वैकल्पिक नीतियां :


वैकल्पिक नीतियां :अप्रैल 1994 में एक गैर सरकारी संगठन ‘पानी मोर्चा’ ने गंगा-यमुना बेसिन का मुआयना करने, वहां के पानी संबंधी समस्याएं जानने और उसका उपाय खोजने के उद्देश्य से ”गंगा यमुना बचाव यात्रा” का आयोजन किया। सर्वेक्षण्ा के बाद मोर्चा ने प्रारम्ंभिक रिपोर्ट में संक्षिप्त सुझाव प्रस्तुत किये। यह रिपोर्ट केन्द्र सरकार और इन नदियों के प्रभावित राज्य सरकारों को भेजी गई थी। तदुपरान्त दिल्ली राज्य और उत्तरप्रदेश के व्रज क्षेत्र के विशेष संदर्भ से समस्या का गंभीर अध्ययन कर सम्भावित उपायों पर विचार किया गया। इस क्षेत्र के जल संसाधनों का जल की गुणवत्ता और प्रमात्रा के अर्थ में पुनर्नवीकरण के तरीकों पर कुछ सुझाव तैयार कर केन्द्र, दिल्ली और उत्तर प्रदेश सरकारों को भेजा गया। उत्तम जल प्रबंधन के जिन सिध्दांतों के आधार पर यह सुझाव तैयार किया गए थे, वे ये हैं:उत्ताम जल प्रबन्धन के सिध्दांत :1:- भारत में पानी का सबसे बड़ा स्रोत वर्षा है। फिर भी हमारे जल प्रबन्धन में कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि वर्षा का अधिकतर पानी नदियों से होकर समुद्र में चला जाता है। चूंकि बांधों में भरा गया पानी बांध की उत्पादन क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालता है, इसलिए बरसात में बहुलता में उपलब्ध पानी के कुछ भाग को कमी वाले समय के लिये बांधों के बजाय घाटियों या नहरी क्षेत्र के जलाशयों मे पूर लेने की आवश्यकता है।
2:- हमारे देश में भूमिगत जलाशयों में संचित जल हमारी महत्वपूर्ण संपदा है। भूमिगत जलाशयों में जल के पुनर्संभरण के बिना इस स्रोत के दोहन के कारण जलस्तर इतना नीचे चला जा रहा है कि संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। कई क्षेत्रों में तो इसके कारण भूमि के रेगिस्तान बनने की नौबत आ गई है। इसलिए अब बहुत जरूरी हो गया है यह सुनिश्चित करना कि हमारे भूमिगत जलभृतों में क्षमता भर पानी भरा जाए। यह तब होगा जब हमारी नदियों में पर्याप्त जल प्रवाह रहे और वर्षा जल, विशेषकर अल्पनमी वाले क्षेत्रों में व्यर्थ न चला जाए। इसके लिए अब वर्षा जल संचयन हेतु कृत्रिम उपाय अपनाए जाएं।
(3) विकास कार्यों को किसी घाटी के जलधारा तन्त्र में किसी भी प्रकार अवरोध नहीं डालना चाहिए। जरूरी है कि छोटी-छोटी धाराओं को भी जलग्रहण क्षेत्रीय विकास के बीच से पुन: प्रवाहमान बनाया जाए और नहरों-सड़कों और शहरी बस्तियों के कारण जो धाराएं अवरूध्द हुई हैं, उन्हें भी मार्ग बदल कर या पानी के बम्बे डालकर प्रवाह मार्ग दिया जाए।4:- आज इस बात की आवश्यकता है कि हम अपने नदियों, स्रोतों की संभाल करें और प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों को श्रध्दा से देखें। इनमें किसी भी प्रकार का मैला डालकर प्रदूषित न करें। नदियाें का बढ़ता प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। अब यह हमारे अमूल्य भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर रहा है।5:- जल-मल उपचार की प्रभावशाली व्यवस्था होनी चाहिए। अभी चलाए जा रहे गंगा एक्शन प्लान में बहुत ऊर्जा की खपत वाली महँगी विधि असफल हो चुकी है, जिसके कारणों का हवाला एक पूर्व रिपोर्ट में दिया गया था। निश्चित ही जल-मल के तृतीय चरण तक उपचार की ऐसी सस्ती विधियां अपनाने की आवश्यकता है, जो न केवल भारत में बल्कि अन्य देशों में भी कारगर पाई गई हैं। जल-मल व्ययन की ऐसी परियोजना का मूल्यांकन करके विश्वबैंक ने भी इसे अनुमोदित किया है। कम खर्चे में तैयार पारिस्थिति अनुकूल पार्कों में पौधों और मछलियों के द्वारा जैविक कचरे के निपटान की विधि बहुत सफ़ल पाई गई है। यह नियम होना चाहिए कि जिन उद्योगों से हानिकर कचरा निकलता है, वे इस कचरे को उपचारित करने के बाद ही किसी नदी या नाले में डालें।
6:- छोटी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वनीकरण से न केवल धरती की ऊपरी परत की मिट्टी की सुरक्षा हो सकेगी बल्कि सूख चुकी जलधाराएं भी पुन: प्रवाहमान हो जाएंगी। वनीकरण करते समय विकास की मार या अधिकाधिक दोहन के कारण वृक्षहीन हो गए संबंधित क्षेत्र में वहां प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पेड़ों का ही चयन करना चाहिए।1994 में पूर्वोल्लिखित यात्रा (गंगा-यमुना बचाव यात्रा) द्वाब गंगा-यमुना के सबसे अधिक प्रभावित जिलों का सर्वेक्षण करने के लिए की गई थी। इसमें दिल्ली के समक्ष उपस्थित खतरों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था। सुझाए गए व्यवहारिक उपायों को लागू करने के लिये दिल्ली शहर या इसके आस-पास भूमि उपलब्ध हो सकती है या नहीं, इसके लिए एक और सर्वेक्षण किया गया। यह आशा की गई कि इन व्यवहारिक उपायों को लागू करने से जल की गुणवत्ता खराब होने की प्रक्रिया उलट जाएगी और स्वच्छ पानी की उपलब्धता बढ़ेगी। सौभाग्य से नवें दशक के मध्य तक भी अनियंत्रित शहरीकरण सारी भूमि पर नहीं पसर गया था। अत: जल-मल के उपचार के लिए पारिस्थितिक पार्कों और बाढ़ का पानी रोकने और मानसून में वर्षा का पानी एकत्र करने के लिए बाढ़ भूमि और मानसून जलाशय बनाए जा सकते थे। ऐसे उपायाें के लिए अभी भी भूमि है।
ऊपरी यमुना के राज्यों को यमुना जल का बंटवारामई 1994 में यमुना जल बंटवारे के लिए ऊपरी तटवर्ती राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली ने मिलकर आपसी समझ के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे। यमुना के वार्षिक 13 बिलियन ञ्नमीटर (बीसीएम) शुध्द उपलब्ध जल का निम्नानुसार बंटवारा हुआ :
ज्ंइसमइस वार्षिक हिस्से के अतिरिक्त वर्ष के प्रत्येक चार मास के लिए एक निर्धारित मौसमी हिस्सा भी निश्चित हुआ। इस मौसमी हिस्से का कारण यह था कि नदियों में वर्ष भर प्रवाह एक सा नहीं रहता। इस मौसमी हिस्से का प्रत्येक राज्य का अंश इस प्रकार था :-
ज्ंइसम
इसके अतिरिक्त जुलाई-अक्टूबर के दौरान बाढ़ से बढ़े स्तर का 0.68 बीसीएम पानी का प्रयोग में नहीं आना और शुष्क मौसम में भी 0.337 बीसीएम पानी पर्यावरणीय कारणों से नदी में रहने दिया जाना तय हुआ। पर्यावरण्ाीय कारणों से नदी में बचा पानी 16.1 ञ्नमीटर प्रतिसैकेंड (क्यूसैक्स) के बराबर होता है और इसे नवंबर से जून के आठ महीनों में नियमित रूप से छोड़ा जाना चाहिए। किन्तु इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर होने के एक दशक बाद भी ऐसा नहीं किया जा रहा है। इतना ही नहीं, 10 क्यूसैक्स का न्यूनतम प्रवाह, जिसका आदेश माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था; वह भी यमुना में नहीं जाने दिया जा रहा है। अफसोस होता है कि राष्ट्र के जल संसाधनों का प्रबंधन करने वाले लोग नदी धाराओं में पर्याप्त पानी होने के महत्व को नहीं समझते। वे नहीं देख पाते कि जहां-जहां ये शुष्क होने से तथा प्रदूषित होने से बची हुई हैं, भूजल को समृध्द करती हैं। हमने स्वयं ही अनुपचारित मैला डाल-डालकर गंदा कर दिया है। खेद है कि भूजल और भूमिगत जल दोनों स्रोतों के समेकित प्रबन्धन की कोई व्यवस्था हमारे देश में अभी तक लागू नहीं की गई है।
दिल्ली के वर्तमान जलस्रोतवर्तमान में दिल्ली को निम्नलिखित स्रोत बागवानी और घरेलू उपयोग के लिए पानी उपलब्ध करा रहे हैं:-
उपरोक्त उत्तम जल प्रबन्धन के सिध्दान्त के बाद आइये देखें कि दिल्ली के आसपास बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और दिल्लीवासियों को पर्याप्त जल उपलब्ध कराने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं? जो उपाय सुझाए जा रहे हैं उन्हें यथा परिस्थिति द्वाब के अन्य क्षेत्रों, देश के अन्य भागों में यहां तक कि संसार के अन्य भागों में लागू किया जा सकता है। दिल्ली की अपनी कुछ लाभकर विशेषताएं हैं। जैसे दिल्ली में दक्षिणी पठार की सबसे उत्तरवर्ती पहाड़ी श्रृंखला विद्यमान है, जो इसके पर्यावरण को आकर्षक बनाती है। रिज, जो उत्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय क्षेत्र से राष्ट्रपति भवन की उत्तर-पश्चिमी पहाडियों तक और वहां से कुतुब के पश्चिम में होती हुई दक्षिण में तिलपत श्रृंखला बनाती है। इससे दिल्ली की स्थिति एक अतिउत्तम द्रोणी की बन गई है। पहले कहा जा चुका है कि उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों तक इस द्रोणी में अपनी दो बारहमासी नदियां बहती थीं। ये दिल्ली के हौजों, तालाबों, बावड़ियों और झीलों को पुर करती हुई यमुना में जा गिरती थीं, जबकि साहिबी नदी, जिसे अब नाला नजफगढ़ के नाम से जाना जाता है; दक्षिण-पश्चिम की पहाड़ियों से बहकर आने वाले पानी से भर जाती थी और अन्त में यमुना में जा गिरती थी। अनेक छोटी-छोटी धाराएं तिलपत श्रृंखला से निकल कर ‘रिज’ उत्तर महरौली से पूर्व की ओर होती हुई, उत्तर में निजामुद्दीन के समीप यमुना में गिरती थीं। दो बारहमासी नदियों का अस्तित्व अंधाधुंध शहरीकरण, वृक्षों की कटाई और दिल्ली के पश्चिमी-दक्षिणी अर्धवृत्त के पहाड़ी क्षेत्र में खनिज उत्खनन को भेंट चढ़ गया।

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