खेतों में ज़हरीली दवाओं और खादों से साग - सब्जी , अन्न व जल सभी दूषित हो रहे हैं

एक सज्जन को मैं पहली बार इतना घबराए हुए देखकर अनायास पूछ बैठा , आप क्यों इतने मायूस हैं ? आज तो बड़ा उत्सव है। देख नहीं रहे हैं .. मूर्ति विसर्जन के लिए लोग कैसे ढोल - बाजों के साथ भक्ति में सराबोर हैं ! कितना मजा आ रहा है।

वह यूं ही खड़े - खड़े लाउडस्पीकर के कर्णभेदी संगीत के साथ झूमते - गाते , फूल उड़ाते , पटाखे फोड़ते , भक्तों को देख रहे थे , जो ट्रकों और ट्रैक्टरों आदि पर सवार देवी की प्रतिमा के आगे - पीछे चले जा रहे थे। नगर निगम के अ धिकारी व कर्मचारी पहली बार इतने क्रियाशील और मुस्तैद लगे।

पता चला कि वहां उन्होंने नदी में विसर्जन की सुविधा के लिए कुछ गड्ढे भी खोद डाले हैं। शायद पहली बार उन्होंने नगर निगम द्वारा पब्लिक की सुविधा के लिए क्रेन और बुल्डोजर की भीड़ जमाए देखा। उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि इतनी भीमकाय मशीनें आखिर अन्य दिनों कहां गायब रहती हैं !

निगमीय ट्रकों का यह कारवां भी और दिनों पता नहीं कहां लापता रहता है ! वे ताज्जुब कर रहे थे कि इतने मुस्तैद और साधन - सम्पन्न विभाग के होते हुए भी उसकी चाची की गलियां ही नहीं , नगर निगम का प्रांगण भी आखिर खुला कूड़ादान क्यों बना हुआ है।

आवारा सूअर कुछ विशेष काम निपटा रहे हैं सो भी बिना पेमेन्ट के। कुछ घंटों में सभी मूर्तियां विसर्जित की जा चुकी थीं। लोग भव्य व सफल विसर्जन के लिए समितियों और प्रशासन की खूब प्रशंसा कर रहे थे। पर , वह सज्जन नदी की वह भयावह दशा देखकर सन्न रह गए। ऐसा लग रहा था मानों किसी ने नदी में कुछ घोल दिया हो।

इतने में रंगों और कीचड़ से सराबोर एक बच्चा आकर उनसे बोला , अंकल.. अंकल ! कितना मजा आया ना ! हम तो गणेश पूजा , दुर्गा पूजा , लक्ष्मी पूजा और सभी पूजाओं में ऐसेच करते हैं। बहोत मजा आता है। यानी वर्ष में कई बार इस नदी की ही नहीं , बल्कि अन्य नदियों की भी यही हाल होता है। बनारस और पटना समेत अन्य नगरों व ग्रामों के गंगा तट ऐसी बेइज्जती झेल रही हैं , मानो इसके लिए मानव नहीं.. खुद जिम्मेदार हों।

फल - फूल , दान - पुण्य के अलावा अधजले शवों को गंगा कब तक पचाती रहेगी ? अब तो समुद्र की कार्बन - डाइ - ऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता भी क्षीण होती चली है। अगर हमारे पूर्वजों की सिर्फ राख ही गंगा में विसर्जित की जाती तो इसकी पवित्रता के साथ - साथ इसकी शुद्धता भी कायम रहती।

अपना उल्लू सीधा करने के लिए स्वार्थी इन्सान जब दूसरे इन्सान का गलत इस्तेमाल कर सकता है तो प्रकृति तो दूर की बात है। हमारी आस्था और करनी में कितना फर्क और विरोधाभास है। ब्रह्मांड को हम भगवान का ही अंश मानते हैं और उसी को हमने विकास व धार्मिक रीति - रस्मों के नाम पर भुनाया है।

अ धिकांश तालाबों को मजबूरन गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए दम तोड़ना पड़ता है। अवैध औद्योगिक कचरों व गंदे तरल पदार्थों को नदियां पी तो रही हैं , पर न भूलें कि बदले में हमें भी पिला रही हैं। दीपावली की तैयारी में पटाखे की कई दुकानें व फैक्ट्रियां सज रही हैं। पटाखों से उत्सर्जित टॉक्सिक गैसों से हमारी सांसों में आने वाली हवा का क्या होता है , इसकी जानकारी आम लोगों को शायद नहीं।

इस संबंध में वैज्ञानिक जानकारी से अनभिज्ञ होने के कारण ही कम से कम हम भारतीयों को जी भरकर त्यौहारों को मनाने की आदत - सी पड़ गई है। भारतीय उपभोक्ताओं की मूर्खता या जागरूकता की कमी को भांपते हुए उत्पादक कुछ भी बना और खिला सकता है। स्वास्थ्य के बारे में सजग होने से तो हम कब के मरे होते। पर क्या यह सच है , अब हमारे जन नहीं मर रहे हैं ?

कुओं , नलकूपों और अन्य जलस्रोतों में जल निर्मित नहीं होता , बल्कि नदी - नाले-तालाबों व समुद्र से ही रिसकर पेयजल के इन स्रोतों तक पानी पहुंचता है। खेतों में ज़हरीली दवाओं और खादों से साग - सब्जी , अन्न व जल सभी दूषित हो रहे हैं। नई - नई बीमारियां नजर आ रही हैं। कैंसर , लकवा , चर्म रोग , दिल और सांस सम्बंधी बीमारियां आज सामान्य बात हो गई हैं।

इन बातों को सोचते हुए वह सज्जन अब कुछ तनाव में रहने लगे हैं। पता नहीं , उसके तनाव का कारण साइकोलॉजिकल है या फिर एन्वॉयरमेन्टल पलूशन ! अब हर उत्सव में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने वालों से एक सवाल हमेशा करते रहते हैं , क्या हमारे अ धिकांश हिन्दू उत्सव पर्यावरण प्रदूषित करने वाले नहीं हैं ? वह आगे पूछते हैं , शास्त्रों में कहां लिखा है कि पूजा - पाठ , रीति - रस्म , उत्सव आदि के दौरान अपने इर्द - गिर्द प्रदूषण फैलाओ ? क्या धार्मिक कर्मकाण्ड और उत्सवों के आयोजन प्रदूषण रहित नहीं हो सकते ?

एच . लकड़ा

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