(बेंगलुरू में बाढ़) हमने ही न्योता है बाढ़ की इस मुसीबत को - पंकज चतुर्वेदी

पिछले दिनों सितम्बर के तीसरे हफ्ते बेंगलुरू में आई बेमौसम की बारिश व उससे लबालब हुई सड़कों ने देश की साइबर राजधानी कहे जाने वाली वाले खूबसूरत महानगर के लोगों की चिंताएं बढ़ा दी। दो दिन की बारिश ने शहर के महत्वपूर्ण सरकारी, व्यावसायिक व औद्योगिक प्रतिष्ठानों को कई फुट गहरे पानी में डुबो दिया। उसके बाद आरोप- प्रत्यारोप व सियासत का खेल शुरू हो चुका है, जबकि इस वास्तविकता से सभी आंखे चुरा रहे हैं कि इस बाढ़ को तो शहरावलों ने ही न्यौता दिया था। जहां कभी पानी से लबालब झीलें होती थीं, वहां अब कंक्रीट का जंगल है, तभी, जो पानी झीलों में भरना था, वह घरों में घुसा। किसी नगर के नैसर्गित पर्यावास से छेड़छाड़ करने का खामियाजा समाज को किस तरह भुगतना पड़ता है बेंगलुरू इसकी जीवंत बानगी है।
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हुआ यूं कि बेंगलुरू में 15 सितम्बर के आसपास 36 घंटों में 200 मिमी पानी बरस गया। शहर की नालियों और सीवरों की क्षमता महज 80 मिमी बारिश झेलने की है। देखते ही देखते पुत्तनहल्ली, नयदनहल्ली, कैसूर रोड के आसपास कई-कई फुट पानी भर गया। जेपी नगर में इतना पानी था कि वहां तीन दिनों तक बिजली की सप्लाई रोकड़ी पड़ी। महानगर की शान व सबसे व्यस्त सड़कहोसूर रोड के पानी से लबालब होने का खामियाजा कई आईटी कंपनियों और बीपीओ को झेलना पड़ा। आवागमन बंद था, सो वाहां काम ठप हो गया। असल में होसूर पर आई कयामत का कारण इस सड़क पर स्थित सभी सात झीलों- अराकेरी, बेूर, तुत्तनहल्ली, लालबागा, माठीवाला, हुलीमावू और सरक्की- का लबालब होकर उफन आना था। बेंगलुरू के तालाब सदियों पुराने तालाब शिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे। बारिश चाहे जितनी कम हो या फिर बादल फट जाएं, एक-एक बूंद नगर में ही रखने की व्यवस्था थी। ऊंचाई का तालाब भरेगा, तो उसके कलुवे (निकासी) से पानी दूसरे तालाब को भरता था। बीते दो दशकों के दौरान बेंगलुरू के तालाबों में मिट्टी भर कर कॉलोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को भी पक्केक निर्माणों से रोक दिया गया। पुत्तनहल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है, जबकि आज इसमें महज पांच एकड़ में पानी आ जाता है। झील विकास प्राधिकरण की समझ में आ गया है कि ऐसा पानी की आवक से राज कलुवे को सड़क निर्माण में नष्ट हो जाने के कारण हुआ है। जरगनहल्ली और माडीवला तालाब के बीच की संपर्क नहर 20 फुट से घटकर महज तीन फुट की रह गई। बेंगलुरू शहर की आधी आबादी को पानी पिलाना टीजीहल्ली यानी थिप्पगोंडन हल्ली तालाब के जिम्मे है। इसकी गहराई 74 फीट है। लेकिन 1990 के बाद इसमें अककावती जलग्रहण क्षेत्र से बरसाती पानी की आवक बेहद कम हो गई है। अरकावती के आसपास कॉलोनियों, रिसोट्र्स और कारखानों की बढ़ती संख्या के चलते इसका प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र चौपट हो चुका है। इस तालाब से 140 एमएलडी (मिलियन लीटर पर डे) पानी हर रोज प्राप्त किया ाज सकता है। लेकिन बंगलोर जल प्रदाय संस्थान को 40 एमएलडी से अधिक पानी नहीं मिल पाताहै। इस साल फरवरी में तालाब की गहराई 15 फीट से कम हो गई। पिछले साल यह जल स्तर 17 फीट औश्र उससे पहले 26 फीट रहा है।
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उल्सूर झील को बचाने के लिए गठिन फाउंडेशन के पदाधिकारी राज्य े आला अफसर हैं। 49.8 हेक्टेयर में फैली इस अकूल जलनिधि को बचाने के लिए जनवरी 99 में इस संस्था ने चार करोड़ की एक योजना बनाई थी। उल्सूर ताल को दूषित करने वाले 11 नालों का रास्ता बदलने के लिए बंगलौर महानगर पालिका से अनुरोध भी किया गया था।लेकिन उल्सूर को जीवित रखने के लिए कागजी घोड़ों को दौड़ से आगे कुछ नहीं हो पाया। इस झील में कई छोटे-बड़े कारखने जहर उगल रहे हैं। उधर हैब्बल तालाब के पानी की परीक्षण रिपोर्ट साफ दर्शाती है कि इसका पानी इंसान तो क्या मवेशियों के लायक भी नहीं रह गया है। इसमें धातु, कालीफार्म, बैक्टेरिया, ग्रीस और तेल आदि की मात्रा सभी सीमाएं तोड़ चुकी है। पानी के ऊपर गंदगी व काई की एक फीट मोटी परत जम गई है। क्लोराइड का स्तर 780 मिग्रा. प्रति लीटर मापा गया है, जबकि इसकी निर्धारित सीमा 250 है। जल की कठोरता 710 मिग्रा. पर पहुंच गई है, इसे 200 मिग्रा. से अधिक नहीं होना चाहिए। कभी इस झील पर हिमालय और मध्य एशिया से कोई 70 प्रजाति के पक्षी आया करते थे। बीते साल यहां महज 27 प्रजाति के पक्षी ही आए। शहर के 43 तालाब देखते ही देखते मैदानों व फिर दुकानाें- मकानों में तब्दील हो गए। पिछले दिनों आई बाढ़ का सबसे अधिक असर इन्हीं इलाकों में देखा गया। कई जगह तो झील के नाम क ही उपनगर बस गए हैं। कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चल्लाघट्टा झील को सुखाया गया, तो कांतीरव स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया। अशोक नगर का फुटबाल स्टेडियम शुले तालाब हुआ करता था तो साईं हाकी स्टेडियम के लिए अक्कीतम्मा झील की बलि चढ़ाई गई। मेस्त्रीपाल्या झील ाअैर सनेगुरवनहल्ली तालाब को सुखाकर मैदान बना दिया गया है। गंगाशेट्टे व जकरया तालाबों पर कारखाने खड़े हो गए हैं। अगासना तालाब अब गायत्रीदेवी पार्क ब गया है। तुमकूर झीलपर मैसूर लैंप की मशीनें हैं। सन् 2005 में भी लगभग इसी समय बेंगलूरू शहर में बाढ़ आई थी। उस बाढ़ के बाद यह सभी ने स्वीकार किया था कि यदि महानगर की झीलों को सुखाया नहीं जाता, तो घरों में घुसा पानी तालाबों में न केवल सुरक्षित रहता, बल्कि गर्मी के दिनों में पानी की किल्लत से भी निजात मिलती, लेकिन यह हकीकत सारी फाइलों में कहीं जज्ब हो गई। कहने को तो कर्नाटक सरकार ने बाकायदा झी विकास प्राधिकरण का गठन कर रखा है, लेकिन इस संस्था के पास झीलों में हो रहे अतिक्रमण या फिर विकास के नाम पर उन्हें उजाड़ने से रोकने के कोई अधिकार योजना नहीं है।
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राज्य सरकार अब जन सहयोग के भरोसे 60 फीसदी तालाबों की सफाई की योजना बना रही है। चार साल पहले प्रदेश के चुनिंदा 5000 तालाबों की हालत सुधारने के लिए ढाई करोड़ की एक योजना तैयारकी गई थी। पर सियासी उठापटक के इस दौर में तालाबों के लिए आंसू बहाने की फुर्सत किसे है?
साभार दैनिक हिन्दुस्तान

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