अलवर में छोटे-बड़े 8 हजार से ज्यादा जौहड़ और एनीकट बांध -संजय तिवारी

(समाज ने अपने प्रयास से अलवर में छोटे-बड़े 8 हजार से ज्यादा जौहड़ और एनीकट बांध बनाये हैं. ऐसे ही एक जौहड़ पर खड़े पानी के जानकार अलवर के किसान.)
किशोरी भीकमपुरा, वाया थानागाजी, अलवर, राजस्थान। यह उस जगह का पूरा पता है जहां आज से कोई 30 साल पहले एक छोटी सी संस्था ने पानी का काम शुरू किया था। यह वही दौर था जब सरकार ने मुनादी कर दी थी कि यह काला रेगिस्तान बन चुका है और यहां रहनेवाले लोगों के लिए सरकार पानी मुहैया नहीं करा सकती। लोग यहां रहते हैं तो उनके भविष्य की जिम्मेदार सरकार नहीं होगी। सरकार की इस चेतावनी का लोगों पर खास असर हुआ नहीं। अपनी मिट्टी कोई यूं ही नहीं छोड़ देता। शायद लोगों को यह उम्मीद थी कि कोई चमत्कार होगा। और संयोग से वह चमत्कार हुआ भी। राजेन्द्र सिंह नाम का एक आदमी वहां पहुंचा और उसने कहा पानी बचाना है, जीवन बचाना है तो तालाब बनाओ। पानी के पुजारी अनुपम मिश्र की मदद से वहां एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने पूरे इलाके को पानीदार बना दिया। आज वह संस्था कोई छोटी संस्था नहीं रह गयी है। अलवर में किये काम के कारण ही तरूण भारत संघ को राष्ट्रपति ने उस अरवरी नदी पर खड़े होकर पुरस्कृत किया जो इस प्रयास से पुनर्जिवित हो गयी थी। राजेन्द्र सिंह को मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त हुआ और देशभर में वे पानी के काम के लिए प्रतीक पुरूष बन गये हैं।

लेकिन एक बार फिर सरकार ने अलवर का रूख किया है. उसने यहां पांच शराब के कारखानों का लाइसेंस दिया है. इसमें देश की जानी-मानी कंपनियों से सहित विदेशी कंपनियां भी शामिल हैं. राष्ट्रवादी पार्टी की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का तर्क है कि प्रदेश को उद्योग चाहिए, रोजगार चाहिए. एक बात इसमें मैं अपनी तरफ से जोड़ देता हूं कि शराब भी चाहिए. किसी भी प्रदेश के लोगों के उद्योग और रोजगार के साथ-साथ शराब भी चाहिए. अगर ऐसा न होता तो वसुंधरा राजे कम से कम अपने पूर्ववर्ती अशोक गहलोत से कुछ सीखतीं जिन्होंने कैबिनेट में निर्णय करवाया था कि बड़ी तपस्या के बाद अलवर की धरती तर हुई है. यहां किसी भी ऐसे उद्योग को मंजूरी नहीं दी जायेगी जिसमें पानी की खपत ज्यादा हो.

मैं एक सप्ताह वहां रह चुका हूं. जुलाई के महीने में जब दिल्ली तप रही थी तब अलवर में झमाझम वारिश हो रही थी. अरवरी नदी के वेग को देखकर मन इतना उत्साहित हुआ कि एक दिन पूरा एक तालाब पर मिट्टी फेंकी. दोपहर बाद उसी तालाब के अथाह पानी में नहाया. सच बताऊं तो डूबते-डूबते बचा. उसी तालाब के पाल पर बैठकर दाल-बाटी-चूड़मा खाया. वे सात दिन अद्भुद थे. जब यह सुनता हूं कि सरकार वहां शराब का कारखाना लगाना चाहती है तो दुख होता है. मैंने तो एक दिन मिट्टी फेकी है, सोचिए उनके दिलों पर क्या गुजर रही होगी जिन्होने 25 वर्षों तक अथक मेहनत से एक-एक बूंद सहेजी है. क्या सरकार का दृष्टिकोण ठीक है?

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