और विधानसभा में पार्टी के उपनेता ओमप्रकाश सिंह जहाँ शुरू से ही अपने सजातीय दबंगों के पक्ष में सक्रीय थे। तो वहीं दलित वोट बैंक को हर हाल में पक्का मानकर कुर्मियों में भी बंटवारा करा ले जाने की मंशा से बसपा प्रत्याशी रमेश दुबे भी उनके साथ खड़े हो गए। इस 'आम सहमती' की हद तो तब हो गयी जब इस पूरे मामले पर दलितों द्वारा 1 मार्च को पहले से घोषित प्रदर्शन के खिलाफ आयोजित कुर्मियों की सभा में दोनों ने एक साथ दलितों को सबक सिखाने का आहवान किया। बस्ती के राम सूरत भारती बताते है ''भाजपा तो यहाँ शुरू से ही दबंगों के साथ थी लेकिन बसपा नेता से हमें ऐसी उम्मीन नहीं थी। आखिर बहन जी को तो हमारा ही वोट मिलता है ना''।

इसी बीच इस मसले पर मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमेन राइट्स (पी0यू0एच0आर0) की तरफ से संगठन के संयोजक शरद मेहरोत्रा ने इलाहाबाद हाई कोर्ट मे रिट (संख्या- 18475, पी0यू0एच0आर0 बनाम उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य) दायर कर दी। जिस पर सुनवाई करते हुए 9 अप्रैल को न्यायमूर्ति रफत आलम और राकेश शर्मा की बेंच ने घटना को अमानवीय और स्तब्ध करने वाला बताते हुए तत्काल तालाब से घेराबन्दी हटाने और दलितों को पानी उपलब्ध कराने का आदेश दिया।

कोर्ट का आदेश आ जाने के बाद गाँव के दलितों में उम्मीद जगी कि वे एक बार फिर तालाब का पानी इस्तेमाल कर सकेंगें। यह उम्मीद इस ठोस बुनियाद पर टिकी थी कि फैसला आने के महीने भर बाद ही एक दलित की बेटी मुख्यमन्त्री बनने जा रही थी। लेकिन 13 मई को मायावती के सत्ता में आने के बाद भी कोर्ट के आदेश पर कोई कार्यवायी नही हुयी और तालाब दलितों के लिए 'निषिद' बना रहा। इस मुद्दे पर 28 दिनों तक भाव हड़ताल पर बैठने वाले भाकपा (माले) नेता रामकृत बियार कहते हैं 'मायावती के लिए अम्बेडकर द्वारा रचित संविधान और न्यायालयों के फैसलो का कोई मतलब नहीं है। वो सिर्फ अम्बेडकर के नाम पर वोट लेना जानती है।'

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब दबंगों ने तालाब को कंटीले तारों से घेरने की वजह तालाब के किनारे लगे पौधों की सुरक्षा करना बताया। दलित बस्ती के ही रामसूरत भारती बताते हैं 'फैसला आने के बाद दबंगों ने रातों-रात आस-पास के बागीचों से कई छोटे-बड़े पौधे काटकर तालाब के किनारे गाड़ दिया। जिसे उन्होंने महीनों बाद मुआयने पर आए अधिकारियों को भी दिखाया। मायाराज के चुस्त-दुरुस्त प्रशासनिक अधिकारी इन मुर्झाए और गिर चुके पौधों की सुरक्षा के उपाय देखकर गदगद हो गए। हालांकि, मौजूदा समय में इन 'पौधों' के अवशेश भी सड़-गल चुके हैं लेकिन प्रशासन अभी भी यही तर्क दे रहा है कि ऐसा दलितों को रोकने के लिए नहीं बल्कि पौधों की सुरक्षा के लिए किया गया है।

एक परिचय : उपेन्द्र शंकर

दिल्ली में पैदा हुआ, दिल्ली में ही पला-बढ़ा, 1980 में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से एमए किया। उसी वर्ष से मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिक्स एंड प्रोग्राम प्लानिंग में नौकरी कर रहा हूं। हमने 1982 में अंतरजातीय विवाह किया। परिवार में दो बच्चे राहुल और निधि हैं। राहुल पेशे से आर्किटेक्ट है और जयपुर में चलने वाले हर अभियान में मदद करता है। निधि फिल्म संपादन और डॉक्यूमेंटरी का काम करती है।
हमारे समाजकर्म की शुरुआत प्रासंगिक संवाद समिति से हुई। प्रासंगिक संवाद श्रृंखला अखबारों व गांवों में भेजा करते थे। 1983 से लेकर 92 तक नियमित निकालते रहे। मैं और मेरी पत्नी सुनीता दिल्ली की बसों में बांटा करते थे। सोच ये थी कि उन तक सूचनाएं पहुंचनी चाहिए, जो कुछ करें, पढ़े और विचार प्रक्रिया शुरू हो। प्रासंगिक संवाद समिति का पहले अंक का प्रकाशन वर्ल्ड फूड-डे पर हुआ था। इसमें यह बहस करने की कोशिश की गई थी कि क्लब ऑफ रोम के जीरो रेट ग्रोथ थ्योरी पर चर्चा हो। जीरो रेट ग्रोथ थ्योरी के पीछे कांसेप्ट यह है कि जीरो रेट ग्रोथ होने पर पर्यावरण का विनाश बंद हो जाएगा, पर यह थ्योरी गरीब मुल्कों के भूखे लोगों के लिए कुछ भी देने को तैयार नहीं थी। . . . . . Read More

खतरे में है अफ्रीका की सबसे बड़ी झील - साभार पर्यानाद

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी झील का अस्तित्व खतरे में है. विक्टोरिया झील के निरीक्षण के बाद विशेषज्ञों ने यह राय दी है. झील का उपयोग कारों और ट्रकों की सफाई के लिए किया जा रहा है. इससे झील का पानी और प्रदूषित हो गया है. झील में जलकुंभियों की भरमार है, जिससे मछलियां भी कम होती जा रही है.

पर्यावरण वैज्ञानिकों और विक्टोरिया झील के किनारे रहने वाले लोगों का मानना है कि यदि जल्द इस झील को बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए तो झील को पूरी तरह से खत्म होने से नहीं रोका जा सकता है. विक्टोरिया झील के पास के एक गांव के पर्यावरण वैज्ञानिक एरिक ओडाडा ने कहा कि यह झील पहले भी तीन बार सूख चुकी है, लेकिन इस बार यह खतरा मनुष्य द्वारा पैदा की गई स्थितियों के कारण अधिक चिंताजनक बन गया है.

आसपास के गांवों में जंगल की कटाई और झील में मिलने वाली दर्जनों नदियों के कारण उत्पन्न गाद से झील को काफी नुकसान हो रहा है. पिछले सौ सालों में जलस्तर 120 मीटर से घटकर 40 मीटर रह गया है. 15 वर्षो से झील के सहारे मछली का कारोबार करने वाले ज्योफ्री ओब्योर ने कहा कि यदि यह सब जारी रहा तो झील पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर रहने वाले लाखों लोगों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाएगी.

चरखारी के सूखे तालाबों को किया लबालब!

महोबा। जिले में मंडरा रही अकाल की काली छाया से भले ही इंसान और जानवर क्षुधा तृप्ति के लिए परेशान हैं, मगर यहां के हालात अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए वरदान साबित हो रही है। आंकड़ों की बाजीगरी में माहिर ये लोग गांवों को समस्या विहीन करने के लिए शासन द्वारा भेजी धनराशि को कार्यो में खर्च दर्शा अपनी जेबें भरने में जुटे है।

सूखे की भयावह स्थिति यह है कि यहां के 697 तालाब-पोखर स्वयं प्यास से तड़प रहे है, मगर प्रशासन ने जानवरों की पेयजल समस्या के समाधान के लिए चरखारी विकास खंड के 41 तालाबों को नहरों के माध्यम से पानी से लबालब किया जाना दर्शाया है। हालांकि इस फर्जीवाडे़ की पोल सिंचाई विभाग और जिला पंचायत राज कार्यालय के कथनों में भारी भिन्नता से खुलती है। जहां डीपीआरओ ने तो कबरई व चरखारी विकास खंड के तालाबों को भरे जाने की रिपोर्ट शासन को भेज दी। वहीं सिंचाई विभाग के मुताबिक यहां के अधिकांश तालाब सूखे हैं पर उन्हें नहरों के माध्यम से भरना असंभव है। उनको भरने के लिए जल निगम और ट्यूबवेल विभाग से सहयोग मांगा गया है।

बीते पांच वर्षो से लगातार कम वर्षा होने और इस वर्ष सूखे की विकराल समस्या से जिले के 697 तालाब व पोखर सूखकर मैदान बन गये है। गांव-गांव में पेयजल की विकराल समस्या है, जिससे लोग बेहाल हैं और जानवर प्यास से जानवर दम तोड़ रहे है। जानवरों को पेयजल सुलभ कराने के लिए शासन ने दैवीय आपदा राहत कोष से धनराशि भेजी, लेकिन अधिकारी इस धन को भूख-प्यास से प्रभावितों की फौरी सहायता और विकास कार्यो में व्यय किये जाने की रिपोर्ट भेजकर शासन को गुमराह कर रहे हैं।

जिला पंचायत राज विभाग की रिपोर्ट में कबरई विकास खंड के 291 तालाबों में 262 को और चरखारी विकास खंड के 110 तालाबों में 85 को सूखा दर्शाकर नहरों के माध्यम से 11 तालाबों व 30 को गढ्डे-पोखरों को पानी से लबालब किया जाना दर्शाया गया है। ऐसे ही जैतपुर विकास खंड में 151 में से 116 सूखे दर्शाकर शासन को रिपोर्ट भेजी गयी है।

इस संबंध में सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता कुणाल कुलश्रेष्ठ बताते है कि सिंचाई विभाग ने गुजरे जून माह में नहर के माध्यम से महज दो तालाबों को पानी से भरा है। शासन ने जानवरों को पेयजल सुलभ कराने के लिए तालाबों को भरने के निर्देश दिये है मगर यहां के प्रमुख सरोवरों में जलाभाव के चलते तालाबों को भरना संभव नहीं है। तालाबों को भरने के लिए महकमे ने जलनिगम और टयूबवेल विभाग को पत्र भेज सहयोग मांगा है। मगर अभी तक सहयोग तो दूर रहा अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं भेजी है। वहीं प्रभारी जिला पंचायत राज अधिकारी जेपी सिंह ने हाल में ही चार्ज संभालने का हवाला देकर इन आंकड़ों पर अपनी प्रतिक्रिया देना टाल गये।

जहरीला हुआ यमुना का पानी, मछलियां मरीं

इटावा। यमुना नदी का पानी किस हद तक जहरीला हो चला है, इसकी गवाह घाटों पर आ लगी हजारों मरी मछलियां है। विशेषज्ञों के मुताबिक यमुना में प्रदूषण बढ़ने से पानी में घुलनशील आक्सीजन की मात्रा कम होने के कारण ही पिछले तीन दिनों में भारी तादाद में मछलियां मरी है।

जहरीले रसायनों का नाला और प्रदूषण का पनाला में तब्दील हो चली यमुना में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख जनपद मथुरा और आगरा में किसी उद्योग द्वारा नदी में मिलने वाले नाले में जहरीले रसायन छोड़े जा रहे है। अनुमान लगाया जा रहा है कि हाडल व पलवल के बीच यमुना के किनारे पर स्थित औद्योगिक इकाइयों द्वारा इस प्रकार के रसायन छोड़े जा रहे है। संभवत: किसी औद्योगिक इकाई द्वारा यमुना जल में ऐसे रसायन छोड़े जा रहे है जो पानी के बहने के बावजूद समाप्त नहीं होते। यही कारण है कि इन रसायनों के यमुना जल में मिलने के बाद जब मछलियां इस जल को ग्रहण करती है तो उन रसायनों को नहीं झेल पातीं।

गौरतलब है कि चालू सप्ताह के प्रारंभ से ही आगरा में लगातार भारी तादाद में मछलियां मरने की घटना प्रकाश में आ रही है। इसलिए जहरीले रसायनों का सर्वाधिक असर आगरा क्षेत्र में प्रवाहित यमुना नदी में माना जाता है। आगरा से इटावा तक यमुना नदी का प्रवाह लगभग सौ किलोमीटर का है, इसके बावजूद जहरीले रसायनों का असर इटावा तक आ पहुंचा है। नगर के दक्षिण में प्रवाहित यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए जापान की मदद से स्थापित यमुना एक्शन प्लांट अपना मकसद पूरा नहीं कर पा रहा है। पुल कहारान निवासी मछली विक्रेता ओमरतन कश्यप ने बताया कि मरी मछलियां दो दिन पहले से देखी जा रही है।

पर्यावरणविदं् सोसाइटी फार कन्जरवेशन आफ नेचर के महासचिव डा. राजीव चौहान बताते है कि जहरीले रसायनों के पानी की मात्रा नदी में बढ़ जाने से घुलनशील आक्सीजन की मात्रा गिर जाती है। इस कारण मछलियों को श्वसन के लिए आक्सीजन नहीं मिल पाती और वे मर जाती है।

यमुना नदी में खुद का पानी नहीं रह गया है सिर्फ नालों का पानी है। नदी पर जगह-जगह बैराज और डैम बन चुके है। इस कारण नदी के मूल जल का प्रवाह नहीं रह गया है। यमुना का पानी ही नदी को जीवित रखने का उपाय है।

बुन्देलखंड में सूख रही धरती की कोख

लखनऊ। बुन्देलखण्ड में पानी की समस्या जगजाहिर है। प्रदेश के इस पठारी भू-भाग की पथरीली जमीन से पानी आसानी से रिसता नहीं। वहीं दूसरी ओर अनवरत दोहन से यहां का भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। इस क्षेत्र में पानी का प्रमुख साधन कुएं और हैंडपम्प हैं जो भूजल स्तर में गिरावट के कारण शनै: शनै: सूखते जा रहे हैं।

दरअसल लकड़ी, तेंदू पत्ता, जड़ी-बूटियों के लिए अवैध कटान के कारण यहां के जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। वहीं चूना पत्थर, ग्रेनाइट, कोयला, तांबा, आदि के खनन ने यहां के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ दिया। ऐसे में यहां की पथरीली जमीन में वर्षा जल संचयन नहीं हो पाता और गिरते भू जल स्तर के कारण हैण्डपम्प व कुएं सूख रहे हैैं।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार बुन्देलखंड के झांसी, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर और बांदा जिलों में चूना पत्थर व ग्रेनाइट की चट्टानें पायी जाती हैं। यह विन्ध्य क्षेत्र से लगा पठारी क्षेत्र हैैै। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार यहां अस्सी प्रतिशत वर्षा जून के अन्त से लेकर सितम्बर के बीच होती है। तीन महीने में हुई वर्षा का जल पथरीली जमीन नहीं सोख पाती। वर्षा जल संचयन न होने के कारण वह केन, बेतवा नदियों में बह जाता है। केन नदी का जल यमुना में बह जाता है। गर्मी में केन भी सूख जाती है।

उपग्रहीय आंकड़ों के हिसाब से दतिया, दामोह, सागर और पन्ना जिलों को छोड़कर बुन्देलखंड के शेष जिलों में हरित क्षेत्र नाममात्र बचा है। इसलिए पहले की तरह वर्षा जल पेड़ की जड़ों से रिस कर जमीन के अंदर नहीं संचित हो पाता। राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन के तहत यहां वर्षा जल संचयन के लिए तालाब, पोखर बनाकर वर्षा जल इकट्ठा करने की जरूरत एक लम्बे समय से व्यक्त की जा रही है।

संगम के पास जहरीला हुआ गंगा का पानी

संगम के पास जहरीला हुआ गंगा का पानी

इलाहाबाद । गंगा नदी का पानी इतना विषाक्त हो गया है कि इसे लगातार पीने पर किसी की मौत हो सकती है। इसमें रहने वाले जीव-जंतुओं, मछलियों का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। इसका पानी स्पर्श मात्र से चर्म रोग व पीलिया जैसी बीमारी हो सकती है। नदी के ऐसे जहरीले पानी में लोग माघ मेले में डुबकी लगाएंगे। सरकारी स्तर से माघ मेले में गंगा का जलस्तर बढ़ाने के सभी प्रयास हो रहे हैं। लेकिन इसका जल स्वच्छ करने की कोई योजना नहीं है। शहर के दो दर्जन से अधिक नालों का गंदा पानी गंगा में जाने से ऐसी खतरनाक स्थिति बनी है।

इस वक्त गंगा में प्रति लीटर बीओडी 74 के आसपास है। इसके अलावा नदी के पानी में आक्सीजन की मात्रा एक मिलीग्राम से भी कम हो गई है। ये दोनों ही आंकड़े गंगा का जहरीला होने के संकेत दे रहे हैं। हालांकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी किए जा रहे आंकड़े के अनुसार गंगा में बीओडी की मात्रा पांच मिलीग्राम के आसपास है। और डिजाल्व्ड आक्सीजन प्रति लीटर सात मिली ग्राम है। लेकिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीनानाथ शुक्ल दीन ने नदी के पानी की जांच की तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए। उन्होंने कहा कि माघ मेला के पहले नदी में बहने वाला प्रदूषण नहीं रोका गया तो जहरीले पानी में डुबकी लगाने वाले सीधे प्रभावित होंगे।

प्रोफेसर शुक्ल ने गंगा में गिरने वाले मोरी नाले के पास लिए गए पानी के नमूने की जांच की। वहां के पानी में बीओडी 74 एमजी प्रति लीटर मिला। जबकि नदी के पानी में जीव-जंतुओं को जीवित रखने वाला डिजाल्व्ड आक्सीजन 0.9 एमजी प्रति लीटर था। इसी प्रकार संगम के पास रामघाट पर गंगा में बीओडी 34.6 एमजी प्रति लीटर तथा डीओ 3.9 एमजी प्रति लीटर है। प्रोफेसर शुक्ल की मानें तो पिछले कई साल से सरकारी विभाग गंगा में बीओडी और डीओ के आंकड़े में बाजीगरी कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े में कभी भी गंगा में बीओडी पांच के ऊपर नहीं दर्शाया जाता और डीओ छह के नीचे नहीं होता। जबकि नदी में बीओडी की मात्रा तीन एमजी प्रति लीटर से अधिक नहीं तथा डीओ पांच एमजी प्रति लीटर से कम नहीं होना चाहिए।

सरकारी व निजी संस्थाओं द्वारा पेश किए गए आंकड़े में भारी अंतर होने के पीछे भी वजह साफ है। सरकारी विभाग गंगा की बीच धारा से लिए गए पानी के नमूने की जांच करता है। जबकि निजी संस्थाएं नदी के उस स्थान से पानी के नमूने लेता है जहां लोग डुबकी लगाते हैं। इसका खुलासा पिछले अ‌र्द्धकुंभ के दौरान भी हुआ था। गौरतलब है कि अ‌र्द्धकुंभ में जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गंगा में बीओडी चार एमजी प्रति लीटर दर्शाया था उसी वक्त विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में हुई जांच के दौरान नदी में बीओडी 45 एमजी प्रति लीटर मिला था।

माघ मेले में गंगा का पानी काला होगा या लाल

इलाहाबाद । शासन और प्रशासन स्तर पर 2008 के माघ मेले में गंगा का जलस्तर बढ़ाने की योजना पर काम तो शुरू हो गया। लेकिन नदी में प्रदूषण कम करने की कोई योजना नहीं बनी। कुंभ, अ‌र्द्धकुंभ और माघ मेले में नियमित डुबकी लगाने वाले लोगों के बीच अभी से चर्चा शुरू हो गई कि माघ मेले में गंगा का पानी काला होगा या लाल। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा से मिलने वाली ढेला नदी अपने साथ केमिकल के रूप में तेजाब बहाती रहेगी। और यही तेजाब संगम तक पहुंचा तो तबाही भी मच सकती है।

अ‌र्द्धकुंभ की तरह ही ढेला नदी से बहने वाला तेजाब नहीं रोका सका तो माघ मेले में कैसे रुक सकता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों पर विश्वास करें तो सिर्फ ढेला नदी रामगंगा से मिलकर गंगा में 2000 हेजल यूनिट से अधिक केमिकल अपने साथ लाती है। नदी में बहने वाला केमिकल इतना खतरनाक है कि इसकी चपेट में आने के बाद गंगा के जीव-जंतुओं की मौत हो सकती है। इसके पानी में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालु चर्म रोग के साथ हेपेटाइटिस बी के शिकार हो सकते हैं। जानकारों का कहना है कि इसी नदी से आने वाले केमिकल से ही गंगा का पानी काला होता है।

इसके अतिरिक्त कानपुर मंडल में चल रही तीन सौ से अधिक चमड़ा फैक्ट्री से निकलने वाला केमिकल भी गंगा में ही प्रवाहित हो रहा है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मानना है कि चमड़ा फैक्ट्री से निकलने वाला केमिकल दो स्तरों पर ट्रीट किया जाता है। लेकिन चमड़ा फैक्ट्री से निकलने वाले प्रदूषित पानी को ट्रीट कर गंगा में बहाने की पोल पिछले अ‌र्द्धकुंभ में खुली थी। एक माह का अ‌र्द्धकुंभ समाप्त हो गया और फैक्ट्रियों में ट्रीटमेंट प्लांट होने के बावजूद प्रदूषित पानी गंगा में बहाया जाता रहा।

उल्लेखनीय है कि चमड़ा फैक्ट्री से निकले वाले प्रदूषित पानी की मात्रा अधिक होने पर गंगाजल का रंग लाल हो जाता है। माघ मेले में गंगा के पानी में चाहे ढेला नदी के केमिकल का प्रभाव हो या चमड़ा उद्योग का, भुगतना को श्रद्धालुओं को ही पड़ेगा। माना जा रहा कि पूर्व की भांति गंगा का पानी काला या लाल जरूर होगा। लेकिन नदी में पानी पर्याप्त हो तो ढेला नदी या चमड़ा फैक्ट्री से निकलने वाले जहर का असर कम होगा। लेकिन फिर सवाल खड़ा होता है कि क्या एक हजार क्यूसेक पानी नदी में प्रदूषण कम करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

आश्चर्य की बात तो यह है कि दोनों ही समस्या पर शासन या प्रशासन स्तर पर गंभीरता से नहीं लिया गया। हालांकि मेला सलाहकार समिति की पहली बैठक में गंगा को लेकर मुख्य सचिव की मदद से उत्तरांचल सरकार से बातचीत करने की मांग की जा रही। लेकिन बैठक में भाग लेने वाला शायद ही कोई बता पाए कि उत्तरांचल सरकार से बात जलस्तर बढ़ाने के मुद्दे पर होगी या ढेला नदी में प्रदूषण कम करने पर।

अभीवर्ल्ड में अभिषेक

अभीवर्ल्ड में अभिषेक, जयपुर लिखते हैं …....................
जयपुर को आप किस रूप में जानते हैं, जाहिर है गुलाबी शहर के रूप में या देश के पहले नियोजित शहर के रूप में ही जानते होंगे। बहुत ज्यादा हुआ तो अब रिअल एस्टेट के क्षेत्र में उभरते बड़े डेस्टिनेशन के रूप में जानते होंगे। राजस्थान की राजधानी के रूप में भी आपका इससे परिचय तो होगा ही। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह शहर पानी के लिए भी जाना जाएगा। और वो भी नेगेटिव रूप में। इन दिनों जयपुर में पानी अमृत नहीं है। यहां दूषित पानी पीने से लोग मर रहे हैं। भारत के सबसे बड़े राज्य की राजधानी में पिछले कई दिनों से यह कहर बरप रहा है। सड़ी गली पाइप लाइनों में मिले सीवर के मल ने नल से निकल कर लोगों के प्राण हरने शुरु कर दिये हैं। जब से जयपुर आया हूं यहां के अखबारों में एक खबर हर दूसरे तीसरे रोज एक स्थायी कॉलम की तरह पढ़ता आया हूं। नलों से निकला लाल पानी। बदबूदार पानी, या नीला पानी। यानी पानी के दूषित होने की बात कहने वाले समाचार यहां के अखबारों की पेज तीन की लीड बनते आये हैं। लेकिन जाने क्या बात है कि इतना सब होने के बाद भी कभी यहां की पेयजल व्यवस्था दुरुस्त नहीं हुई। अब जब दूषित पानी से मौतों का सिलसिला शुरु हुआ है अफसर औऱ मंत्री अपना मुंह छिपाते घूम रहे हैं । लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ना। हम हिन्दुस्तानियों की फितरत ही ऐसी है कि हमसे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, खुद हमें भी नहीं। कुछ दिन हम हल्ला मचाएंगे, जोर जोर से चिल्लाएंगे। और फिर चुप हो जाएंगे। चुप्पी तब तक जब तक फिर से कोई घटना नहीं घट जाए। फिर हल्ला औऱ फिर चुप्पी। यही क्रम है । और इस क्रम को सरकारी बाबुओं अफसरों की जमात अच्छी तरह समझ चुकी है। वो बर मौके का इन्तजार करती है,कब किस गाय से कितना दूध दूहना है,कब उसे बेकार कह उसकी बोली लगानी है,कब उसका रोम रोम बेच खाना है, और कब उसके बिक जाने पर हल्ला कर लोगों को याद दिलाना है कि है कि गाय तो हमारे लिए पूजनीय है, जो हुआ सो हुआ पर अब यह सुनिश्चित करना है कि फिर कोई दूसरा गाय का दूध न दूह पाए। लोग इकट्ठे होंगे हां, में हां मिलाएंगे, वाह क्या अफसर है, कहेंगे। और दूसरे दिन उसी अफसर के हाथों किसी अन्य गाय का दूध दूहे जाते देखेंगे। यही हाल जयपुर के जलदाय विभाग के अफसरों का है। सालों से खराब पाइप लाइन की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन हर बार साल छह महीने में बदल जाने की खबरें प्रकाशित कर इतिश्री कर देते हैं । जाने हकीकत में पाइपलाइन बदलती भी या नहीं। बस हमारी तो एक ही दुआ है कि कम से कम भगवान तो जयपुर पर कृपा बनाए रखें और गोविन्ददेव जी के इस शहर में अब पानी अमृत की जगह जहर न बने।

संसद में उठे पानी से जुड़े सवाल

नई दिल्ली (एजेंसियां)। संसद में पानी से संबंधित मुद्दे आज जोरदार ढंग से उठे। सरकार ने स्पष्ट किया कि बाढ़ नियंत्रण संबंधी राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई है लेकिन राष्ट्रीय जल नीति 2002 में बाढ़ प्रबंधन से संबंधित मुद्दों का समाधान किया गया है। नदियों को परस्पर जोड़ने के लिए सार्वजनिक और निजी निवेश बढ़ाने का सुझाव दिया गया है। देश में 99 बांध 100 साल से पुराने हैं।
जल संसाधन राज्यमंत्री जयप्रकाश नारायण यादव ने आज राज्यसभा को बताया कि 2007-08 में बाढ़ नियंत्रण के लिए आंध्र प्रदेश ने 332.6 करोड़ रूपए परिव्यय किए हैं। बिहार के लिए यह राशि 316.80 करोड़ रूपए व पश्चिम बंगाल के लिए 140.78 करोड़ रूपए है। उन्होंने नदियों को परस्पर जोड़ने के सवाल के संदर्भ में बताया कि राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद (एनसीएईआर) ने नदियों को परस्पर जोड़ने में करीब 4,44 लाख करोड़ रूपए की लागत आने का अनुमान व्यक्त किया है। इस कार्यक्रम में करीब 35 से 40 वर्ष का समय लग सकता है। आईसीआईसीआई ने सुझाव दिया है कि नदियों को जोड़ने के लिए वित्त पोषण सार्वजनिक-निजी निवेश के जरिए किया जा सकता है। नदियों को जोड़ने के लिए गठित कार्यबल ने बताया कि प्रायद्वीपीय संपर्क से ही नदियों को जोड़ने की शुरूआत की जा सकती है। इसका कारण यह है कि हिमालयी संपर्कों की अंतरराष्ट्रीय बाधाएं हैं। साथ ही इस मामले पर कार्रवाई करना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि नदियों को जोड़ना कोई एकल परियोजना नहीं है। कार्यबल ने उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में केन-बेतवा संपर्क, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पारबती, कालीसिंध चंबल संपर्क को प्राथमिकता दी है।

भारत में भूजल की स्थिति चिंतनीय : रिपोर्ट

नयी दिल्ली,
योजना आयोग के एक नए अध्ययन के मुताबिक देश में शुद्ध पानी, जिसमें वर्षा जल और भूजल शामिल है, की अगले 35-40 वर्षो में भयंकर कमी हो सकती है। मंगलवार को जारी भूजल प्रबंधन और मालिकाना हक को लेकर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में यह बात कही गयी है।

रिपोर्ट के मुताबिक भूजल निकालने की दर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और कई क्षेत्रों में भूजल का दोहन जमीन के अंदर पानी के इकट्ठा होने की प्रक्रिया की तुलना में अधिक है। इस कारण इन क्षेत्रों में भूजल का स्तर काफी नीचे चला गया है। रिपोर्ट के मुताबिक देश के 28 प्रतिशत क्षेत्रों में स्थिति अर्द्ध-गंभीर, गंभीर और अत्याधिक गंभीर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1995 में अत्यधिक गंभीर क्षेत्रों का प्रतिशत 4 था, जो तेजी से बढ़कर 15 प्रतिशत तक पहुंच गया है। वर्तमान में भूजल सहित कुल जल का प्रयोग 634 अरब क्यूबिक मीटर है, इनमें से 83 प्रतिशत जल सिंचाई के काम में खर्च किया जाता है। 2010 तक पानी की मांग बढ़कर 813 अरब क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाएगी और 2025 तक यह 1093 और 2050 तक 1447 अरब क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है।

हाल के वर्षो में भूजल के दोहन में काफी वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूजल एक सामान्य संसाधन है, जिसका दोहन हर कोई करता है। जब देश में पानी की समस्या पैदा होगी, तो हर व्यक्ति इसका अधिक से अधिक दोहन करना चाहेगा और इस तरह कई लोगों को पानी का हिस्सा नहीं मिलेगा और जब भूजल का स्तर काफी नीचे चला जाएगा, तो इसको निकालने का खर्च भी बढ़ जाएगा। रिपोर्ट में इस पर नियंत्रण के बजाए सहकारी नियंत्रण की बात कही गयी है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

कम पानी में अधिक रकबे की सिंचाई के लिये एक कारगर उपाय : ड्रिपस्प्रिकलर

ग्वालियर
कम पानी में अधिक रकबे की सिंचाई हो सके इस मकसद से सरकार द्वारा माइक्रो इरीगेशन योजना के अंतर्गत ड्रिपस्प्रिकलर पध्दति को बढ़ावा दिया जा रहा है । इस पध्दति से सिंचाई करने से वर्षा की भांति पानी सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचता है । योजना के तहत सरकार द्वारा कुल इकाई लागत का 50 प्रतिशत अनुदान भी प्रदान किया जाता है ।

उप संचालक उद्यानिकी विभाग श्री एम.एस. तोमर ने बताया कि ड्रिपस्प्रिंकलर प्रतिस्थापन के लिये अधिकतम 5 हैक्टेयर क्षेत्र हेतु प्रति हितग्राही अनुदान की पात्रता होती है । योजना का लाभ सभी वर्ग के हितग्राहियों को दिया जाता है, परन्तु कुल हितग्राहियों में 25 प्रतिशत लघु सीमान्त कृषक, 30 प्रतिशत महिला, 16 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं 8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति वर्ग के हितग्राहियों को शामिल किया जाना अनिवार्य है । योजनान्तर्गत ड्रिपस्प्रिंकलर पध्दति में लगने वाली सामग्री की प्रदायगी स्टेट माइक्रो इरीगेशन कमेटी द्वारा पंजीकृत निर्माता कंपनियां करती हैं ।

उप संचालक उद्यानिकी ने बताया कि माइक्रो इरीगेशन योजना के अंतर्गत इस वर्ष जिले को ड्रिप व ड्रिपस्प्रिंकलर सिंचाई पध्दति से 40-40 किसानों को लाभान्वित कराने का लक्ष्य प्राप्त हुआ है । इकाई लागत की 50 प्रतिशत राशि किसान द्वारा स्वयं अथवा उसे बैंक ऋण के माध्यम से वहन करनी होगी। शेष 50 प्रतिशत राशि सरकार द्वारा अनुदान के रूप में दी जायेगी ।

सिंचाई पध्दति का करें व्यापक प्रचार - कलेक्टर
कम वर्षा वाली जलवायु होने की वजह से ग्वालियर जिले के लिये ड्रिपस्प्रिंकलर सिंचाई पध्दति विशेष उपयोगी है । इसलिये इस सिंचाई पध्दति का व्यापक प्रचार-प्रसार करें, जिससे अधिकाधिक किसान इसे अपना सकें । यह निर्देश कलेक्टर श्री राकेश श्रीवास्तव ने किसान कल्याण एवं कृषि विकास तथा उद्यानिकी विभाग के अधिकारियों को दिये हैं । कलेक्टर ने यह भी निर्देश दिये है कि इस योजना से उन किसानों को पहले लाभान्वित करायें जो पूर्व से बागवानी से जुड़े हैं, ताकि उनकी सफलता से अन्य किसान भी प्रेरित हो सकें । उन्होंने ड्रिपस्प्रिंकलर प्रतिस्थापन के लक्ष्य की पूर्ति कलस्टर (समूह ) में करने के निर्देश भी दिये हैं।

ड्रिप सिंचाई योजना के लिए अनुदान

मुरैना
गिरते भू-जल स्तर के कारण सिंचाई जल की कम उपलब्धता के दृष्टिगत राज्य सरकार द्वारा ड्रिप अथवा स्प्रिकलर पध्दति से सिंचाई करने की विधि को केन्द्र प्रवर्तित माइक्रो दूरी सेशन योजना के अन्तर्गत प्रोत्साहित किया जा रहा है । इस योजना के अन्तर्गत प्रदेश के सभी वर्गों के कृषकों को प्रति इकाई लागत मूल्य का 50 प्रतिशत अनुदान उपलब्ध कराने का प्रावधान है ।
सहायक संचालक उद्यानिकी के अनुसार इस सिंचाई पध्दति से सिंचाई जल की बचत होती है और सिंचाई जल की उपलब्धता 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है । उत्पादन में वृध्दि के साथ साथ फसल की गुणवत्ता में भी सुधार होता है और समान मात्रा में सभी पौधों को उर्वरक भी उपलब्ध कराया जा सकता है । योजना का लाभ 0.4 हैक्टेयर से 5 हैक्टेयर तक के किसानों को देय है । अनुदान योजना का लाभ प्रथम आओ प्रथम पाओं के आधार पर किया जायेगा । इच्छुक किसान योजना का लाभ लेने के लिए आवेदन पत्र उद्यानिकी विभाग के मैदानी अमले से प्राप्त कर भर कर जमा कर सकते है ।
चम्बल की आवाज़

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