पर्यावरण कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है खनन व वन माफिया
नई दिल्ली। खनन और वन माफिया पर्यावरण कानून को रौंद रहे हैं। राजनेताओं व नौकरशाहों से उनकी सांठगांठ के नतीजे जमीनी स्तर पर दिखने लगे हैं। ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की अगुवाई में जुटे न्यायविदों, वरिष्ठ वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शनिवार को इस बात पर भी चिंता जताई कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले का हवाला देकर प्रभावित राज्यों की निचली अदालतें इस बाबत फरियाद सुनने से मना कर दे रही हैं।
'पर्यावरण कानूनों पर अदालती जरिया' विषय पर आयोजित सेमिनार के उद्धाटन के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने पर्यावरण कानूनों की अनदेखी पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि उनके समय में सुप्रीम कोर्ट ने ताज मामले में स्वत: संज्ञान लेकर वहां की औद्योगिक इकाइयों को बंद कराया था। आज खनन के वन माफिया सरकारी महकमों की सहायता लेकर अपने मंसूबे कामयाब कर रहा है।
उन्होंने साफ किया कि अदालत के फैसले में सरकारी पक्ष की प्रस्तुति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लिहाजा सरकारी तंत्र में इस बाबत दृढ़ संकल्प और कार्रवाई ही वन व खनन माफिया पर अंकुश लगा सकती है।
ओडीशा की नियामगिरि पहाड़ियों में बाक्साइट के खनन संबंधी याचिका पर सुप्रीमम कोर्ट की हरी झंडी पर इस बाबत संघर्षरत प्रफुल्ल सामंतरा ने कहा कि खनन माफिया ने अदालत को गुमराह किया। उन्होंने सरकारी तंत्र से सांठगांठ कर झूठ बोला कि परियोजना में वन भूमि का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, जबकि हकीकत है कि बाक्साइट के खनन व संयंत्र दोनों में वन भूमि का इस्तेमाल हो रहा है। इस बाबत वरिष्ठ वकील वेंकटमणि ने कहा कि सर्वोच्च अदालत का काम केवल फैसला या आदेश देना ही नहीं होना चाहिए बल्कि सरकार को जन सरोकार के लिए काम करने के लिए प्रेरित भी करना चाहिए।
इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय पारिख और संजय उपाध्याय ने भी अपने विचार रखे। पारिख ने कहा कि विश्व व्यापार संगठन सरकार पर हावी है। हर जगह मुनाफे व बाजार का मापदंड है। अदालतों को भी इस बाबत सतर्क रहना होगा।
संजय उपाध्याय ने गोवा में टाटा की हाउसिंग सोसाइटी के अदालती रोक और फिर सरकारी शह के बाद रोक हटाने के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि अदालतों को यह ध्यान देना चाहिए कि पर्यावरण कानून केवल कागजों में ही लागू न हो। खनन व वन माफिया केवल 'खानापूर्ति' कर प्राकृतिक स्रोतों का दोहन न कर सकें।
वक्ताओं ने विश्व के दूसरे देशों का हवाला देकर चिंता जताई कि कई देश अपने संसाधनों को बचा रहे हैं। प्राकृतिक स्रोत होने के बावजूद वे उनका आयात करते हैं, जबकि भारत में सरकारों ने इस बाबत आंख मूद ली है। इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट के दर्जनों फैसलों की चर्चा हुई। विशेषज्ञों ने इस बाबत मांग की कि सुप्रीम कोर्ट को खुद अपने फैसलों की निगरानी करने के लिए एक 'सेल' बनाना चाहिए ताकि फैसलों की आड़ लेकर जन सरोकारों को कुचला नहीं जा सके।