मैली हो गई नर्मदा
नदियों में नर्मदा का स्थान श्रेष्ठ माना गया है। कई मायनों में इसे गंगा से भी ज्यादा महत्व है कि तपस्या में बैठे भगवान शिव के शरीर के पसीने से नर्मदा प्रकट हुई। नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अलौकिक सौंदर्य से ऐसी चमत्कारी लीलाएं दिखाई कि खुद शिव-पार्वती हंसते-हंसते हांफने लगे। तभी उन्होंने नामकरण करते हुए कहा- देवी, तुमने हमारे दिल को हर्षित कर दिया। इसलिए तुम्हारा नाम हुआ नर्मदा। नर्म का अर्थ है- सुख और दा का अर्थ है- देने वाली। इसका एक नाम रेवा भी है, लेकिन में नर्मदा ही लोकग्राह्य हो गया।
मध्य प्रदेश के अनुपपुर जिला मुख्यालय से करीब साठ किलोमीटर दूर पूर्वी दिशा में मेकल पर्वत श्रृंखला में समुद्र तल से 1067 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरकंटक पौराणिक महत्व का है बल्कि नर्मदा, सोन समेत छोटी बड़ी कुल ग्यारह नदियों का उद्गम स्थल भी है। इतना ही नहीं, यह सोन और नर्मदा के प्रेम और बिछोह का मूक साक्षी भी है।
इसे प्रकृति की विचित्रलीला कहें या अजीबोगरीब संयोग या फिर निष्फल प्रेम का नतीजा कि एक ही स्थान से निकली दो नदियां सोन और नर्मदा बिल्कुल विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है। सोन लगभग 758 किलोमीटर का सफर तय करके पटना के पास गंगा में विलीन हो जाती है, जबकि नर्मदा तकरीबन 1300 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर गुजरात के अरब सागर में समाहित हो जाती है।
नर्मदा चिर कुंवारी मानी जाती है और इसके पीछे भी प्रणय और परिणय से संबंधित कई पौराणिक गाथाएं हैं। एक कथा के अनुसार राजकुमारी नर्मदा राजकुमार सोनभद्र से विवाह करने को तैयार थी। उसने जोहिला को प्रेम संदेश देकर सोन के पास भेजा, मगर सोन जोहिला पर आसक्त हो गया। जोहिला के आने में विलम्ब होते देख जर्ब नर्मदा विवाह मंडप के निकट पहुंची तो दोनों को एक साथ हंसी-मजाक करते देख हतप्रभ रह गई। तभी उसने सोन की बेवफाई से क्षुब्ध होकर उसे पहाड़ से नीचे धकेल दिया और खुद पश्चिम दिशा की तरफ चल दी। इस प्रकार नर्मदा बिन ब्याही रह गई।
नर्मदा का अमरकंटक में इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि यहां के चौबीस से ज्यादा मंदिरों में बारह तो सिर्फ नर्मदा से संबंधित हैं। एक भाई की बगिया है, जहां कभी नर्मदा भ्रमण करती थी। कपिल धारा जलप्रपात में नर्मदा की जलधारा 150 फुट ऊंचे पहाड़ से नीचे गिरती है, वहीं दुग्धधारा में दस फुट की ऊंचाई से। यहां नर्मदा की अविरल धारा जब चट्टान पर गिर कर व्याप्त रहस्यमयी खामोशी को भंग करती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपना दर्द चीख-चीख बयां कर रही है।
पौराणिक ग्रंथों में नर्मदा का काफी गुणगान मिलता है, पर इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मध्य प्रदेश की जीवनरेखा मानी जाने वाली नर्मदा को अपने उद्गम स्थल से ही ही अस्तित्व की चुनौती मिल रही है। अनियोजित विकास की अंधी दौड़, मनुष्य के स्वार्थ और अधकचरी धार्मिकता ने आज न सिर्फ नर्मदा कुंड को खतरे में डाल दिया है, बल्कि अमरकंटक के नैसर्गिक सौंदर्य, जंगल की हरीतिमा और स्वच्छ पर्यावरण को भी विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। आज हरे-भरे जंगल की जगह कंक्रीट के जंगल उग आए हैं और ब्राह्मी, शंखपुष्पी, गुलबकाबली, सर्पगंधा जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटियां खत्म होती जा रही हैं। जैवी विविधता के समक्ष अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया है। यहां तक कि अमरकंटक का मूल स्वरूप भी खतरे में पड़ गया है। आश्रमों के वैभव विस्तार, अतिक्रमण और खेती के लोभ ने कपिला, गायत्री, सावित्री जैसी नदियों के स्रोतों को ही खत्म कर दिया है। आज नर्मदा भी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। कपिलधारा के ऊपर वह पतली, रुग्ण और निस्तेज दिखती है।
नर्मदा के सौंदर्य पर मंडराते खतरे और विविध आयामी समस्याओं को लेकर संदर लाल बहुगुणा, मेधा पाटेकर, बाबा आम्टे जैसे समाजसेवियों पर्यावरणविदों ने समय-समय पर आवाजें उठाईं, बावजूद इसके सुधार की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई। नतीजतन गंगा की मानिंद नर्मला का जल भी मैला हो गया है।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक सुशील कुमार सिंह ने नर्मदा जल पर अपने चार वर्षों के शोध में पाया कि अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक नर्मदा का जल भयावह रूप से प्रदूषित है। मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, नीलकंठेश्वर आदि स्थानों पर वह ज्यादा प्रदूषित है।