जलीय वनस्पतियां

जलीय वनस्पति : सिंगाड़ा, कमल और कुमुद पोखर या तालाब में उगाए जाते हैं। जलकुंभी, मुलहटी (मधूलिका) सिवार और जंगली कासिनी भी जलाशयों में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ हैं। लड़सी, फफूला, प्यार आदि पानी के पौधे हैं तथा पगुला पानी की बेल हैं।
अलसी, ब्राह्मी, नागर, मोथ, नरसल, गंगालहरी, कपूस आदि वनस्पतियाँ पानी के सहारे उगती हैं।

मौत के मुहाने पर खड़ी है गंगा (साभार – पर्यावरण डाइजेस्ट)

खास खबर
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
विश्व की दस बड़ी नदियों पर सूखने का खतरा मंडरा रहा है। मौत के कगार पर खड़ी इन नदियों में हमारी गंगा भी हैं। यदि हालात नहीं सुधारे गए तो बीस साल बाद गंगा का अस्तित्व इतिहास की धरोहर हो जाएगा। यह खुलासा विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की एक रिपोर्ट में किया गया। गंगा के बिना भारत का अस्तित्व कल्पनातीत है, लेकिन लगता है यह कल्पना हकीकत में बदलने जा रही है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते प्रदूषण, नौवहन सेवाआें में वृद्धि, बाँध निर्माण, जलवायु परिवर्तन और भूजल के अंधाधंुध दोहन ने गंगा समेत दुनिया की दस प्रमुख नदियों को संकट के कगार पर पहुँचा दिया हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका और एशिया के घनी आबादी वाले क्षेत्रों से होकर बहने वाली ये वे नदियाँ है जिन पर विश्व की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा अपनी जीविका और स्वच्छ जल के लिए निर्भर है। इन नदियों में भारत की गंगा और सिंधु के अलावा चीन की यांत्सी, मेकाँग और साल्वीन, ऑस्ट्रेलिया की मुरे डार्लिंग, दक्षिण अमेरिका की लॉ प्लाटा और रियो ग्रांडे तथा योरप की डेन्यूब शामिल हैं।
स्वच्छ जल कार्यक्रम के प्रमुख डेविड टिकनर ने कहा कि दुनिया गंभीर जल संकट के दौर से गुजर रही हैं । इस पर काबू पाने के युद्धस्तर पर प्रयास जरूरी हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि सरकारों और नीति-निर्माताआें के लिए यह समझना जरूरी है कि यह समस्या जलवायु परिवर्तन से भी ज्यादा गंभीर है।
इन नदियों को दुनिया मे स्वच्छ मीठे जल का एकमात्र सबसे बड़ा जल स्त्रोत बताया गया है। ये नदियाँ सिर्फ मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि इस धरती पर बसने वाली सभी जीव-जंतुआें के लिए प्राणदायी हैं। ऐसे में इनके संरक्षण को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा बनाया जाना चाहिए। रिपोर्ट में दुनिया की इन प्रमुख नदियों पर मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की व्यापक समीक्षा की गई है।
गंगा, सिंधु, नील और यांत्सी नदियाँ प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में हैं। यूरोप की डेन्यूब को नौवहन से नुकसान पहुँच रहा हैं। रियो ग्रांडे अति दोहन से संकट में है जबकि लॉ प्लाटा और साल्वीन बाँधों के निर्माण का शिकार बन रही हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के महासचिव रवि सिंह के अनुसार गंगा का साठ प्रतिशत जल सिंचाई के लिए इस्तेमाल में ले लिया जाता है। लिहाजा इसके जल प्रवाह में कमी से भूजल पर अतिरिक्त भार पड़ रहा है।
गंगा नदी को भारतीय संदर्भो में पवित्रता का सर्वोच्च मानक कहा गया है। इसलिए जहाँ पवित्रता की दरकार होती है, वहाँ इस पैमाने पर पवित्रता की स्थिति को आँका जाता है। लेकिन यदि पैमाना ही गंदा हो जाए तो ? जाहिर है, अब अफरा तफरी वैसी ही मचेगी, जैसी आज गंगा के हिमालयी उद्गम गंगौत्री और उसके आसपास के क्षेत्र में फैलती जा रही गंदगी को लेकर मच रही है। पिछले दिनों संेट्रल इम्पॉवर्ड क्रॅमिटि ने गंगौत्री का दौरा कर जो तथ्य सामने रखे हैं, वे भयावह स्थिति को रेखांकित करते हैं। उच्चतम न्यायालय को पेश इस रिपोर्ट के अनुसार वह पूरा इलाका कचरे, गंदगी से घिरता जा रहा है। सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भारी संख्या का अपना प्रभाव एवं दबाव भी गंगौत्री पर दिखाई देने लगा है।
गंगौत्री से निकली गंगा को हरिद्वार से आगे बढ़ते ही कचरे, गंदगी को ढोने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। बनारस, इलाहाबाद, कानपुर में गंगा पवित्रता के अपने ही पैमाने पर खुद विफल सिद्ध हो जाती है। उसका उपयोग जल और आस्था से ज्यादा कचरा और गंदगी को बहा देने में ज्यादा किया जाने लगा है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी के खिलाफ कायम इस प्रवृत्ति के वेग का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अरबों रुपए और हजारो कर्मचारियों को झोंक देने के बाद भी गंगा अभियान अपनी राह तक पर न चल सका। लक्ष्य की बात तो दूर की है।
गंगा के बाद उसके उद्गम स्थल तक प्रदूषण का पहुँच जाना गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था। यह चिंता जनसाधारण में उभरती तो आशा की जा सकती थी कि गंगा मैली नहीं रहेगी। शासन की चिंता और उसके परिणाम तो सभी जानते हैं। कहना कठिन है कि गंगा को अब भी कोई राजा भगीरथ मिल पाएगा या नहीं। पवित्रता को कलुषित होते देखना तब तक हमारी लाचारी बनी रहेगी।
गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने की कार्य योजना गंगा एक्शन प्लान अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद विफल साबित हुई है इस योजना के जरिए गंगा को १९९० तक पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त और स्वच्छ कर दिया जाना था।
यह योजना पूरी तरह केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्देशित है जबकि इसका क्रियान्वयन संबद्ध राज्यों के हाथ में है। पिछले दिनों संसद की लोकलेखा समिति के सभापति और सांसद प्रो. विजयकुमार मलहोत्रा ने गंगा एक्शन प्लान पर सरकार की कार्रवाइयों पर लोकसभा में पेश रिपोर्ट में चिंता करते हुए कहा कि गंगा एक्शन प्लान प्रथम मार्च १९९० में पूरी की जानी थी उसे मार्च २००० तक बढ़ाया गया। इसके बावजूद यह योजना पूरी नहीं हुइंर् और अपना वांछित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकी। गंगा एक्शन प्लान द्वितीय को वर्ष २००१ में पूरा किया जाना था जिसे सितंबर २००८ तक बढ़ा दिया गया है।
समिति ने इस असाधारण देरी के लिए केन्द्र सरकार राज्य सरकारों और अन्य एजेंसियों की तीखी निंदा की है। समिति ने सभी पर गैर जिम्मेदाराना ढंग से काम करने और उनमें परस्पर तालमेल के अभाव का आरोप लगाया है । गंगा नदी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल से बहते हुए देश की लगभग ४० प्रतिशत आबादी के जीवन का आधार बनती है। गंगा नदी इन राज्यों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
गंगा नदी की व्यापक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन पर्यावरण विभाग और अब पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक बड़ी योजना गंगा एक्शन प्लान तैयार की थी। इस योजना के लिए १९८४ में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक सर्वेक्षण किया। योजना की देखरेख के लिये १९८५ में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण का गठन किया गया था। गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जून १९८५ में औपचारिक रुप से काम शुरु हुआ और गंगा योजना निदेशालय की स्थापना की गई। शुरुआत में गंगा एक्शन प्लान का उद्देश्य प्रदूषण घटाना था लेकिन बाद में इसका ध्येय इस नदी के जल को स्नान योग्य बनाना भी घोषित कर दिया गया। यह योजना गंगा को पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त करने के योग्य नहीं प्रतीत हुई इसलिए गंगा एक्शन प्लान द्वितीय शुरु किया गया। गंगा एक्शन प्लान प्रथम का क्रियान्वयन उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल में किया जाना था जबकि गंगा एक्शन प्लान द्वितीय के तहत गंगा की सहायक नदियों यमुना, दामोदर और गोमती को भी प्रदूषण मुक्त किया जाना हैं । उत्तर प्रदेश में विश्व में पर्यावरण की स्थिति और कार्ययोजना में कहा गया है कि गंगा एक्शन प्लान पर १५०० करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं फिर भी गंगा नदी का प्रदूषण खतरनाक ढंग से बढ़ रहा हैं अध्ययन के अनुसार राज्य में होने वाली कुछ बीमारियों में से नौ से १२ प्रतिशत का कारण गंगा का प्रदूषित पानी है।
समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा एक्शन देश में अपनी तरह की पहली योजना थी जो औधे मुंह गिरी है इसकी सफलता अन्य योजनाआें के लिए उदाहरण हो सकती थी लेकिन यह एक सबक बन गई। इसकी असफलता के लिए व्यापक पड़ताल जरूरी है जिससे इसकी असफलता की जिम्मेदारी तय की जा सके।
समिति ने कहा है कि गंगा एक्शन प्लान वास्तव में एक ऐसी बंदूक साबित हुई जिसे दूसरे के कंधे पर रखकर चलाया गया है। यह योजना केन्द्र सरकार की है और इसका क्रियान्वयन संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा किया जाना है। राज्य सरकारों के कामकाज में कोई तालमेल नहीं रहा। समिति ने रिपोर्ट में लिखा है - ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा एक्शन प्लान विभिन्न विभागों और एजेंसियों का असमन्वित और दिशाहीन मेल बनकर रह गई है।
गंगा कार्य योजना से संबद्ध मंत्रालय ने इस योजना में विलंब के लिए अनुभव की कमी भूमि अधिग्रहण में देरी मुकदमेबाजी और अदालती मामले, संविदा संबंधी विवाद एवं आवंटित धनराशि का अन्यत्र इस्तेमाल होना बताया। लेकिन समिति का मानना है कि ये ऐसे कारण है जिनका पहले अनुमन लगाया जा सकता था और उनसे निपटा जा सकता था। वास्तव में गंगा कार्य योजना का विफलता का प्रमुख कारण अधिकारियों की उदासीनता और लापहरवाही रही है।
बिहार में इस योजना के लिए आवंटित धनराशि बिहार राज्य जल परिषद के कर्मचारियों का वेतन बांटने में खर्च कर दी गई। इस योजना का क्रियान्वयन पूरी तरह से राज्यों के भरोसे छोड़ दिया गया। राज्य सरकारों ने इसे स्थानीय संस्थानों और स्थानीय गैर सरकारी संस्थाआें को नहीं सौंप कर अपने केन्द्रीय अधिकरणों को सौपा जिसका नतीजा बिहार राज्य जल परिषद के रुप में सामने आया। समिति की रिपोर्ट के अनुसार गंगा कार्य योजना में सबसे बड़ी खामी, जनसहभागिता का अभाव रहा। गंगा नदी सरकार विशेष की नहीं बल्कि आमजन मानस की आस्था को छूती है।
इसके संबंध में कोई भी निर्णय लेते समय आमजन को ध्यान में रखा जाना चाहिए। गंगा से जुड़े किसानो की इसमें कोई भूमिका नहीं थी जबकि वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। साधु सन्यासी इस योजना के मजबूत पक्ष हो सकते थे। वे ऐसी शक्ति है जो मात्र कुछ दिनों में ही व्यापक जन जागरण की क्षमता रखते है इसके अलावा गंगा नदी के किराने पर बसे शहरों के धार्मिक समुदायों की भी इसमें उपेक्षा की गई। यदि इस योजना को सफल बनाना है तो इन सभी का सहयोग लेना होगा। आशा है भविष्य में इस पर ध्यान दिया जायेगा। ***

अलवर में छोटे-बड़े 8 हजार से ज्यादा जौहड़ और एनीकट बांध -संजय तिवारी

(समाज ने अपने प्रयास से अलवर में छोटे-बड़े 8 हजार से ज्यादा जौहड़ और एनीकट बांध बनाये हैं. ऐसे ही एक जौहड़ पर खड़े पानी के जानकार अलवर के किसान.)
किशोरी भीकमपुरा, वाया थानागाजी, अलवर, राजस्थान। यह उस जगह का पूरा पता है जहां आज से कोई 30 साल पहले एक छोटी सी संस्था ने पानी का काम शुरू किया था। यह वही दौर था जब सरकार ने मुनादी कर दी थी कि यह काला रेगिस्तान बन चुका है और यहां रहनेवाले लोगों के लिए सरकार पानी मुहैया नहीं करा सकती। लोग यहां रहते हैं तो उनके भविष्य की जिम्मेदार सरकार नहीं होगी। सरकार की इस चेतावनी का लोगों पर खास असर हुआ नहीं। अपनी मिट्टी कोई यूं ही नहीं छोड़ देता। शायद लोगों को यह उम्मीद थी कि कोई चमत्कार होगा। और संयोग से वह चमत्कार हुआ भी। राजेन्द्र सिंह नाम का एक आदमी वहां पहुंचा और उसने कहा पानी बचाना है, जीवन बचाना है तो तालाब बनाओ। पानी के पुजारी अनुपम मिश्र की मदद से वहां एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने पूरे इलाके को पानीदार बना दिया। आज वह संस्था कोई छोटी संस्था नहीं रह गयी है। अलवर में किये काम के कारण ही तरूण भारत संघ को राष्ट्रपति ने उस अरवरी नदी पर खड़े होकर पुरस्कृत किया जो इस प्रयास से पुनर्जिवित हो गयी थी। राजेन्द्र सिंह को मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त हुआ और देशभर में वे पानी के काम के लिए प्रतीक पुरूष बन गये हैं।

लेकिन एक बार फिर सरकार ने अलवर का रूख किया है. उसने यहां पांच शराब के कारखानों का लाइसेंस दिया है. इसमें देश की जानी-मानी कंपनियों से सहित विदेशी कंपनियां भी शामिल हैं. राष्ट्रवादी पार्टी की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का तर्क है कि प्रदेश को उद्योग चाहिए, रोजगार चाहिए. एक बात इसमें मैं अपनी तरफ से जोड़ देता हूं कि शराब भी चाहिए. किसी भी प्रदेश के लोगों के उद्योग और रोजगार के साथ-साथ शराब भी चाहिए. अगर ऐसा न होता तो वसुंधरा राजे कम से कम अपने पूर्ववर्ती अशोक गहलोत से कुछ सीखतीं जिन्होंने कैबिनेट में निर्णय करवाया था कि बड़ी तपस्या के बाद अलवर की धरती तर हुई है. यहां किसी भी ऐसे उद्योग को मंजूरी नहीं दी जायेगी जिसमें पानी की खपत ज्यादा हो.

मैं एक सप्ताह वहां रह चुका हूं. जुलाई के महीने में जब दिल्ली तप रही थी तब अलवर में झमाझम वारिश हो रही थी. अरवरी नदी के वेग को देखकर मन इतना उत्साहित हुआ कि एक दिन पूरा एक तालाब पर मिट्टी फेंकी. दोपहर बाद उसी तालाब के अथाह पानी में नहाया. सच बताऊं तो डूबते-डूबते बचा. उसी तालाब के पाल पर बैठकर दाल-बाटी-चूड़मा खाया. वे सात दिन अद्भुद थे. जब यह सुनता हूं कि सरकार वहां शराब का कारखाना लगाना चाहती है तो दुख होता है. मैंने तो एक दिन मिट्टी फेकी है, सोचिए उनके दिलों पर क्या गुजर रही होगी जिन्होने 25 वर्षों तक अथक मेहनत से एक-एक बूंद सहेजी है. क्या सरकार का दृष्टिकोण ठीक है?

हॉलीवुड में ग्लोबल वार्मिंग की आहट -- प्रियंका पाण्डेय

ग्लोबल वॉर्मिंग। यह शब्द पर्यवरण से जुड़ी हुई मात्र एक समस्या न होकर भविष्य के भयावह स्वरूप का परिचायक है। आज यह समस्या समूचे विश्व के लिए चिंता का गंभीर विषय है। इसलिए इस समस्या को विश्व के कुछ वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग से उठाकर आम जनता के बीच लाना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे में इस समस्या के प्रति जागरुकता फैलाने में मीडिया की अहम भूमिका है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।

पिछले कुछ सालों में हॉलीवुड ने इस दायित्व की पूर्ति करते हुए ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति जागरुकता फैलाने की दिशा में सराहनीय पहल की है। जहाँ एक ओर फिल्म उद्योग ने इस विषय पर कई फिल्में बनाकर दर्शकों मनोरंजक तरीके से इस समस्या से अवगत कराया है, वहीं दूसरी ओर फिल्म जगत ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े-बड़े समारोहों में इस मुद्दे को उठाया है।

हाल ही में हुए कांस फिल्म समारोह में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता लिओनार्डो डिकैपरियो ने भी अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘द इलेवेंथ ऑवर’ के बारे में बताते हुए पर्यावरण पर इसके भयावह प्रभाव के विषय में चर्चा की है। यहाँ तक कि अपनी इस फिल्म का निर्माण भीवह इसी विषय को ध्यान में रखकर कर रहें हैं, जिसके अभिनेता और लेखक भी वह स्वयं ही हैं।

इतना ही नहीं यॉर्कशायर में होने वाले आगामी आईफा अवॉर्ड समारोह में भी इस मुद्दे को उठाने की कवायद की जा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि इस समारोह की प्रबंधन समिति ‘ग्लोबल कूल’ नामक गैर-सरकारी पर्यावरण संस्था के साथ मिलकर, इस विषय को फिल्म जगत के अंतर्राष्ट्रीय पटल पर प्रस्तुत कर रही है।

ऐसे उपायों से जहाँ एक और इस विषय को मीडिया के द्वारा प्रोत्साहन मिलेगा, वहीं दूसरी ओर ऐसे विषयों से मनोरंजन जगत गंभीरता और वास्तिवकता के और भी करीब आ जाएगा।

कुछ सालों से हॉलीवुड जगत ने ऐसे विषयों के केंद्र में रखकर कई ऐसी फिल्मों का निर्माण किया है, जो न केवल ज्ञानदायक और मनोरंजक हैं बल्कि ये फिल्में हमारे भविष्य का भी सजीव चित्रण करती हैं। इन फिल्मों में ‘द डे आफ्टर टुमारो’, ‘एन इनकन्विनियेंट ट्रुथ’, ‘वॉटरवर्ल्ड’, ‘क्लाइमेट चाओज’ जैसी फिल्में प्रमुख हैं। इस विषय पर इन बेहतरीन फिल्मों को जहाँ एक ओर प्रसिद्धि का नया आयाम मिला, वहीं दूसरी ओर ‘एन इनकन्विनियेंट ट्रुथ’ को तो बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के लिए ऑस्कर सम्मान से भी सम्मान से भी सम्मानित किया गया है।

इस श्रेणी चैनल फोर पर आने वाले ‘द ग्रेट ग्लोबल वार्मिंग स्विंडल’ जैसे टीवी कार्यक्रमों को भी श्रेय दिया जाना चाहिए, जो ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे गंभीर विषय को दर्शकों के बीच मनोरंजक अंदाज में प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से हॉलीवुड मनोरंजन जगत में ऐसे गंभीर विषय को उठाकर न केवल फिल्म जगत की परिपक्वता का परिचय देता है, बल्कि पर्यावरण के संरक्षण में अपने नैतिक दायित्व की पूर्ति भी कर रहा है।
साभार- वेब दुनिया

शुभ को भुलाकर लाभ कमाने की नीति - - राजेंद्र सिंह

भारत की पर्यावरण नीति का दस्तावेज पढ़ें तो आपको स्पष्ट तौर पर लगेगा, यह नीति तो भारत के शुभ को भूल कर लाभ कमाने वाली ही नीति है। पर्यावरण मंत्री और पर्यावरण सचिव दोनों मिलकर भारत में विदेशी कंपनियों को बुलाने में ही जुटे हैं। ये कंपनियाँ तो भारत का शुभ नहीं चाहती हैं। उन्हें केवल लाभ चाहिए।

समुद्र वसने देवी पर्वतः स्तन मंडले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम्‌ पादस्पर्शक्षमस्व मै॥
प्रातः उठते ही धरती पर पैर रखने से पूर्व कहते हैं, 'हे धरती माँ पहाड़ तेरे वक्षस्थल हैं' जिनसे हमें दूध का पोषण मिलता है। तू हमें बनाती और पोषती है। तेरे ऊपर हम पैर रखते हैं। हम तुमसे क्षमा चाहते हैं। जिस देश का समाज धरती पर पैर रखने के लिए भी क्षमा माँगता है। उसी समाज ने आज धरती का पेट फाड़कर उसमें से सब कुछ निकालना शुरू कर दिया। खैर हम माँ के स्तन से दूध निकालते ही हैं। जब तक हम अपनी जरूरत पूरी करने के लिए निकालते हैं तब तक यह सब अच्छा माना जाता है। आज हमने भोगी बनकर दूध के साथ माँ का रक्त निकालना शुरू कर दिया है। इसके लिए ही नई पर्यावरण नीति का प्रारूप माँ का रक्त निकालने वाला है। इसी ने वन भूमि में खनन को बढ़ावा देने का रास्ता खोला है। हमारी ऐसी पर्यावरण नीति के चलते पर्यावरण दिवस मनाने का क्या औचित्य है?

पर्यावरण दिवस हो या पृथ्वी शिखर सम्मेलन हो। पर्यावरण भवन हो या पर्यावरण मंत्री का दफ्तर, आज मानव और प्रकृति के रिश्तों का संतुलन बनाए रखने की चिंता किसी को भी नहीं है। आज तो पर्यावरण मंत्रालय को भारत के शुभ की चिंता नहीं है। लाभ की ही चिंता है। उसी को कमाने में सब लगे हैं।

भारत की पर्यावरण नीति का दस्तावेज पढ़ें तो आपको स्पष्ट तौर पर लगेगा, यह नीति तो भारत के शुभ को भूलकर लाभ कमाने वाली ही नीति है। पर्यावरण मंत्री और पर्यावरण सचिव दोनों मिलकर भारत में विदेशी कंपनियों को बुलाने में ही जुटे हैं। ये कंपनियाँ तो भारत का शुभ नहीं चाहती हैं। उन्हें केवल लाभ चाहिए। फिर पर्यावरण की रक्षा कैसे होगी? भारत की प्राकृतिक आस्था से ही पर्यावरण की रक्षा होगी। व्यापारी पहले अपने उद्योग और व्यापार में शुभ-लाभ का बराबर खयाल रखता था। शुभ का अर्थ सबका भला। मानव धरती, प्रकृति किसी के साथ हिंसा नहीं हो। बिना किसी को कष्ट दिए ही लाभ कमाना। लाभ भी मर्यादित होकर कमाना। भारत की व्यापार संहिता में लिखा है। 'सौ पर दो कमाना' दो का दसवाँ हिस्सा सबके शुभ पर खर्चना (धर्मादा) कहलाता है। धर्मादा में सबको पीने के लिए पानी और जीने में समृद्धि के लिए गोवंश में सुधार पर खर्चना लिखा था। उसी को ये अपना धर्मादेश मानकर व्यापार किया करते थे। उद्योग का सबके शुभ का आधार बनना भारत की महानता थी। इसीलिए भारत के उद्यमी महाजन कहलाते थे। दुनिया में उद्यमी को शोषक-दोषक कहते हैं, क्योंकि ये प्रदूषण करके प्रकृति को दोषक बनाते थे। उद्योग में काम करने वालों तथा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करके ये शोषक बनते थे। हमारे उद्योग, व्यापारी लंबे समय तक शुभ-लाख का संतुलन बनाए रखकर पर्यावरण को नहीं बिगड़ने देते थे। ये प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते बिगाड़ने वाले नहीं थे। प्रकृति को बनाने वाले थे।

हमने अपनी जीवन पद्धति में एक जीवन आदेश माना था। हम प्रकृति से जितना लें, उतना ही श्रम करके अपने पसीने से प्रकृति को लौटाएँ। प्रकृति के साथ हमारा लेन-देन बराबर रहेगा तो हम सुख, दुःख, शांति और समृद्धि से जिएँगे। हमारी भूसंस्कृति और पारिस्थितिकी शाश्वत बनी रहेगी।

ईषावास्यमिदं सर्वं यत्किन्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्‌॥
अर्थात प्रकृति में जो कुछ है, वह ईश्वर का दिया हुआ है। अतएव उसका उपयोग त्याग भावना से ही करना चाहिए। साथ ही साथ श्रम करें, मेहनत नहीं टालें। मेहनत से बचने वाले व्यक्ति को हम चोर कहते हैं।
ईष्टान्‌भोगान्‌हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भृड्क्ते स्तेन एव सः॥

पर्यावरण की चिंता आज उक्त के विपरीत चारों तरफ दिखती है। इससे मुक्ति के उपाय भी केवल विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को एक उत्सव मानकर ढूँढे जाते हैं। अब पर्यावरण दिवस मनाकर ही पर्यावरण संकट के समाधान के रास्ते खोजे जाते हैं। इन दिवसों को मनाकर हम क्या पर्यावरण संकट और बढ़ा रहे हैं? खान-पान प्लास्टिक की प्लेटों में हो जाता है। वातानुकूलित बड़े हॉलों में बैठकें, उनमें बड़ी-बड़ी ग्लोबल वार्मिंग, क्लाईमेंट चेंज जैसी चर्चाएँ करके वापस घर चले जाते हैं। फिर वही प्रकृति से दूर जीवन पद्धति अपनाते हैं। जहाँ-तहाँ प्राकृतिक क्रोध की देन 'बाढ़ सुखाड़' की चिंताएँ कर लेते हैं। 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाकर जल संकट पर आँसू बहा लेते हैं। नदियों के प्रदूषण से भू-जल प्रदूषित हो रहा है। इसके उपाय भी कर लेते हैं। नदियाँ प्रदूषित नहीं हों। बाढ़, सुखाड़ नहीं आए। भू-जल भरा रहे, लेकिन इस दिशा में आज कोई काम नहीं करता है।

पर्यावरण का संकट मस्तिष्क से आरंभ जीवन पद्धति और प्रकृति के साथ हमारे व्यवहार को बिगाड़ रहा है। इसको बिगाड़ने में हमारी सरकारों का नेतृत्व हमारे समाज को मिला है। आज पर्यावरण दिवस पर हम अपनी स्वयं की पर्यावरण की समझ और प्रकृति के रिश्तों का अहसास करें। फिर प्रकृति का बिगाड़ किए बिना 'जीओ और जीने दो' को मानकर जल, जंगल, जमीन और जंगलवासियों को जोड़ें। सबका साझा संवर्द्धन करना है, तभी पर्यावरण सुधरेगा। पर्यावरण राहत के लिए भारतीय आस्था को जगाना होगा। तभी विश्व पर्यावरण दिवस मनाना सार्थक होगा।

(लेखक पर्यावरणविद् हैं। आपने देश के जलस्रोतों पर विशेष अध्ययन एवं शोध किया है।)

कटते जंगल और विनाश की दस्तक - श्रुति अग्रवाल

हरे-भरे खूबसूरत पेड़...जहाँ तक नजर जाएँ, वहाँ तक हरियाली ही हरियाली.....कितनी सुखद लगती हैं ये बातें, लेकिन वास्तविकता इससे बिलकुल अलग है। वर्तमान में सिर्फ ‘ एक हफ्ते में हमारी धरती पर से पांच लाख हैक्टेयर में फैला जंगल साफ कर दिया जा रहा है।’ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार ‘हर साल धरती पर से एक प्रतिशत जंगल का सफाया किया जा रहा है । जो पिछले दशक से पचास प्रतिशत ज्यादा है।’

शहरीकरण के दबाव, बढ़ती जनसंख्या और तीव्र विकास की लालसा ने हमें हरियाली से वंचित कर दिया है....घर के चौबारे में आम-नीम के पेड़ होना गुजरे वक्त की बात हो गई है। छोटे से फ्लैट में बोनसाई का एक पौधा लगाकर हम हरियाली को महसूस करने का भ्रम पालने लगें हैं।

ऐसे समय में जब हमारे वैज्ञानिक हमें बार-बार ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से चेता रहे हैं...भयावह भविष्य का चेहरा दिखा रहे हैं....यह आकड़ा दिल दहला देने के लिए काफी है। रूस, इंडोनेशिया, अफ्रीका, चीन, भारत के कई अनछुए माने जाने वाले जंगल भी कटाई का शिकार हो चुके हैं।

ग्लोबल फारेस्ट वॉच को शुरू करने वाले डर्क ब्राएंट कहते हैं कि ‘ सिर्फ बीस सालों के अंदर दुनिया भर के ४० प्रतिशत काट दिए जाएंगे। ’ दुनिया के सबसे बड़े जंगल के रूप में पहचाने जाने वाले ओकी-फिनोकी के जंगल भी इनसे जुदा नहीं। यहाँ के पेड़ों को भी बड़ी तेजी से काटा जा रहा है। जितनी तेजी से जंगल कट रहे हैं उतनी ही तेजी से जीव-जंतुओं की कई प्रजाती दुनियाँ से विलुप्त होती जा रही है।

जंगल की कटाई की समस्या सबसे ज्यादा तीसरी दुनियाँ के देशों में विद्यमान हैं। विकास की प्रक्रिया से जूझ रहें इन देशों ने जनसंख्या वृद्धी पर लगाम नहीं कसी है। जिसके कारण वर्षा वन जो प्रकृति की खूबसूरत देन हैं तेजी से काटे जा रहे हैं। जंगलों के कटने एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई आक्साइट बढ़ रही हैं वहीं दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है।

भारतीय परिपेक्षय में बात करें तो तीसरी दुनियाँ से पहली दुनियाँ के देशों में शुमार होने को ललायित हमारे देश में जगंलों को तेजी से काटा जा रहा है। हिमालय पर्वत पर हो रही तेजी से कटाई के कारण भू-क्षरण तेजी से हो रहा है। एक रिसर्च के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में भूक्षरण की दर प्रतिवर्ष सात मिमी. तक पहुंच गई है। नतीजा कई बार 500 से 1000 प्रतिशत तक गाद घाटियों और झीलों में भर जाती है। जिसके कारण नदियों में जलभराव कम हो रहा है। भारत की जीवनरेखा कहीं जाने वाली कई नदियाँ गर्मियों में सूख जाती हैं। वहीं बारिश में इनमें बाढ़ आ जाती है। हिमाचल और काशमीर में हाल ही के सालों में हुई तबाही का मुख्य कारण यहाँ के जगंलों की हो रही अंधाधुन कटाई ही है।

वनों की बेरहमी से हो रही कटाई के कारण एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है वहीं दूसरी और प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। कई जीव हमारी धरती से लुप्त हो चुके हैं.....सही तरह से आँका जाए तो प्रलय का वक्त नजदीक नजर आ रहा है। इस प्रलय से बचने के लिए हमें तेजी से प्रयास करने होंगे।

अब हर व्यक्ति को एक दो नहीं कम से कम दस पेड़ लगाने का वादा नहीं बल्कि पक्का इरादा करना होगा। चिपको आंदोलन को दिल से अपनाना होगा। तभी हम वक्त से पहले आने वाली इस प्रलय से बच सकते हैं।

पर्यावरण आदोलन की चुनौतियाँ - सुनीता नारायण

भारत का पर्यावरण आंदोलन इस देश की अन्य बहुत-सी बातों की तरह ही विरोधाभासों एवं जटिलताओं में संतुलन बनाकर चलने की दरकार रखता है : अमीर और गरीब के बीच संतुलन, मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन। वैसे भारत का पर्यावरण आंदोलन एक मानी में विशिष्ट है और इसी विशिष्टता में इसके भविष्य की कुंजी है। अमीर देशों के पर्यावरण आंदोलन तब शुरू हुए, जब वे धन-संपत्ति के निर्माण काल से गुजर चुके थे और अपशिष्ट निर्माण के काल से गुजर रहे थे।

अतः वे अपशिष्ट नियंत्रण की बात करने लगे लेकिन वे अपशिष्ट निर्माण के ढाँचे को ही परिवर्तित करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत भारत में पर्यावरण आंदोलन धन-संपत्ति के निर्माण काल के दौरान ही विकसित हो रहा है, लेकिन जबर्दस्त असमानता और गरीबी के बीच। तुलनात्मक रूप से गरीबों के इस पर्यावरणवाद में परिवर्तन के सवाल के जवाब पाना असंभव है, जब तक कि सवाल ही न बदल दिया जाए।

अब जरा इस आंदोलन के जन्म एवं विकास पर गौर करें। इसकी शुरुआत हुई 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में, पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन में इंदिरा गाँधी के प्रसिद्ध वाक्य से कि 'गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता है।' लेकिन इसी दौरान हिमालय में चिपको आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने हमें बता दिया कि दरअसल गरीब अपने पर्यावरण की चिंता भी करते हैं। दूसरे शब्दों में गरीबी नहीं, दोहक और शोषक अर्थव्यवस्थाएँ सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता हैं।

अस्सी के दशक में संस्थागत ढाँचा खड़ा कर पर्यावरण विभाग का गठन किया गया। तब मुख्य उद्देश्य था वनों की कटाई रोकना। 1980 का वन संरक्षण अधिनियम हरियाली को बचाने एक निष्ठुर उपाय था। इसके तहत केंद्रीय मंत्रालय की स्वीकृति के बिना वन भूमि का एक हैक्टेयर भी गैर-वन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। आंदोलन के इस दौर में देश ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिकारों का केंद्रीकरण कर दिया।

नब्बे के दशक में इन कार्यक्रमों व संस्थानों का काम आगे बढ़ा। इस दशक में मुख्य लक्ष्य था परिवर्तन को लागू करना व उसका प्रबंधन करना लेकिन इसे लागू करने के लिए समय ही नहीं मिला। इस दशक में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तीव्र हुई और उदारीकरण का दौर चला, जिसमें जल एवं वायु प्रदूषण तथा विषैले अपशिष्ट संबंधी नई एवं महत्वपूर्ण समस्याएँ उभरकर सामने आईं। तीव्र आर्थिक परिवर्तन के चलते पर्यावरण का संकट बढ़ गया। नई, जटिल समस्याओं को नए, सुलझे हुए समाधानों की तलाश थी। जर्जर हो रहे औपचारिक संस्थानों की जगह नए ढाँचों और संगठनों ने ली।

एक तरफ थी सक्रिय (कभी-कभी अति-सक्रिय होने का आरोप झेलती) न्यायपालिका, जो पर्यावरणीय सरोकारों का प्रबंधन अपने हाथों में लेने लगी। पर्यावरण सुधार हेतु हजारों नागरिकों द्वारा दायर की जाने वाली याचिकाओं ने उसका उत्साहवर्द्धन किया। अदालतों को जल्द ही यह अहसास हो गया कि वे आदेश पारित तो कर सकती हैं लेकिन उन पर अमल नहीं कर सकतीं। सो उन्होंने अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया, जो अदालती फैसलों के अमल पर निगरानी रखें। दूसरी तरफ मीडिया का समर्थन प्राप्त नागरिक समूह पर्यावरण के सक्रिय रखवाले एवं प्रबंधक बन गए। औपचारिक संस्थानों का काम भी इन्होंने अपने हाथों में ले लिया। विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के आकलन में उद्योग व नौकरशाही की साँठगाँठ से होने वाले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए नागरिक समाज आगे आया। जन-सुनवाइयों की अवधारणा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया।

आज हमारे सामने दो मुख्य चुनौतियाँ खड़ी हैं। एक ओर तो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की सघनता बढ़ रही है, जिससे अधिक संघर्ष व अधिक पर्यावरण ह्रास हो रहा है। दूसरी ओर वे गरीब लोग और भी अधिक हाशिए पर चले गए हैं, जो पर्यावरण पर ही जीते हैं और जिनके लिए पर्यावरण ही आर्थिक परिवर्तन लाने का जरिया है। यूँ विश्व भर में पर्यावरणीय सरोकार जनांदोलनों की ही उपज रहे हैं। इन आंदोलनों की वजह से उपजे राजनीतिक दबाव के चलते ही पहले कानून बने और फिर इन्हें लागू करने के लिए संस्थान। हमारे यहाँ जनांदोलन से पहले कानून और संस्थान बन गए लेकिन ये कारगर नहीं हो पाए। अतः भारत में पर्यावरण आंदोलन का काम मुख्यतः दबाव निर्मित करना है ताकि सरकार स्वयं द्वारा बनाए गए कानूनों व नियमों को ठीक से लागू कराए।

पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।
(लेखिका विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की निदेशक हैं।)

जब जलाएँगी बारिश की बूंदें - नुपूर दीक्षित

बरसात का मौसम, आकाश में घुमडने वाले बादल, ठंडी हवाएँ और बारिश की बूँदे। तन-मन को भीगों देने वाली बारिश।
साभार- वेब दुनिया
बारिश के बारे में सोचकर ही मन रोमांचित होने लगता है, मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू, पत्तियों पर मोतियों की तरह जमी पानी की बूँदे। ये सबकुछ कितना खुशनुमा और सुहावना लगता है।

अब, जरा कल्‍पना कीजिए, कि आकाश में बादलों के छाते ही सरकार लोगों से घर में घुसने और सुरक्षित स्‍थानों पर जाने की अपील कर रही है, हल्‍की फुहार आने की आशंका होने पर ही लोग घर में घुसकर बैठे हैं। घर के पेड़-पौधों को सुरक्षित स्‍थानों पर रखा जा रहा है, ताकि उन पर बारिश का पानी ना लग जाए। गलति से कोई इंसान बाहर रह गया और उस पर बारिश की कुछ बूँदे गिर गई, तो उसे जलन हो रही है। हर तरफ बारिश के पानी से लोग डर रहे हैं। क्‍योकि बारिश ठंडक पहुँचाने की बजाए, आग बरसा रही है, लोगों को उल्‍लासित करने की बजाए उन्‍हें जला रही हैं।

फिलहाल यह किसी साइंस फिक्‍शन फिल्‍म के अंश की तरह लग रहा है लेकिन एक दिन यह कल्‍पना सच में बदल सकती है। इस कल्‍पना ने धीरे-धीरे साकार होना प्रारंभ भी कर दिया है।

हम यहाँ पर बात कर रहे है, एसिड रेन याने कि अम्‍ल वर्षा की। पर्यावरण में मौजुद सल्‍फर और नाइट्रोजन के ऑक्‍साइड जब बादल में उपस्थित जल के साथ क्रिया करते है, तो इस क्रिया के फलस्‍वरूप सल्‍फ्यूरिक एसीड और नाइट्रिक एसीड का निर्माण होता है। इसकी वजह से वर्षा का जल अम्‍लीय हो जाता है, और बादल पानी के बजाए अम्‍ल बरसाने लगते है।
आप ही सोचिए कि जब पानी के बजाए अम्‍ल की बारिश होगी तो इसका असर कैसा होगा।
हम विज्ञान की गहराई में ना जाते हुए, एक सतही स्‍तर पर इसके भयंकर परिणामों की कल्‍पना करते है।

बारिश की बूँदों में मिला अम्‍ल जब बार-बार पौधों की पत्तियों पर गिरेगा, तो पत्तियाँ नष्‍ट या कमजोर हो जाएगी, अगर पत्तियाँ नष्‍ट हो गई तो पौधों के लिए प्रकाश संश्‍लेषण (फोटो सिंथेसिस) के द्वारा भोजन कैसे तैयार होगा। कुल मिलाकर बड़ा पेड कमजोर हो जाएगा, अगर बारिश ज्‍यादा हुई तो छोटे पौधे और फसलें नष्‍ट हो जाएगी और यदि कम हुई तो विकृत हो जाएगी।

इनका क्‍या होगा यहीं पानी जब झीलों, झरनों, तालाबों में जाएगा, तो वहाँ के पानी की अम्‍लीयता को बढ़ाएगा। इसका सीधा असर इन स्‍थानों पर रहने वाले जीव जंतुओं के जीवन पर पडे़गा। कई मछलियाँ और अन्‍य जीव इस बढ़ी हुई अम्‍लीयता की वजह से मर जाएगे। जलीय वनस्‍पति को भी इससे बेहद नुकसान पहुँचेगा।

हमारा क्‍या होगा जब हमारे जल स्रोतों का पानी अम्‍लीय हो जाएगा और जलीय जीव जंतुओं की असमय मृत्‍यु की वजह से उनका पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाएगा, तब वह पानी बुरी तरह से प्रदूषित हो जाएगा और हमारे पीने योग्‍य नहीं रह जाएगा।
इन सभी खतरों की नींव रखी जा चुकी है, हमारे पर्यावरण में पेट्रोल, डीजल और कोयले के दहन से फैले वायु प्रदूषण की वजह से विश्‍व के कई हिस्‍सों में अम्‍ल वर्षा हुई है। अमेरिका, कनाडा जैसे देशों में जंगलों को इस अम्‍ल वर्षा की वजह से भारी नुकसान भी पहुँचा है। वहाँ के झील और झरने भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए है।
पर्यावरणविदों का मानना है कि इन दिनों विकासशील देशों जैसे भारत और चीन में अम्‍ल वर्षा के संकट के बादल लहरा रहे है। इसकी वजह दोनों देशों में बढ़ता प्रदूषण और उर्जा की बढ़ती माँग के चलते अवशेषी ईंधन की बढ़ती हुई खपत है।

कोयले से चलने वाले बिजलीघरों, वाहनों और उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ में सल्‍फर और नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है। हम यदि केवल भारत की बात करे तो प्रदूषण के नियंत्रण से बाहर होने की वजह से यहाँ पर अम्‍ल वर्षा का खतरा सबसे अधिक मंडरा रहा है। दरअसल वर्षा का जल आंशिक रूप से अम्‍लीय तो हो ही जाता है क्‍योकि पर्यावरण में मौजुद कार्बनडाई-ऑक्‍साइड वर्षा के जल से क्रिया कर के कार्बोनिक एसीड बनाती है, जिससे जल आंशिक रूप से अम्‍लीय हो जाता है, लेकिन आंशिक रूप से अम्‍लीय इस जल में यदि अम्‍ल की मात्रा बढ़ जाए तो यह हम सभी के लिए बेहद हानिकारक सिद्ध होता है।

सांस्‍कृतिक विरासत भी है, खतरे के निशान पर
ऐसा नहीं है, कि अम्‍ल वर्षा से होने वाला सारा नुकसान केवल जीव-जंतुओं या पौधों को होता है। ऐतिहासिक इमारते जैसे ताजमहल भी इस खतरे से बाहर नहीं है। दरअसल संगमरमर की क्रिया जब अम्‍ल के साथ होती है तो इनमें विकृतियां पैदा होती है, जैसे संगमरमर पीला पड़ जाता है, रासायनिक क्रिया से कै‍ल्श्यिम सल्‍फेट बन जाता है। जिससे इमारत का क्षरण होता है। केवल भारत ही नहीं इस समस्‍या का सामना विश्‍व की कई ऐतिहासिक धरोहरों को करना पड़ रहा है। ग्रीस, अमेरिका और दक्षिण मैक्सिको की कई इमारतों और मूर्तियों को अम्‍ल वर्षा से क्षति पहुँच चुकी है।

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार मृदा की अम्‍लीयता बढ़ने से उसमें मौजुद विभिन्‍न तत्‍वों के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है,जिसका सीधा प्रभाव मृदा की उर्वरकता और फसलों की गुणवत्‍ता पर पड़ता है। स्‍वभाविक है कि अम्‍ल वर्षा से मृदा की अम्‍लीयता भी बढ़ती है।

आपस में मिलकर खोजना होगा समाधान
वर्षा जैसी खूबसूरत प्राकृतिक परिघटना को अम्‍ल वर्षा जैसा हानिकारक रूप लेने से रोकने का फिलहाल एक ही समाधान नजर आता है, प्रदूषण को नियंत्रित करना। यह कैसे किया जाए, इसका उपाय विश्‍व के सभी देशों को मिलकर खोजना होगा। यह समस्‍या किसी एक देश की नहीं है, क्‍योकि अम्‍लीय बादल किसी देश या राज्‍य की सीमा को नहीं पहचानते है। इस विश्‍वव्‍यापी समस्‍या से निपटने के लिए सबको समन्वित रूप से प्रयास करने होंगे ताकि बारिश की बूँदे इंसान को रोमांचित करे, भयभीत नहीं।

संवेदनशून्य होता हमारा समाज - अनुपम मिश्र

पर्यावरण दिवस पर ढेर सारे लेख लिखे जाते हैं, प्रदर्शनियाँ लगती हैं, भाषण होते हैं, कहाँ क्या-क्या बिग़ड़ा है, इसकी सूची भी बनती है। लेकिन फिर भी बाकी सालभर इसकी सूची को कम करने की तरफ शायद ही ध्यान जाएगा। जाने-अनजाने सूची को ब़ढ़ाने का काम होता रहता है। जब से पर्यावरण दिवस मन रहा है यानी 1972 से आज तक देश के पर्यावरण को सुधारने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह चौतरफा दिन-दूना रात-चौगुना ही बिग़ड़ा है और इस पर टिकी आबादी का जीवन पहले से ज्यादा खतरे में प़ड़ता जा रहा है।
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इसलिए अब यह सारा मामला प्रदूषण का, पर्यावरण का या संवर्द्धन का उतना नहीं बचा है, जितना कि राजनीति, विकास नीति का और उन तमाम योजनाओं का बनता जा रहा है जो देश को आधुनिक और समृद्ध बनाने के लिए रची जा रही हैं। फिर भी ये देश की आबादी के एक ब़ड़े भाग को पिछ़ड़ा बना रही हैं और न जाने कितने लोगों को पचाती जा रही हैं। सचमुच आज पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे विभागों, सरकारी, गैर-सरकारी विशेषज्ञों को, काम करने वालों को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि देश का बिग़ड़ता पर्यावरण कितने लोगों को उखा़ड़ रहा है। विकास करने वालों को तो विकास की कीमत चुकानी ही प़ड़ेगी। कीमत चुकाने वाले कितने लोग हैं, और ये क्या कीमत चुका रहे हैं इसको लोग जानबूझ कर समझना नहीं चाहते। समझने की कोशिश करने की गलती कर बैठें तो विकास का पटरा बैठ जाएगा। विकास की कीमत का एक छोटा लेकिन मोटा अंदाजा 'भोपाल गैस कांड' ने दिया था। कोई 5000 लोग इस हादसे के पहले छः दिन में मारे गए, छः हफ्तों में कोई एक लाख लोग अपना घर-बार छो़ड़ यहाँ से वहाँ भागते फिरे। छः महीने में पता चला कि कोई एक लाख लोगों को बस किसी तरह घुट-घुटकर जिंदा रहना है और बाद में खबरें आई थीं उस पी़ढ़ी की, जो भोपाल गैस कांड के समय पेट में थीं, गैस कांड के बाद जन्मे बच्चों में कोई 200 मरे हुए थे, 400 जन्म के कुछ समय बाद मर गए। जो जिंदा थे वे भी स्वस्थ नहीं हैं।
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ऐसा नहीं था कि भोपाल से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं हुईं, पर वे सब उन आँखों को नहीं दिखती थीं, जो विकास के सावन में अंधी हो चुकी हैं। फिर भी इनके कानों में बिग़ड़ते पर्यावरण का कुछ शोर तो जाता ही है। इसलिए ये सक्रिय हो उठते हैं, देश का पर्यावरण बचाने के लिए। पर्यावरण के विभाग खुलते हैं, पर्यावरण मंत्रालय बनते हैं, ढेरों कायदे-कानून लिखे जाते हैं, संवर्द्धन की अनेक योजनाओं का उद्घाटन होता है। दिवस मनाए जाते हैं, पर साल के दिन ज्यों के त्यों रहते हैं।
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आधुनिक विकास आज एक राजयक्ष्मा, राजयोग और आसान शब्दों में कहें तो तपेदिक की बीमारी की तरह लोगों को तिल तिल खा रहा है, गला रहा है, कभी-कभी ज्यादा हल्ला मच जाए तो विकास वाले उदारतापूर्वक इस रोग का इलाज करने के लिए राजवैद्य नियुक्त कर देते हैं। हमीं ने दर्द दिया हमीं दवा देंगे। ये दवाएँ कैसी हैं? भोपाल कांड के बाद आस्था अभियान, पूरे देश में वनों को बर्बाद करने के बाद वनीकरण, सामाजिक वानिकी के नाम पर सफेदे (यूकेलिप्टस) के पे़ड़ लगाना? देशभर की नदियों को सारे शहर और उद्योग अपना कचरा ठिकाने लगाने का सबसे सस्ता माध्यम मान चुके हैं। इसके खिलाफ कुछ हल्ला होने लगे तो केंद्रीय और राज्य स्तरीय जल प्रदूषण निराकरण और नियंत्रण बोर्ड बन जाते हैं।
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प्रायः विरोधी दल को किसानों की समस्याएँ साफ दिखने लगती हैं, लेकिन जब वही दल सत्तारू़ढ़ होता है तो वही इन बाँधों को वरदान कहने लगता है। लेकिन कोई भी ऐसी योजनाओं को अभिशाप कहने वाली कुर्सी पर बहुत नहीं बैठना चाहता। इस आधुनिक माने जाने वाले विकास के कारण प्रकृति पर प्राकृतिक साधनों पर, और इन साधनों पर आबादी के जिस ब़ड़े भाग का पूरा जीवन टिका है, उस पर चारों ओर से हमला हो रहा है। पहला हमला हर तरह के उद्योग के भीतर काम करने वाले मजदूर पर है। दूसरा हमला उस उद्योग से निकलने वाले कचरे, गंदे पानी, गंदी हवा का आसपास के नागरिकों पर है। तीसरा हमला उन उद्योगों में बन रहे तैयार माल के उपभोक्ताओं पर है। चौथा हमला उन असंख्य लोगों पर है, जो वहाँ बसे हैं जहाँ से इन उद्योगों को चलाने के लिए कच्चा माल आता है।
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पर्यावरण पर इस हमले में कुछ संगठन तो शुद्ध 'रेडक्रॉस' किस्म के हैं। वे घायलों की दवा-दारू और मरहम पट्टी करने में लगे हैं। पर यह काम भी अब पूरी तरह से नहीं हो पाता। पहले यह काम पर्यावरण के लिए काम कर रही कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने निभाया। पिछले दौर में इन छोटे-छोटे संगठनों ने विकास के कारण बिग़ड़ रहे पर्यावरण की कीमत चुका रहे लोगों का सवाल उठाया। शायद इससे कुछ ताकत भी संगठित होती दिखी, पर फिर अचानक देश की सबसे ब़ड़ी अदालत के दरवाजे गरीब के लिए अचानक खुल गए। तब से पी़िड़तों के ज्यादातर मामले स्थानीय स्तर पर संगठित होने के बदले ब़ड़ी कचहरी में आने लगे। उन दिनों इनमें सबसे ज्यादा नाम पाया था रतलाम के एक मुकदमे ने।
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रतलाम के वार्ड नंबर 12 के नागरिकों ने नगरपालिका की घोर उदासीनता के कारण बिग़ड़ रहे पर्यावरण को लेकर दिल्ली की अदालत में न्याय पाने के लिए घंटा बजाया था। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर और न्यायमूर्ति चिन्नापा रेड्डी ने इस मामले पर अपना अमर फैसला सुनाया और एक टुच्ची नगर पालिका समेत महान मध्यप्रदेश को भी दोषी पाया। अपने ऐतिहासिक क़ड़े फैसले में उन्हें जोरदार ढंग से लता़ड़ा और तुरंत इस अन्याय को ठीक करने के आदेश दिए। यह 1980 का किस्सा है। कई लोगों को लगा कि अब उनके पास प्रदूषण फैलाने वालों को पीटने के लिए सुप्रीम कोर्ट की छ़ड़ी आ गई है। इसके बाद तो सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मुकदमों का ढेर लग गया। मंदसौर में स्लेट-पेंसिल की छोटी-छोटी फैक्टरियों में पेंसिल काटने से उ़ड़ने वाली धूल के कारण मर रहे मजूदरों, ब़ड़े-ब़ड़े बाँधों, बिजलीघरों में विस्थापित हो रहे लोगों, प्रदूषित नदियों के किनारों पर बसे नागरिकों की आवाज वहाँ उठाई गई। लेकिन क्रांतिकारी और ऐतिहासिक माने गए फैसलों का अमल एक दूसरा ही दुखद किस्सा है। रतलाम में आज परिस्थितियाँ पहले से भी भयानक हो गई हैं।

भोपाल गैस हत्याकांड से पहले हमारे देश में कभी भी यह बहस नहीं उठ पाई कि की़ड़ेमार दवाएँ सचमुच जरूरी हैं या नहीं। आधुनिक विकास हमारी अच्छी से अच्छी पद्धति या चीज के बारे में हमारे मन में सेंध लगा देता है, चाहे वे पीने के पानी जुटाने वाले परंपरागत तरीके हों, घर में बनाने वाली परंपरागत सामग्री हो, बेरोकटोक ठीक फसल देने वाले बीज हों, बाजार पर न निर्भर रहने वाली पूरी कृषि पद्धति हो, माँ के स्तन का दूध हो, सब चीजों के बाजारू विकल्प दिए बिना विकास नहीं होता और ऐसा विकास कुछ लोगों के लिए सोने के सुनहरी फीतों में लिपटा हुआ है। वे इन फीतों को खोलते जाते हैं और लाभ कमाते जाते हैं।

यही आधुनिक विकास की सबसे ब़ड़ी जीत है। दूसरी तरफ इस विकास में हर तरफ छिपे धोखे और खतरे से बचने की भी कोशिश हो पाए, इसके लिए कुछ लाल फीते बाँध दिए जाते हैं, इन लाल फीतों को न खोलने की कोशिश में वे सभी लोग लगे हैं तो इनके सुनहरे फीते खोल रहे हैं। इसमें देश का नेतृत्व, नौकरशाही, विज्ञान और तकनीक के लोग, सामाजिक संस्थाएँ, शिक्षण संस्थाएँ आदि हैं। कहीं तो कोई उँगली उठाए इस विकास पर और उठाना भी चाहे तो एक दिवस दिया जा सकता है। 364 दिन नहीं।
(लेखक पर्यावरणविद् हैं।)
साभार- वेब दुनिया

पानी रे पानी... - - नुपूर दीक्षित

मार्क ट्वेन ने कहा था- पूरा विश्व व्हिस्की पिएगा और पानी के लिए युद्ध लड़े जाएँगे। उनका यह कथन इतने वषों बाद भी उतना ही प्रासंगिक है। विशेषज्ञों का मानना है कि अब किसी और मुद्दे पर नहीं, बल्कि पानी के लिए तीसरा विश्वयुद्ध लड़ा जाएगा। ऐसा अनुमान अभी भले ही हमें हास्यापद लगता हो, लेकिन परिस्थितियाँ जिस कदर बिगड़ रही हैं, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह दिन भी अब दूर नहीं। तमिलनाडू और कर्नाटक राज्यों के बीच कावेरी जल-विवाद इसका प्रमाण माना जा सकता है। पानी की समस्या को समझने के लिए भारत की परिस्थितियों पर नजर डालें तो इसकी भयावहता स्पष्ट नजर आएगी। भारत की जनसंख्या 1 अरब से भी ज्यादा हो गई है। प्रति व्यक्ति को जहाँ 80 लीटर पानी दिनभर में इस्तेमाल करना चाहिए, वहीं यहाँ प्रति व्यक्ति 270 लीटर पानी खर्च करते हैं। यही वजह है कि लोगों को पानी तो मिल जाता है, लेकिन पीने के शुद्ध पानी की बात करें, तो बहुत कम प्रतिशत तक ही शुद्ध पानी पहुँच पा रहा है। पीने के पानी के स्त्रोतों के रूप में यहाँ भूमिगत जल, नदियों और तालाबों के पानी पर ही लोगों की निर्भरता है। जिस रफ्तार से देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उसी अनुपात में भूमिगत जल का दोहन भी जारी है। इस अंधाधुध दोहन का परिणाम यह हो रहा है कि भूमिगत जल का स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है।
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गर्मियों के दिनों में हालात इतने बिगड़ जाते हैं कि पीने का पानी भी कई-कई दिनों बाद लोगों को नसीब होता। जब पीने के पानी के लिए इतना हाहाकार मचा हो, तो इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य उपयोगों के लिए पानी कितना मिल पाता होगा?अगर देखा जाए तो भारत में मुख्य नदियों में 12 ही ऐसी हैं, जिनमें सालों भर पानी रहता है। गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों का पानी पीने के साथ-साथ अन्य उपयोगों में भी लाया जाता है, लेकिन हर साल इन नदियों में बाढ़ आती है और लोगों के इस स्त्रोत को भी छीन ले जाती है। गंगा नदी में हर साल आने वाली बाढ़ से न केवल हजारों लोग बेघर हो जाते हैं, बल्कि उन्हें पीने का पानी तक नसीब नहीं होता, जिसका परिणाम कई महामारियों के रूप में हमारे सामने आता है और सैकड़ों लोग मौत की कगार पर पहुँच जाते हैं। देश में कुछ संगठन इस दिशा में काम भी कर रहे हैं, लेकिन वे ऊँट के मुँह में जीरे के जैसा है, क्योंकि इतने बड़े स्तर पर लोगों की प्यास बुझा पाना संभव नहीं हो पा रहा। ऐसा नहीं है कि ये स्थिति पृथ्वी के निर्माण के साथ ही पैदा हो गई थी, बल्कि इन परिस्थतियों के लिए मनुष्य को ही दोषी माना जाएगा। बिना किसी योजना और विकल्प के वे प्रकृति के मुख्य संसाधान यानी जल का दोहन कर रहे हैं।

साभार- वेब दुनिया

झारखण्ड के जलप्रपात

१.
उत्तरी जलप्रपात - स्थान - गिरिडीह
२.
अपर घघरी जलप्रपात - स्थान - नेतरहार
३.
करीदह जलप्रपात - स्थान - चतरा
४.
गोआ जलप्रपात - स्थान - चतरा
५.
दशम जलप्रपात - स्थान - रांची
६.
धड़धड़िया जलप्रपात - स्थान - लोहरदगा
७.
निन्दी जलप्रपात - स्थान - लोहरदगा
८.
हुण्डरु जलप्रपात - स्थान - रांची
९.
हिरणी जलप्रपात - स्थान - सिंहभूम
१०.
जोन्हा जलप्रपात - स्थान - रांची
११.
पंचघाघ जलप्रपात - स्थान - रांची
१२.
तिरु जलप्रपात - स्थान - रांची
१३.
पंगूरा जलप्रपात - स्थान - रांची
१४.
सोनुआ जलप्रपात - स्थान - रांची
१५.
मालूदह जलप्रपात - स्थान - चतरा
१६.
तमासीर जलप्रपात - स्थान - चतरा
१७.
डुमेर - सुमेर जलप्रपात - स्थान - चतरा
१८.
लोपा जलप्रपात - स्थान - नेतरहार
१९.
लोअर घघरी जलप्रपात - स्थान - नेतरहार
२०.
नागफेना जलप्रपात - स्थान - गुमला

झारखण्ड की नदियां और उद्गम स्थल - पूनम मिश्र

१.
अजय नदी -उद्गम स्थल -मुंगेर (बिहार)
२.
कोआ नदी - उद्गम स्थल -गोड्डा और पाकुड़
३.
खरकई नदी - उद्गम स्थल -सिमलीपाल (मयुरभंज, उड़िसा)
४.
गुमानी नदी - उद्गम स्थल -राजमहल
५.
दामोदर नदी - उद्गम स्थल - छोटानागपुर का पठारी भाग
६.
दक्षिण कोयल नदी - उद्गम स्थल - छोटानागपुर का पठारी भाग
७.
उत्तरी कोयल नदी - उद्गम स्थल - रांची पठार
८.
पंचाने नदी - उद्गम स्थल - उत्तरी छोटानागपुर का पठारी भाग
९.
फल्गु नदी - उद्गम स्थल - उत्तरी छोटानागपुर का पठारी भाग
१०.
मथुराक्षी नदी - उद्गम स्थल - देवधर
११.
शंखनदी - उद्गम स्थल - गुमला
१२.
सकटी नदी - उद्गम स्थल - उत्तरी छोटानागपुर का पठारी भाग
१३.
स्वर्णरेखा नदी - उद्गम स्थल - छोटानागपुर का पठारी भाग

झारखण्ड (नदियां एवं जल प्रपात) जल स्रोत - पूनम मिश्र

मस्त लोग, प्राकृतिक छटाओं से गौरवान्वित एवं जंगल, पहाड़, पठार, खनिज सम्पदाओं से अलंकृत झारखण्ड की धरती पर जीवन को प्राणवान बनाने के लिए अनेक नदियां एवं जल प्रपात भी है। प्रतिवर्ष लगभग एक हजार मिली मीटर से अधिक वर्षा वाला प्रदेश झारखण्ड भू-गर्भीय जल में भी पीछे नहीं है। कोयल, शंख, अजय, गुमानी, मथुराक्षी, स्वर्ण रेखा, दामोदर आदि नदियाँ अपने जल एवं कलख से प्रकृति और प्रकृति के प्राणियों में प्राण का संचार करती रहती हैं।
लेकिन इस प्रदेश की अधिकांश नदियां भारत की अन्य नदियों से भिन्न है। झारखण्ड में कठोर चट्टानों के कारण भूमिगत जल का स्तर नदियों से अलग रह जाता है। ये नदियां कठोर एवं पथरीले और पहाड़ी भू-भाग से प्रवाहित होने के कारण बिहार एवं उत्तर प्रदेश की नदियों की तरह अपने मार्ग नहीं बदलती है, साथ ही साथ यहां की नदियों का प्रवाह भू-आकृति के कारण नियंत्रित रहता है। कमो-बेस झारखण्ड की सभी नदियां बरसाती होती रहती है अत: बरसात के दिनों में उमड़ पड़ती है परन्तु गर्मियों के दिनों में अल्प मात्रा में जल रहता है या ये नदियां लगभग सूख जाती हैं। इस प्रदेश में उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली नदियां मैदानी भाग में प्रवेश करने के कारण मंद पड़ जाती है और कम कटाव कर पाती हैं। जबकि ठीक इसके विपरीत दक्षिण की ओर बहने वाली नदियां दूर तक तीव्र गति से बहती हैं। अत: वे अधिक कटाव कर पाती हैं। झारखण्ड की किसी भी नदी में नाव नहीं चलायी जा सकती है क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण ये नदियां नाव चलाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
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नदियों के अलावा इस प्रदेश में अनेक प्राकृतिक जलकुण्ड भी हैं जो अपने भौगोलिक परिवेश, धार्मिक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक एवं अन्य महत्व के लिए प्रसिद्ध हैं। इन प्राकृतिक जलकुण्डों का जल हमेशा गर्म रहता है। हजारीबाग, दुमका, सिमडेगा, गुमला, धनबाद आदि जिले में गर्म पानी के इस तरह के झरने अवस्थित हैं। ये गर्म पानी हिमाचल प्रदेश के तत्ता पानी को याद दिलाते हैं। ठीक हिमाचल के तत्तापानी की तरह इनके जल में भी गंधक एवं खनिज लवणों का मिश्रण घुला होता है। इस कारण अनेक रोगी विशेषतौर से त्वचा रोगों से त्रस्त मरीज इन गर्म जलकुण्ड के पानी में नहाने आते हैं जिससे की उनकी बीमारी का इलाज हो जाए। इस चिकित्सा में धर्म की मान्यता भी जुड़ी होती है। इन सभी कारणों से ये प्राकृतिक स्रोत पर्यटकों के लिए आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं।
हजारीबाग का सूरजकुंड जैसा कि नाम से ही विदित है, सबसे गर्म एवं विख्यात जलकुण्ड है। इसका तापमान १९० ० होता है। हजारीबाग में गर्म जल के अनेक झरने हैं जिनमें पिण्डारकुण्ड, कावा, लुरगाथा आदि प्रमुख हैं।
ंचा ंचाई
इसी तरह से इस प्रदेश में लगभग २० छोटे-बड़े और आकर्षक जलप्रपात भी हैं, जो जीवन को जल से प्राणवान करते हैं। हुन्डरु का जलप्रपात झारखण्ड का सबसे जलप्रपात है। अब से यह इस प्रदेश के एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रुप में विख्यात हो चुका है। यहां पानी की जलधारा लगभग ३०० फिट की से गिरती है। हुण्डरु रांची शहर से लगभग ४५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस जलप्रपात से सिकीदिरी पनबिजली संयंत्र में बिजली का उत्पादन भी होता है।
ंचाई ंचाई
दूसरा आकर्षक जलप्रपात रांची शहर के ४० किलोमीटर की दूरी पर कांची नदी स्थित दशम जलप्रपात है। चूंकि यह दस जलधाराओं का प्रपात है इसीलिए इसे दशम जलप्रपात कहा जाता है। सदनी जलप्रपात गुमला जिले में है। शंखनदी पर स्थित इस जलप्रपात में जलधारा लगभग २०० फिट की से गिरती है। झारखंड के प्रसिद्ध शक्तिपीठ (धार्मिक स्थल) रजरप्पा में दामोदर नदी पर रजरप्पा जलप्रपात भी काफी आकर्षक है। नेतरहार में घघटी नदी पर स्थित जलप्रपात पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षक का केन्द्र है। इसकी जलधारा लगभग १५० फिट की से नीचे गिरती है।
इन जलप्रपातों के अलावा हिरणी जलप्रपात, जोन्टा जलप्रपात, डुमेर-सुमेर जलप्रपात, नागफेनी जलप्रपात, लोधा जलप्रपात आदि भी आकर्षक हैं।

ब्रज के घाट

ब्रज में मथुरा, वृन्दाबन, महाबन और गोकुल आदि स्थानों में यमुना नदी पर अनेक धाच निर्मित हैं। इनसे स्नानार्थियों को सुविधा होने के साथ ही साथ यमुना तट के सौंदर्य की भी बृद्धि होती है। वर्तमान काल में यहां पर वहुसख्यक घाट निर्मित हैं, किन्तु पहिले इनकी संखया अल्प थी, कवि जगतनंद ने ब्रज १६ पुराने घाटों का नाम उल्लेख किया है। उनके समय में अरथात १७ वीं शताबदी में यहां पर नये घाट भी निर्मित किये गये थे, जिनकी संख्या कालान्तर में कृमशः वढ़ती रही है। कवि जगतनंद द्वारा उल्लखित पुराने घाटों के नाम निम्नलिखित हैं -
(१) व्रमहांड घाट (महाबन),
(२) गौ घाट,
(३) गोविन्द घाट,
(४) ठकुरानी घाट,
(५) यशोदा घाट,
(६) उत्तरेश्वर घाट (गोकुल),
(७) वैकुंठ घाट,
(८) विश्रांत घाट,
(९) प्रयाग घाट,
(१०) बंगाली घाट (मथुरा),
(११) राम घाट,
(१२) केशी घाट,
(१३) विहार घाट,
(१४) चीर घाट,
(१५) नंद घाट औ
(१६) गोप घाट (वृन्दाबन)
१ इस समय मथुरा के घाटों की संख्या विश्राम घाट सहित २५ है। इनमें से १२ घाट विश्राम घाट के उत्तर दिशा में हैं और १२ उसके दक्षिण में हैं। वृन्दाबन में कलियदह से केसीघाट तक अनेक घाट हैं, जिनकी संख्या लगभग ३५ है। इसी प्रकार गोकुल और महाबन में भी कई प्राचीन और प्रसिद्ध घाट निर्मित हैं। ये सब घाट सुन्दर लाल बलुआ प्रस्तर से निर्मित हैं। इनमें से बहुतों पर कलापूर्ण बुर्जियां और छतरियाँ भी निर्मित हैं। इन्हे समय-समय पर अनेक श्रद्धालु राजा-महाराजाओं और समृद्ध व्यक्तियों ने निर्मित कराया है। पिछले अने वर्षो से यमुना नदी ने बहुत घाटों को छोड़ दिया है, जिससे वे शोभाहीन होकर भग्वानस्था में उपेक्षित पड़े हुए हैं। अब भी जव वर्षा ॠतु में यमुना का फैलाव बढ़ जाता है, तब उसका प्रवाह इन सभी धाटों पर होने लगता है। उस समय यमुना तट की जो अनुपम शोभा होती है, ससे दर्शनों का मन मुग्ध हो जाता है।
१. ब्रज में सोलह घाट हैं, लखौ घाट ब्रम्हांड। गऊ घाट गोविन्द कौ घाट जो वन्यौ प्रचंड।।अरु ठकुरानी घाट है, घाट जसोदा देखि। उतरेश्वर घाट है, घाट बैकुंठ कौ पेखि।।घाट एक विसरांत कौ, अरु प्रयाग कौ घाट। घाट बंगाली देखियै, रामघाट कौ पाट।।केसीघाट, बिहारी लखि, चीर घाट, नंदघाट। गोपी घाट विचारि लै 'जगतनन्द' इहि बाट।।औरहु घाट अनेक हैं, सो सब नूतन जान। घाट पुरातन सोलहै, 'जगतनन्द'मन मान।। (ब्रज बस्तु, वर्णन)
साभार - ब्रज-वैभव

ब्रज की बावड़ी, कूप

बावडी
- इनका प्रयोग ब्रज प्रजा पेय जल के प्राप्त करने के लिये करती थी। ब्रज में अभी भी कई प्रसिद्ध और सुन्दर बावड़ी है, किन्तु ये जीर्ण अवस्था में पड़ी है। इनमें मुख्य निम्न वत हैं - ज्ञानवापी (कृष्ण जन्मस्थान, मथुरा), अमृतवापी (दुर्वासा आश्रम, मथुरा), ब्रम्ह बावड़ी (बच्छ बन), राधा बावड़ी (वृन्दाबन) और कात्यायिनी बावड़ी (चीरधाट) हैं।

कूप
- ब्रज में वहुसख्यक कूप हैं जिनका उपयोग आज भी ब्रजवासी पेय जल प्राप्त करने के लिये करते हैं। ब्रज मंडल के अधिकांश ग्रामों की आवसीय परिशर में भूगर्भीय जल खारी है अथवा पीने के लिये अन उपयोगी है। अतः इस संदर्भ में कहावत प्रचलित कि भगवान कृष्ण ने बचपन की सरारतों के चलते ब्रज के ग्रामों की आवसीय परिशर के भू-गर्भीय जल को इस लिये खारी (क्षारीय) और पीने के लिये अन उपयोगी बना दिया ताकि ब्रज गोपियाँ अपनी गागर लेकर ग्राम से बाहर दैनिक पेय जल लेने के लिये निकले और कृष्ण उनके साथ सरारत करें, उनकी गागरों को तोड़ें और उनके साथ लीला करें। आज भी ब्रज ग्रामीण नारियों को सिर पर मटका रख ग्राम से बाहर से जल लाते हुए समुहों के रुप में ग्राम बाहर के पनधट और कूपों पर देखा जा सकता है। पेय जल के साथ-साथ इन कूपों का ब्रज में धार्मिक महत्व भी है। कवि जगतनंद के समय में १० कूप अपनी धार्मिक महत्ता के निमित्त प्रसिद्ध थे। इनके नाम इस प्रकार वर्णित हैं -
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(१) सप्त समुद्री कूप,
(२) कृष्ण कूप,
(३) कुब्जा कूप (मथुरा),
(४) नंद कूप (गोकुल और महाबन),
(५) चन्द्र कूप (चन्द्र सरोवर गोबर्धन),
(६) गोप कूप (राधा कुंड),
(७) इन्द्र कूप (इंदरौली गाँव-कामबन),
(८) भांडीर कूप (भाडीर बन),
(९) कर्णवेध कूप (करनाबल) और वेणु कूप (चरण पहाड़ी कामबन)
११. ब्रज में लख दस कूप हैं, सप्तसमुद्रहि जान। नंद कूप अरु इन्द्र कूप, चन्द्र कूप करिमान।।एक कूप भांडीर कौ, करणवेघ कौ कूप। कृष्ण कूप आनंदनिघिस बेन कूप सुख रुप।। एक जु कुब्जा कूप है, गोप कूप लखि लेहु। 'जगतनंद' वरननकरत ब्रज सौं करौ सनेह।।

ब्रज की सरोवरें, कुंड, ताल, पोखर

ब्रज की सरोवरें
- कवि जगतनंद के अनुसार चार सरोवर हैं जिनके नाम हैं - पान सरोवर, मान सरोवर, चंद्र सरोवर और प्रेम सरोवर।
पान सरोवर - ब्रज के नंदगाँव का यह एक छोटा जलाशय है। १
१. पान सरोवर, मान सरोवर और सरोवर चंद। प्रेम सरोवर चार ये, ब्रज में कहि जगनंद।। (ब्रजवस्तु वर्णन)

मानसरोवर - वृन्दावन के समीप यमुना के उस पार है। यह हित हरिवंश जी का प्रिय स्थल है यहाँ फाल्गुन में कृष्ण पक्ष ११ को मेला लगता है।
चन्द्र सरोवर - यह गोबर्धन के समीप पारासौली ग्राम में स्थित है। इसके समीप बल्लभ सम्प्रदायी आचार्यो द्वारा वैठकें आयोजित की जाती थीं और यह सूरदास जी का निवास स्थल है।
प्रेम सरोवर - यह वरसाना के समीप है। इसके तट के समीप एक मंदिर है। भाद्रपद मास में इस सरोवर पर नौका लीला का आयोजन और मेला होता है।

कुंड
- ब्रज में अनेक कुंड हैं, जिनका अत्यन्त धार्मिक महत्व है। आजकल इनमें से अधिकांश जीर्ण-शीर्ण और अरक्षित अवस्था में हैं, जो प्राय सूखे और सफाई के अभाव में गंदे पड़े हैं। इनके जीर्णोद्धर और संरक्षण की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इन कुंडों के माध्यम से भूगर्भीय जल स्तर की बड़ोतरी होती है साथ-ही-साथ भूगर्भीय जल की शुद्धता और पेयशीलता बड़ती है। कवि जगतनंद के अनुसार ब्रज में पुराने कुंडों की सख्या १५९ है तथा बहुत से नये कुंड भी हैं। उन्होंने लिखा है पुराने १५९ कुंडों में से ८४ तो केबल कामबन में हैं शेष ७५ ब्रज के अन्य स्थानों में स्थित है। १
१. उनसठ ऊपर एकसौ, सिगरे ब्रज में कुंड।चौरासी कामा लाखौ, पतहत्तर ब्रज झुँड।। औरहि कुंड अनेक है, ते सब नूतन जान।कुंड पुरातन एकसौ उनसठ ऊपर मान।। (ब्रजवस्तु वर्णन)

ताल
- ब्रज में बहुत से तलाब हैं जो काफी प्रसिद्ध हैं। कवि जगतनंद ने केवल दो तलाबों - रामताल और मुखारीताल का वर्णन प्रस्तुत किया है। १ इनके अतरिक्त भी बहुत से तालाब हैं, जिनमें मथुरा का शिवताल प्रसिद्ध है।
१. दोइ ताल ब्रज बीच हैं, रामताल लखिलेहु।और मुखारी ताल है, 'जगतनंद' करि नेहु।। (ब्रजवस्तु वर्णन)

पोखर
- ब्रज में अनेकों पोखर अथवा वरसाती कुंड हैं। कवि जगतनंद ने उनमें से ६ का नामोल्लेख किया है वे पोखर हैं -

(१) कुसुमोखर (गोबर्धन)
(२) हरजी ग्वाल की पोखर (जतीपुरा)
(३) अंजनोखर (अंजनौ गाँव)
(४) पीरी पोखर और
(५) भानोखर बरसाना तथा ईसुरा जाट की पोखर
(नंदगाँव) है। १ उनमें कुसुम सरोवर को ब्रज के जाट राजाओं ने पक्के विशाल कुंड के रुप में निर्मित कराया था।
१. पोखर षट् अब देखिलै, कुसमोखर जियजान। हरजी पोखर, आंजनी पीरीपोखर मान।मानोखर अरु ईसुरा पोखर कहि 'जगनंद'। ब्रज चौरासी कोस में ब्रज कौ पूरनचन्द्र।।

ब्रज की झील

ब्रज की झील - ब्रज की सीमान्तर्गत कई छोटी-बड़ी झीलें हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं -
नोहझील - यह मथुरा जिलाकी भाँट तहसील के अन्तर्गत इसीनाम के ग्राम के समीप स्थित है
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मोती झील - यह भी भाँट तहसील में भाँट ग्राम के पास स्थित है। यह अब यमुना नदी की धारा में समा गई है।
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कीठम झील - यह दिल्ली आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग सख्या-२ पर रुनकुता नामक ग्राम के समीप स्थित है। ब्रज की यह सरम्य स्थली सैलानियों के लिये आकर्षण का भी केन्द्र है।
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मोती झील (दूसरी) - यह भरतपुर के समीप का जलाशय है, जो वहाँ की रुपारेल नामक छोटी नदी के पानी से भरा जाता है।
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केवला झील - यह अत्यन्त सुंदर झील भरतपुर के समीप है, जो अजान बंध के जल से भरी जाती है। शरद ॠतु में इस झील के किनारे देश-विदेश के अगणित जल पक्षी विहार करने हेतु पहुँचते हैं। सैलानी उन पक्षियों को देखने के लिए यहां आते हैं।
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मोती झील - यह वृन्दाबन रमणरेती में स्वामी अखंडानंद आश्रम का एक जलाशय है। यह कफी गहरा है और इसके फर्स सहित चारों ओर से पक्का है। इसमें उतरने के लिये चारों ओ सीड़िया निर्मित हैं, जो पस्तर की हैं। इसमें वर्षा के जल को संचित कर लिया जाता है, किन्तु वर्तमान समय में अल्प वर्षा के कारण खाली रह जाती है और इसमें जो अल्प जल रहता भी है तो वह वहुत पवित्र नहीं है।

शिवनाथ का 23.5 किमी का हिस्सा बीस साल के लिए रेडियस वाटर लिमिटेड को

नई दिल्ली। आठ अगस्त को दक्षिण दिल्ली के एक रिहायशी इलाके में 24 घंटे से पेयजल आपूर्ति बाधित रहने के कारण हाहाकार मचा हुआ था। यह तो सिर्फ एक दिन की बात थी, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं यह दस्तक है आने वाले कल की, जब पानी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बनेगा।
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इस इलाके के ठीक पीछे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पानी की समस्या का हल प्रो. सौमित्र चटर्जी ने सुदूर संवेदन तकनीक के जरिए निकाला है।
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विशेषज्ञों ने इस तकनीक के बारे में बताया कि किसी वस्तु या परिवर्तन का बिना उसके संपर्क में आए उपग्रह के माध्यम से अध्ययन किया जाता है। उपग्रह से मिले चित्र खुलासा कर देते हैं कि किस इलाके में जमीन कैसी है और उसकी अंदरूनी संरचना कैसी है। कहां पानी बचाया जा सकता है और किस हिस्से में पानी रह सकता है। इसके बाद चैकडेम बनाए जाते हैं।
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नई दिल्ली और राजस्थान में इस तकनीक का प्रयोग हो चुका है। जल योद्धा हरदेव सिंह जडेजा के अनुसार यह तकनीक जल संरक्षण में काफी उपयोग में लाई जा रही है। राजस्थान, गुजरात का सौराष्ट्र, आंध्र का रायल सीमा, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड और कर्नाटक के कुर्ग जैसे क्षेत्रों के लिए यह तकनीक बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। यह वे इलाके हैं जहां तीन साल में एक बार अल्प वर्षा और चार साल में एक बार अति वर्षा होती है फिर भी यह इलाके पेयजल की किल्लत झेलते हैं।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ आधिकारिक तौर पर पहला राज्य है जहां प्रमुख नदी शिवनाथ का 23.5 किमी का हिस्सा बीस साल के लिए रेडियस वाटर लिमिटेड के हवाले कर दिया गया। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक जनक लाल ठाकुर के अनुसार यह तो वैश्वीकरण की हद हो गई। पानी के निजीकरण के मुद्दे पर वह कहते हैं, यह महज पानी का नहीं, बल्कि सरकार की नीयत में खोट आने का मामला है। अब लोगों को जागरूक होना होगा। पुराने बांध जहां खेती के लिए होते थे वहीं नए बांध महज औद्योगिक विकास के काम आ रहे हैं।
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राजस्थान के अलवर में जल-क्रांति लाने में लगे तरुण भारत संघ के राजेंद्र सिंह यानी वाटरमैन जागरूकता लाने के प्रयासों में लगे हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सिंह अपनी सफलता का श्रेय उस देशज ज्ञान और पारंपरिक समझ को देते हैं जो समय की कसौटी पर खरी साबित हुई। आज उनके बनाए जोहड़ों ने रेगिस्तान में तब्दील हो रहे अलवर को हराभरा कर दिया।
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सरकार नौकरशाही और वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा भले ही इस पारंपरिक ज्ञान को अव्यवहारिक मानता है, लेकिन प्रेमजी भाई पटेल, श्याम जी भाई, पूना भाई जैसे जल दूत विभिन्न इलाकों में मौन क्रांति लाने में लगे हुए हैं।
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श्याम जी भाई अंटाला पिछले दो दशकों में तीन लाख से ज्यादा कुएं रिचार्ज (पुनर्भरण) कर चुके हैं। वह कहते हैं कि सौराष्ट्र में 1964, 1972, 1985, 1986 एवं 1987 में सूखा पड़ा, लेकिन 1988 में भारी बारिश हुई और लोगों ने सोचा कि कुएं में पानी भर लेना चाहिए।
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वह मानते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। इससे बचना है तो बुजुर्गों के उन अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए जो चैकडेम, पोखर, तालाब और कुएं के जरिए जलापूर्ति में काम आ रहे थे।
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हम शायद यह भूल गए कि इस देश में कुएं पूजन की परंपरा है और हमने कुएं और जल स्रोतों को खराब करना शुरू कर दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि एक घर के ऊपर जितना पानी गिरता है। वह उस परिवार की वार्षिक जरूरत से पांच गुना तक अधिक होता है। छत के पानी को बटोर कर आसानी से साल भर के पेयजल की व्यवस्था हो सकती है।
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विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पेय जलापूर्ति से निपटने और बढ़ती आबादी के बीच संतुलन बिठाने के लिए विकसित राष्ट्रों की तर्ज पर पेयजल के संबंधित विभागों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने पर विचार करते हुए संवैधानिक शक्तियां प्रदान करनी होगी। साथ ही राज्यों में पेयजल के वितरण और प्रबंधन के लिए सरकारी योजनाओं में जन भागीदारी को प्राथमिकता देनी होगी।
साभार- दैनिक जागरण

जल संचयन सूची

वर्षा जल संचयन के तरीके
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* घर के लान को कच्चा रखें
* घर के बाहर सड़कों के किनारे कच्चे रखें अथवा लूज-स्टोन पेवमेंट का निर्माण करे
* पार्को में रिचार्ज ड्रेंच बनाई जाये

रोजमर्रा के कार्यो में जल बचत
* मंजन या सेव बनाते समय मग का प्रयोग करे
* बर्तनों को मांजते समय नल बंद रखें
* वाहन की धुलाई पाइप लगाकर न करे बाल्टी में पानी भरकर साफ करे
* पानी की टंकी में वाल्व अवश्य लगायें
* घर के सदस्यों को पानी बचाने की शिक्षा दें
* कम पानी वाले फ्लश सिस्टम का प्रयोग करे
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किसान भी कर सकते है पानी की बचत
* फसलों की क्यारी बनाकर सिंचाई करे
* पेड़ पौधों एवं फसलों की सिंचाई में आवश्यकतानुसार ही पानी का प्रयोग करे
* बगीचे में पानी सुबह ही लगायें

धमतरी अंचल में बिना अनुमति खुद रहे हैं बोर

छत्तीसगढ़ समाचार :
धमतरी, 4 दिसंबर। जल की महत्व को अच्छी तरह समझ लेने के बाद भी समाज में इसके संरक्षक संवर्धन और उपयोग के प्रति जागरूकता नहीं आई है वहीं दूसरी ओर शासन प्रशासन के द्वारा जल संरक्षण व संवर्धन हेतु जो अनेक योजनाएं एवं कार्यक्रम बनाए गए हैं। विभाग व बोर्ड गठित किए गए हैं। उनके जिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों का रवैय्या भी जल संरक्षण संवर्धन के प्रति बेहद उदासीन और कागजी खानापूर्ति करने सेमीनार गोष्ठियां करने तक सीमित नजर आता है। जमीनी धरातल पर जल संरक्षण हेतु सतत चलने वाला प्रयास कहीं नजर नहीं आता। जलसंरक्षण हेतु अनेक कानून नियम केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने बना रखे हैं, लेकिन ना तो कहीं उनका क्रियान्वयन होता दिखाई देता और ना पालन। सर्वाधिक लापरवाही भूजल के प्रति नागरिक एवं शासन के जिम्मेदार अधिकारी कर रहे हैं. बिना सोचे समझे विशेषज्ञोँ की सलाह और जिला प्रशासन को अनुमति के बिना भूजल का व्यापक दोहन गहरे नलकूप खनन करके लोग युध्द स्तर पर कर रहे हैं।
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धमतरी जिला के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रो प्रतिदिन चप्पे –चप्पे में बिना जिला कलेक्टर लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की स्वीकृति के नलकूपों का खनन, नागरिकों एवं किसानों द्वारा खुले आम किया जा रहा है। एक जनहित याचिका पर फैसला और निर्देश देते हुए सुप्रीम कोर्ट में भी के.द्रीय भूजल बोर्ड को यह आदेश कुछ वर्षों पूर्व दे रखा है कि बिना जिला कलेक्टर को अनुमति से किसी को नलकूप खनन कर भूजल का दोहन ना करने दिया जाए। नल कूप खनन के लिए नगर निगम और नगर पालिका से भी अनुमति लेना आवश्यक होता है, लेकिन यह जानकारी आश्चर्य होता है और समस्त जिम्मेदार अधिकारियों एवं विभागों की लापरवाही भी उजागर होती है कि वे आंख मूंदकर बिना अनुमति के लिए हुए नलकूप खनन करने वालों को जहां चाहें वहां गहरे से गरहे नलकूप खोदने दे रहे हैं। एक नलकूप खनन के बाद दूसरी कितनी दूरी में खोदा जाए इसकी भी दूरी शासन ने तय कर रखी है। लेकिन इसका पालन कोई नहीं करता। नियमानुसार एक नलकूप जहां खोदा जा चुका है वहां से 150 मीटर के दायरे में जिला प्रशासन पी.एच.ई. एवं नगर पालिका की ओर से आजड तक बिना अनुमति के नलकूप खनन करने वालों पर किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं हुई है। उल्लेख्नीय है कि धमतरी के जिला बनने के बाद आजकल किसी नागरिक ने कलेक्टर पी.एच.ई. नगरपालिका के दफ्तर में नलकूप खनन की स्वीकृति प्राप्त करने आवेदन नहीं दिया। बिना स्वीकृति के नगर के विभिन्न वार्डों में और जिले के गांवों में हजारों नल कूपों का खनन हो गया।
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अंधाधुंध बेतरतीब नलकूप खनन से भूगर्भ का जल स्तर घटता जा रहा है। जिले में तीन-तीन चार-चार फसल लेने की होड़ में ग्रामीण क्षेत्रो में थोड़ी -थोड़ी दूरी पर मनमाने नलकूप खोदे जा रहे हैं। इससे दिन पर दिन भूजल गहराई में पहुंचता चला जा रहा है और अधिक गहराई से पानी खींचने की होड़ सी मची हुई है। आज से कुछ वर्षोँ पूर्व तक जहां 40-50 या अधिक से अधिक सौ फीट की गहराई तक नलकूप खनन से भरपूर पानी प्राप्त हो जाता था वहीं आज स्थिति यह है कि दो से तीन सौ फीट नलकूप खनन करने पर भी पानी ठीक से प्राप्त नहीं हो रहा है। भूजल वैज्ञानिको एवं पर्यावरण विद्वानों के अनुसार यदि यही रफ्तार अधिक गहराई तक खनन करके भूजल दोहन की रही तो तो जो आजतक ततव (खनिज) आर्सानिक पानी की सतह में नीचे होता है वह पानी के साथ नलकूप से बाहर आगे। हवा के साथ यह जहरीला आर्सानिक घुलेगा, विघटित होगा और मानसून आने पर जब पानी पुन: विघटित होगा और विघटित आर्सानिक के संपर्क में आएगा तब वह पानी में पूरी तरह घुलने लगेगा। धमतरी जिला प्रशासन पी.एच.ई. नगर पालिका एवं अन्य जिम्मेदार अफसरों की यह जवाबदेही होती है कि वह बिना अनुमति के खनन करने वालों पर कार्रवाई करे। और उस पर नजर रखे। विदित हो कि वर्ष 2001 में ता.कालीन धमतरी कलेक्टर ने समाचार पत्रो में विज्ञप्ति जारी कर निजी बोर खनन पर प्रतिबंध लगाए जाने के निर्देश दिए और चेतावनी दी थी कि न.पा. क्षेत्र में यदि कोई निजी बोर खनन करते पाया जाएगा तो मुख्य न.पा. अधिकारी द्वारा उसके खिलाफ कार्रवाई की जावेगी। कलेय्टर की उक्त चेतावनी एवं प्रतिबंध के बावजूद भी दर्जनों नलकूप खनन खुलेआम होते रहे और आज भी हर मोहल्ले में गली-गली में हो रहे हैं। ना तो जिला कलेक्टर और नगरपालिका के अधिकारी किसी तरह की कोई कार्रवाई बिना स्वीकृति के नलकूप खनन करने वालों पर कर रहे हैं।
[Thanks to Chhattisgarh Samachar
www.dailychhattisgarh.com ]

भूगर्भ जल संकट पर गोष्ठी में भाग ले : उत्तर प्रदेश शासन


प्रिय महोदय,
संपूर्ण विश्व में जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन, एक बुनियादी मानवीय आवश्यकता और एक बहुमूल्य सम्पदा है। इसीलिये विकास एवं नियोजन की प्रक्रिया में जल को एक निर्णायक मौलिक घटक माना गया है। यदि पूरे विश्व की जल सम्पदा का परिदृश्य देखें तो पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त जल में 97.3% भाग समुद्री व खारा है। शेष 2.7% जल में से भी मात्र 0.7% जल ही उपयोग में लाने योग्य है। भारत वर्ष को लें तो यहाँ विश्व की 16% आबादी है जबकि विश्व के सापेक्ष देश का क्षेत्रफल 2.45% है तथा जल भंडारण की दृष्टि से देश में विश्व के जल संसाधन का 4% ही उपलब्ध है अर्थात उपयोग में लायी जाने सतही जल व भूगर्भ जल के रूप में उपलब्ध जल सम्पदा सीमित है।

2- सादर विदित हो कि गंगा बेसिन क्षेत्र में बसे उत्तर प्रदेश राज्य को जल संसाधन की दृष्टि से धनी माना गया है किन्तु विगत 2-3 दशकों में विशेष रूप से भूगर्भ जल की मांग कृषि, पेयजल व औद्योगिक क्षेत्र में जिस गति से बढ़ी है, उससे अनेक क्षेत्रों में भूजल के अति दोहन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। परिणाम स्वरूप अनेक क्षेत्रों में भूगर्भ जल स्रोत दबाव में आ गये हैं और जल स्तर में अत्यधिक गिरावट परिलक्षित हो रही है जिससे हैण्डपम्प, नलकूप व बोरिगें कम पानी दे रही हैं अथवा असफल होती जा रही हैं।

3- राज्य भूगर्भ जल विभाग के आंकलन के अनुसार वर्तमान में प्रदेश के 37 विकास खण्ड अतिदोहित, 13 विकास खण्ड क्रिटिकल व 88 विकास खण्ड सेमी क्रिटिकल श्रेणी में वर्गीकृत किये गये हैं। बुन्देलखण्ड, विन्ध्य के पठारी क्षेत्रों में तो भूगर्भ जल की उपलब्धता ही काफी कम है। भूगर्भ जल संकट की इस स्थिति के समाधन हेतु विभाग द्वारा 36 जनपदों में स्थित 141 समस्याग्रस्त विकास खण्डों को चिन्हित किया है जिनको अलग-अलग प्राथमिकता वाली 4 श्रेणियों के अन्तर्गत वर्षा जल संचयन एवं भूगर्भ जल रिचार्ज हेतु सीमांकित किया गया है।
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4- इन चिन्हित विकास खण्डों की सूची संलग्नक-1 पर दृष्टव्य है। शासन द्वारा इन सभी विकास खण्डों में भूगर्भ जल संरक्षण व रेनवाटर हार्वेस्टिंग की कार्ययोजना प्राथमिकता पर बनाये जाने का निर्णय लिया गया है। इन कार्य योजनाओं का प्रारूप/प्रस्ताव तैयार होने के बाद जनपद स्तर पर क्रियान्वयन सम्बन्धी कार्यवाही की जायेगी। इन क्षेत्रों में उक्त कार्ययोजना के प्रस्ताव एवं रणनीति हेतु आपके सुझावों की भी अत्यन्त आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से दिनांक 02 अगस्त 2006 को उ०प्र० आवास एवं विकास परिषद, लखनऊ के सभागार में संलग्न कार्यक्रम के अनुसार एक विचार गोष्‍ठी का आयोजन किया गया है। इस संगोष्ठी में समस्याग्रस्त क्षेत्रों के मा० विधायकगण, संबंधित जनपदों के मुख्य विकास अधिकारी एवं भूगर्भ जल विभाग के अधिकारी भाग लेंगे तथा प्रदेश स्तर पर संबंधित विभागों यथा-भूगर्भ जल विभाग, लघु सिचाई विभाग, कृषि विभाग, भूमि संरक्षण विभाग, जल निगम, वन विभाग, ग्राम विकास विभाग के विभागाध्यक्ष भी भाग लेंगे।
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5- आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया गोष्ठी में भाग लेकर अपने विचारो एवं सुझावों से हमें लाभान्वित करने की कृपा करें।
संलग्नक : यथोक्त।
भवदीय,
(अरूण आर्या)
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श्री आर०एस०जुरैल,मुख्य अभियन्ता, लघु सिंचाई विभाग,उ०प्र०, लखनऊ।
श्री एम०एम० अन्सारी,निदेशक, भूगर्भ जल विभाग, उ०प्र०, लखनऊ।

औद्योगिकीकरण से जल प्रदूषित हो रहा है

मानव जाति के बने रहने के लिए जल आवश्यक है। एक तरफ तेजी से बढ़ रहे औद्योगिकीकरण से जल प्रदूषित हो रहा है वहीं दूसरी तरफ वातावरण गर्म होने के कारण बरसात भी कम हो रही है। यदि आज ही शहर से लेकर गांव तक जल संरक्षण अभियान नहीं चलाया गया तो भविष्य अंधकारमय हो सकता है। श्री शुक्ला भूगर्भ जल दिवस पर आयोजित गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गाजियाबाद जिला गंगा-जमुना के मध्य में होने, नहरों के बावजूद जमीरी पानी का स्तर लगातार गिर रहा है। इससे स्थिति गंभीर हो रही है। जिले की सामान्य वर्षा 648.65 मिमी तथा बगैर मानसून की वर्षा 105.20 मिमी वार्षिक है। जिले में कुल 98154.45 हे.मी भूगर्भ जल उपलब्ध है जिसमें से 71903.36 हे.मी. भूजल का सिंचाई के लिए दोहन होता है। जिलाधिकारी ने कहा कि घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए 25 वर्ष बाद 50128.68 हे.मी. भूजल की आवश्यकता होगी जबकि वर्तमान आवश्यकता 30808.29 हे.मी. है। 25 वर्ष बाद कुल 26251.09 हे.मी. जल सिंचाई के लिए मिल पाएगा। उन्होंने बताया कि जिले के आठ ब्लाकों में से लोनी व हापुड़ अभी सेमीक्रिटिकल स्थिति में हैं, जबकि शेष छह सुरक्षित स्थिति में हैं। उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि लोनी व रजापुर में प्रति वर्ष 10 से 20 सेमी भूजल में गिरावट आ रही है। अजय कुमार शुक्ला ने कहा कि जिले में सभी हैंडपंपों के सोख्ते बनाए जाएं, नहरों के आसपास के तालाबों को भरा जाए, सरकारी और गैर सरकारी 200 वर्ग मीटर वाले भवनों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाये जाएं। इसका उल्लंघन करने वालों को दंडित किया जाए। उन्होंने जीडीए व नगर निगम को इस संबंध में अपने दायित्वों का निर्वहन करने को कहा। जिला विकास अधिकारी वाई.एन. उपाध्याय ने कहा कि जिले के सभी 1428 तालाबों का संरक्षण व पुनरुद्धार किया जा रहा है। जिला पंचायत राज अधिकारी वी.बी. सिंह ने बताया कि प्रधानों की तीन दिवसीय गोष्ठी में जल संरक्षण का प्रशिक्षण दिया जाएगा।

तेज आवाज के साथ जमीन फटेगी

भूजल अत्यधिक दोहन की वजह से धरती खोखली हो जाती है, जिसकी वजह से फटती है

उत्तरप्रदेश में कौशाम्बी के सिराथू क्षेत्र में हुई अजीबोगरीब घटना में शुक्रवार को कई स्थानों पर तेज आवाज के साथ जमीन फटने से भूमि में काफी गहरी दरारें पड़ गई।सिराथू क्षेत्र के सौरई खुर्द, रूपनारायणपुर गोरियो, बम्हरौली तथा झंडापुर गाँव में शुक्रवार शाम साँय-साँय की आवाज के साथ जमीन में 100 से 200 मीटर लम्बी दरारें पड़ गई। ये दरारें करीब आधा फुट चौड़ी और लगभग 18 मीटर गहरी हैं। इस घटना से खौफजदा ग्रामीण इसे दैवीय आपदा मान रहे हैं और प्रशासन धरती फटने को गर्मियों के मौसम में होने वाली सामान्य प्रक्रिया बता रहा है।
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भूगर्भ शास्त्रियों ने धरती फटने के कारणों का अध्ययन करने के लिए आज प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करके ग्रामीणों से पूछताछ की। अध्ययन दल ने पाया कि जमीन में पड़ी दरारें 18 मीटर तक गहरी थीं।
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भूगर्भ विभाग के संयुक्त निदेशक डॉ. धनेश्वर राय ने बताया कि सिराथू क्षेत्र में भूजल संसाधनों के अत्यधिक दोहन की वजह से धरती फट रही है। उन्होंने बताया कि सिराथू क्षेत्र में भूगर्भ जल की उपलब्धता के मुकाबले उसके इस्तेमाल का अनुपात काफी ज्यादा है और यह स्थिति बेहद खतरनाक है। भूगर्भ शास्त्रियों के दल ने रूपनारायणपुर तथा बम्हरौली गाँव में कुओं के जलस्तर की पैमाइश के दौरान पानी को जमीन की सतह से 18 मीटर नीचे पाया।
साभार- वेब दुनिया

कोका कोला द्वारा कूओं के प्रदूषण पर नोटिस

तिरूवंतपुरम, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पलक्कड़ जिले के प्लाचीमाड़ा स्थित कोका कोला - इकाई को “कारण बताओ” नोटिस जारी किया है, और पूछा है क्यों न पर्यावरण गंदा करने के लिये कोका कोला के खिलाफ आपराधिक मामले का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिये। “कारण बताओ” नोटिस में यह कहा गया है कि कोका कोला ने अपना कचरा जो स्थानीय किसानों को खाद के नाम पर बेचा था, जिसमें कैडमियमों जैसे भारी धातुओं के कारण विषैली धातुओं से मिट्टी का प्रदूषण हुआ है, साथ ही पास के कुँओं में भी पानी पीने लायक नहीं रह गया है।

प्लाचीमाड़ा सालिडैरिटी कौंसिल के संयोजक अजयन ने कहा कि “भोपाल घटना” के बाद यह पहली बार हुआ है कि किसी कंपनी के विरुद्ध पर्यावरण गंदा करने के लिये आपराधिक अभियोग लगाया जा रहा है। इस बात ने हमको भरोसा दिया है कि पिछले 2,000 दिनों से कोका कोला कंपनी के विरुद्ध जो हमने आवाज उठाई थी, वह सही थी।
संयोजक अजयन ने माँग की है कि कोका कोला द्वारा पर्यावरण गंदा करने के कदमों से हुई हानि का उचित आँकलन किया जाना चाहिये जिससे कि प्रदूषण के भुक्तभोगियों को हरजाना प्राप्त हो सके।

वैकल्पिक नीतियां :


वैकल्पिक नीतियां :अप्रैल 1994 में एक गैर सरकारी संगठन ‘पानी मोर्चा’ ने गंगा-यमुना बेसिन का मुआयना करने, वहां के पानी संबंधी समस्याएं जानने और उसका उपाय खोजने के उद्देश्य से ”गंगा यमुना बचाव यात्रा” का आयोजन किया। सर्वेक्षण्ा के बाद मोर्चा ने प्रारम्ंभिक रिपोर्ट में संक्षिप्त सुझाव प्रस्तुत किये। यह रिपोर्ट केन्द्र सरकार और इन नदियों के प्रभावित राज्य सरकारों को भेजी गई थी। तदुपरान्त दिल्ली राज्य और उत्तरप्रदेश के व्रज क्षेत्र के विशेष संदर्भ से समस्या का गंभीर अध्ययन कर सम्भावित उपायों पर विचार किया गया। इस क्षेत्र के जल संसाधनों का जल की गुणवत्ता और प्रमात्रा के अर्थ में पुनर्नवीकरण के तरीकों पर कुछ सुझाव तैयार कर केन्द्र, दिल्ली और उत्तर प्रदेश सरकारों को भेजा गया। उत्तम जल प्रबंधन के जिन सिध्दांतों के आधार पर यह सुझाव तैयार किया गए थे, वे ये हैं:उत्ताम जल प्रबन्धन के सिध्दांत :1:- भारत में पानी का सबसे बड़ा स्रोत वर्षा है। फिर भी हमारे जल प्रबन्धन में कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि वर्षा का अधिकतर पानी नदियों से होकर समुद्र में चला जाता है। चूंकि बांधों में भरा गया पानी बांध की उत्पादन क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालता है, इसलिए बरसात में बहुलता में उपलब्ध पानी के कुछ भाग को कमी वाले समय के लिये बांधों के बजाय घाटियों या नहरी क्षेत्र के जलाशयों मे पूर लेने की आवश्यकता है।
2:- हमारे देश में भूमिगत जलाशयों में संचित जल हमारी महत्वपूर्ण संपदा है। भूमिगत जलाशयों में जल के पुनर्संभरण के बिना इस स्रोत के दोहन के कारण जलस्तर इतना नीचे चला जा रहा है कि संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। कई क्षेत्रों में तो इसके कारण भूमि के रेगिस्तान बनने की नौबत आ गई है। इसलिए अब बहुत जरूरी हो गया है यह सुनिश्चित करना कि हमारे भूमिगत जलभृतों में क्षमता भर पानी भरा जाए। यह तब होगा जब हमारी नदियों में पर्याप्त जल प्रवाह रहे और वर्षा जल, विशेषकर अल्पनमी वाले क्षेत्रों में व्यर्थ न चला जाए। इसके लिए अब वर्षा जल संचयन हेतु कृत्रिम उपाय अपनाए जाएं।
(3) विकास कार्यों को किसी घाटी के जलधारा तन्त्र में किसी भी प्रकार अवरोध नहीं डालना चाहिए। जरूरी है कि छोटी-छोटी धाराओं को भी जलग्रहण क्षेत्रीय विकास के बीच से पुन: प्रवाहमान बनाया जाए और नहरों-सड़कों और शहरी बस्तियों के कारण जो धाराएं अवरूध्द हुई हैं, उन्हें भी मार्ग बदल कर या पानी के बम्बे डालकर प्रवाह मार्ग दिया जाए।4:- आज इस बात की आवश्यकता है कि हम अपने नदियों, स्रोतों की संभाल करें और प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों को श्रध्दा से देखें। इनमें किसी भी प्रकार का मैला डालकर प्रदूषित न करें। नदियाें का बढ़ता प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। अब यह हमारे अमूल्य भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर रहा है।5:- जल-मल उपचार की प्रभावशाली व्यवस्था होनी चाहिए। अभी चलाए जा रहे गंगा एक्शन प्लान में बहुत ऊर्जा की खपत वाली महँगी विधि असफल हो चुकी है, जिसके कारणों का हवाला एक पूर्व रिपोर्ट में दिया गया था। निश्चित ही जल-मल के तृतीय चरण तक उपचार की ऐसी सस्ती विधियां अपनाने की आवश्यकता है, जो न केवल भारत में बल्कि अन्य देशों में भी कारगर पाई गई हैं। जल-मल व्ययन की ऐसी परियोजना का मूल्यांकन करके विश्वबैंक ने भी इसे अनुमोदित किया है। कम खर्चे में तैयार पारिस्थिति अनुकूल पार्कों में पौधों और मछलियों के द्वारा जैविक कचरे के निपटान की विधि बहुत सफ़ल पाई गई है। यह नियम होना चाहिए कि जिन उद्योगों से हानिकर कचरा निकलता है, वे इस कचरे को उपचारित करने के बाद ही किसी नदी या नाले में डालें।
6:- छोटी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वनीकरण से न केवल धरती की ऊपरी परत की मिट्टी की सुरक्षा हो सकेगी बल्कि सूख चुकी जलधाराएं भी पुन: प्रवाहमान हो जाएंगी। वनीकरण करते समय विकास की मार या अधिकाधिक दोहन के कारण वृक्षहीन हो गए संबंधित क्षेत्र में वहां प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पेड़ों का ही चयन करना चाहिए।1994 में पूर्वोल्लिखित यात्रा (गंगा-यमुना बचाव यात्रा) द्वाब गंगा-यमुना के सबसे अधिक प्रभावित जिलों का सर्वेक्षण करने के लिए की गई थी। इसमें दिल्ली के समक्ष उपस्थित खतरों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था। सुझाए गए व्यवहारिक उपायों को लागू करने के लिये दिल्ली शहर या इसके आस-पास भूमि उपलब्ध हो सकती है या नहीं, इसके लिए एक और सर्वेक्षण किया गया। यह आशा की गई कि इन व्यवहारिक उपायों को लागू करने से जल की गुणवत्ता खराब होने की प्रक्रिया उलट जाएगी और स्वच्छ पानी की उपलब्धता बढ़ेगी। सौभाग्य से नवें दशक के मध्य तक भी अनियंत्रित शहरीकरण सारी भूमि पर नहीं पसर गया था। अत: जल-मल के उपचार के लिए पारिस्थितिक पार्कों और बाढ़ का पानी रोकने और मानसून में वर्षा का पानी एकत्र करने के लिए बाढ़ भूमि और मानसून जलाशय बनाए जा सकते थे। ऐसे उपायाें के लिए अभी भी भूमि है।
ऊपरी यमुना के राज्यों को यमुना जल का बंटवारामई 1994 में यमुना जल बंटवारे के लिए ऊपरी तटवर्ती राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली ने मिलकर आपसी समझ के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे। यमुना के वार्षिक 13 बिलियन ञ्नमीटर (बीसीएम) शुध्द उपलब्ध जल का निम्नानुसार बंटवारा हुआ :
ज्ंइसमइस वार्षिक हिस्से के अतिरिक्त वर्ष के प्रत्येक चार मास के लिए एक निर्धारित मौसमी हिस्सा भी निश्चित हुआ। इस मौसमी हिस्से का कारण यह था कि नदियों में वर्ष भर प्रवाह एक सा नहीं रहता। इस मौसमी हिस्से का प्रत्येक राज्य का अंश इस प्रकार था :-
ज्ंइसम
इसके अतिरिक्त जुलाई-अक्टूबर के दौरान बाढ़ से बढ़े स्तर का 0.68 बीसीएम पानी का प्रयोग में नहीं आना और शुष्क मौसम में भी 0.337 बीसीएम पानी पर्यावरणीय कारणों से नदी में रहने दिया जाना तय हुआ। पर्यावरण्ाीय कारणों से नदी में बचा पानी 16.1 ञ्नमीटर प्रतिसैकेंड (क्यूसैक्स) के बराबर होता है और इसे नवंबर से जून के आठ महीनों में नियमित रूप से छोड़ा जाना चाहिए। किन्तु इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर होने के एक दशक बाद भी ऐसा नहीं किया जा रहा है। इतना ही नहीं, 10 क्यूसैक्स का न्यूनतम प्रवाह, जिसका आदेश माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था; वह भी यमुना में नहीं जाने दिया जा रहा है। अफसोस होता है कि राष्ट्र के जल संसाधनों का प्रबंधन करने वाले लोग नदी धाराओं में पर्याप्त पानी होने के महत्व को नहीं समझते। वे नहीं देख पाते कि जहां-जहां ये शुष्क होने से तथा प्रदूषित होने से बची हुई हैं, भूजल को समृध्द करती हैं। हमने स्वयं ही अनुपचारित मैला डाल-डालकर गंदा कर दिया है। खेद है कि भूजल और भूमिगत जल दोनों स्रोतों के समेकित प्रबन्धन की कोई व्यवस्था हमारे देश में अभी तक लागू नहीं की गई है।
दिल्ली के वर्तमान जलस्रोतवर्तमान में दिल्ली को निम्नलिखित स्रोत बागवानी और घरेलू उपयोग के लिए पानी उपलब्ध करा रहे हैं:-
उपरोक्त उत्तम जल प्रबन्धन के सिध्दान्त के बाद आइये देखें कि दिल्ली के आसपास बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और दिल्लीवासियों को पर्याप्त जल उपलब्ध कराने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं? जो उपाय सुझाए जा रहे हैं उन्हें यथा परिस्थिति द्वाब के अन्य क्षेत्रों, देश के अन्य भागों में यहां तक कि संसार के अन्य भागों में लागू किया जा सकता है। दिल्ली की अपनी कुछ लाभकर विशेषताएं हैं। जैसे दिल्ली में दक्षिणी पठार की सबसे उत्तरवर्ती पहाड़ी श्रृंखला विद्यमान है, जो इसके पर्यावरण को आकर्षक बनाती है। रिज, जो उत्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय क्षेत्र से राष्ट्रपति भवन की उत्तर-पश्चिमी पहाडियों तक और वहां से कुतुब के पश्चिम में होती हुई दक्षिण में तिलपत श्रृंखला बनाती है। इससे दिल्ली की स्थिति एक अतिउत्तम द्रोणी की बन गई है। पहले कहा जा चुका है कि उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों तक इस द्रोणी में अपनी दो बारहमासी नदियां बहती थीं। ये दिल्ली के हौजों, तालाबों, बावड़ियों और झीलों को पुर करती हुई यमुना में जा गिरती थीं, जबकि साहिबी नदी, जिसे अब नाला नजफगढ़ के नाम से जाना जाता है; दक्षिण-पश्चिम की पहाड़ियों से बहकर आने वाले पानी से भर जाती थी और अन्त में यमुना में जा गिरती थी। अनेक छोटी-छोटी धाराएं तिलपत श्रृंखला से निकल कर ‘रिज’ उत्तर महरौली से पूर्व की ओर होती हुई, उत्तर में निजामुद्दीन के समीप यमुना में गिरती थीं। दो बारहमासी नदियों का अस्तित्व अंधाधुंध शहरीकरण, वृक्षों की कटाई और दिल्ली के पश्चिमी-दक्षिणी अर्धवृत्त के पहाड़ी क्षेत्र में खनिज उत्खनन को भेंट चढ़ गया।

वृहत जल परियोजनाओं की हानियां


(ए)जल ग्रहण क्षेत्र में जल भराव, क्षार और लावणीयता के कारण प्रमुख कृषि भूमि की पच्चीस प्रतिशत हानि होती है जैसा कि केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट कहती है।
(बी) वार्षिक चक्र में 60 प्रतिशत जल का क्षय, सिंचाई परियोजनाओं में 65 प्रतिशत अर्थात् उपयोग केवल 35 प्रतिशत और दिल्ली को दिए जाने वाले जल का संभरण और परिवहन में जैसा पूर्व में बताया गया है और क्षरण 55 प्रतिशत यह अदालतों और विभिन्न आयोगों में बहुत प्रस्तुत हल्फनामों के आधार पर है।
(सी) बड़ी पानी योजनाओं के जलाशयोेंं और नहरों के निर्माण में बड़े कृषि भूमि और इज्जत-जीवन की हानि।(डी) बड़ी संख्या में मछलियों का नाश और नदियों में जैव विविधता का ह्रास, जिसमें कुछ लुप्तप्राय प्रजातियां भी सम्मिलित हैं। यमुना किनारे के दिल्ली के दक्षिण की ओर मछुआरों के लगभग सात सौ गांव अब नहीं रहे और गंगा में पाए जाने वाले बैक्टीरिया भोजी प्रजातियों को बड़े तरीके से नष्ट किया गया है।
(ई) बांधो के जलाशयों की डूब में मूल्यवान वन क्षेत्र नष्ट हुए। उदाहरणत: सबसे मूल्यवान टीक का लगभग तीन हजार हैक्टेयर वन खण्ड नर्मदा सागर में समा गया है। ऐसी हानि की भरपाई के लिए वैकल्पिक वनीकरण कभी भी पर्याप्त रूप से नहीं किया जाता।
(एफ) नदियों और जलधाराओं का प्रवाह मोड़ने का प्रभाव भूमिगत जलभरण मेें कमी या पूर्णत: समाप्त होता है। इस तथ्य का उल्लेख एम्स्टर्डम में प्रकाशित पत्रिका हाइड्रोलोजी में डा झांग के चर्चित आलेख में किया गया है।
(जी) नदियों का जलस्तर कम होने पर वे उनमें छोड़े जाने वाले सीवेज के कारण अति गन्दगीपूर्ण हो जाती हैैं। इससे भूमिगत जल भी प्रदूषित होता है, परिणामत: उन गरीब लोगों का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होता है, जो भूमिगत जल पर निर्भर करते हैं और इसे पीते भी हैं।
(एच) सामाजिक द्वंद उठते हैं, जैसा कि सतलुज-यमुना लिंक नहर के मामले में हुआ, यदि जल और पर्यावरण की दृष्टि से कमजोर परियोजनाओं के कारण इसमें पानी की और कमी हो जाए तो स्थिति और खराब हो सकती है। जल के कारण युध्दों की भविष्यवाणियां की जा रही हैं और ऐसे विद्रोह असंख्य हो सकते हैं।
(आई) इन परियोजनाओं के लिए वृहद धनराशि आबंटित की जाती है। इसलिए इनको स्वीकृति कराने और बाद में इसके क्रियान्वयन की एक समयकाल में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार होता है।
(जे) इन परियोजनाओं से प्रभावित लोग अपने ञ्रों, सम्पत्तियों, पर्वों और रोजगार से वंचित होकर दर-दर भटकते हैं और वेश्यावृत्ति जैसे धन्धों में पड़ने को मजबूर हुए हैं। ऐसी परियोजनाएं भारत की मूल संस्कृति को प्रभावित करती हैं। और साथ ही पुनर्वास के वादे समयानुसार पूरे नहीं किए जाते।
(के) परियोजना के जलाशयों से होने वाले भूकम्पीय प्रभाव से गंभीर भूकम्प आने की आशंका बनी रहेगी। टिहरी डैम के किसी उत्पात से दिल्ली और हरियाणा तक में काफी नुकसान हो सकता है।
(एल) छोटी-बड़ी नदियों में जल का स्तर कम हो तो कम भूमिगत जलभरण होता है, इस कारण जलभृताें के न रहने से भूमि का बड़ा क्षेत्र धसक जाता है और भूतल पर दरारें पड़ जाती हैं। इससे अनेक लोग ञ्र-बार और अपनी कृषि भूमि से वंचित हो जाते हैं।
(एम) बांधों और बैराजाें के कारण उर्वर जलोढ़ का विस्तार रूक जाता है और उससे कृषि भूमि को मिलने वाले उर्वर तत्व मिलना बंद हो जाते हैैंै। ..

जल स्वराज अभियान में भागीदारी करें

यमुना, गए एक हजार वर्षों में नौ विभिन्न राजवंशो की राजधानी रही दिल्ली, की जीवनदायिनी बनी रही है, किन्तु बेपरवाही और अनियंत्रित विकास के कुछ ही दशकों में अब यह गन्दे नाले में तब्दील हो गई है। अब ऐसे हजारां तालाबों, झीलों और जोहडों का अस्तित्व नहीं रहा, जिनमें बरसात का पानी जमा होता था।
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भूमि के ऊपरी तल का पानी गायब हो गया या प्रदूषित होकर रह गया है। अब स्थिति यह है कि निचली सतह का पानी निकालने की होड़ सी लग गई है। इससे भूजलस्तर तेजी से घट रहा है; जिससे राजधानी में गंभीर जलसंकट उपस्थित हो गया है।दिल्ली की प्यास बुझाने के दो रास्ते हैं: एक आधार है, जल का संरक्षण और उसका पुनर्नियोजन करना और दूसरा अस्थाई अल्पावधिक समाधान है, दूसरे नदी तटबंधो से धारा मोड़कर पानी ले आना। इसमें हजारों लोग अपने रोजगार और जीवन की आवश्यक सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे। बाहर से लम्बी दूरी से मोड़कर धारा लाने की सोच- जल के निजीकरण पर आधारित है। इसका उदाहरण सोनिया विहार स्थित स्वेज-डिग्रोमेंट प्लांट है; जिसके तहत गंगा का पानी दिल्ली लाकर लोगों को दस गुने दाम पर बेचा जाएगा।”कैसे स्वयं बुझाए दिल्ली अपनी प्यास (यमुना को प्राणवान करने से ही स्थानीय जलस्रोंतों को नवजीवन मिलेगा) जनता के सामने रखने में हमें प्रसन्नता हो रही है। इस उपक्रम में हमारे जल स्वराज अभियान को पानी मोर्चा का सहयोग रहा है। पानीमोर्चा जल संरक्षण, सरकारी जलनीति और आयोजन में जनता की भागीदारी और सभी के लिए पर्याप्त जल की उपलब्धता हो; इन मुद्दों पर जनता में जागरूकता लाने के प्रति समर्पित रहा है।जल स्वराज अभियान का आरम्भ रिसर्च फाउंडेशन फार साईंस टैक्नालोजी एण्ड इकालोजी तथा नवधान्य द्वारा किया गया था। उसका उद्देश्य जल अवक्षय, जल प्रदूषण और निजीकरण जैसे कार्यों को आम जनता के सहयोग से बदलना और जल को प्राणदायी आवश्यकता के रूप में स्थापित करना है। जल स्वराज में भागीदारी कीजिए और जल लोकतंत्र स्थापित करने में अपना सहयोग दीजिए।
वन्दना शिवा
संस्थापक और प्रबन्ध निदेशक
रिसर्च फाउंडेशन फार साईंस टैक्नालोजी एण्ड इकॉलोजी नवदान्य

यमुना को प्राणवान करने से ही स्थानीय जलस्रोतों को नवजीवन मिलेगा

यमुना-कथा

हमारे देश में असीम जल संसाधन मौजूद हैं। हिमालय के विशाल ग्लेशियरों में, वनान्चलों में, विस्तृत पठारों और मैदानी भागों में स्थित नदी-नालों और झीलों के साथ-साथ बड़े भाग में विभिन्न स्तरों पर मिलने वाले समृध्द जलभृतों रूपी भूमिगत जलाशयों के रूप में देश की विभिन्न जल संचयन प्रणालियों को वार्षिक मानसून जल से आपूरित कर देती है।
. भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं।
.दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाआें ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।
.व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली का आज जो उत्कर्ष है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। 500 ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। एक हजार ईस्वी सन् के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है।
.भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रृंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रृंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है। 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान ‘रिज’ के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई।
.एक अंग्रेज द्वारा 1807 में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर बने नक्शे में वह जलधाराएं दिखाई गई हैं, जो दिल्ली की यमुना में मिलती थीं। एक तिलपत की पहाड़ियों में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी, तो दूसरी हौजखास में अनेक सहायक धाराआें को समेटते हुए पूर्वाभिमुख बहती बारापुला के स्थान पर निजामुद्दीन के ऊपरी यमुना प्रवाह में जाकर मिलती थी। एक तीसरी और इनसे बड़ी धारा जिसे साहिबी नदी (पूर्व नाम रोहिणी) कहते थे। दक्षिण-पश्चिम से निकल कर रिज के उत्तर में यमुना में मिलती थी। ऐसा लगता है कि विवर्तनिक हलचल के कारण इसके बहाव का निचाई वाला भूभाग कुछ ऊंचा हो गया, जिससे इसका यमुना में गिरना रूक गया। पिछले मार्ग से इसका ज्यादा पानी नजफगढ़ झील में जाने लगा। कोई 70 वर्ष पहले तक इस झील का आकार 220 वर्ग किलोमीटर होता था। अंग्रेजों ने साहिबी नदी की गाद निकालकर तल सफ़ाई करके नाला नजफगढ़ का नाम दिया और इसे यमुना में मिला दिया। यही जलधाराएं और यमुना-दिल्ली में अरावली की श्रृंखलाओं के कटोरे में बसने वाली अनेक बस्तियों और राजधानियों को सदा पर्याप्त पानी उपलब्ध कराती आईं थीं।
.हिमालय के हिमनदों से निकलने के कारण यमुना सदानीरा रही और आज भी है। परंतु अन्य उपरोक्त उपनदियां अब से 200 वर्ष पूर्व तक ही, जब तक कि अरावली की पर्वतमाला प्राकृतिक वन से ढकी रहीं तभी तक बारहमासी रह सकीं। खेद है कि दिल्ली में वनों का कटान खिलजियों के समय से ही शुरू हो गया था। इस्लाम स्वीकार न करने वाले स्थानीय विद्रोहियों और लूटपाट करने वाले मेवों का दमन करने के लिए ऐसा किया गया था। साथ ही बढ़ती शहरी आबादी के भार से भी वन प्रांत सिकुड़ा है। इसके चलते वनांचल में संरक्षित वर्षा जल का अवक्षय हुआ।
.अंग्रेजी शासन के दौरान दिल्ली में सड़कों के निर्माण और बाढ़ अवरोधी बांध बनाने से पर्यावरण परिवर्तन के कारण ये जलधाराएं वर्ष में ग्रीष्म के समय सूख जाने लगीं। स्वतंत्रता के बाद के समय में बरसाती नालों, फुटपाथाें और गलियों को सीमेंट से पक्का किया गया, इससे इन धाराओं को जल पहुंचाने वाले स्वाभाविक मार्ग अवरुध्द हो गये। ऐसी दशा में, जहां इन्हें रास्ता नहीं मिला, वहाँ वे मानसून में बरसाती नालों की तरह उफनने लगीं। विशद रूप में सीमेंट कंक्रीट के निर्माणों के कारण उन्हें भूमिगत जलभृतों या नदी में मिलाने का उपाय नहीं रह गया है। आज इन नदियों में नगर का अधिकतर मैला ही गिरता है।
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वर्तमान नीतियां:बडे ख़ेद की बात है कि हमारी जल नियोजन नीतियों का अभी तक ठीक से पुनर्मूल्यांकन नहीं किया गया है। हमारे योजनाकारों द्वारा बनाई जाने वाली, बड़े-बड़े बाँधों, बैराजों और नहरों संबंधित परियोजनाओं के संबंध में भी अब संदेह उठने लगे हैं। सातवीं योजना प्रपत्र के सुझाव के अनुसार यदि हमने प्रमुख बड़े और मध्यम आकार की जल योजनाओं का पुनरीक्षण और पुनर्मूल्यांकन किया होता तो आठवीं योजना में इन परियोजनाओं पर 26000 करोड़ रुपया और इससे अगली योजना में लगभग दोगुनी राशि का निवेश न करना पड़ता। पंजाब और द्वाब में नहरों के विशद तंत्र से सिंचित क्षेत्र का भी ये हाल है कि वहां किसानों को इनसे जरूरत का 35 प्रतिशत पानी ही मिल पाता है। अतिरिक्त पानी के लिए उन्हें अपने टयूबवेल लगाने पड़ते हैं। नहरी परियोजनाओं की सिंचाई क्षमता, प्राधिकारियों ने 35 प्रतिशत मानी है। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक वर्ष-वृत्त में 65 प्रतिशत पानी का क्षरण हुआ। शहरों को नहरों द्वारा जलापूर्ति करने में जलक्षरण (जिसमें जलाशय में वाष्पीकरण से हुआ क्षरण भी सम्मिलित है) 55 प्रतिशत है। नहरी सिंचाई पध्दति की अक्षमता के चलते अधिक नदी जल परिवर्तित किया जा रहा है। इसके कारण भूमिगत जलस्तर नीचा होते जाने का कुप्रभाव उन ज्यादातर किसानों पर पड़ रहा है; जो सिंचाई के लिए केवल कुआें पर निर्भर हैं। इस तरह उथली हो गयी नदियां, दिल्ली में जैसे यमुना, मल-मूत्र का भंडार ही नहीं बन गयी बल्कि, उनमें जो स्वच्छ जल होता भी था; वह भी प्रदूषित हो गया है और यह मनुष्य के लिए खतरनाक हो गया है। इस प्रकार दोषपूर्ण जल-प्रबन्धन दोगुना हानिकर बन गया है और मानव जीवन का नाश करना शुरू कर दिया है। जीवन के लिए जरूरी स्वच्छ जल की अब बेहद कमी पड़ गई है।उच्चतम न्यायालय के मान्य न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने 29 फ़रवरी 1996 के अपने एक आदेश में कहा था कि ‘पानी प्रकृति का एक उपहार है, इसे किसी को भी अभिशाप में बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती। प्रथमत: मनुष्य को पीने के लिए जल का उपहार मिला है। नदी किनारे रहने वाले लोग प्यासे रहने को मजबूर किए जाएं, यह तो प्रकृति का उपहास करना हुआ। इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं, जो लाभकर स्थिति में हैं। उन्हें स्वच्छ जल पीने के अतिरिक्त अन्य उपयोगों में लाने की अनुमति मिली हुई है।’ मान्य न्यायाधीश इस लेखक द्वारा दाखिल एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। यह याचिका गंगा, यमुना में डाले जाने वाले जल-मल-कचरे का उचित ढंग से निपटान करने और इसके फलस्वरूप इन नदियों के प्राचीन वैभव को वापस लाए जाने की मांग के संबंध में थी।
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याचिका के बाद दिए गए आदेश ने परोक्ष रूप से इस देश की जलनीति में परिवर्तन के प्रति युगान्तकारी प्रभाव डाला है। इससे पहले हमारे जल संसाधनों के उपयोग संबंधी योजनाओं में सदा सिंचाई को प्राथमिकता दी जाती थी। पीने का पानी तो मानों उपलब्ध था ही। नई राष्ट्रीय जलनीति ने इसके बाद ही पेयजल की सर्वोच्च प्राथमिकता का सिध्दांत स्थापित किया।
.खेद है कि जल नियोजन नीतियां केवल सतही पानी को ध्यान में रखकर बनाई और लागू की जाती हैं। भूमिगत विशाल स्रोतों की उपेक्षा कर दी जाती है। हमारे योजनाकार और इंजीनियर ब्रिटिश राज की दो सौ साल पुरानी द्विआयामी जल नीतियों का आंख मीचकर अनुकरण कर रहे हैं। ऐसा करते हुए भी वह इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे कि ब्रिटिश राज में भी इस बात की सावधानी बरती जाती थी, कि नदियों में पर्याप्त जल रहे। स्वतंत्र भारत के हमारे इंजीनियर और प्रशासक अपनी योजनाओं के परिणामों का मूल्यांकन करने में असफ़ल रहे हैं। उन्होंने जिस बांध, बैराज, नहर तंत्र की शुरूआत अति उत्साह से की थी, उसके दुष्परिणामों की वे प्राय: अनदेखी कर देते हैं। एक सर्वेक्षण में दर्जन भर से ज्यादा ऐसी कमियां सामने आई हैं; जिनसे प्रभावित लोगों की समस्याएं निरंतर बनी रहती हैं और जल की उपलब्धता में भी वार्षिक 60 प्रतिशत तक कमी आती है। ऐसी परियोजनाओं से उत्पन्न समस्याओं की एक सूची इस पुस्तिका के संलग्नक -2 में दर्शाई गई है ।
.इस देश में हजारों साल के अनुभव के आधार पर विकसित हुई त्रिआयामी जल-प्रबन्धन पध्दति, जो प्रकृति के अनुकूल थी, उसके लाभों पर विचार किए बिना ही छोड़ दी गई है। इसी प्रकार शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में जल-मल निपटान को उचित महत्व नहीं दिया जाता। इसे नालों के जरिए नदियों में छोड़ देने का आसान तरीका अपनाया गया है। इसमें से हमारे ज्यादातर शहरों में और इनके आसपास पर्यावरणीय महाविनाश देखने को मिलता है। केंद्र सरकार ने जल-प्रबंधन के विभिन्न पक्षाें की देखभाल के लिए अनेक संस्थान स्थापित कर रखे हैं, पर कार्य क्षेत्र में अक्सर इनके हित आपस में टकराते हैं। जल-संसाधन मंत्रालय, केन्द्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के साथ राष्ट्रीय नदी जल संरक्षण निदेशालय भी केन्द्र सरकार में जल-प्रबन्धन के विभिन्न पक्षों के प्रति उत्तरदायी निकाय है। अपने संबंधित क्षेत्रों में अपनी समझ और नीतियों के अनुरूप कार्य करने में ये निकाय स्वतंत्र नहीं हैं। इनमें जो विभाग सरकार में अपना प्रभाव रखता है, वह अपनी परियोजनाओं के लिए धन और समर्थन जुटा लेता है। इससे अक्सर समन्वित जलप्रबंधन नीति छिन्न-भिन्न हो जाती है। यदि नदियों के थालों और भूमिगत जलाशयों जैसे महत्वपूर्ण स्रोतों का मानव कल्याण के लिए दोहन करना चाहते हैं, तो इनकी सुरक्षा के लिए समन्वित जलनीति आवश्यक है।
.सन् 1946 में लेखक जब प्रथम बार दिल्ली आया था, तब उसे पिकनिक के लिए यमुना किनारे स्थित ओखला ले जाया गया था। अग्रेंजो द्वारा बनवाई गई आगरा नहर का मुख्यालय यहीं स्थित था। उस समय कोई भी यमुना के स्वच्छ नील जल में तैराकी कर सकता था और लाईसेंस से उसमें मछली पकड़ने की अनुमति भी थी। 1964 में यहां राष्ट्रीय नौका-दौड़ का आयोजन हुआ। तब लेखक को फ़िर नौसेना की ओर से रेस में हिस्सा लेने का संयोग मिला। उस समय भी पानी यहां पहले जैसा स्वच्छ और पर्वतीय धारा सा था। सातवें दशक के अंतिम वर्षों और आठवें दशक में इस स्थिति में बदलाव तब आने लगा जब, ज्यादा से ज्यादा पानी सिंचाई के लिए पश्चिम और पूर्वी यमुना नहरों में डाला जाने लगा। अंतत: आठवें दशक के अंत तक स्थिति यह हो गई कि ताजेवाला स्थित बैराज के निचले धारे में कोई पानी नहीं जाने दिया जा रहा था। इसमें बड़ी तादाद में शहरी जल-मल जमा हो गया था (आबादी बढ़ने के कारण्ा)। इसका परिणाम यह हुआ कि साल में आठ महीने यमुना मृत नदी बनी रहने लगी। पूर्ववर्ती अंग्रेज सरकार जिसने उचित प्रवाह के स्तर से ज्यादा नदी से पानी निकालना निषिध्द कर रखा था, के विपरीत दिल्ली की केंद्रीय सरकार इस सबकी असहायदर्शक बनी हुई है।
.धीरे-धीरे जैसे-जैसे दिल्ली की आबादी बढ़ी और नगर जल-मल का निकास बढ़ता गया स्थिति भयावह हो उठी। सक्षम प्राधिकारियों से अपीलों और सेमिनारों के माध्यम से हस्तक्षेप के बावजूद भी, यह पत्थर सरकार और इसके आराम-तलब संस्थान नहीं हिले। हारकर 1992 में पूर्वोल्लिखित याचिका माननीय सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई। याचिका का विषय यह था कि गंगा और यमुना दोनों में पर्याप्त प्रवाह योग्य पानी आने देना सुनिश्चित किया जाय और यह सुनिश्चित किया जाए कि यमुना में कोई अनुपचारित शहरी जल-मल न डाला जाएगा। गंगा में अनुपचारित, जल-मल न डाले जाने संबंधि एक याचिका पहले ही न्यायालय के पास विचाराधीन थी। यमुना को याचिका में वर्ष में आठ मास के लिए बिना कोई आक्सीजन और मरी मछली वाली मृत नदी कहा गया तो संबंधित सक्षम प्राधिकरणों ने बड़ी हाय तौबा मचाई। पर जब मान्य न्यायालय ने जोर देकर पूछा कि स्थिति को संभालने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं; तो उन्होंने यह तर्क पेश किया कि बढ़ती आबादी के चलते कुछ नहीं किया जा सका है। अभियोजनकर्ता को तब यह कहा गया कि यदि उसके द्वारा कोई वैकल्पिक नीति या एक्शन प्लान प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो प्रतिवादी केवल वाद-विवाद में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। उस समय न्यायालय से प्रार्थना कीर्र्र्र्र्र् गई कि विस्तृत रूप से वैकल्पिक नीतियां तैयार करने के लिए समय दिया जाए।

(बेंगलुरू में बाढ़) हमने ही न्योता है बाढ़ की इस मुसीबत को - पंकज चतुर्वेदी

पिछले दिनों सितम्बर के तीसरे हफ्ते बेंगलुरू में आई बेमौसम की बारिश व उससे लबालब हुई सड़कों ने देश की साइबर राजधानी कहे जाने वाली वाले खूबसूरत महानगर के लोगों की चिंताएं बढ़ा दी। दो दिन की बारिश ने शहर के महत्वपूर्ण सरकारी, व्यावसायिक व औद्योगिक प्रतिष्ठानों को कई फुट गहरे पानी में डुबो दिया। उसके बाद आरोप- प्रत्यारोप व सियासत का खेल शुरू हो चुका है, जबकि इस वास्तविकता से सभी आंखे चुरा रहे हैं कि इस बाढ़ को तो शहरावलों ने ही न्यौता दिया था। जहां कभी पानी से लबालब झीलें होती थीं, वहां अब कंक्रीट का जंगल है, तभी, जो पानी झीलों में भरना था, वह घरों में घुसा। किसी नगर के नैसर्गित पर्यावास से छेड़छाड़ करने का खामियाजा समाज को किस तरह भुगतना पड़ता है बेंगलुरू इसकी जीवंत बानगी है।
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हुआ यूं कि बेंगलुरू में 15 सितम्बर के आसपास 36 घंटों में 200 मिमी पानी बरस गया। शहर की नालियों और सीवरों की क्षमता महज 80 मिमी बारिश झेलने की है। देखते ही देखते पुत्तनहल्ली, नयदनहल्ली, कैसूर रोड के आसपास कई-कई फुट पानी भर गया। जेपी नगर में इतना पानी था कि वहां तीन दिनों तक बिजली की सप्लाई रोकड़ी पड़ी। महानगर की शान व सबसे व्यस्त सड़कहोसूर रोड के पानी से लबालब होने का खामियाजा कई आईटी कंपनियों और बीपीओ को झेलना पड़ा। आवागमन बंद था, सो वाहां काम ठप हो गया। असल में होसूर पर आई कयामत का कारण इस सड़क पर स्थित सभी सात झीलों- अराकेरी, बेूर, तुत्तनहल्ली, लालबागा, माठीवाला, हुलीमावू और सरक्की- का लबालब होकर उफन आना था। बेंगलुरू के तालाब सदियों पुराने तालाब शिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे। बारिश चाहे जितनी कम हो या फिर बादल फट जाएं, एक-एक बूंद नगर में ही रखने की व्यवस्था थी। ऊंचाई का तालाब भरेगा, तो उसके कलुवे (निकासी) से पानी दूसरे तालाब को भरता था। बीते दो दशकों के दौरान बेंगलुरू के तालाबों में मिट्टी भर कर कॉलोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को भी पक्केक निर्माणों से रोक दिया गया। पुत्तनहल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है, जबकि आज इसमें महज पांच एकड़ में पानी आ जाता है। झील विकास प्राधिकरण की समझ में आ गया है कि ऐसा पानी की आवक से राज कलुवे को सड़क निर्माण में नष्ट हो जाने के कारण हुआ है। जरगनहल्ली और माडीवला तालाब के बीच की संपर्क नहर 20 फुट से घटकर महज तीन फुट की रह गई। बेंगलुरू शहर की आधी आबादी को पानी पिलाना टीजीहल्ली यानी थिप्पगोंडन हल्ली तालाब के जिम्मे है। इसकी गहराई 74 फीट है। लेकिन 1990 के बाद इसमें अककावती जलग्रहण क्षेत्र से बरसाती पानी की आवक बेहद कम हो गई है। अरकावती के आसपास कॉलोनियों, रिसोट्र्स और कारखानों की बढ़ती संख्या के चलते इसका प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र चौपट हो चुका है। इस तालाब से 140 एमएलडी (मिलियन लीटर पर डे) पानी हर रोज प्राप्त किया ाज सकता है। लेकिन बंगलोर जल प्रदाय संस्थान को 40 एमएलडी से अधिक पानी नहीं मिल पाताहै। इस साल फरवरी में तालाब की गहराई 15 फीट से कम हो गई। पिछले साल यह जल स्तर 17 फीट औश्र उससे पहले 26 फीट रहा है।
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उल्सूर झील को बचाने के लिए गठिन फाउंडेशन के पदाधिकारी राज्य े आला अफसर हैं। 49.8 हेक्टेयर में फैली इस अकूल जलनिधि को बचाने के लिए जनवरी 99 में इस संस्था ने चार करोड़ की एक योजना बनाई थी। उल्सूर ताल को दूषित करने वाले 11 नालों का रास्ता बदलने के लिए बंगलौर महानगर पालिका से अनुरोध भी किया गया था।लेकिन उल्सूर को जीवित रखने के लिए कागजी घोड़ों को दौड़ से आगे कुछ नहीं हो पाया। इस झील में कई छोटे-बड़े कारखने जहर उगल रहे हैं। उधर हैब्बल तालाब के पानी की परीक्षण रिपोर्ट साफ दर्शाती है कि इसका पानी इंसान तो क्या मवेशियों के लायक भी नहीं रह गया है। इसमें धातु, कालीफार्म, बैक्टेरिया, ग्रीस और तेल आदि की मात्रा सभी सीमाएं तोड़ चुकी है। पानी के ऊपर गंदगी व काई की एक फीट मोटी परत जम गई है। क्लोराइड का स्तर 780 मिग्रा. प्रति लीटर मापा गया है, जबकि इसकी निर्धारित सीमा 250 है। जल की कठोरता 710 मिग्रा. पर पहुंच गई है, इसे 200 मिग्रा. से अधिक नहीं होना चाहिए। कभी इस झील पर हिमालय और मध्य एशिया से कोई 70 प्रजाति के पक्षी आया करते थे। बीते साल यहां महज 27 प्रजाति के पक्षी ही आए। शहर के 43 तालाब देखते ही देखते मैदानों व फिर दुकानाें- मकानों में तब्दील हो गए। पिछले दिनों आई बाढ़ का सबसे अधिक असर इन्हीं इलाकों में देखा गया। कई जगह तो झील के नाम क ही उपनगर बस गए हैं। कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चल्लाघट्टा झील को सुखाया गया, तो कांतीरव स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया। अशोक नगर का फुटबाल स्टेडियम शुले तालाब हुआ करता था तो साईं हाकी स्टेडियम के लिए अक्कीतम्मा झील की बलि चढ़ाई गई। मेस्त्रीपाल्या झील ाअैर सनेगुरवनहल्ली तालाब को सुखाकर मैदान बना दिया गया है। गंगाशेट्टे व जकरया तालाबों पर कारखाने खड़े हो गए हैं। अगासना तालाब अब गायत्रीदेवी पार्क ब गया है। तुमकूर झीलपर मैसूर लैंप की मशीनें हैं। सन् 2005 में भी लगभग इसी समय बेंगलूरू शहर में बाढ़ आई थी। उस बाढ़ के बाद यह सभी ने स्वीकार किया था कि यदि महानगर की झीलों को सुखाया नहीं जाता, तो घरों में घुसा पानी तालाबों में न केवल सुरक्षित रहता, बल्कि गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत से भी निजात मिलती, लेकिन यह हकीकत सारी फाइलों में कहीं जज्ब हो गई। कहने को तो कर्नाटक सरकार ने बाकायदा झी विकास प्राधिकरण का गठन कर रखा है, लेकिन इस संस्था के पास झीलों में हो रहे अतिक्रमण या फिर विकास के नाम पर उन्हें उजाड़ने से रोकने के कोई अधिकार योजना नहीं है।
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राज्य सरकार अब जन सहयोग के भरोसे 60 फीसदी तालाबों की सफाई की योजना बना रही है। चार साल पहले प्रदेश के चुनिंदा 5000 तालाबों की हालत सुधारने के लिए ढाई करोड़ की एक योजना तैयारकी गई थी। पर सियासी उठापटक के इस दौर में तालाबों के लिए आंसू बहाने की फुर्सत किसे है?
साभार दैनिक हिन्दुस्तान

तैरने वाला समाज डूब रहा है - अनुपम मिश्र

जुलाई (2004) के पहले पखवाड़े में उत्तर बिहार में आई भयानक बाढ़ अब आगे निकल गई है। लाग उसे भूल गए हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि उत्तर बिहार उस बाढ़ की मंजिल नहीं था। वह एक पड़ाव भर था। बाढ़ की शुरुआत नेपाल से होती है, फिर वह उत्तर बिहार आती है। उसके बाद बंगाल जाती है। और फिर सबसे अंत में सितम्बर के अंत या अक्टूबर के प्रारंभ में वह बांग्लादेश में अपनी आखिरी उपस्थिति जताते हुए सागर में मिलती है। इस बार उत्तर बिहार में बाढ़ ने बहुत अधिक तबाही मचाई। कुछ दिन सभी का ध्यान इसकी तरफ गया। जैसा कि अक्सर होता है, हेलीकॉप्टर आदि से दौरे हुए। फिर हम इसको भूल गए।
बाढ़ अतिथि नहीं है। यह काफी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन को अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता पहले से अधिक बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम बखूबी करना जातना था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं दिखता था।
इस बार की बाढ़ ने उत्तर बिहार को कुछ अभिशप्त इलाके की तरफ छोड़ दिया है। सभी जगह बाढ़ से निपटने में अव्यवस्था की चर्चा हुई है। अव्यवस्था के कई कारण भी गिनाए गए हैं- वहां की असहाय गरीबी आदि। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का अंदाज होगा कि उत्तर बिहार एक बहुत ही संपन्न टुकड़ा रहा है इस प्रदेश का। मुजफ्फरपुर की लीचियां, पूसा ढोली की ईख, दरभंगा का शहबसंत धान, शकरकंद, आम, चीनिया केला और बादाम और यहीं के कुछ इलाकों में पैदा होने वाली तंबाकू, जो पूरे शरीर की नसों को हिलाकर रख देती है। सिलोत क्षेत्र का पतले से पतला चूड़ा जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नाक की हवा से उड़ जाता है, उसके स्वाद की चर्चा तो अलग ही है। वहां धान की ऐसी भी किस्में रही हैं जो बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेलती हुई ऊपर उठती जाती थीं और फिर बाढ़ को विदा कर खलिहान में आती थीं। फिर दियारा के संपन्न खेत।
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सुधी पाठक इस सूची को न जाने कितना बढ़ा सकते हैं। इसमें पटसन और नील भी जोड़ लें तो आप 'दुनिया के सबसे बड़े' यानी लंबे प्लेटफार्म पर अपने आपक को खड़ा पाएंगे। एक पूरा संपन्न इलाका उत्तर बिहार आज दयनीय स्थिति में क्यों पड़ गया है? हमें सोचना चाहिए। सोनपुर का प्लेटफार्म। ऐसा कहते हैं कि यह हमारे देश का सबसे बड़ा प्लेटफार्म? यह वहां की संपन्नतम चीजों को रेल से ढोकर देश के भीतर और बाहर ले जाने के लिए बनाया गया था। लेकिन आज हम इस इलाके की कोई चिंता नहीं कर रहे हैं और उसे एक तरह से लाचारी में छोड़ बैठे हैं।
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बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक छोटा-सा देश है। बाढ़ के लिए हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे? कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया। यह देखने लायक बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहां हिमालय की चोटियों से जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास कोई क्षमता और साधन नहीं है। और शायद उसे रोकने की कोई व्यवहारिक जरूरत भी नहीं है। रोकने से खतरे और भी बढ़ सकते हैं। इसलिए नेपाल पर दोष थोपना बंद करना होगा।
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यदि नेपाल पानी रोकेगा तो आज नहीं तो कल हमें अभी की बाढ़ से भी भयंकर बाढ़ झेलने की तैयारी करके रखनी पड़ेगी। हम सब जानते हैं कि हिमालय का यह हिस्सा कच्चा है और इसमें कितनी भी सावधानी और ईमानदारी से बनाए गए बांध किसी न किसी तरह से प्रकृति की किसी छोटी सी हलचल से टूट भी सकते हैं। और अब आज से कई गुना भयंकर बाढ़ हमारे सामने आ सकती है। यदि नेपाल को ही दोषी ठहराया जाए तो कम से कम बिहार के बाढ़ नियंत्रण का एक बड़ा भाग पैसों का, इंजीनियरों का, नेताओं का अप्रैल और मई में नेपाल जाना चाहिए ताकि वहां यहां की बाढ़ से निपटने के लिए पुख्ता इंतजामों के बारे में बातचीत की जा सके। बातचीत मित्रवत हो, तकनीकी तौर पर हो और जरूरत पड़े तो फिर मई में ही नेपाल जाएं और आगामी जुलाई में आने वाली बाढ़ के बारे में चर्चा करके देखें।
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हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाढ़ के रास्ते में हैं। उत्तर बिहार से पहले नेपाल में काफी लाोगें को बाढ़ के कारण जान से हाथ धोना पड़ा है। पिछले साल नेपाल में भयंकर भूस्खलन हुए थे, और तब हमें पता चल जाना चाहिए था कि अगले साल हम पर भी बड़ा संकट आएगा, क्योंकि हिमालय के इस कच्चे भाग में जितने भूस्खलन हुए, उन सबका मलबा वहीं का वहीं पड़ा था और वह इस वर्ष की बरसात में नीचे उतर आने वाला था।
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उत्तर बिहार की परिस्थिति भी अलग से समझने लायक है। यहां पर हिमालय से अनमिनत नदियां सीधे उतरती हैं और उनके उतरने का एक ही सरल उदाहरण दिया जा सकता है। जैसे पाठशाला में टीन की फिसलपट्टी होती है, उसी तरह से यह नदियां हिमलय से बर्फ की फिसलपट्टी से धड़ाधड़ नीचे उतारती हैं। हिमालय के इसी क्षेत्र में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊंची चोटियां हैं और कम दूरी तय करके ये नदियां उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन नदियों की पानी क्षमता, उनका वेग, उनके साथ कच्चे हिमालय से, शिवालिक से आने वाली मिट्टी और गाद इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर- पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते।
एक तो यह सबसे ऊंचा क्षेत्र है, कच्चा भी है, फिर भ्रंश पर टिका हुआ इलाका है। यहां भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी हैं जहां से हिमालय का जन्म हुआ है। बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि हमारा समाज भी भू- विज्ञान को, 'जिओ मार्फालॉजी' को खूब अच्छी तरह समझता है। इसी इलाके में ग्यारहवीं शताब्दी में बना वराह अवतार का मंदिर भी है जो किसी और इलाके में आसानी से मिलता नहीं है। यह हिस्सा कुछ करोड़ साल पहले किसी एक घटना के कारण हिमालय के रूप में सामने आया। यहीं से फिर नदियों का जाल बिछा। ये सरपट दौड़ती हुई आती हैं- सीधी उतरती हैं। इससे उनकी ताकत और बढ़ जाती है।
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जब हिमालय बना तब कहते हैं कि उसके तीन पुर्जे थे। तीन तहें थीं। जैसे तीन पुड़े थे- आंतरिक, मध्य और वाह्य। वाह्य हिस्सा शिवालिक सबसे कमजोर माना जाता है। वैसे भी भूगोल की परिभाषा में हिमालय के लिए कहा जाता है कि यह अरावलेी, विंध्य और सतपुड़ा के मुकाबले बच्चा है। महीनों के बारह पन्ने पलटने से हमारे सभी तरह के कैलेंडर दीवार पर से उतर आते हैं। लेकिन प्रकृति के कैलेंडर में लाखों वर्षों का एक पन्ना होता है। उस कैलेंडर से देखें तो शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होगी और हिमालय, अभी चार-पांच बरस का शैतान बच्चा है। वह अभी उलछता-कूदता है, खेलता-डोलता है। टूट-फूट उसमें बहुत होती रहती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या वयस्क वाला संयम, शांत, धीरज वाला गुण नहीं आया है। इसलिए हिमालय की ये नदियां सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं वे साग, मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं। उत्तर बिहार का समाज अपनी स्मृति में इन बातों को दर्ज कर चुका था।
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एक तो चंचल बच्चा हिमालय, फिर कच्चा और तिस पर भूकंप वाला क्षेत्र भी क्या कसर बाकी है? हिमालय के इसी क्षेत्र से भूकंप की एक बड़ी और प्रमुख पट्टी गुजरती है। दूसरी पट्टी इस पट्टी से थोड़े ऊपर के भाग के मध्य हिमालय में आती है। सारा भाग लाखों बरस पहले के अस्थिर मलबे के ढेर से बना है और फिर भूकंप इसे जब चाहे और अस्थिर बना देते है। भू- विज्ञान बताता है कि इस उत्तर बिहार में और नेपाल के क्षेत्र में धरती में समुद्र की तरह लहरें उठी थीं और फिर वे एक- दूसरे से टकरा कर ऊपर ही ऊपर उठती चली गई और फिर कुछ समय के लिए स्थिर हो गई, यह 'स्थिरता' तांडव नृत्य की तरह है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में लाखों वर्ष पहले 'मियोसिन' कल में घटी इस घटना को उत्तरी बिहार के समाज ने अपनी स्मृति में वराह अवतार के रूप में जमा किया है। जिस डूबती पृथ्वी को वराह ने अपने थूथनों से ऊपर उठाया था, वह आज भी कभी भी कांप जाती है। 1934 में जो भूकंप आया था उसे अभी भी लोग भूले नहीं हैं।
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लेकिन यहां के समजा ने इन सब परिस्थितियों अपनी जीवन शैली में, जीवन दर्शन में धीरे-धीरे आत्मसात किया था। प्रकृति के इस विराट रूप में वह एक छोटी सी बूंद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई घमंड नहीं था। वह इस प्रकृति से खेल लेगा, लड़ लेगा। वह उसकी ोद में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था। क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्ष की इस लीला में अपने को प्रौढ़ बना लिया और फिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डाल दिया था। लेकिन पिछले सौ- डेढ़ सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है। समाज के मन में न सही तो उसे नेताओं, के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है।
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समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे- धीरे मिटती जा रही है। उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनंत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा देवियों के रूप में देखा है। लेकिन हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह- तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।
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इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक संख्या है- आभूषणों की। और ये आभूषण हंसुली, और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम पर हैं। हम सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहां पर नदियां उतरते समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल आकार में क्षेत्र को बांधती हैं- गांवों को लपेटती हैं और उन गांवों को आभूषणों की तरह श्रृंगार करती है॥ उत्तर बिहार के कई गांव इन 'आभूषणों' से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन गांवों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनमें रहने वाले आपको गर्व से बताएंगे कि हमारे गांव की पवित्र धूल गांव से बाहर नहीं जा सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गांव में ला नहीं सकते। कहीं- कहीं बहुत व्यावहारिक नाम भी मिलेंगे। एक नदी का नाम गोमूत्रिका है- जैसे कोई गाय चलते-चलते पेशाब करती है तो जमीन पर आड़े तिरछे निशान पड़ जाते हैं इतनी आड़ी तिरछी बहने वाली यह नदी है। इसमें एक-एक नदी का स्वभाव देखकर लोगों ने इसको अपनी स्मृति में रखा है।
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एक तो इन नदियों का स्वभाव और ऊपर से पानी के साथ आने वाली साद के कारण ये अपना रास्ता बदलती रहती हैं। कोसी के बारे में कहा जाता है कि पिछले कुछ सौ साल में 148 किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है जहां से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम किसी तरह के तटबंध या बांध से बांध सकते हैं, यह कल्पना करना भी अपने आप में विचित्र है। समाज ने इन नदियों को अभिशाप की तरह नहीं देखा। उसने इनके वरदान को कृतज्ञता से देखा। उसने यह माना कि इन नदियों ने हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के दलदल में पटक कर बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन निकाली है। इसलिए वह इन नदियों को बहुत आदर के साथ देखता रहा है। कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो गस तो इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण ही। लेकिन इनमें भी समाज ने उन नदियों को छांटा है जो अपेक्षाकृत कम साद वाले इलाकों से आती हैं।
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ऐसी नदियों में एक है- खिरोदी। कहा जाता है कि इसका नामकरण क्षीर अर्थात दूध से हुआ है, क्योंकि इसमें साफ पानी बहता है। एक नदी जीवछ है, जो शायद जीवात्मा या जीव इच्छा से बनी होगी। सोनबरसा भी है। इन नदियों के नामों में गुणों का वर्णन देखेंगे तो किसी में भी बाढ़ से लाचारी की झलक नहीं मिलेगी। कई जगह ललित्य है इन नदियों के स्वभाव में। सुंदर कहानी है मैथिली के कवि विद्यापति की। कवि जब अस्वस्थ हो गए तो उन्होंने अपने प्राण नदी में छोड़ने का प्रण किया। कवि प्राण छोड़ने नदी की तरफ चल पड़े, मगर बहुत अस्वस्थ होने के कारण नदी किनारे तक नहीं पहुंच सके। कुछ दूरी पर ही रह गए तो नदी से प्रार्थना की कि हे मां, मेरे साहित्य में कोई शक्ति हो, मेरे कुछ पुण्य हों तो मुझे ले जाओ। कहते हैं कि नदी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कवि को बहा ले गई।
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नदिया विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कूदती हैं। यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं। इन संख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन और अपने विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएं। रेत में उकेरी जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं- हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें, लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहां दोहराने लायक है।
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कभी भुतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदलकर कहीं और भटक गई। तब भुतही को वापस बुलाने के लिए अनुष्ठान किया गया। नदी ने मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई! ये कहानियां समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम रहे कि यहां की नदियां कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं और साधारण लोगों का आग्रह स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में रखकर जीवन चलाओ। ये चीजें हम लोगों को इस तरफ ले जाती हैं कि जिन बाताें को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें। कुछ नदियों के बहुत विचित्र नाम भी समाज ने हजारों साल के अनुभव से रखे थे। इनमें से एक विचित्र नाम है- अमरबेल। कहीं से आकाशबेल भी कहते हैं। इस नदी का उद्भव और संगम कहीं नहीं दिखाई देता है। कहां से निकलती है, किस नदी में मिलती है- ऐसी कोई पक्की जानकारी नहीं है। बरसात के दिनों में अचानक प्रकट होती है और जैसे पेड़ पर अमरबेल छा जाती है वैसे ही एक बड़े इलाके में इसकी कई धाराएं दिखाई देती हैं। फिर ये गायब भी हो जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं कि वह अगले साल इन्हीं धाराओं में से बहे। तब यह अपना कोई दूसरा नया जाल खोल लेती है। एक नदी का नाम है दस्यु नदी। यह दस्यु की तरह दूसरी नदियों की 'कमाई' हुई जलराशि का, उनके वैभव का हरण कर लेती है। इसलिए पुराने साहित्य में इसका एक विशेषण वैभवहरण्ा भी मिलता है।
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फिर बिल्कुल चालू बोलियों में भी नदियों के नाम मिलते हैं। एक नदी का नाम मरने है। इसी तरह एक नदी मरगंगा है। भुतहा या भुतही का किस्सा तो ऊपर आ ही गया है। जहां ढेर सारी नदिया हर कभी हर कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहां समाज ने एक ऐसी भी नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया- धर्ममूला। ऐसे भूगोलविद समझदार समाज के आज टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। ये सब बताते हैं कि नदियां वहां जीवंत भी हैं और कभी- कभी वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें भरान और धसान की दो गतिविधियां इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर बार बदलते जाते हैं।
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बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलता है कि इनमें ऐसे भंवर उठते हैं कि हाथियों को भी डुबो दे। इनमें चट्टानें और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं तो ऐसी आवाज आती है कि दिशाएं बहरी हो जाएं! ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियां एक-दूसरे से बहुत मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में बदल दिया है। नहीं तो यहां के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे।
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इन्हीं नदियों की बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है- 'चार कोसी झाड़ी।' इसके बारे में नए लोगों को अब ज्यादाकुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहां के इलाकों का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चम्पारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह- बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यावहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन- बंध बाढ़ में आने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।
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ढाइ हजार साल पहले एक संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है। संवाद भगवान बुध्द और एक ग्वाले के बीच है। ग्वाले के घर में किसी दिन भगवान बुध्द पहुंचे हैं। काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुध्द से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूंटे में बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएंगी। इसके बाद भगावन बुध्द ग्वाले से कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं। क्या ऐसा संवाद बाढ़ से ठीक पहले हो पाएगा?
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ये सारी चीजें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे। यहां का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था इस बाढ़ में तरना जानता था। इस पूरे इलाके में हद और चौरा या चौर दो शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। इस इलाके में पुराने और बड़े तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे बनाने वाले लोगों ने अगस्त्य मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दिया था, अब हमारे इस तालाब का पानी पीकर सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न होगा- यह वहां के लोगों को भी पता था। पर यह खेल ै कि हम इतना बड़ा तालाब बनाना जानते हैं।
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उन्नीसवीं शताब्दी तक वहां के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। चौर में भी बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। परिहारपुर, भरवाहा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे- चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं- इनका पानी सुखकार जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो- चार खेत जरूर बढ़ा लिए। ये बड़े-बड़े तालाब वहां बाढ़ का पानी रोकने का काम करते थे।
आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है। इस तरह का पूरा ढांचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था। वह फ्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम' था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था। तब भी बाढ़ आती थी, लेनिक वे बाढ़ की मार को कम से कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहां मिलता है- नदिया ताल। मतलब है- वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहां हिमालय से उतरने वाला तालाब बनाना ज्यादा व्यावहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते- रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था।
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आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी हैं। उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाला है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठा होती है, उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फीसदी उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहां तीन बड़ी नदियां गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियां नब्बे फीसदी पानी उस देश में लेकर आती हैं और कुल दस फीसदी वर्षा से मिलता है। बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे इनके संगम के किनारे रहना जानता था।
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वहां नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियां नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई दे। वहां की नदियां क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसीलिएसोना बांग्ला कहलाता था।
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लेकिन धीरे- धीरे चार कोसी झाड़ी गई। हद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसको लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैलाकर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियां कहां बनेंगीख् कहां नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी- ऐसे नियम टूट चुे हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़े लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूलकर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण- अब हम नदियों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण उसके रास्ते में विकास करना है।
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एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो- एक सौ साल में हुई है। वे हैं तटबंध और बांध। छोटे से लेकर बड़े बांध इस इलाके में बनाए गए हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके यह मानकर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। उसके बाद आज पता चलता है कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है। अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित होती हैतो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़ से बचाने वाली योजना था वह केवल शरणस्थली में बदल गई है। इन सब चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग ह रहे थे कि तटबंध व्यावहारिक नहीं हैं। लेकिन हमने देखा है कि पिछले डेढ़ सौसाल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है।
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बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियां तय हैं और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे- जैसे ज्यादा विकसित होते जा रहे हैं, इसकी तिथियां और इसका स्वभाव भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बांटने में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकाप्टर का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से सिर्फ दो करोड़ की रोटी- सब्जी बांटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले हम कम से कम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती। अपने घर की, परिवार की सदस्य की तरह दिखती है- उसके हाथ्ज्ञ में हमने बीस हजार नावें छोडी होतीं। इस साल नहीं छोड़ी गईं तो अगले साल इस तरह की योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएं- उनके नाविक तैयार हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहां के जिलाधिकारी या इलाके की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें किसी राहत की सामग्रगी कहां- कहां से रखी जाएगी, यह सब तय हो। और हरेक नाव को निश्चित गांवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए, पुराने अनुभव को देखते हुए, उनको सबसे पहले कहां- कहां अनाज या बना-बनाया खाना पहुंचाना है- इसकी तैयारी हो। तब हम पाएंगे कि चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़ में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए।
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बाढ़ आज से नहीं आ रही है। अगर आप बहुत पहले का साहित्य न भी देखें तो देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में देखेंगे कि उसमें छपरा की भयानक बाढ़ का उल्लेख मिलेगा। उस समय कहा जाता है कि एक ही घंटे में छत्तीस इंच वर्षा हुई थी और पूरा छपना जिला पानी में डूब गया था। तब भी राहत का काम हुआ और तब पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सरकार से आगे बढ़कर काम किया था। उस समय भी आरोप लगे थे कि प्रशासन ने इसमें कोई खास मदद नहीं दी। आज भी ऐसे आरोप लगते हैं, ऐसी ही बाढ़ आती है तो चित्र बदलेगा ही नहीं। बड़े नेताओं की आत्मकथाओं में इसी तरह की लाइनें लिखी जाएंगी और अखबारों में भी इसी तरह की चीजें छपेंगी। लेकिन हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश- सभी को मिलकर बात करनी होगी। पुरानी स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे, उनका फिर से आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा और उन्हें नई व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों का त्यों या कुछ सुधार कर अपना सकते हैं, इस पर ध्यान देना होगा।
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जब शुरू- शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक- दो ऐसे सहृदहय समझदार और यहां की मिट्टी को जानने- समझने वाले अधिकारी रहे जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है उससे यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। इन सबको एक साथ समझना-बूझना चाहिए और इसमें से फिर कोई रास्ता निकालना चाहिए। नहीं तो उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहेगा। हम उसका उत्तर नहीं खोज पाएंगे।

यह लेख जनसत्ता में पहले छपा, फिर पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित 'साफ माथे का समाज' में भी प्रकाशित हुआ। साभार- युवा संवाद

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