गंगा, तू कहां रे
ओम कबीर
इतिहास में गंगा के बारे में उल्लेख है कि राजा भगीरथ ने अपने हजार पुरखों को पवित्र करने के लिए इसे धरती पर लाया था। लेकिन वही गंगा आज इसने लिए अभिशाप बन गई है। गंगा एक्सप्रेस वे इसके अनवरत प्रवाह के बीच अपनी जीवनचर्या बनाने वाले लोगों के लिए बला बन चुकी है। तो क्या बदलते समय के साथ गंगा भी बदल गई है। इसका जवाब शायद हां होगा। गंगा सचमुच बदल गई है। लोगों ने गंगा के साथ खिलवाड़ किया है। अब यह पतित पावनी नहीं रह गई। इसके किनारे बसे शहरों ने इसे मुंह चिढ़ाया है। गंगा कहां तक बर्दाश्त करती। सारी सीमाएं टूट गई थी। गंगा के दोहन के बाद लोगों को विकास की बात आई। तो फिर सामने थी वही गंगा। अपने में सिमटी। लोगों की निगाहों से बचते बचाते। कागजों पर खींच दी गईं रेखाएं। गंगा ने कुछ नहीं कहा। पर विकास की आशंका ने लोगों का जीवन प्रवाह रोक दिया। फिर उनके सामने कुछ नहीं बचा। जो बाकी था वह उनका असहाय जीवन है और आशंकाएं। तीसरा कोई है तो वह गंगा है। मगर लाचार। कुछ दिनों बाद इसके किनारों को चूमते हुए १५० की स्पीड से कारें प्रतिस्पर्धा करेंगी। इसकी लहरों के साथ। मगर लाखों का जीवन तबाह हो जाएगा। कल तक जिस घरों में लोग जीवन के सपने देखते थे उन्हीं घरों के ऊपर से कारें दौड़ेगी। रौंदते हुए। शायद उनके सपनों को। कुछ भी शेष नहीं बचेगा। जो कुछ बचेगा वह सिर्फ और सिर्फ गंगा होगी.