संकट में घिरा पानी

अरविन्द कुमार शुक्ल

पिछली सदी के सारे युध्द तेल के लिए हुए, लेकिन इस सदी का युध्द पानी के लिए होगा। हम उस देश के वासी हैं, जहां जल पत्नी के लिए पति के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक तरह यह कहावत प्रसिध्द है कि पैसे को प्राण के पीछे कमाना और पानी की तरह बहाना चाहिए तो दूसरी तरफ यह कहावत भी प्रसिध्द है कि पति मर जाए, पर सर का घड़ा न गिरे। यह दोनों कहावतें एक ही देश भारत में कही जाती हैं। जी हां, जहां पैसे और पानी से अघाए लोग इसे बहाने की बात करते हैं, वहीं गरीबों से पैसे और बुंदेलखंड की महिलाओं से पानी की महत्ता का पाठ पढ़ने पर दोनों के बारे में एक देश की तस्वीर साफ हो जाती है। बुंदेलखंड समेत देश के तमाम पहाड़ी और पठारी भाग ऐसे हैं जहां महिलाओं की आधी उम्र केवल पानी भरने में ही खत्म हो जाती है।
लेकिन पानी के संदर्भ में देखें तो हमारी सरकार भी इन्हीं कहावतों की तरह ही द्वैत प्रकृति अख्तियार करती है। एक तरफ तो सरकार रेन वाटर हार्वेस्टिंग की बात करती है तो दूसरी तरफ देशी-विदेशी कंपनियों को टेंडर देकर भूगर्भ जल तक का दोहन करवाती है। असमान उत्पादन ने समूचे विश्व में पर्यावरणीय असंतुलन को बढ़ाया है। ऐसे में यह जरूरी है कि हमें विकास की योजनाएं बनाते समय प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उससे होने वाले दुष्प्रभावों का भी परीक्षण करना चाहिए।
जल प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार है। इसे प्राथमिक संसाधन का दर्जा भी प्राप्त है। यह मनुष्य की उत्तरजीविता, कृषि और औद्योगिक विकास और जैव समुदाय को संतुलित विकास रखने के लिए जरूरी है। इन सबके बावजूद जानने योग्य बात यह है कि हमारे द्वारा केवल दशमलव पांच फीसद जल ही उपयोग में लाया जाता है। जल का 97 फीसद हिस्सा समुद्र और झीलों में है। 2.5 फीसद बर्फ और ग्लेशियर है। इसके बावजूद यह अचंभित करने वाली बात है कि दुनिया के कई भागों में शुध्द जल के वितरण की स्थिति काफी दयनीय है। इसकी गंभीरता को वर्ल्ड वाटर कमीशन की रिपोर्ट से आसानी से समझा जा सकता है। इसके अनुसार 2025 तक हमें बीस फीसद की बढ़ोतरी अपने शुध्द जल के संरक्षण में करनी होगी क्योंकि तब दुनिया को आबादी छह अरब होगी। इस पर विश्व बैंक के उपाध्यक्ष मेल शेरागेल्डिन का यह कथन भी काफी समीचीन है कि इस सदी के सारे युध्द तेल के लिए लड़े गए। लेकिन 21वीं सदी का युध्द पानी के लिए होगा। (1995 की रिपोर्ट)
संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन के अनुसार, एशिया में शुध्द जल संरक्षण की उपलब्धता महज तीन हजार क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष है। भारत में 2005 से पहले यह एक हजार क्यूबिक मीटर से भी कम रही है। यह स्थिति खराब जल प्रबंधन का परिणाम है जिसे तेजी से बढ़ती जनसंख्या वाले राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।
नैग के अनुसार, भारत का योगदान प्रतिवर्ष चार सौ मिलियन हेक्टेयर जल ग्रहण करने का है। देश जल के अतिशय दोहन को इसी राह पर चलता रहा तो 2050 तक जल की स्थिति का भयानक होना तय है। तब यहां कुल जल की उपलब्धता 1403 क्यूबिक होगी और मांग 1700 क्यूबिक मीटर की होगी।
देश-दुनिया की कई तस्वीरों से रू ब रू कराती आंकड़ों की इस झलक की जमीनी हकीकत यानी अपने आस-पास देखते हैं। मतलब चर्चा अब देश के संदर्भ में। भारत में कुछ प्रदेशों को छोड़कर भू-जल की स्थिति सामान्यतया ठीक रही है। अब भूजल के अत्यधिक दोहन से बहुत से क्षेत्रों का जलस्तर नीचे जा रहा है। औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण सतही जल प्रदूषित हो रहा है। इस स्थिति में वर्षा जल का संचयन, स्वच्छ जल की मांग और आपूर्ति के अंतर को कम करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वैसे देश में सिंधु घाटी सभ्यता (300- 1500 ई. पू.) का गौरवशाली इतिहास भी हमें सबक सिखाने के लिए काफी है। कच्छ महत्वपूर्ण स्थल खंडीर टापू, धौलावीरा में वर्षा जल से संचित करने वाले अनेक जलाशय थे। ये जलाशय पूर्ण रूप से वर्षा जल संचयन और संरक्षण के लिए थे, क्योंकि भूजल खारा एवं कठोर था इसलिए प्राय: खेती किसानी समेत मीठे जल की जरूरतों के लिए किसान इन पर निर्भर थे। पिछले पंद्रह बीस वर्षों में भूजल में दस से पंद्रह मीटर तक की गिरावट आई है। कहीं-कहीं तो इससे भी ज्यादा। उत्तर प्रदेश में 1991 में सत्रह विकास खंड अतिदोहन की श्रेणी में थे जो 2002 में पचास से अधिक हुए और ये लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसका परिणाम कुएं, हैंडपंप और सूखते बोरबेल्स हमारे सामने हैं। पश्चिम के जनपदों में तो यह समस्या और भी गंभीर है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते सतही जल अत्यंत प्रदूषित हो गया है। उत्तर भारत की प्रमुख नदियां गंगा, यमुना, गोमती, केन इसका बेहतर उदाहरण है। पेयजल की आपूर्ति के लिए भी इसका दोहन बढ़ा है। लेकिन यह बहुत मामूली है।

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