मौजूद हैं आशा की कुछ किरण

श्रीपाद

नदी महोत्सव पर विशेष. सुवर्णसिरी-सुवर्ण अर्थात् सोना और सिरी अर्थात् नदी-विशाल ब्रrापुत्र की सबसे बड़ी सहायक नदी है। अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों से बहकर आती इसके बारे में कहा जाता है कि करीब 50 साल पहले तक इसके पानी में सोने के कण बहते हुए आते थे, जिसे इसके किनारे बसे लोग इकट्ठा करने की कोशिश में लगे रहते थे। इसी के चलते इसका नाम सुवर्णसिरी पड़ा जो आज सुबानसिरी हो गया है। कहते हैं कि ऊपर तिब्बत में एक विशाल भूस्खलन से सोने का स्रोत हमेशा के लिए बाधित हो गया।

लेकिन अरुणाचल में इस नदी से और अन्य नदियों से एक अलग प्रकार का सोना जलविद्युत उगलवाने की होड़ मची हुई है। इस अकेले राज्य ने सितंबर 2007 तक 24,471 मेगावाट बिजली बनाने हेतु 39 समझौतों पर हस्ताक्षर कर लिए थे। अगर हम देखें कि पूरे देश में आजादी के बाद के 50 वर्षो में कुल 25,000 मेगावाट जलविद्युत क्षमता निर्मित की गई थी, तो समझ सकते हैं कि यह कितना बड़ा प्रयास होगा।

इनके तहत अरुणाचल प्रदेश में बड़ी संख्या में बड़े बांध बनाए जाएंगे। देश के अन्य हिस्सों में हुए गंभीर परिणामों की अनदेखी करते हुए अरुणाचल इस आधुनिक सोने को अधिक से अधिक और जल्दी से जल्दी निकालने में लग गया है। विकास के नाम पर नदियों से पानी की हर बूंद निचोड़ लेने की प्रक्रिया आजादी के समय से ही चली है। परिणामस्वरूप देश की विशालतम नदियां भी नाले में तब्दील हो चुकी हैं। उस पर नदियां मल निकास व उद्योगों को प्रदूषित पानी छोड़ने का सबसे सुलभ स्थान बन गई हैं।

पांच नदियों की कृपादृष्टि के कारण जिस भूमि का नाम पंज+आब अर्थात् पांच पानी रखा गया, उस पंजाब की प्रमुख नदी है सतलुज। इस नदी से 1882 से ही पंजाब में बड़े पैमाने पर सिंचाई हो रही थी। आजादी के बाद महाकाय भाखड़ा बांध बना, जिसका उद्देश्य था नदी का एक भी बूंद पानी व्यर्थ समुद्र में न जाए। सिंचाई बढ़ी,साथ में हजारों हेक्टेयर जमीन में दलदल व क्षारीयकरण फैला, हजारों लोग विस्थापित हुए.. और नदी खत्म हो गई।कटु सच्चाई यही है कि उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, हमारे देश की सभी नदियों का कमोबेश यही हाल है।

लाखों किसान, मछुआरे और अन्य लोगों की जीविका खत्म हो गई। लाखों लोग विस्थापित हो गए। जंगल डूब गए। जो इन त्रासदियों से बचे, वह प्रदूषित पानी का शिकार हुए। यमुना जैसी बड़ी नदी भी कैसे प्रदूषित पानी का बहाव मात्र बनकर रह गई है, यह हर दिल्लीवासी जानता है। कई नदियों का पानी तो अब समंदर तक पहुंचता ही नहीं। गोदावरी नदी पर इतने बांध बने हैं कि नदी का लगभग सारा पानी खींच लिया जाता है।

इसके चलते इसके डेल्टा क्षेत्र (जहां नदी सागर में मिलती है) में बड़े पैमाने पर जमीन का कटाव हुआ है और कई गांव विस्थापित हो गए हैं। नदियां खत्म होने की सबसे बड़ी हानि का शायद हम आकलन भी नहीं कर पाएंगे। नदियां हमारी संस्कृति, सौंदर्य, धर्म सभी का केंद्र स्थान रही हैं। इनकी क्षति हम गिन तो नहीं सकते, पर महसूस तो वो हर व्यक्ति कर रहा है जिसका जीवन नदियों के साथ जुड़ा हुआ है।
अरुणाचल प्रदेश में बन रहे देश के सबसे बड़े और सबसे ऊंचे 3000 मेगावाट क्षमता के दिबांग बांध परियोजना से वहां की इदु-मिशमी समाज के लोग बड़े पैमाने पर प्रभावित होंगे। केरल में चालकुडी नदी की घाटी में बसे लोग इस पर प्रस्तावित अथिरापल्ली बांध का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संसाधनों की क्षति के अलावा इस विरोध का सबसे प्रमुख कारण है कि इस बांध से अथिरापल्ली का बेहद सुंदर जलप्रपात खत्म हो जाएगा। साठ साल से विकास के नाम पर नदियों के इस विनाश के चित्र में आशा की कई किरणों हैं। बड़े बांध, प्रदूषण आदि के खिलाफ लड़ाइयों के साथ-साथ देश में कई लोग नदियों को पुनर्जीवित करने की कोशिशों में भी लगे हैं।

इसका एक उदाहरण है पंजाब के संत बलबीरसिंह सींचेवाल। सिखों के लिए सबसे पवित्र नदियों में स्थान रखने वाली काली बेंई नदी मल निकास और प्रदूषित पानी छोड़ने से गंदे नाले में तब्दील हो गई थी। संत बलबीरसिंह ने अपने अनुयायियों को आह्वान किया, खुद गंदे पानी में उतरे और नदी की सफाई शुरू की। एक के पीछे एक चलते हजारों लोग इसमें जुट गए। संत ने नदी किनारे के शहरों से अपील की कि मैला पानी नदी में न छोडें़, जो नहीं माने, उनका मैला पानी जबरन रोक दिया गया, पर उसके निपटान की वैकल्पिक व्यवस्था भी तैयार करने में मदद की।

इसी तरह की मिसाल बन गया है राजस्थान में ‘तरुण भारत संघ’ का प्रयास। इस सूखे क्षेत्र में गांव, समाज ने सैकड़ों की तादाद में पारंपरिक जोहड़ (तालाब) बनाए, बारिश का पानी रोका, और जो नदियां सालों से खत्म हो चुकी थीं, फिर से जीवित हो गई, बारहमासी हो गइर्ं।
विकास की गति और तेज करते हुए उसे 10 प्रतिशत से भी आगे ले जाने की दौड़ में हमारी नदियों पर, सभी जल संसाधनों पर संकट और गंभीर हो गया है। ऐसे में संत बलबीरसिंह और तरुण भारत संघ जैसे प्रयास हमारे लिए एक मिसाल बन सकते हैं, बनने चाहिए।
-लेखक मंथन अध्ययन केंद्र, बड़वानी से जुड़े हैं।

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