सभी मृत नदियां बयां कर रही हैं : नदी योजनाएं ही बीमार - मीनाक्षी अरोड़ा

यमुना पर बने आईटीओ या ओखला पुल से गुजरते हुए अक्सर आपको अपनी नाक बंद रखनी पड़ती है। शायद ही अब किसी को वह समय याद आता होगा जब पवित्र यमुनाजी में आपने डुबकी लगाई होगी। पर्यटक भी इस प्रदूषित, गंदी, बदबूदार नाले में परिवर्तित यमुना को देखकर भौचक्के रह जाते हैं।
यमुना हमारी मां है जो बिना किसी स्वार्थ के हमारी पानी की जरूरतों को पूरा करती है, लेकिन बदले में हमने उसे क्या दिया? जरा सोचिए। गन्दगी, प्रदूषण और इस 'धीमे जहर' से अन्त में मौत! पानी को साफ करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया, पर नतीजा? सबके सामने है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लाटों के लिए ढांचा तैयार करने के लिए भारी रकम लगाई गई। अकेले दिल्ली में ही देश का 40 फीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया है जबकि यहां देश की कुल आबादी का मात्र 5 फीसद ही है। इतने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों के बावजूद भी नदी का पानी दूषित है। केवल नीतियां बना देने या बिना सोचे-समझे मोटी रकम खर्च कर देने भर से ही तो पानी साफ नहीं हो सकता, इसके लिए जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति की। हम नदियों से सिंचाई और पीने के लिए ज्यादा से ज्यादा पानी निकाल तो लेते हैं लेकिन उनमें स्वच्छ पानी इतनी मात्रा में नहीं रह जाता जो वे कचरे को आत्मसात कर सकें। परिणामस्वरूप नदियों की आत्मसात करने की क्षमता और स्वयं-स्वच्छ करने की क्षमता समाप्त हो गई है।
यमुना को देखकर ही इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि यहां सीवेज को रोकने या शुध्दि करने के लिए कभी भी पर्याप्त राशि नहीं लगाई गई। अब हमारे सामने मुख्य सवाल यह उठता है कि क्या हम जलापूर्ति और कचरे के निपटारे के लिए कोई सस्ता और टिकाऊ मॉडल तैयार कर पाएंगे? भारत की हर नदी आज अपने दुर्भाग्य पर रो रही है, क्योंकि सभी नदियां या तो यमुना की ही तरह प्रदूषित हो चुकी हैं या की जा रही हैं।
इसका पानी कुछ अजीब सा हो गया है, बदबू असहनीय है और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके कुप्रभाव अक्षम्य हैं। नदियां देश की प्राण हैं। भारतीयों के लिए तो नदियां 'मां' हैं, वे इसकी पूजा तो करते हैं लेकिन उसे मैला होने से बचाने के लिए कोई सावधानी नहीं बरतते। भारत की अधिकांश जनसंख्या पीने के पानी के लिए सतही और धरातलीय व्यवस्था पर ही निर्भर है।
सरकार ने नदियां साफ करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं, जैसे-1985 में 'गंगा एक्शन प्लान' (जीएपी) शुरू किया था। 462 करोड़ रुपए के इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य नदी जल की गुणवत्ता को स्वीकृत मानक (जिसे नहाने योग्य जल-गुणवत्ता मानक) तक सुधारना था, इसके लिए प्रदूषण की रोकथाम और नदी में छोड़े जाने से पहले ही सीवेज को रोककर शुध्दिकरण किया जाना था। इस योजना को 20 साल से भी ज्यादा समय बीत गया है। बहुत कम आंकलन के साथ एक कमजोर सा विश्लेषण किया गया, उसके बावजूद भी सुधारों का तो नामोनिशान भी नहीं है। नदियों को साफ करने के नाम पर व्यवसाय किया जा रहा है जिसके कारण नदियां साफ नहीं हो पा रही हैं। जीएपी-1, 2 और एनआरसीपी पर कुल 5,166 करोड़ की राशि खर्च की जा चुकी है। 2005 के अन्त तक कुल खर्च योजना के लिए स्वीकृत 2310 करोड़ रुपये के आधे से भी कम है।
2005 में फंड का लगभग 70 फीसदी 4 ऐसे राज्यों के लिए स्वीकार किया गया था, जहां से प्रदूषित नदियां बहती हैं—

(1) गंगा के लिए उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल
(2) कूम और अडयार के लिए तमिलनाडु
(3) मूसी के लिए आंध्रप्रदेश

गंगा और यमुना के लिए 40 फीसदी, कूम के लिए 10 फीसदी स्वीकार किया गया, जबकि 34 में से 10 नदियों को एनआरसीपी धन का 88 फीसदी मिला, शेष को केवल 12 फीसदी मिला।
यहां अब सवाल यह है कि क्या नदियों को साफ करने पर लगाए गए इस धन का कोई प्रभाव पड़ा? नेशनल रिवर कंजरवेशन डायरेक्टोरेट का दावा है कि इसने गंगा को साफ कर लिया है। इसके इस दावे के दो कारण हैं : पहला, एनआरसीडी के आंकड़ों के अनुसार जब नदी हिमालय से प. बंगाल में उलुबेरिया में जाती है तो ऋषिकेश से (उत्ताराखण्ड में) बीओडी स्तर 3 मिग्रा./ली. से कम था जबकि कन्नौज, कानपुर और इलाहाबाद में यह 4.5 मिग्र./ली., 6.78 और 5.6 मिग्र./ली. था। बीओडी के लिए राष्ट्रीय मानक 3 मिग्र./ली है तभी नदी का पानी स्नान योग्य माना जाता है। वस्तुत: इन आंकड़ों को देखकर ही योजनाओं की सच्चाई साबित होती है। जो समस्या यमुना की है, वह सभी नदियों में दोहराई जा रही है। केवल एसटीपी खड़े करने के लिए ही सारे कार्यक्रम चलाए गए हैं, सीवेज को नदी में जाने से रोकने और शुध्दिकरण के लिए तो शायद ही कुछ किया गया है। सीपीसीबी द्वारा किए गए जल-प्रदूषण्ा के विश्लेषण से यह साफ जाहिर होता है कि कस्बों में बहने वाला नदी का पानी नहाने के लिए उचित नहीं है। नदी में पानी उचित होने के लिए बीओडी स्तर 3 मिग्र./ली से कम होना चाहिए जबकि घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा 5 मिग्र. से अधिक होनी चाहिए। नदियों को साफ करने के लिए क्या किया गया है? यह तो सभी मानते हैं कि प्रदूषण दो कारणों से है- बिना शुध्द किया हुआ घरेलू सीवेज और उद्योगों से निकला कचरा। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि औद्योगिक कचरा अधिक खतरनाक और विषैला होने के बावजूद भी, नियंत्रित करना ज्यादा आसान है। प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को पहचानकर वर्गीकृत किया जा सकता है। सीपीसीबी के अनुसार हमारी नदियों में 70-80 फीसदी प्रदूषण घरेलू गन्दगी की वजह से है। इसलिए रिवर एक्शन प्लान का मुख्य केन्द्र नदियों में बहने वाले घरेलू सीवेज को कम करना है।

यह आंकलन भी महत्तवपूर्ण है कि हमने ढांचे तैयार करने में और उनके कार्यान्वयन पर कितना खर्च किया है। एसटीपी की पूंजी लागत, तकनीकी के हिसाब से भिन्न-भिन्न है। एक्टिवेटिड स्लज प्रोसेस सेकण्डरी ट्रीटमेंट पर आधारित प्लांट की लागत 27.75 लाख रुपए प्रति एमएलडी, अधिक बड़ी तकनीकी पर आधारित प्लांट की लागत 50 लाख प्रति एमएलडी से 62 लाख रुपए एमएलडी है। हालांकि हमारे पास खर्च करने के लिए धन है, लेकिन एसटीपी ही इस समस्या का समाधान नहीं है। इस व्यवस्था को मितव्ययी और प्रबन्ध योग्य बनाने के लिए योजना बनाने वालों ने कोई प्रयास नहीं किया है।

शहरी भारत का एक बड़ा हिस्सा अब भी अनधिकृत कालोनियों में रहता है जिसके सीवेज का शहरी प्लांटों से कोई सम्बन्ध नहीं है, यानी पहले तो इन स्थानों के सीवेज की निकासी के लिए व्यवस्था करनी होगी तभी एसटीपी व्यवस्था भी कारगर साबित होगी। लेकिन, बहुत से शहरों की व्यवस्था बिल्कुल ही खराब है। खुले नालों से गन्दगी ज्यादा आती है जबकि एसटीपी का स्थान जमीन की उपलब्धता से तय होता है। यदि हम कचरे को साफ करने, उचित रूप में खत्म करने और पुन: प्रयोग करने का प्रबन्ध करते हैं तब तकनीकी सवाल यह आता है कि हमें पानी को पेयजल की गुणवत्ता तक साफ करने की जरूरत होगी यानी नदी में पानी छोड़ने से पहले बीओडी स्तर 3 मिग्रा./ली. से कम होना चाहिए। यदि हम नदियों के पानी को नहाने योग्य मानक तक लाना चाहते हैं तो ऐसा करना पड़ेगा। इसके लिए साफ किए गए कचरे को पुन: प्रयोग करना चाहिए न कि सीधे नदी में छोड़ दिया जाना चाहिए।

बोलीविया में सहकारिता द्वारा बुनियादी पानी और सफाई सेवाओं का प्रबंधन - लुइस फर्नांडो यवरी

बोलीविया का सहकारिता आंदोलन
1958 के सहकारिता अधिनियम के बाद से बोलीविया में सार्वजनिक सेवाएं (पानी और बिजली से लेकर दूरसंचार तक) प्रदान करने में सहकारिताओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही
है। इस कानून के अनुसार सहकारिताओं को इन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए : सभी सदस्यों के अधिकार तथा दायित्व समान हैंऋ लोकतांत्रिक सिद्धांतों का अनुसरण किया जाय, प्रत्येक सदस्य का एक वोट है, सहकारिता का लक्ष्य मुनाफा नहीं बल्कि आर्थिक और सामाजिक बेहतरी है।

बोलीविया राजनीतिक दृष्टि से नौ क्षेत्रों में विभाजित है। क्षेत्रीय राजधानियों में 44 प्रतिशत मामलों में पेयजल और सफाई सेवाएं सहकारी संस्थाओं द्वारा ही प्रदान की जाती हैं। अन्य 44 प्रतिशत मामलों में ये सेवाएं सार्वजनिक कंपनियां प्रदान करती हैं और शेष 12 प्रतिशत यह काम निजी हाथों में है। जल सेवाएं 1999 के पेयजल और स्वच्छता सेवाएं अधिनियम द्वारा परिचालित हैं। यह अधिनियम कोचाबांबा के जल युद्ध (देखें ''कोचाबांबा: जल युद्ध के बाद सार्वजनिक-सामूहिक साझेदारी'') के बाद सन् 2000 में संशोधित किया गया था। नये कानून के तहत निम्नलिखित प्रावधान लागू हैं : सेवाओं तक सबकी पहुंच, बुनियादी सेवाओं की गुणवत्ता और निरंतरता, संसाधनों के इस्तेमाल में कुशलता, सेवाओं की आर्थिक लागत की स्वीकृति (शुल्क) -सेवाओं का स्थायित्व, सेवाओं को इस्तेमाल करने वालों के प्रति निरपेक्षता तथा पर्यावरण सुरक्षा।
यह अध्याय सेवाओं की आपूर्ति के लिए किये गये सहकारिता आंदोलन पर और विशेषकर उस आंदोलन पर केंद्रित है जो सांता क्रुज क्षेत्र की राजधानी सांताक्रुज दे ला सिएरा शहर (आबादी 10 लाख, तीस हजार) में हुआ था। 1960 के दशक के दौरान शहर
में टेलीफोन लाइन और विद्युतीकरण के लिए पहली दो सहकारी संस्थाएं बनायी गयी थीं।

1979 में पेयजल और स्वच्छता सेवाओं के लिए सहकारिता (को आपरेटिव दे लोस सर्विसिओस दे अगुआ पोटेबल य अलकांतारिलादो सैनीतारियो- एस.ए.जी.यू.ए.पी.ए.सी.) सैगुआपैक की स्थापना हुई। सांताक्रुज : पेयजल और स्वच्छता सेवाएं प्रदान करने वाली सहकारी संस्था सैगुआपैक सांताक्रुज दे ला सिएरा के अधिकांश हिस्सों में पीने का पानी और स्वच्छता सेवाएं प्रदान करती है। सैगुआपैक से स्वतंत्र कुछ अन्य छोटे अभिकर्ता नगर के आस-पास के क्षेत्र में पीने का पानी पहुंचाते हैं।

इस जल कंपनी ने अपने इतिहास में तीन बहुत भिन्न अवधियों का अनुभव किया है। 1973 तक यह एक सार्वजनिक कम्पनी थी और फिर 1979 तक यह एक अर्धसार्वजनिक सेवा के रूप में रही। 1979 में इसे औपचारिक रूप से एक सहकारिता के रूप में स्थापित किया गया। अन्य सहकारिताओं (टेलीफोन और विद्युतीकरण) के अच्छे परिणामों ने सैगुआपैक का प्रबंधन कैसे किया जाय इस बारे में समुदाय के निर्णय को प्रभावित किया था।

सैगुआपैक की संरचना जटिल है। सहकारिता को एक विशेष क्षेत्रमें रियायतें मिली हुई हैं। यह क्षेत्र नौ जिलों में विभाजित है। प्रत्येक जिले में एक परिषद है जिसका काम है सदस्यों (हर वह व्यक्ति परिषद का सदस्य है जिसके यहां पानी का कनेक्शन है) की
चिंताओं की परवाह करना और उनकी जरूरतों को पूरा करना। पार्षदों का कार्यकाल छह वर्ष है और इन पार्षदों में से एक तिहाई हर दो वर्ष पर बदले जाते हैं। नौ पार्षदों में से प्रत्येक पार्षद के प्रतिनिधि सभा (असेंबली ऑफ डेलीगेट्स) में तीन प्रतिनिधि होते हैं। उनका काम सहकारिता द्वारा लिये गये निर्णयों की पुर्ष्टि करना होता है। असेंबली बोर्ड के लिए नौ सदस्यों और अधीक्षक परिषद के लिए छह सदस्यों का चुनाव भी करती है। बोर्ड पर बजट और लेखा-जोखा की पुष्टि करने तथा कम्पनी की नीतियों को रूप देने की जिम्मेदारी होती है। अधीक्षक परिषद बोर्ड को नियंत्रित करती है और वाह्य लेखा परीक्षण का काम करती है। दोनों निकायों के सदस्यों का सेवाकाल छह वर्ष है और हर दो वर्ष पर एक-तिहाई सदस्यों का नवीकरण होता है।

चूंकि सैगुआपैक एक सहकारी संस्था है अत: प्रत्येक वह व्यक्ति जिसके यहां पानी का कनेक्शन है इसका सदस्य और इस तरह इस सहकारिता का सहस्वामी बन जाता है जिसकी एक आवाज होती है और जिसके पास मताधिकार होते हैं। सहभागिता की संरचनाओं, जिनके माध्यम से सदस्य अपनी जरूरतों और चिंताओं को आवाज दे सकते हैं, के अतिरिक्त यह सेवा साल में दो बार संतोषजनक ढंग से मतदान भी कराती है ताकि जाना जा सके कि पानी और स्वच्छता सेवाओं में कहां सुधार की जरूरत है।
सहकारिता का उद्देश्य अपने सदस्यों का कल्याण है, न कि मुनाफा कमाना। सैगुआपैक की शुल्क संरचना का आधार सामाजिक है जिसमें घरेलू उपभोग, वाणिज्यिक इस्तेमाल, औद्योगिक इस्तेमाल और विशेष किस्म के इस्तेमाल (अस्पतालों, सार्वजनिक
स्कूलों, सरकारी कार्यालयों आदि में) के लिए मूल्यों का स्तर भिन्न-भिन्न है। शुल्क उपभोग स्तरों पर भी निर्भर करते हैं और हर 15 क्यूबिक मीटर पर बढ़ जाते हैं ताकि जो लोग ज्यादा उपभोग करते हैं वे कम उपयोग करने वालों की तुलना में प्रति क्यूबिक मीटर अधिक भुगतान करें। सैगुआपैक जल सेवाओं तक पहुंच को प्रोत्साहित करने के लिए अधिक गरीब समुदायों में प्रोत्साहन अभियान भी चलाती है।
सैगुआपैक के पास गुणवत्ता नियंत्रण की व्यवस्था भी है जो आई एस ओ 9001 पर आधारित है और फिलहाल जर्मनी की टी यू वी राइनलैंड द्वारा प्रमाणित की जाती है।
सहकारिता के पास लैटिन अमेरिकी मानकों वाले संकेतक भी हैं। 2003 के लिए ये संकेतक इस प्रकार हैं :

पेयजल तक पहुंच 96 प्रतिशत
स्वच्छता तक पहुंच 50 प्रतिशत
पेयजल कनेक्शनों की संख्या 123.597
स्वच्छता कनेक्शनों की संख्या 64.096
कर्मचारियों की संख्या 387
प्रति 1000 कनेक्शनों पर कर्मचारियों की संख्या 3,13
औसत जल शुल्क (अमेरिकी डॉलर) 0,31
औसत स्वच्छता शुल्क 0,29
जल की बरबादी 26 प्रतिशत
वार्षिक बिल (अमेरिकी डॉलर में) 19.5
संग्रहण कुशलता 94 प्रतिशत

रणनीतिक विकास योजना

सैगुआपैक ने रियायत की 40 वर्ष की अवधि यानी 2039 तक के लिए एक रणनीतिक विकास योजना (प्लान एस्ट्राटेजिको दे देसारोल्लो-पी ई डी) बनाई है। इस योजना के तहत जरूरी निवेश तथा अनुमानित लागत की पहचान की गयी है। चालीस वर्ष के लिए यह लागत 5590 लाख अमेरिकी डॉलर है। सबसे बड़ी धनराशि स्वच्छता के बुनियादी ढांचे (3090 लाख डॉलर) और पानी के संजाल के लिए (1180 लाख डॉलर है)।
वास्तविक आमदनी का भी विश्लेषण कर लिया गया है और जरूरी निवेश तथा कामचलाऊ लागतों के साथ उसकी तुलना कर ली गयी है। प्रारंभिक अवधि के लिए बजट में अंतराल है (नीचे इस अंतराल को पाटने के विकल्पों की तलाश की गयी है), लेकिन उसके बाद की अवधि में कंपनी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जायेगी।
सैगुआपैक ने ऐसी अनेक परियोजनाएं चलाई हैं जिनमें इंटर अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक
(एआईडीबीध्द और विश्व बैंक जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं का धन लगा है। सभी मामलों में सैगुआपैक ने परियोजनाओं को निर्धारित समय से पहले ही पूरा कर लिया और काफी बचत भी की । इसके परिणामस्वरूप वह और ज्यादा काम कर सकी।
सैगुआपैक कर्ज के भुगतानों की भी अदायगी कर रही है।

मुख्य चुनौतियां
सहकारी संस्थाओं के मुख्य सरोकारों को संक्षेप में नीचे दिया गया है:
- जल संसाधनों की उपलब्धता
- सफाई तक कम लोगों की पहुंच
- विकास की रणनीतिक योजना के क्रियान्वयन के लिए वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता
- नगर के बाहरी इलाकों में कार्यरत छोटे संचालक (ऑपरेटर)


जल संसाधनों की उपलब्धता

इस समय पेय जल आपूर्ति व्यवस्था का केवल एक स्रोत है और वह है भूजल। सैगुआपैक भूजल को चार क्षेत्रों में 47 कुओं से निकालता है (2003 में इसका वार्षिक उत्पादन 450 लाख क्यूबिक मीटर था)।
इस विषय पर हो रहे अध्ययनों के अनुसार और इन भूगर्भीय जल स्तरों के सुनियोजित इस्तेमाल और संपूर्ति के मद्देनजर यह अनुमान किया गया है कि सन् 2017 तक कोई न कोई अतिरिक्त जलस्रोत ढूंढ निकालना जरूरी होगा। इस तारीख तक भूजल के भंडार अपेक्षित मांग पूरी कर पाने में अपर्याप्त होंगे लेकिन सैगुआपैक 2017 से पहले ही इस समस्या के समाधान के लिए वैकल्पिक स्रोतों की तलाश कर रहा है।

सफाई तक सबकी पहुंच नहीं

मौजूदा समय में सफाई सेवाओं तक केवल 50 प्रतिशत आबादी की पहुंच है लेकिन जनसंख्या वृद्धि के संकेतक की सफाई सेवाओं में वृद्धि से तुलना करने पर पता चलता है कि यदि नये निवेश न किये गये तो सफाई सेवाओं तक पहुंच का संकेतक और नीचे आ जायेगा। नगर की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि छह प्रतिशत है। जनसंख्या में इस बढ़ोत्तरी को वित्तीय योजना में ध्यान में रखा गया है। इसमें सबसे ज्यादा धनराशि सफाई के बुनियादी ढांचे को आवंटित की गयी है। इसके साथ ही एक और चिंताजनक बात यह है कि पीने के पानी का एकमात्र स्रोत भूजल ही है। सफाई संजाल का विस्तार करने में इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि भूजल संदूषित न होने पाये। फिलहाल जो बेकार पानी सफाई संजाल में जमा नहीं किया जाता वह सेप्टिक टैंक में जाता है जो भूजल को सीधा प्रदूषित करता है।

वित्तीय संसाधन जुटाना
योजना के प्रारंभिक वर्षों में वास्तविक आय और दूसरी ओर निवेश तथा क्रियान्वयन लागतों के बीच की खाई लगभग 500 लाख अमेरिकी डॉलर की जरूरत प्रदर्शित करती है। अनेक विकल्प खोजे गये हैं: जैसे (1) बहुपक्षीय ऋण (2) वाणिज्यिक ऋण (3) ऑपरेटर कार्यपद्धति में रणनीतिक साझीदारी (4) गैर ऑपरेटर कार्यपद्धति के तहत रणनीतिक साझीदारी (5) उपरियायतें अथवा बनाओ, चलाओ, हस्तांतरित करो (बी ओ टी) अनुबंध। सैगुआपैक के लिए प्राथमिकता वाले विकल्प इस क्रम में हैं: (1) एकपक्षीय ऋण, (2) गैर आपरेटर रणनीतिक साझीदारी, तथा (3) वाणिज्यिक ऋण और बी ओ टी।
सैगुआपैक ने बहुपक्षीय ऋण प्राप्त करने की दिशा में कुछ कदम उठाये हैं। बहुपक्षीय एजेंसियों के साथ ऋण संबंधी वार्तालाप में सरकार वह पक्ष है जो सौदे की गारंटी लेता है लेकिन ब्याज का भुगतान सैगुआपैक करती है। लेकिन, देश की सीमित ऋण सामर्थ्य के कारण इन ऋणें तक पहुंच बहुत कठिन है।

नगर के बाहरी क्षेत्रों में कार्यरत छोटे संचालक
पीने के पानी की आपूर्ति की इन छोटी व्यवस्थाओं का जन्म नगर के अनियंत्रित रूप से बढ़ने के कारण हुआ। इनका संचालन सैगुआपैक से अलग आठ संचालक स्वतंत्र रूप से करते हैं। नगर के विस्तार की विशेषता उपाश्रित क्षेत्र थे जिनमें पानी की स्वतंत्र-आत्मनिर्भर व्यवस्थाओं का निर्माण किया गया, क्योंकि मौजूदा बुनियादी ढांचा उनकी जरूरतें पूरी नहीं कर सकता था। कुछ समय बाद ये व्यवस्थाएं मजबूत हो गयीं और अब वे नगर के बाह्य क्षेत्र को पानी की आपूर्ति करती हैं हालांकि इस सेवा की गुणवत्ता खराब है और इन कंपनियों के स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं है। इसके अतिरिक्त सरकार की ओर से इन कंपनियों की संख्या कम करने तथा भिन्न भिन्न गुणवत्ता वाली जल सेवाओं से बचने के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गयी है। पीने के पानी और सफाई सेवाओं के प्रभारी सरकारी निकाय (सुपरिंटेडेसिया दे सेनियामिएंतो बासिको- एस आई एस ए बी) को अधिक प्रभावी भूमिका निभानी चाहिए।

निष्कर्ष
सैगुआपैक के काम और परिणामों का विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह कंपनी उत्कृष्ट स्तर का पीने का पानी और बढ़िया सफाई सेवाएं प्रदान करती है। इसके आत्मनिर्भर, स्वतंत्र सहकारी दरजे और इसके सदस्यों की भागीदारी के कारण यह सेवा अनेक प्रकार से लाभान्वित हुई है। यह कंपनी राजनीतिक हस्तक्षेप से बची है और इस कारण अपनी योजनाओं को जारी रख सकी है। यह कंपनी अपने सदस्यों की लोकतांत्रिक सहभागिता पर आधारित है। सांताक्रूज दे ला सिएरा के संदर्भ में सैगुआपैक की आर्थिक और वित्तीय स्थिति उसे इस बात पर मजबूर कर रही है कि वह विकास की अपनी रणनीतिक योजना के प्रारंभिक वर्षों के लिए आर्थिक संसाधनों की तलाश करे ताकि उसका स्थायित्व सुनिश्चित हो सके। इसके लिए अपने वित्तीय कामों के लिए उसे राज्य की गारंटी की जरूरत है यद्यपि उसके वित्तीय दायित्व उपयोगकर्ताओं के शुल्कों से पूरे हो जायेंगे। एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि सैगुआपैक के सहकारिता दर्शन के अनुसार उसका मुख्य लक्ष्य मुनाफा कमाना नहीं बल्कि अपने सदस्यों का कल्याण करना है।
सैगुआपैक का मॉडल सार्वजनिक और निजी मॉडल का एक विकल्प है। उसे विश्व बैंक के 2003 जल सप्ताह में अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था। सैगुआपैक से प्रभावित हो कोबिजा, ट्रिनीडाड, तारिजा तथा बोलीविया के अन्य शहरों
ने भी अपने यहां जलापूर्ति सहकारिताएं स्थापित की हैं। यद्यपि ये नगर अभी सांताक्रुज जैसी कार्य कुशलता और स्थायित्व नहीं हासिल कर पाये हैं फिर भी यह स्पष्ट है कि इस मॉडल का प्रतिरूप बनाना संभव है।

लुइस फर्नांडो यवरी सैगुआपैक के योजना और व्यवस्था प्रबंधक हैं।
“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ..13...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

पोर्टो अलेग्रे का पानी : सार्वजनिक और सबके लिए 3 -हेलिओ माल्ट्ज

सफल सार्वजनिक पानी
इन अनेक वर्षों के दौरान डी.एम.ए.ई. की सफलता में नागरिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विमर्शी परिषद का गठन 1961 में हुआ था। उसने डी.एम.ए.ई. पर निगरानी रखने में समाज के अनेक क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व किया है और इसकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। विशेषकर सहभागिता बजट पर अमल डी.एम.ए.ई. को समाज के और करीब लाया तथा उसने सुविधा पर नियंत्रण में एक नया स्तर स्थापित किया। इसका कारण सिर्फ यही नहीं था कि यह वह बिंदु था जहां मांगें सुनी जाने लगी थीं बल्कि यह भी था कि प्रदान की गयी सेवाओं की गुणवत्ता की जांच करने में जनता भी शामिल होने लगी।

इसके साथ ही डी.एम.ए.ई. ने शहर में फैले अपने कार्यालयों के जरिये अपने उपभोक्ताओं से एक घनिष्ठ संबंध स्थापित किया। जनता की जिन बातों की सुनवाई होती थी उनमें यह भी शामिल था कि लोग बिल सम्बन्धी शिकायतें भी ला सकते थे और इन कार्यालयों में अपने बिल का आंशिक भुगतान कर सकते थे। यह निम्न आय वाले उपभोक्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण विकल्प है। वे टेलीफोन पर और एक वेबसाइट पर भी डी.एम.ए.ई. से संपर्क कर सकते हैं जहां उन्हें एक विफल सूचना भंडार उपलब्ध है। यहां यह भी देखा जा सकता है कि उनके यहाँ रख-रखाव सेवा कब होनी है, और वे यहां यह भी मालूम कर सकते हैं कि उन्होंने महीने भर में कितना पानी इस्तेमाल किया है।
हाल ही में पूरी दुनिया से चुने गये उन अनेक शहरों में पोर्टो अलेग्रे भी शामिल था जिनमें आगामी दस वर्षों में निवेश आकर्षित करने की जबर्दस्त क्षमता है। यह खबर इंग्लैंड की सलाहकार सेवा जोन्स लैंग लासाले द्वारा जारी की गयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट 'विश्व विजेता शहर' में प्रकाशित की गयी थी। उन्होंने 24 शहरों पर धयान केंद्रित किया था जिनमें से केवल एक -पोर्टो अलेग्रे- ब्राजील में था। 1 ब्राजील स्थित इसकी प्रवक्ता के अनुसार पोर्टो अलेग्रे का चयन इसलिए किया गया था क्योंकि आर्थिक रूप से विकसित होने के साथ ही सहभागी लोकतंत्र के लिए संदर्भ बिंदु के रूप में वहां जीवन की गुणवत्ता उत्कृष्ट है और कोई नया व्यापार शुरू करने के लिए वहां स्थितियां अच्छी हैं। यह समझना आसान है कि इस चयन पर एक सुसंचालित सार्वजनिक जल सुविधा का भी प्रभाव रहा ही होगा।
निजीकरण का खतरा एक प्रमुख बाधा रहा है जिसे डी.एम.ए.ई. को पार करना है। डी.एम.ए.ई. उन लोगों की दिलचस्पी का केंद्र है जो निजीकरण का समर्थन करते हैं। पोर्टो अलेग्रे में दस लाख से ज्यादा लोग रहते हैं और यह अकेली राजधानी है जिसके पास अब भी अपनी सार्वजनिक स्वामित्व वाली नागरिक सुविधा मौजूद है। यह बात इंटर अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक (आई ए डी बी) के साथ कर्ज संबंधी वार्ता के दौरान सामने आयी। आई.ए.डी.बी. ने डी. एम.ए.ई. को कंपनी में बदल देने और उसे नगरपालिका से अलग कर देने का जोरदार प्रयास किया था। इसके पीछे का उद्देश्य साफ था -निजीकरण। लेकिन सेवा ने इस कोशिश का दृढ़तापूर्वक विरोध किया और कर्ज भी प्राप्त कर लिया। उसने दिखा दिया कि डी.एम.ए.ई. कितनी सम्मानित संस्था है।
निजीकरण एक स्थायी खतरा है और डी.एम.ए.ई. को अपना बचाव करते रहना है। जितना अधिशेष हम बचाते हैं, निगम (कारपोरेशन) उतना अधिशेष, संभवत: उससे ज्यादा भी, बचा सकते हैं क्योंकि उनके कोई सामाजिक सरोकार नहीं हैं। वे शुल्क भी बढ़ा सकते हैं। फिर वे यह धन मुनाफे के रूप में अपने मुख्य कार्यालयों को भेज सकते हैं। इसके बजाय हम इस अधिशेष को वापस जनता को लौटा देते हैं जिसने यह धान, जल और सफाई सेवाओं के लिए एक बेहतर बनाये गये बुनियादी ढांचे के लिए दिया था।
हमारा यह भी विश्वास है कि यदि सहभागिता बजट रोक दिया जाता है तो इससे सरकार और समाज के बीच सम्बन्ध का एक महत्वपूर्ण पक्ष जनता से छिन जायेगा जबकि जनता ने ही इसे नये धरातल पर प्रतिष्ठित किया है।
सार्वजनिक जल सुविधाएं वास्तव में संभव हैं और सामाजिक, वित्तीय तथा तकनीकी दृष्टि से निगमों की तुलना में बेहतर हो सकती हैं। अत: यह स्पष्ट है कि पूरे विश्व में सभी सफल और व्यावहारिक सार्वजनिक जल सुविधाओं को पानी के निजीकरण का दृढतापूर्वक विरोध करने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए और उन्हें उन जल सुविधाओं को समर्थन और सहारा भी देना चाहिए जो उच्चतर मानक हासिल करने के लिए अब भी प्रयासरत हैं।

जल और स्वच्छता सेवाएं प्रदान करने के लिए बेहतर तरीका क्या है इस बात पर चर्चा करने के लिए पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर में अनेक सम्मेलन हुए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि वह तो पोर्टो अलेग्रे में लंबे समय से चल ही रहा है। यह एक ऐसा माडल है जो

यदि प्राकृतिक संसाधनों, विधान और पैमाने सम्बन्धी क्षेत्रीय दशाओं के अनुसार अनुकूलित कर दिया जाये तो पूरी दुनिया में लागू किया जा सकता है।

हेलिओ माल्ट्ज जल और स्वच्छता के नगरीय विभाग
(दिपार्टमेंतो म्यूनिसिपल दे अगुवा ए एस्गोतोस-डी.एम.ए.ई.) से संबध्द हैं।

इस विभाग से http://www.dmae.rs.gov.br/ पर संपर्क किया जा सकता है।
“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ0012...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

पोर्टो अलेग्रे का पानी : सार्वजनिक और सबके लिए 2 -हेलिओ माल्ट्ज

सफल सार्वजनिक पानी

इस सेवा में कर्मचारियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने तकनीकी कठिनाइयों का सामना किया है जैसे बड़े पैमाने पर सुनहरी सीपियों के फैलाव की समस्या जिसने महत्वपूर्ण पाइपों और अन्य सुविधाओं को अवरुद्ध कर दिया था। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए किये गये शोध ने डी.एम.ए.ई. को इस विषय पर देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूचना संदर्भों में से एक बना दिया।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान डी.एम.ए.ई. ने अपने सूचकांकों को बढ़ते देखा है। 1989 में लगभग 94.7 प्रतिशत आबादी को जलापूर्ति की जाती थी। सन् 2001 तक यह प्रतिशत बढ़कर 99.5 प्रतिशत हो गया। यह आंकड़ा अब तक बना हुआ है। जहां तक सफाई की बात है, 1990 में 73 प्रतिशत आबादी को सफाई (सीवेज कलेक्शन) की सुविधा प्राप्त थी। यह आंकड़ा 2004 में बढ़कर 84 प्रतिशत हो गया। सीवेज शोधन के क्षेत्र में विकास और अधिक उल्लेखनीय है। 1989 में 2 प्रतिशत आबादी को यह सेवा प्राप्त थी। पाँच नये संयंत्रों के निर्माण के कारण 2002 तक यह संख्या बढ़कर 27 प्रतिशत हो गयी। फिलहाल डी.एम.ए.ई. की योजना गंदे पानी के शोधन के लिए एक नया शोधन संयंत्र बनाने की है जिसका उद्देश्य शोधन सूचकांक को पांच वर्षों में 77 प्रतिशत तक पहुंचा देने का है।

यह प्रदर्शित करना महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक भागीदारी ने मुख्यत: एक सहभागी बजट के जरिये डी.एम.ए.ई. की सेवाओं को कैसे प्रभावित किया है। जहां नगर की आबादी पिछले दस वर्षों में लगभग 8.5 प्रतिशत बढ़ी है वहीं घरों के जल कनेक्शनों में लगभग 23 प्रतिशत वृद्धि हुई है और जिन घरों को सीवेज संग्रह संबंधी सफाई सेवा प्राप्त है वे बढ़कर 40 प्रतिशत हो गये हैं। यह नीचे दी गयी तालिका में प्रदर्शित किया गया है।

1994 2004 विकास
निवासी 1.294.506 1.404.670 8.51 प्रतिशत
पानी के कनेक्शन वाले घर 459.706 565.358 22.98 प्रतिशत
सफाई सीवेज संग्रह की 342.178 480.114 40.31 प्रतिशत
सेवा प्राप्त घर
स्रोत : डी.एम.ए.ई. तथा आई.बी.जी.ई. (ब्राजीलियन इंस्टीटयूट फॉर स्टेटिस्टिक्स)

1989 तक डी.एम.ए.ई. प्राथमिक तौर पर व्यापारिक केंद्रों और धनी इलाकों को सेवाएं प्रदान करती थी लेकिन जब 16 क्षेत्रों में लोगों ने अपनी मांगों पर चर्चा करना और मतदान करना शुरू किया तो दूरदराज के और निर्धन इलाकों में भी पानी और सफाई में निवेश किया गया। इस तरह अब पानी हर व्यक्ति की पहुंच में आ गया।
इसका एक सीधा परिणाम यह हुआ कि शहर में पानी के जरिये फैलने वाले रोग काफी हद तक कम हो गये। उदाहरण के लिए ब्राजील में अभी हाल के वर्षों में कालरा का प्रकोप हुआ था लेकिन पोर्टो अलेग्रे में कालरा का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ। सीवरों में कालरा के विषाणु (विब्रिओ कालेरी) की शिनाख्त होने पर डी.एम.ए.ई. की उच्च स्तर पर नियंत्रित जल शोधन व्यवस्था ने इस रोग को रोकने में एक अवरोध बाड़ का काम किया।

ये सभी उदाहरण उस ठोस प्रबंधन का परिणाम हैं जिसने अपने प्रयास डी.एम.ए.ई. को वित्तीय रूप से समर्थ बनाये रखने पर और इस प्रकार उसे अपने अधिशेष धान का पानी और सफाई सुविधाओं में फन: निवेश करने में समर्थ बनाने पर केंद्रित किये हैं। पिछले सात वर्षों में निवेश किया गया 70 प्रतिशत धन शुल्क संग्रह से मिला था। यह उपलब्धि लागत मूल्यांकन और व्यय प्रबंधन के साथ एक मजबूत आतंरिक नियंत्रण नीति के कारण हुई। डी.एम.ए.ई. अपनी सेवाओं का और अधिक विस्तार कर सकती थी किंतु 1997 से 2003 तक राष्ट्रीय कर्ज बैकों से उसे अपनी सामर्थ्य लायक कर्ज नहीं मिले थे क्योंकि इन बैंकों का रुझान ब्राजील में जल क्षेत्र के निजीकरण में सहायता देने की ओर था।
सन् 2000 के खत्म होते होते कांग्रेस के समक्ष एक कानून प्रस्तावित किया गया जिसका स्पष्ट लक्ष्य जल का निजीकरण था। डी.एम.ए.ई. उस राष्ट्रीय प्रतिरोध आंदोलन के हरावल दस्ते में था जो इसको रोकने में सफल रहा। प्रस्ताव वापस ले लिया गया। वर्तमान राष्ट्रीय सरकार का 2003 में हुआ। इस सरकार के तहत एक नयी कानूनी परियोजना पर, जो पानी, सफाई, ठोस कचरा और तूफानी पानी के लिए राष्ट्रीय विनियमन चाहती है, देशव्यापी चर्चा चलायी जा रही है। इसके बाद ही इसे संसद के पास भेजा
जायेगा।
नयी नीति राजकीय और नगरीय जल सुविधाओं को साथ-साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित करती है लेकिन नगरीय प्रशासन को ब्राजीली संविधान के अनुसार स्वतंत्र रूप से काम करने अथवा एक दीर्घकालीन अनुबंध पर आधारित सरकारी सेवा को कमीशन करने का विकल्प अपनाने की अनुमति भी देती है।
नये कानून के मुख्य उद्देश्यों में से एक सार्वजनिक अथवा निजी जल सुविधाओं के विनियमन और सामाजिक नियंत्रण दोनों को बढ़ावा देना है। इसके लिए कानून के बाद मिलने वाली सुविधाओं को भी कर्ज प्रस्तावों से जोड़ दिया जायेगा।
परियोजना ने जिस चीज का प्रस्ताव किया डी.एम.ए.ई. ने स्वयं को पहले ही उसके अनुकूल बना लिया है। मुख्यतया सामाजिक नियंत्रण के मामले में वह भाड़े पर एक परामर्शी सेवा से सुविधा के प्रशासन सम्बन्धी सुधार के प्रस्ताव पर काम करा रही है।
हमारी शुल्क संरचना मजबूत क्रास सब्सिडी पर आधारित है। कम आमदनी वाले लोगों के लिए एक सामाजिक शुल्क तय है। उन्हें प्रति माह दस क्यूबिक मीटर पानी इस्तेमाल करने का अधिकार है किंतु वे भुगतान केवल चार क्यूबिक मीटर के लिए करते हैं।
सामाजिक शुल्क के अतिरिक्त तीन भिन्न दरें भी हैं। जो लोग केवल बुनियादी जरूरतों के लिए पानी का इस्तेमाल करते हैं (वे प्रति माह 20 क्यूबिक मीटर तक पानी का इस्तेमाल करते हैं) उन्हें उन लोगों द्वारा काफी आर्थिक सहायता दी गई है जो प्रति माह बीस से एक हजार क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल करते हैं। 20 से 1000 क्यूबिक मीटर तक पानी इस्तेमाल करने वाले समूहों के लिए शुल्क बहुत तेजी से बढ़ सकते हैं और इसके बाद शुल्क बहुत ऊंचे हो जाते हैं। हवाई अड्डे, शापिंग सेंटर और उद्योग जैसे बड़े उपभोक्ता इस श्रेणी में आते हैं। उदाहरण के लिए धनी लोगों को, जो सिर्फ अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए ही नहीं बल्कि अपने तरण-तालों के लिए भी पानी का इस्तेमाल करते हैं, निर्धन लोगों के लिए पानी की सब्सिडी देनी पड़ती है। इस शुल्क संरचना के साथ हम पानी और सफाई सेवाओं के रख-रखाव और विस्तार के काम में पर्याप्त धनराशि का निवेश कर सकते हैं। इससे हमारे वार्षिक बजट का लगभग 15 से 25 प्रतिशत वार्षिक अधिशेष मिलता है जो नये निवेशों में लगाया जाता है।
यही वह बिंदु है जहां लोग अगले वर्ष के सहभागी बजट चक्र में भागीदारी करते हैं। लोग अपनी मांगें लेकर आते हैं, उन पर चर्चा करते हैं, मतदान करते हैं और फिर इस मूल्यांकन के बाद कि मांगें तकनीकी रूप से व्यावहारिक हैं, वे मांगें अगले वर्ष के म्यूनिसिपल बजट में शामिल कर ली जाती हैं। जलकलों (वाटर वर्क्स) का परीक्षण डी.एम.ए.ई करता है।

सरोकार रखने वाले नागरिकों का एक समूह काम के दौरान ठेकेदारों के साथ-साथ रहने और उनके काम पर निगाह रखने के लिए नियुक्त किया जाता है ताकि निर्णय करने से लेकर धान के इस्तेमाल तक की प्रक्रिया जनता की देख-रेख में हो। यह समाज द्वारा नियंत्रण रखने की पूरी कार्रवाई है। सहभागिता बजट पर अमल ने डी.एम.ए.ई. को ठीक उसी तरह बदल दिया है जैसे शहर की जरूरतों को पूरा किये जाने की अवधारणा बदली है। डी.एम.ए.ई. के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को अपना ध्यान जनता की मांगे सुनने पर और उनकी मांगों पर कार्रवाई को आगे बढ़ाने पर केंद्रित करना होता है। इससे हमारे प्रबंधन के तरीके में जबर्दस्त बदलाव आया है। परिणामस्वरूप, धान कहां लगाया जायेगा, यह अब हम नहीं तय करते- जनता अपनी मांगों पर चर्चा करती है और अगर वे मांगें तकनीकी दृष्टि से संभव हैं तो उन्हें अगले वर्ष के बजट में शामिल कर लिया जाता है।

डी.एम.ए.ई. प्रशासकों को यह भी मालूम है कि उन्हें ऐसे कर्मचारियों की जरूरत है
जो उत्साही हों और जनता की जरूरतों को पूरा करने में ऊंचे मानदंड हासिल कर सकते हों। इसलिए हर साल शिक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, बीमा, परिवहन तथा अन्य क्षेत्रों में काफी ज्यादा निवेश किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप अनेक कर्मचारियों को हाईस्कूल अथवा विश्वविद्यालय में वजीफे मिले हैं और प्रबंधकीय तथा तकनीकी विषयों के प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों तक उनकी पहुंच संभव हुई है और उन्होंने सामाजिक उत्तरदायित्व के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। इन निवेशों का नतीजा एक सामाजिक लेखे-जोखे में विस्तार से दिया जाता है जो सन् 2000 से प्रतिवर्ष प्रकाशित किया जाता है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 11...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

पोर्टो अलेग्रे का पानी : सार्वजनिक और सबके लिए 1 -हेलिओ माल्ट्ज

सफल सार्वजनिक पानी

दुनिया भर में अपने सहभागितापूर्ण लोकतंत्रके लिए सुप्रसिद्ध पोर्टो अलेग्रे ब्राजील के सबसे दक्षिणी राज्य रियो डो सुल की राजधानी है। पोर्टो अलेग्रे को इस बात का भी गौरव प्राप्त है कि वह उस सफल सार्वजनिक जल और सफाई सुविधा डी.एम.ए.ई का गृहस्थल भी है जो निजीकरण की प्रवृत्ति का विरोध करने के लिए एक मॉडल बन गई है।

सन् 2004 में पोर्टो अलेग्रे को ब्राजील की राजधानी बनाने पर विचार किया गया था क्योंकि वहां जीवन की गुणवत्ता सर्वोच्च थी और मानव विकास सूचकांक सर्वश्रेष्ठ। निश्चय ही पानी और सफाई का इन दोनों बातों से कुछ सरोकार तो है ही।

डी.एम.ए.ई. सार्वजनिक स्वामित्व वाली जल सुविधा है जो पानी और सफाई के कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक एकता पर गहन रूप से केंद्रित है और पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े नगर विकास के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रशासनिक और वित्तीय दृष्टि से नगर प्रशासन से स्वतंत्र है लेकिन राजनीतिक और विनियामक मुद्दों पर उसके अधीन है। पोर्टो अलेग्रे में पानी और सफाई का इतिहास 1800 के दशक के प्रारंभिक वर्षों से शुरू होता है। 1961 तक पानी और सफाई का प्रबंधन केंद्रीय प्रशासन के नगरीय विभाग द्वारा किया
जाता था। जब नगर ने 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में जल सेवाओं के विस्तार के लिए एक कर्ज लेने का फैसला किया तो नगर परिषद ने जल विभाग को एक स्वायत्त रूप से प्रशासित, वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर और नगरपालिका के स्वामित्व वाली सुविधा में रूपांतरित करने का फैसला किया। ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि इंटर अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक (आई.ए.डी.बी.) ने कर्ज की वापसी पर गारंटी की मांग की थी। इस निर्णय से डी.एम.ए.ई. को भवन की कीमत के हिसाब से लगाये जाने वाले संपत्ति कर से जल उपभोग पर आधारित शुल्क की ओर जाने की अनुमति मिल गयी।
वित्तीय रूप से स्वतंत्र होने के साथ ही डी.एम.ए.ई. के निर्माण की कुछ अन्य
विशेषताएं भी महत्वपूर्ण थीं जैसे कि विमर्शी परिषद का सक्रिय होना। यह 40 से अधिक वर्षों से एक महत्वपूर्ण इकाई रही है और समाज द्वारा 'सामाजिक नियंत्रण' को अमल में लाती है जिसके कारण विभाग का अपने प्रशासनिक कामों में पूरी तरह पारदर्शी होना संभव होता है। जिन महत्वपूर्ण विशेषताओं के कारण डी.एम.ए.ई. जल निजीकरण का एक अंतर्राष्ट्रीय वैकल्पिक मॉडल बन गयी है, वे हैं- वित्तीय और तकनीकी दोनों अर्थों में इसकी सामर्थ्य और सुरक्षित जल व पर्यावरण की सुरक्षा के संदर्भ में इसकी जवाबदेही। लेकिन इसकी एक बहुत महत्वपूर्ण और विशिष्ट विशेषता है सहभागी बजट सम्बंधी निर्णय लेने की जनतांत्रिक प्रक्रिया।

1994 तक ब्राजील की अर्थव्यवस्था में मौद्रिक परिवर्तनों और जबर्दस्त मुद्रास्फीति के कारण बारबार आकस्मिक परिवर्तन आते रहे। इसके बावजूद डी.एम.ए.ई. नगर सेवा को बनाये रख सकी थी और उसका विस्तार कर सकी थी। यह इस बात का एक और प्रमाण है कि सुसंचालित सार्वजनिक सेवा कठिन परिस्थितियों में भी सफल होने में सक्षम होती है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 10...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

पानी निजीकरण की शुरूआती कम्पनियां फ्रांसीसी ही थीं

उत्तरी अतीत और दक्षिणी वर्तमान
वैकल्पिक नीतियां और संरचनाएं विकसित करने में अभियान दो मुख्य प्रेरणास्रोतों पर निर्भर रहे हैं। एक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के अधिकांश के लिए विकसित देशों में सार्वजनिक क्षेत्र मॉडल की ऐतिहासिक सफलता यानी ''उत्तरी अतीत''। दूसरा, दक्षिण में जनतांत्रिक संरचनाओं के नए रूपों का उदय, विशेषकर ब्राजील और भारत में सहभागिता वाले लोकतंत्र के लिए की गई पहल-कदमियां यानी ''दक्षिणी भविष्य''।

भ्रमवश निजीकरण पर बहुत ध्यान दिये जाने के पीछे उत्तरी अनुभव था जिस पर फिर से विचार किया गया। निजीकृत पानी का विस्तार क्षेत्र और युग बहुत संकीर्ण, हाल ही का और बहुत संक्षिप्त है। 1990 से पहले फ्रांस से बाहर, स्पेन और इटली के कुछ शहरों और पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों के अतिरिक्त कोई अन्य स्थान जल के निजीकरण के अनुभव से नहीं गुजरा था, न ही लगभग एक शताब्दी तक इसके बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया गया था। यूरोप और उत्तरी अमेरिका का समान अनुभव उन्नीसवीं सदी के मध्य के निजी ठेकेदारों की जगह नगरीय जल सेवाओं को लाने का था क्योंकि नगर-पालिकाएं इन सेवाओं का आवश्यक विस्तार अधिक कुशलतापूर्वक और प्रभावशाली ढंग से कर सकती थीं।

केवल फ्रांस में ही उन्नीसवीं सदी के ये ठेकेदार बचे रह सके और अपने को एक निजी अल्पविक्रेताधिकार (ओलिगोपोली) के रूप में संगठित और मजबूत कर सके। यही कारण है कि इंग्लैंड में थैचर सरकार द्वारा पानी और अन्य सुविधाओं का विचारधारा प्रेरित निजीकरण किये जाने तक अकेली बड़ी निजी कम्पनियां फ्रांसीसी ही थीं।

साम्यवादी देशों, और औपनिवेशिक ताकतों से आजाद हुए देशों ने भी सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से नगरीय, क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय स्वामित्व के जरिये जल सेवाओं का विकास किया। ऐतिहासिक दृष्टि से सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाएं संपूर्ण शहरी यहां तक कि ग्रामीण आबादी तक भी जल और सफाई सेवाएं पहुंचाने के लिए अत्यंत सफल मॉडल हैं। हाल के वर्षों में निजीकरण की वकालत के बावजूद यूरोपीय संघ और अमेरिका की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी को सार्वजनिक संचालक ही ये सेवाएं प्रदान करते हैं।

दक्षिण में नए जनतांत्रिक रूपों का उदय हुआ है जो सहभागिता और विकेंद्रीकरण पर जोर देते हैं। भारत में निर्वाचित ग्राम परिषदों की एक व्यापक व्यवस्था है-'पंचायत'। केरल राज्य में वाम मोर्चा सरकार ने विकेंद्रीकरण और सहभागिता के एक कार्यक्रम की शुरूआत की जिसके तहत राज्य के बजट का लगभग 40 प्रतिशत पंचायतों को जाता है, नागरिकों को हर दस्तावेज देखने का अधिकार है और बजट की प्राथमिकताएं सार्वजनिक सभाओं की श्रृंखला के जरिये तय की जाती हैं। ब्राजील में, पार्तिदो दोस त्रबलहादोरस (पी.टी.- मजदूरों का दल) ने नगरपालिकाओं में विकेंद्रीकरण और सहभागिता की ऐसी ही व्यवस्था विकसित करने की नीतियां अपनायी हैं जहां नगरपालिकाओं को ''सहभागिता-बजट निर्माण'' (ओरकामेंतो पार्तिसिपातिवो) के रूप में जानी जाने वाली व्यवस्था के माध्यम से सत्ता प्राप्त होती है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 9...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

अलोकतांत्रिक शासनों की विफलता - वजह पानी का निजीकरण

सभी अभियानों में एक तत्व समान रहा है-निजीकरण की अवधारणा की समीक्षा, उसकी आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं और निर्धनों तक सेवाएं पहुंचाने में उसकी असफलता की समीक्षा। लेकिन इन अभियानों को पूर्ववर्ती वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के, विशेषकर विकासशील देशों में, संचालकों (आपरेटरों) की असफलताओं और सीमाओं को भी स्वीकार करना पड़ा। 1980 के दशक में विशेषकर ये संरचनाएं विकास बैंकों द्वारा कर्ज
उपलब्ध कराये जाने के बावजूद जल सेवाओं का उल्लेखनीय विस्तार कर पाने में व्यापक रूप से असफल रही थीं और 1990 के दशक की निजीकरण की नीतियों को न्यायसंगत ठहराने में इन असफलताओं की आड़ ली गई थी।

लेकिन इन असफलताओं का दोष इस तथ्य पर मढ़ना बहुत भोंडा बहाना है कि पानी सार्वजनिक स्वामित्व के तहत था। अनेक विकासशील देश इस अवधि में तानाशाहियों और भ्रष्ट शासनों के अधीन थे जिनमें पारदर्शिता की तो बात ही छोड़ें मानवाधिकारों और जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति भी एक अवमानना का भाव था। ये शासक किसी के प्रति जवाबदेह न थे। ऐसे में गरीबों को दी जाने वाली सेवाओं की हालत खराब हुई और भ्रष्ट शासनों ने पानी के लिए लिये गये कर्जों से खुद को लाभान्वित किया। निजीकरण की शुरुआत इन्हीं अलोकतांत्रिक शासनों में फली-फूली। स्वेज उस दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थी जहां रंगभेद छाया था। जकार्ता के पानी के निजीकरण का प्रबंधा भ्रष्ट तरीकों से सुहार्तो की तानाशाही ने किया था। कैसाब्लांका की सुविधाओं के निजीकरण का इंतजाम नगर परिषद द्वारा आयोजित प्रतिस्पर्धात्मक टेंडर द्वारा नहीं बल्कि शाह हसन के एक आदेश द्वारा हुआ था। इन कम्पनियों ने जो अनुबंध हासिल किये थे उन्हें गोपनीय रखा गया था, यहां तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी उन्हें नहीं देख सकते थे। यह ग्दान्स्क (पोलैंड) और बुडापेस्ट (हंगरी) जैसे शहरों में विशेष रूप से विडंबनापूर्ण था जो अलोकतांत्रिक साम्यवादी शासन से एक तथाकथित अधिक जवाबदेह जनतांत्रिक व्यवस्था में संक्रमण के दौर से गुजर रहे थे।

इसलिए 1980 के दशक में सार्वजनिक क्षेत्र की असफलताओं की समस्या को
सार्वजनिक क्षेत्र की समस्या मानने के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र में जनतांत्रिक प्रक्रिया के अभाव के रूप में देखा जा सकता है। सैनिक तानाशाही की समाप्ति के बाद ब्राजील का अनुभव इसकी पुष्टि करता है। नये जनतंत्र के अवसरों का लाभ अनेक तरह से उठाया गया जिसमें नये क्षेत्रों तक पानी और सफाई की आपूर्ति का विस्तार करने की नई दृष्टियां शामिल हैं। स्वयं तानाशाहियों द्वारा समर्थित निजीकरण ने नहीं बल्कि इन पहलकदमियों ने जनतंत्र पर आधारित एक नये रवैये की आवश्यकता तथा जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली सार्वजनिक सहभागिता के एक स्तर की जरूरत की ओर संकेत किया।

यही विश्लेषण विकास बैंकों और दानकर्ताओं की इन शिकायतों के संदर्भ में भी लागू किया जा सकता है कि सरकारें अन्य नीतियों की तुलना में पानी को समुचित प्राथमिकता नहीं देतीं, मानो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रबुद्ध नौकरशाहों की तुलना में विकासशील देशों की सरकारों और जनता को पानी और सफाई की कम परवाह है। दरअसल, समस्या जनता द्वारा पानी और सफाई सेवाओं की मांग के अभाव की नहीं है बल्कि इस मांग को पूरा करने में सरकारों की असफलता की है। 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में ब्राजील में राष्ट्रीय स्वच्छता नीति के लिए एक बहुत व्यापक जनाधार वाला अभियान चला था जिसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आई.एफ.आई.) के चहेते उम्मीदवार कारडोसो ने 1995 में राष्ट्रपति बनते ही अचानक खारिज कर दिया। इसकी जगह उसने टुकड़ों-टुकड़ों में निजीकरण को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई जो सरकार द्वारा कर्ज लेने को प्रतिबंधित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्राथमिकताओं के अनुरूप थी। इसके कारण पानी (तथा बिजली जैसी अन्य बुनियादी जरूरतों) में बहुत कम निवेश हुआ। अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भी इस बात को स्वीकार करता है।
जब लटविया सोवियत संघ के अधीन था तब भी वहां बेकार पानी के शोधन यंत्रों के लिए अभियान चले थे। नगरों के आस-पास की बस्तियों में जहां सरकार आवश्यक सेवाएं प्रदान करने मे असफल रहती है वहां, जैसे पाकिस्तान में ओरांगी में, लोगों ने पानी और सफाई योजनाएं बनाने के लिए अपनी खुद की मेहनत और बचावों का इस्तेमाल करने की इच्छा प्रदर्शित की है।

सरकारों की प्रभावहीनता को, इस प्रकार, राजनीतिक प्रक्रियाओं की असफलता के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है जो स्वयं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की नीतियों द्वारा और तीव्र कर दी जाती हैं। वास्तविक समस्या जनतांत्रिक प्रक्रिया के अभाव की रही है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 8...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

अभियानों की प्रतिक्रिया: पानी के निजीकरण के विरुद्ध अभियान पूरी दुनिया में

पानी के निजीकरण के विरुद्ध अभियान पूरी दुनिया में चल रहे हैं। पोलैंड और पनामा जैसे एक दूसरे से एकदम भिन्न देशों में नगरपालिका से राष्ट्रीय स्तर तक के चुनावों में निजीकरण एक केंद्रीय मुद्दा रहा है। ये अभियान खास ढंग से व्यापक जनाधार वाले हैं और उनमें विभिन्न समूह शामिल हैं-यूनियनें, पर्यावरणवादी, उपभोक्ता, व्यापारी परिषदें (फिलीपींस में निजीकरण के बाद होने वाली मंहगाई के कारण उद्योगपतियों ने निवेश वापस लेने की धमकी दी है), महिलाओं के संगठन (उदाहरण के लिए जिन्होंने उक्रेन के क्रीमियायी क्षेत्रमें पानी के निजीकरण के विरोध का नेतृत्व किया था), राजनीतिक दल और धार्मिक निकाय।

इन अभियानों ने प्राय: उन निकायों को एकताबद्ध किया है जो सामान्यतया एक दूसरे के विरुद्ध संघर्षरत रहते हैं। पोलैंड में प्रतिद्वंद्वी श्रम संघ संगठनों ने कंधो से कंधा मिलाकर लोद्ज में पानी के निजीकरण के विरुद्ध सफलतापूर्वक अभियान चलाया। उत्तरी आयरलैंड में आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और ब्रिटेन के संघवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल पानी के निजीकरण विरोधी अभियान में साथ-साथ बैठते हैं जबकि राजनीतिक कार्यकारी निकायों में वे मिलकर काम करने से इन्कार करते हैं।

इस विरोध के कारण भी अनेक हैं। एक कारण है निजीकरण के बाद आसमान छूती महंगाई का अनुभव। एक अन्य कारण है नौकरियां खोने और श्रम संघों के कमजोर होने का डर। एक और कारण किसी निजी कम्पनी की विश्वसनीयता और किसी नगरपालिका की तुलना में उसे प्रभावित करने अथवा उसकी पड़ताल करने में सामने आने वाली कठिनाई से जुड़ा है। एक चौथा कारण यह विश्वास है कि एक पर्यावरणीय वस्तु और सार्वजनिक सेवा दोनों रूपों में पानी सार्वजनिक क्षेत्र की चीज है। अंत में, एक मान्यता यह भी है कि जलापूर्ति सेवाओं का विकास करने के सामाजिक आर्थिक कारणों के लिए किसी सार्वजनिक प्राधिकरण की प्रतिबद्धता की जरूरत है न कि उन निजी इकाइयों की जिनका ध्यान अपनी मुनाफा दर पर ही केंद्रित रहता है।

ये अभियान विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में हुए हैं। यहां तक कि इंग्लैण्ड में भी पानी के निजीकरण के विरुद्ध एक शक्तिशाली अभियान चला था जिसने थैचर को चुनाव हो जाने तक निजीकरण को टालने पर मजबूर कर दिया था।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 7...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

विश्वबैंक के पानी निजीकरण की अवधारणा की अलोकप्रियता

विश्वबैंक के पानी निजीकरण की अवधारणा की अलोकप्रियता व्यापक रूप से उसके परिणामों के अनुभवों के कारण है। जो वादा किया गया था, परिणाम उससे भिन्न हैं। कंपनियां आशा के अनुरूप पूंजीनिवेश करने में असफल रही हैं। आंतरिक ढांचों में निजी निवेश 1990 के दशक के अंत तक कम हो रहे थे और विकास बैंकों का पूंजीनिवेश भी घट रहा था। कीमतें बढ़ीं हैं जो पूंजी पर कंपनियों की जरूरत के मुनाफे को प्रतिबिंबित करती हैं। जब अनुबंधों में सुनिश्चित किए गए लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो उन्हें पूरा करवाने के बजाय अनुबंधों में संशोधन कर दिया गया। कंपनियों के व्यवहार को नियंत्रित कर सकने के लिए विनियामकों के पास न अधिकार थे और न क्षमता। मुद्रा की गतिविधियों और आर्थिक संकटों ने इन विरोधाभासों को और तीखा कर दिया : अर्जेटीना के निजीकृत जलसंस्थान अब दिवालिया हैं। लैटिन अमेरिका में निजी जल रियायतों को दिये गये पूरे ध्यान और समर्थन के बावजूद जहां तक गरीबों तक सेवाएं पहुंचाने की बात है उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र से बेहतर काम नहीं किया। दो बड़े एशियाई शहरों मनीला और जकार्ता में, जहां निजी कंपनियां कार्यरत थीं, पानी की कमी का स्तर उन अधिकतर शहरों की तुलना में बहुत खराब है जहां पानी का प्रबंधन सार्वजनिक रूप से होता है। अत: विकासशील देशों में उपभोक्ताओं, मजदूरों, पर्यावरणविदों, नागरिक समाज के अन्य समूहों तथा राजनीतिक दलों की ओर से पानी के निजीकरण का प्रबल विरोध हो रहा है और यह विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है।

नाममात्र के फायदों, अनपेक्षित जोखिमों और राजनीतिक विरोध के कारण बहुराष्ट्रीय जल कम्पनियों ने अपने घाटे कम करने का निश्चय किया है। जनवरी 2003 में सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी स्वेज ने घोषणा की कि वह विकासशील देशों में अपने मौजूदा निवेशों का एक तिहाई हिस्सा हटा लेगी। वेओलिया तथा टेम्स वाटर भी अनुबंधों से हट रही हैं।
घाटे पूरे करने और अपने अपेक्षित मुनाफों का दावा करने के लिए ये तीनों कंपनियां राजनीतिक और कानूनी कार्रवाइयों का इस्तेमाल कर रही हैं।

विश्व बैंक ने जल सेवाओं के विस्तार के लिए प्रत्यक्ष निवेश करने में निजीकरण की विफलता की बात स्वीकार की है। उसने निजी कम्पनियों को अधिक मजबूत गारंटियां प्रदान करने के लिए नये उपकरण ईजाद किये हैं और अब वह इस क्षेत्र में व्यापार अवसरों के अन्य रूपों की तलाश कर रहा है जैसे शहरों के आस-पास के क्षेत्रों में पानी बेचने वालों को फ्रेंचाइजी देना। लेकिन विश्वबैंक, अन्य विकास बैंक तथा दानकर्ता सार्वजनिक क्षेत्र की जल-कम्पनियों को सहारा देने में अब भी हिचकिचाते हैं जबकि पूरी दुनिया की 90 प्रतिशत जल और सफाई सेवाओं की जिम्मेदारी इन्हीं कम्पनियों पर है।
कम्पनियों और विश्व बैंक की इन प्रतिक्रियाओं का सरोकार उनकी अपनी चिंताओं से तो है किंतु वे उन लोगों के लिए कुछ नहीं करतीं जिन्हें ऐसी जलापूर्ति और सफाई व्यवस्था चाहिए जो उनकी पहुंच के भीतर हो। इसके लिए नये तरीके उन्हीं अभियानकर्ताओं की ओर से आये हैं जो निजीकरण का विरोध करते हैं।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 6...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

निजीकरण असफल हुआ है -डेविड हॉल

यह भूमिका पुस्तक को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखने का प्रयास है। यह संदर्भ कुछ ऐसे अनुभवों और प्रतिक्रियाओं का सुनिश्चित समूह है जिसकी कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं: असफल निजीकरण, व्यापक रूप से फैले अभियान, सार्वजनिक क्षेत्र की कमजोरियों की समीक्षा तथा पहले के उत्तरी सार्वजनिक क्षेत्र के मॉडलों से सबक लेते हुए नयी संरचनाओं का उदय और नये, सहभागिता वाले लोकतंत्र के दक्षिणी रूप।

निजीकरण असफल हुआ है
1990 का दशक पानी के निजीकरण का दशक था। पानी के निजीकरण ने अपनी विफलता सिद्ध कर दी है। निजीकरण से अपेक्षा की गई थी कि यह अधिक कार्यकुशलता लायेगा और इसके कारण दाम कम होंगे, यह विशेषकर विकासशील देशों में बड़े स्तर पर पूंजीनिवेश को आकृष्ट करेगा, और उन गरीब लोगों तक पानी और सफाई सेवा पहुंचायेगा जिन्हें अभी ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। लेकिन वास्तविक अनुभव फर्क रहा है। 1990 के दशक में निजी जल कंपनियों के विस्तार को विश्व बैंक तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने विकासशील और संक्रमणकालीन देशों को अधिक बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्थाओं में रूपांतरित करने की नीतियों के अंग के रूप में समर्थन दिया था। पूर्वी यूरोप के संक्रमणकालीन देशों में इन कंपनियों ने जल रियायतों की एक लहर के साथ प्रवेश किया: चेक गणतंत्रऔर हंगरी मेंऋ लैटिन अमेरिका में विशेषकर अर्जेटीना में जहां कई प्रमुख शहरों का निजीकरण हो गया था, इसमें ब्यूनोज आयर्स में अगुअस-अर्जेंटीनास को दी गई जबर्दस्त रियायतें शामिल थीं. एशिया में (दो प्रमुख नगरों मनीला और जकार्ता के निजीकरण सहित) और अफ्रीका में जहां पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों में विशेषकर कोट देल वोयरे तथा दक्षिण अफ्रीका के कुछ कस्बों में रियायतें प्राप्त की गईं। हेग में सन् 2000 में विश्व जल मंच के आयोजन के समय तक विश्वबैंक के वरिष्ठ अधिकारी पानी के निजीकरण को ऐतिहासिक रूप से अपरिहार्य बता रहे थे और तर्क दे रहे थे कि ''इसका कोई विकल्प नहीं है''।

जलापूर्ति और सार्वजनिक सफाई व्यवस्था के निजीकरण ने विभिन्न रूप ग्रहण किए हैं लेकिन उनका एक तत्व समान रहा है-काम का नियंत्रण और प्रबंधन निजी कंपनियों को हस्तांतरित करना और इस प्रकार उन्हें निजी पूंजी के लिए मुनाफे का स्रोत बना देना। इंग्लैंड में जल व्यवस्था को पूरी तरह निजी कंपनियों के हाथ बेच देने की शुरुआत हुई लेकिन अन्य जगहों पर निजीकरण के जिस रूप को आगे बढ़ाया गया वह रियायतों, लीज, अथवा प्रबंधान अनुबंधों (अथवा जलशोधान संयंत्रया जलागारों के लिए विशेष प्रकार की रियायतें जिन्हें 'बिल्ड-आपरेट-ट्रांसफर' (बी-ओ-टी) यानी ''बनाओ-चलाओ-हस्तांतरित करो'' योजना कहा जाता है) के जरिये निजीकरण पर आधारित था। यह सुनिश्चित रूप निजी कंपनियों के आदेश पर चलता रहा है। 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में रियायतों का पक्ष लिया जाता था किंतु सन् 2000 से कंपनियां लीज या प्रबंधान अनुबंधों के कम जोखिम वाले विकल्प को प्राथमिकता देने लगी हैं। इनसे अलग जिन अन्य विषयों को प्राथमिकता दी गई उनमें सार्वजनिक प्राधिकरणों के साथ संयुक्त उद्यम शामिल हैं जिन्हें इस तरह गठित किया जाता है कि निजी साझीदार को मुनाफा पाने के लिए आवश्यक स्वतंत्रता मिली रहे और इसलिए इन पर निर्विवाद रूप से निजी साझीदार का नियंत्रण रहे। ''सार्वजनिक-निजी साझेदारियां'' (पी पी पी) और निजी क्षेत्र भागीदारी (पीएसपी) जैसी अन्य अभिव्यक्तियां निजीकरण शब्द के प्रयोग से बचती हैं क्योंकि ''निजीकरण'' की अवधारणा अलोकप्रिय बन गई है और इसकी अलोकप्रियता बढ़ती जा रही है लेकिन वे अब भी निजी क्षेत्र के साथ समान किस्म के संविदागत संबंध से जुड़ी हैं।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 5...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

“लेके रहेंगे अपना पानी” के बाद ................अगले कदम

यह पुस्तक “लेके रहेंगे अपना पानी” अपने आप में एक उत्पाद मात्र नहीं है, न ही यह बस एक बौद्धिक व्यायाम भर है, बल्कि यह पुस्तक सामूहिक रूप से सीखने की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का हिस्सा है जिसका उद्देश्य जनतांत्रिक, न्यायपूर्ण, सार्वजनिक जल संसाधनों को ताकत देना है। हम सच्चे दिल से आशा करते हैं कि यह पुस्तक दुनिया भर के तमाम लोगों के लिए प्रेरणास्रोत तो बनेगी ही साथ ही यह पुस्तक में उठाये गये उन सभी महत्वपूर्ण सवालों पर चर्चा के साथ-साथ अनुभवों की भागीदारी को भी और आगे बढायेगी।
हमें आशा है कि नागरिक समाज के कार्यकर्ता और नागरिक इस बात पर ज्यादा से ज्यादा धयान देंगे कि सार्वजनिक सुविधाएं किस तरह दी जाती हैं। हमें यह भी आशा है कि ऐसी सार्वजनिक सुविधाएं, जो गरीब के वास्तव में काम आ सकें, सुनिश्चित करने के लिए बातचीत करने और उस पर अमल करने के काम में श्रम संघ अपना योगदान करेंगे। इस प्रक्रिया में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंधकों और जल विशेषज्ञों को साथ लेना होगा जिनमें से अनेक जनकेंद्रित सार्वजनिक जल के लिए सामने आ रहे अंतर्राष्ट्रीय अभियान गठबंधनों में पहले से काम कर रहे हैं।
हमारे साझा संसाधनों और बुनियादी मानव अधिकारों को निजी कंपनियों को सौंप देने का प्रयास करने वाली ताकतों का प्रतिरोध करने में हमारी सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा है विकल्प। हमें आशा है कि यह पुस्तक उन सबको उपयोगी उपकरण प्रदान करेगी जो कारपोरेट प्रेरित जल निजीकरण को रोकने और सार्वजनिक जल को वापस लेने के लिए संघर्षरत हैं।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 4...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

“लेके रहेंगे अपना पानी” पुस्तक के बारे में

पुस्तक के बारे में
परिचयात्मक अध्याय में पानी तक पहुंच संबंधी वैश्विक संकट की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ इस बात पर भी चर्चा की गई है कि 1990 के दशक में निजीकरण की लहर विफल क्यों हुई। इसके बाद 20 से ज्यादा अध्याय हैं (वेब प्रस्तुति में 100 से ज्यादा हिस्सों में) जो इस बात के ठोस उदाहरण और विचार प्रस्तुत करते हैं कि शहरी जलापूर्ति को लोकतांत्रिक सार्वजनिक सुविधा सुधारों के जरिये किस तरह बेहतर बनाया जा सकता है। ये सभी अध्याय सार्वजनिक जल सुविधा प्रबंधकों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं और इन प्रयासों से सीधे जुड़े अन्य लोगों द्वारा लिखे गए हैं। अनेक अध्याय विभिन्न राजनीतिक, वित्तीय तथा अन्य उन बाधाओं पर काफी जोर देते हैं जो इन रवैयों की सफलता की राह अवरुद्ध कर सकती हैं। सार्वजनिक जल समाधान जनता के उन प्रयासों से ही प्राप्त होंगे जो सबके लिए सुरक्षित और पहुंच के भीतर पानी सुनिश्चित करने के लिए किये जा रहे हैं। इन समाधानों की शक्ल क्या होगी यह भी इन प्रयासों से ही तय होगा। असफल होती निजी जलापूर्ति और अपर्याप्त, राज्य संचालित जल सुविधाओं के विरुद्ध नागरिक समाज के अभियानों पर कई अध्याय शामिल करने के पीछे एक कारण यह भी था। एक लेखक, ऐंटी प्राइवेटाइजेशन फोरम (निजीकरण विरोधी मंच) के डेल टी. मैककिनले के शब्दों में : ''दक्षिण अफ्रीका में जल निजीकरण विरोधी संघर्ष लगातार एक विकल्प के बीज बोता जा रहा है।''

अंत में, पुस्तक के अंतिम अध्याय में (वेब प्रस्तुति में 100 से ज्यादा हिस्सों के अंत में) उन कुछ सबकों को सार रूप में देने का प्रयास किया गया है जो प्रस्तुत किये गए अनुभवों से सीखे जा सकते हैं। इस अध्याय में इन उपायों को आगे बढ़ाने की राह में आने वाली मुख्य चुनौतियों को पहचानने का प्रयास भी किया गया है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 3...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

कार्यकर्ताओं के लिए एक जरूरी पुस्तक “लेके रहेंगे अपना पानी”

ओलवन्ना, केरल, (भारत) तथा सावेलुगु (घाना) में स्थानीय समुदायों ने जलापूर्ति व्यवस्था सुधारने के लिए अपनी क्षमताओं और स्थानीय संसाधानों का पूरा इस्तेमाल करते हुए यह काम अपने हाथ में ले लिया है।
इस संकलन-वेब प्रस्तुति का प्रेरक तत्व यह तथ्य है कि प्राय: सफल होने वाले इन प्रयोगों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। उन करोड़ों जरूरतमंद लोगों तक स्वच्छ जल की व्यापक पहुंच को संभव बनाने की चुनौती ऐसी है जिसके लिए जरूरी है कि इन प्रयोगों से मिलने वाले सबक सबको बताये जायें। हालांकि कोई ऐसा एक अकेला मॉडल नहीं है जो सब जगह, सब पर लागू हो जाये लेकिन इससे सार्वजनिक जलापूर्ति सेवाओं को कैसे सुधारा जाये और उनके विस्तार के तरीकों, उदाहरण के लिए जनकेंद्रित भागीदारी प्रक्रियाओं और सार्वजनिक जल सेवाकर्मियों को जलापूर्ति सेवा में शामिल करने के बारे में महत्वपूर्ण प्रेरणा मिल सकती है।
इस पुस्तक “लेके रहेंगे अपना पानी” में कुछ अध्याय निजीकरण को रोकने और जलापूर्ति का निजीकरण खत्म करने के लिए दुनिया भर में चल रहे संघर्षों पर भी हैं। इन अध्यायों में निजीकरण विरोधी गठबंधनों द्वारा विकसित इस आशय के व्यापक दृष्टिकोण भी समाहित हैं कि सार्वजनिक जल व्यवस्था कैसे कारगर हो।

क्योटो से पोर्टो अलेग्रे तक
क्योटो (जापान) में मार्च 2003 में आयोजित विश्व जल मंच (वर्ल्ड वाटर फोरम) जल विषयक अंतर्राष्ट्रीय बहस के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु था। पूरी दुनिया से आये नागरिक समाज समूह पानी के निजीकरण के खिलाफ बहुत भावावेश के साथ खुलकर बोले। उन्होंने दक्षिण तथा उत्तर दोनों में निजीकरण की नाटकीय असफलताओं के प्रमाण दिये। इन हस्तक्षेपों ने मंच के आयोजकों विशेषकर नव-उदारवादी विश्व जल परिषद (वर्ल्ड वाटर कौंसिल-डब्ल्यू.डब्ल्यू.सी.) के सार्वजनिक-निजी साझीदारियों (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप- पी.पी.पी.) को आगे बढ़ाने के प्रयासों पर पानी फेर दिया। डब्ल्यू,डब्ल्यू.सी., अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों तथा अनेक उत्तरी सरकारों ने तर्क दिया कि दक्षिण से बहुराष्ट्रीय जलनिगम न हटे, इसके लिए उचित यही होगा कि निगमों को आर्थिक सहायता दी जाये, उनके राजनीतिक जोखिम की भरपाई की जाये और उन्हें मुनाफे की गारंटी दी जाये। अद्भुत बात यह है कि कहीं ज्यादा स्पष्ट तरीके-सार्वजनिक जलापूर्ति में सुधार लाने और उसके क्षेत्र का विस्तार करने - का वहां कोई जिक्र नहीं किया गया था।
विश्व जलमंच के तुरंत बाद दुनिया भर के लगभग 100 कार्यकर्ताओं ने निजीकरण के विकल्पों पर एक विचारगोष्ठी में भाग लिया। विचार गोष्ठी का निष्कर्ष सिर्फ यही नहीं था कि अच्छी तरह काम करने वाली सार्वजनिक जल सुविधाओं के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, वहां यह भी निष्कर्ष निकला कि नये प्रयोगधार्मी रुखों की एक व्यापक श्रृंखला के परिणामस्वरूप केवल दक्षिण में ही नहीं, पूरी दुनिया में सार्वजनिक जलापूर्ति व्यवस्था में
ठोस सुधार हुए हैं। 2003 में साल भर सार्वजनिक जल समाधानों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इन समाधानों पर चर्चा के लिए संगठित प्रयास किये गये। 2004 में मुंबई (भारत) में तीसरे विश्व सामाजिक मंच (डब्ल्यू.एस.एफ.) में एक सफल विचारगोष्ठी के बाद एक संयुक्त परियोजना शुरू की गई जिसमें गैरसरकारी संगठनों के आंदोलनकारियों, जमीनी स्तर पर काम करने वाले निजीकरण विरोधी कार्यकर्ताओं, बुद्धजिवियों, विश्वविद्यालयों से जुड़े लोगों, सार्वजनिक सुविधाओं के प्रबंधाकों तथा श्रम संघों के लोगों का एक वैविध्यपूर्ण गठबंधन शामिल था। चर्चाओं और बहसों की सुविधा प्रदान करने के लिए एक सूचना प्रसार केंद्र (क्लियरिंग हाउस) और मंच के रूप में डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.वाटरजस्टिस.ऑर्ग वेबसाइट शुरू की गई। जनवरी 2005 में पोर्टो अलेग्रे में होने वाले विश्व सामाजिक मंच के लिए लेखों का संकलन कर समय से एक पुस्तक के प्रकाशन का भी फैसला किया गया। इस संकलन में सार्वजनिक जलापूर्ति में सुधारों के उदाहरण दिये जाने थे और भागीदारी तथा लोकतांत्रीकरण की संभावनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाना था।

पुस्तक का केंद्रीय विषय और रूप लेखकों और बड़ी संख्या में सलाहकारों के साथ विचार विमर्श के माध्यम से तय हुया है। उरूग्वे अध्याय के सहलेखक अल्बर्टो विलारियल ने इस बात पर जोर दिया कि यह पुस्तक सार्वजनिक जल को वापस पाने के लिए दुनिया भर से उपलब्धियों और विचारों के ठोस उदाहरण प्रदान कर निजीकरण विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणास्रोत बन सकती है। वास्तव में यह पुस्तक यथासंभव सरल शैली में अनुभवों का एक व्यापक क्षेत्र प्रस्तुत करती है। कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त यह पुस्तक जल पर काम करने वाले पेशेवर लोगों और जलकर्मियों के लिए एक संसाधन के रूप में तैयार की गई है। वे निजीकरण प्रक्रिया में सबसे आगे की पंक्ति में हैं और उन पर निजीकरण का समर्थन करने वाले संदेशों और दबावों के गोले प्राय: बरसाये जाते रहते हैं।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 2...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

गरीबों की पानी की जरूरतों को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय जलनिगमों के हाथों में नहीं छोड़ा जाना चाहिए

प्रस्तावना-
विचारधारा से प्रेरित निजीकरण की लहर के कारण 1990 का दशक सबको स्वच्छ जल उपलब्ध करा पाने की लड़ाई के लिए वस्तुत: एक हारा हुआ दशक था। दक्षिण के मुख्य शहरों में निजीकरण की बड़े पैमाने पर असफलता, जिसका विवरण आगे किया जाएगा. इस बात का पर्याप्त साक्ष्य प्रदान करती है कि गरीबों की पानी की जरूरतों को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय जलनिगमों के हाथों में नहीं छोड़ा जाना चाहिए। वैश्विक जल निगमों ने जिन सुधारों का वादा किया था उन्हें पूरा करने में वे लगभग निरपवाद रूप से असफल रहे। सुधार करने के बजाय उन्होंने पानी पर शुल्कों को इतना बढ़ा दिया कि इन्हें अदा कर पाना निर्धन परिवारों की पहुंच से बाहर हो गया। दुनिया भर के देशों में निजीकरण विरोधी जमीनी अभियानों का उभार, जो क्षेत्रीय और वैश्विक संजालों से ज्यादा से ज्यादा जुड़ता गया है, अब धारा को मुक्त-बाजार के रूढ़िवाद के विरुद्ध मोड़ने की शुरूआत कर रहा है। समय आ गया है कि अब जल संबंधा वैश्विक चर्चा को फिर से इस मुख्य सवाल पर केंद्रित किया जाये कि दुनिया भर में सार्वजनिक जलापूर्ति व्यवस्था का सुधार और विस्तार कैसे किया जाये?

पुस्तक “लेके रहेंगे अपना पानी” का उद्देश्य वैश्विक जल विमर्श में यह बहुत जरूरी बदलाव लाने में योगदान देना रहा है। निजीकरण कोई समाधान नहीं है, न ही प्राय: नौकरशाही के शिकंजे में कसी और अप्रभावी उन राज्य-संचालित जल सेवाओं का यथास्थितिवाद इसका समाधान है
जो विकासशील देशों के बड़े हिस्सों में उन लोगों को साफ पानी की आपूर्ति कर पाने में असफल हैं जिन्हें उसकी जरूरत है। यह पुस्तक “लेके रहेंगे अपना पानी” सार्वजनिक जलापूर्ति के नये कल्पनापूर्ण रुखों के प्रेरक उदाहरणों की विस्तृत श्रृंखला प्रदान करती है। उदाहरण के लिए पोर्टो अलेग्रे और रिसाइफ (ब्राजील) में स्थापित अथवा बन रहे जनकेंद्रित, जनभागीदारी वाले सार्वजनिक माडलों से महत्वपूर्ण सबक सीखे जा सकते हैं। इन शहरों में सार्वजनिक जलापूर्ति को अन्य लोकतांत्रिक सुधारों के साथ-साथ नागरिकों और उपयोग करने वालों की सहभागिता बढ़ाकर सुधारा जा रहा है। पेनांग (मलेशिया) जैसे अन्य शहरों में फिर से खोज निकाली गई सार्वजनिक सेवा के लोकाचार ने इस सेवा के काम में महत्वपूर्ण सुधार किये हैं। जलकर्मी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं यहां तक कि उनकी अपनी सहकारी संस्थाएं अर्जेंटीना और बंगलादेश के शहरों में जलापूर्ति का काम भी कर रही हैं। “लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 1...............
साभार-इंसाफ

“कैसे स्वयं बुझाए, दिल्ली अपनी प्यास” स्थानीय जलस्रोतों को नवजीवन …………रास्ता….: प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा

हमारे देश में असीम जल संसाधन मौजूद हैं। हिमालय के विशाल ग्लेशियरों में, वनान्चलों में, विस्तृत पठारों और मैदानी भागों में स्थित नदी-नालों और झीलों के साथ-साथ बड़े भाग में विभिन्न स्तरों पर मिलने वाले समृध्द जलभृतों रूपी भूमिगत जलाशयों के रूप में देश की विभिन्न जल संचयन प्रणालियों को वार्षिक मानसून जल से आपूरित कर देती है।
भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं।
दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।
व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली का आज जो उत्कर्ष है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। 500 ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। एक हजार ईस्वी सन् के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है।
भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रृंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रृंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है। 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान 'रिज' के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई।

बहस जारी...................

भारत की जल की जीवनरेखा - भूजल - में तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता: सरकार इस संकट के प्रति गंभीर नही

सरकार के स्वयं के आंकड़े दर्शाते हैं कि भूजल भारत के जल संसाधन की जीवनरेखा है। इस जीवनरेखा पर संकट के बादल घिर आये हैं और इसमें तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है। हालांकि, जब 11 सितम्बर 2007 को राष्ट्रीय भूजल सम्मेलन की पहली बैठक होनी है, यह स्पष्ट है कि सरकार इस समस्या के हल के प्रति गंभीर नहीं है, जो कि उसकी अपनी भूलों व गलतियों की वजह से पैदा हुई है। वर्षाजल संरक्षण, जलछाजन विकास, स्थानीय जल व्यवस्थाएं (टैंक, तालाब, झील, पोखर आदिएेसे कई नाम हैं, लेकिन ये सब स्थानीय जल व्यवस्थाएं हैं), नमभूमियां, जंगल, बाढ़ मैदान एवं नदियां, जो कि मौजूदा भूजल पुनर्भरण प्रणाली हैं, पर ध्यान देने से भारत की जल की जीवनरेखा टिकाऊ बन सकती हैं। लेकिन स्थानीय जल व्यवस्थाएं, नमभूमियां, जंगल, बाढ़ मैदान एवं नदियां विकास के नाम पर व्यवस्थित विनाश का सामना कर रही हैं एवं उनके संरक्षण के नाम पर सिर्फ कोरे वादे किये जा रहे हैं।

भूजल भारत की जीवनरेखा क्यों है : सरकार के आंकड़े दर्शाते हैं कि ग्रामीण जल आपूर्ति का 85 प्रतिशत भूजल के माध्यम होता है। शहरी एवं औद्योगिक आपूर्ति का आधे से ज्यादा भूजल व्यवस्था के माध्यम से होता है। सिंचित इलाके के खाद्यान्न उत्पादन का कम से कम दो तिहाई भूजल सिंचित जमीनों से आता है। पिछले दो दशकों में 80 प्रतिशत अतिरिक्त सिंचित इलाके भूजल के माध्यम से विकसित हुए हैं। ये सभी सरकारी दस्तावेजों के आंकड़े हैं। ऊपर दर्शाये गये मौजूदा भूजल पुनर्भरण व्यवस्थाएं भूजल की जीवनरेखा को टिकाऊ बनाने में मदद करती हैं एवं उन्हें जानबूझकर नष्ट किया जाना भूजल के स्तर गिरने का एक कारण है। और जबकि 11वीं योजना में जल संसाधन के बजट का 80 प्रतिशत बड़े बांधो के लिए व्यय किया जाना है। इससे भूजल की जीवनरेखा टिकाऊ नहीं बन सकती। वास्तव में कई मामलों में बड़े बांध इस संकट के कारक हैं। यह निश्चित तौर पर एक बड़े संकट को बुलावा देना है।

भ्रमपूर्ण विश्लेषण : इस माह की शुरूआत में दिल्ली में एक कार्यक्रम को सम्बोधन करते हुए, केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री प्रो सैफुद्दीन सोज ने कहा कि, ''हालांकि, इस (भूजल) संसाधन के अति दोहन के कारण यह संकट की स्थिति में आ गयहै''। यह खासतौर पर, अपूर्ण एवं गलत विश्लेषण है क्योंकि यह मौजूदा भूजल व्यवस्था द्वारा निभायी जा रही भूमिका एवं उनके नष्ट हाने के कारणों को नजरअंदाज करता है। यदि मौजूदा भूजल पुनर्भरण व्यवस्था के विनाश को रोक दिया जाता है तो, स्थिति निश्चित तौर पर बेहतर हो जाएगी। लेकिन पूरे देश में इन्हें नष्ट किया जा रहा है। वास्तव में तरुण भारत संघ के कार्य एवं ऐसी विभिन्न प्रयासों ने यह प्रदर्शित किया है कि जब स्थानीय जल व्यवस्था को पुनर्जिवित किया जाता है तो, राजस्थान जैसे इलाके में भी भूजल के गिरते स्तर को थामकर उसके स्तर बढ़ाया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने बार-बार कहा है कि भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण जैसी समस्या को रोकने के लिए, वर्षाजल संरक्षण एवं भूजल पुनर्भरण सबसे अच्छा विकल्प है। लेकिन भूजल पुनर्भरण की मौजूदा व्यवस्था के विनाश को रोकने के लिए कोई नीति नहीं है।

गलत उपचार : सरकार भूजल के इस्तेमाल को केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण के, जो पिछले 11 सालों से अस्तीत्व में है, गैरजवाबदेह, गैर-पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से ऊपर से नीचे की ओर नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है। लेकिन इप्रक्रियाओं से भूजल नियंत्रित नहीं हो सकता। केन्द्रीय प्राधिकरण अपने लक्ष्य को हासिल कर पाने में असफल रहा है। जबकि केवल स्थानीय समुदायों द्वारा नियंत्रित इकाइयों द्वारा नीचे से ऊपर की प्रक्रिया के माध्यम से ही संभभूजल जैसे विकेन्द्रित संसाधन को नियंत्रित किया जा सकता है।

क्या करने के जरूरत है : हमें हमारे जल संसाधन की अवधारणा में जबरदस्त एवं मूलभूत बदलाव करने की आवश्यकता है। जैसा कि विश्व बैंक ने दो साल पहले कहा था कि भूजल के बारे में हर तरफ खतरनाक खामोशी व्याप्त है। हमें यह सुनिश्चित करने के लिए स्पष्ट तौर पर परिभाषित नीति की आवश्यकता है ताकि मौजूदा भूजल पुनर्भरण व्यवस्था नष्ट न हो। ऐसी व्यवस्था का ज्यादा विकास हमारे जल संसाधन विकास नीति का केन्द्रबिन्दु होना चाहिए। हमारी योजनाएं एवं बजट ऐसी नीति के आधार पर बननी चाहिए, जो कि वर्तमान में बिल्कुल नहीं हैं। प्रबंधन के तौर पर हमें कानूनी तौर पर बाध्यकारी नियामक प्रणाली अपनाने की आवश्यकता है, जो भूजल के नियंत्रित इस्तेमाल एवं प्रबंधन में समुदाय को केन्द्रबिन्दु में रखे। भूजल भंडारों के विज्ञान के बारे में हमारी समझ एवं भूजल प्रबंधन में उस वैज्ञानिक समझ के इस्तेमाल में सुधार की आवश्यकता है। चावल की पैदावार बढ़ाने की प्रणाली (System of Rice Intensification-SRI) जैसी पानी बचाने की तकनीकों पर ज्यादा गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इसमें भूजल इस्तेमाल को घटाने की बड़ी क्षमता मौजूद है। प्रथम राष्ट्रीय भूजल सम्मेलन के माध्यम से इन मुद्दों पर ध्यान देने का एक अवसर है। क्या सरकार ऐसा करेगी?

हिमांशु ठक्कर (ht.sandrp@gmail.com, 27484655, 9968242798)
बांधो, नदियों एवं लोगों का दक्षिण एशिया नेटवर्क (www.sandrp.in)

सुजलाम् अभियान में भागीदारी करें

यमुना, गए एक हजार वर्षों में नौ विभिन्न राजवंशो की राजधानी रही दिल्ली, की जीवनदायिनी बनी रही है, किन्तु बेपरवाही और अनियंत्रित विकास के कुछ ही दशकों में अब यह गन्दे नाले में तब्दील हो गई है। अब ऐसे हजारों तालाबों, झीलों, और जोहड़ों का अस्तित्व नहीं रहा, जिनमें बरसात का पानी जमा होता था। भूमि के ऊपरी तल का पानी गायब हो गया या प्रदूषित होकर रह गया है। अब स्थिति यह है कि निचली सतह का पानी निकालने की होड़ सी लग गई है। इससे भूजलस्तर तेजी से घट रहा है; जिससे राजधानी में गंभीर जलसंकट उपस्थित हो गया है।

दिल्ली की प्यास बुझाने के दो रास्ते हैं: एक आधार है, जल का संरक्षण और उसका पुनर्नियोजन करना और दूसरा अस्थाई अल्पावधिक समाधान है, दूसरे नदी तटबंधो से धारा मोड़कर पानी ले आना। इसमें हजारों लोग अपने रोजगार और जीवन की आवश्यक सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे। बाहर से लम्बी दूरी से मोड़कर धारा लाने की सोच- जल के निजीकरण पर आधारित है। इसका उदाहरण सोनिया विहार स्थित स्वेज-डिग्रोमेंट प्लांट है; जिसके तहत गंगा का पानी दिल्ली लाकर लोगों को दस गुने दाम पर बेचा जाएगा।


“कैसे स्वयं बुझाए दिल्ली अपनी प्यास’’ (सुरेश्वर सिन्हा की पुस्तक -यमुना को प्राणवान करने से ही स्थानीय जलस्रोंतों को नवजीवन मिलेगा) जनता के सामने रखने में हमें प्रसन्नता हो रही है। सुरेश्वर सिन्हा का संगठन -पानीमोर्चा जल संरक्षण, सरकारी जलनीति और आयोजन में जनता की भागीदारी और सभी के लिए पर्याप्त जल की उपलब्धता हो; इन मुद्दों पर जनता में जागरूकता लाने के प्रति समर्पित रहा है।
सुजलाम् का प्रयास है कि इस पर बहस हो और रास्ता निकले। बहस का उद्देश्य है, जल अवक्षय, जल प्रदूषण और निजीकरण जैसे कार्यों को आम जनता के सहयोग से बदलना और जल को प्राणदायी आवश्यकता के रूप में स्थापित करना। सुजलाम् में भागीदारी कीजिए और अपना सहयोग दीजिए। बहस जारी...................

आम आदमी का पानी बाजार में -जॉय इलामन

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीसाफ पानी तक आम आदमी की पहुंच पहले के मुकाबले आज ज्यादा मुश्किल में पड़ गई है। पानी सबसे बहुमूल्य जीवन दायक संसाधन है, इसी से मुनाफा कमाने की होड़ ने यह खतरा पैदा किया है। सार्वजनिक जल व्यवस्था के संचालन को निजी हाथों में दिये जाने की प्रक्रिया एशिया में तेजी से बढ़ती जा रही है। यह काम विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा तथा सरकारों और विश्व के बड़े जल निगमों द्वारा किया जा रहा है। पानी के नियंत्रण और प्रबंधन को निजी निकायों को दिये जाने के बाद इसके जो भी असर या नतीजे सामने आये हैं, उनसे निजीकरण के हिमायतियों के दावों की पोल खुल गई है। पानी तथा इससे जुड़ी अन्य सुविधाओं की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होने से लोगों को पानी मिलना ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे परिवार जो इसकी कीमत चुकाने में असमर्थ हैं, उनकी तो मुश्किलों का पारावार ही नहीं है। मुनाफे के लालच के कारण उन इलाकों में पानी की सुविधाएं घटती जा रही हैं, जहां पानी से ज्यादा मुनाफा नहीं मिल पा रहा है। निजी कम्पनियों द्वारा मूल ढांचे में सुधार करने के आश्वासन के बाद ही इन्हें पानी की कीमत बढ़ाने की अनुमति मिली थी, लेकिन कीमतों में लगातार वृध्दि के बावजूद भी पानी की गुणवत्ता और अन्य सुविधाओं में कोई सुधार नहीं हो पाया है। हाशिये पर रहने वाले गरीब तबके और खासकर महिलाओं पर इसकी मार अधिक पड़ती है। बढ़ी हुई कीमतें अदा न कर सकने के कारण ऐसे परिवारों के लिए पानी का जुगाड़ करना ही मुश्किल हो गया है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं विकासशील देशों को कर्ज़ देकर जल सेवाओं की निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का काम करती हैं। पूरे अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में निजीकरण के लिए मौलिक सेवाओं को ही प्राथमिकता दी जा रही है। ये संस्थाएं अपनी शर्तों और मापदण्डों के जरिये निजीकरण को थोपती हैं और जल क्षेत्र में निवेश के लिए निजी निगमों का रास्ता आसान करने के वास्ते सरकारी योजनाओं के लिए कर्ज देती हैं। ये कर्ज़े निजी निगमों के जोखिम रहित निवेश को सुनिश्चित करते हैं। उपरोक्त संस्थाएं निजीकरण को लागू करने के लिए विशेषज्ञ भी मुहैया करवाती हैं। निजीकरण की नीतियां तथा योजनाएं या तो कर्ज के मापदण्डों और शर्तों के रूप में शामिल होती हैं अथवा व्यापक अर्थिक नीतियों के तहत होते हैं।

दस्तावेजों के रूप में ये उदाहरण पक्के सबूत के रूप में हैं, जो यह बताते हैं कि कर्ज दिये जाने की शर्तों को बार-बार थोपना एक आम बात हो चुकी है, जिसमें सार्वजनिक रियायतों (सब्सिडी) को खत्म करना तथा लागत की पूरी वसूली के सिध्दांत शामिल हैं। ऐसी नीतियों का इस्तेमाल विश्व बैंक जल सम्बन्धी कर्जे क़े लिए करता है। ऐसे कर्जों में फिलीपीन्स सरकार का 280 मिलियन डॉलर का कर्जा शामिल है, जिसका उद्देश्य वहां की 1000 नगरपालिकाओं के जल क्षेत्र को निजी व्यवसाय के लिए खोलना था। इसी तरह विश्व बैंक ने इंडोनेशिया को पानी व सफाई के मूल ढांचे के समन्वय के लिए 300 मिलीय डॉलर कर्ज दिया, जो कि पानी के निजीकरण के लिए कानून बनाने की शर्तों पर आधारित था। कर्ज़ लेने वाले देशों को तीन साल का समय दिया जाता है। बैंक द्वारा नियोजित निवेश की नीति और कर्जों से सम्बन्धित कार्यवाही की रूप-रेखा यह दर्शाती है कि देश की क्षमता कैसी है ? इस क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है। कर्ज लेने वाले अधिकांश देशों को गरीबी उन्मूलन के लिए लिखित रूप में रणनीति तैयार करने के लिए लिखित रूप में रणनीति तैयार करने के लिए कहा जाता है। इन देशों से ऐसी नीतियां अपनाने की अपेक्षा की जाती है, जिनसे ये देश कर्जदार हो जायें और ये देश विश्व बैंक के जल सम्बन्धी निजीकरण के निर्देशों और रणनीतियों का पालन कर सकें। यह एक विडम्बना ही है कि इन मुल्कों के बीमार सार्वजनिक उपक्रमों को बचाने के नाम पर वहां निजीकरण का दबाव बनाया जा रहा है। इसके बावजूद भी ये मूल्क पहले के मुकाबले और अधिक कर्ज में डूबते जा रहे हैं। ऐसे में ये देश सार्वजनिक सेवायें उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी से बचते जा रहे हैं और निजी एकाधिकार की नीतियों को समर्थन दे रहे हैं। इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय सम्पति और संसाधनों का नियन्त्रण कुलीन वर्ग के हाथों में सिमटता जा रहा है। यह बहुत ही दुखदपूर्ण स्थिति है। विश्व बैंक तथा एशियाई विकास बैंक ऐसी परियोजनाओं को आर्थिक सहायता देते हैं, जो निजीकरण का रास्ता खोलती हैं। मसलन, इन वित्ताीय संस्थाओं की सहायता से चलने वाली जल-परियोजनाएं अपनी ऐसी छवि पेश करती हैं, जैसे कि ये परियोजनाएं सार्वजनिक जल सुविधाओं के उद्देश्य से ही चल रही है। इसके विपरीत इनके दस्तावेजों से पता लगता है कि वास्तव में ये परियोजनाएं इन सुविधाओं को निजी हाथों में देने का काम आसान कर देती हैं, क्योंकि मुनाफे का उद्देश्य इनके साथ हमेशा जुड़ा रहता है। इस प्रक्रिया में मूल ढांचे में सुधार तथा वित्ता प्रबंध और तकनीकी जरूरतें शामिल रहती हैं। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीीय संस्थानों द्वारा दी जाने वाली सलाहकार सेवाओं के लिए सार्वजनिक मद से बड़ी मात्रा में फीस वसूली जाती है। ये सलाहकार सेवायें खुद या इन संस्थानों द्वारा अथवा फिर प्राईस वाटर हाऊस, कूपर्स तथा हलक्रो जैसी निजी फर्मों द्वारा दी जाती हैं। विश्व बैंक के अंतर्राष्ट्रीय वित्ता निगम ने मनीला महानगर के निजीकरण के ठेके की प्रक्रिया को तैयार किया था। फिलीपींस के सबसे बड़े पानी वाले इस जिले के लिए दिये गये ठेके में से 6.2 मिलियन डॉलर का शुल्क केवल सलाहकार सेवाओं के लिए दिया गया।

ये अंतर्राष्ट्रीय वित्तीीय संस्थान न सिर्फ कर्ज़ देने वाली संस्थाओं के रूप में कर्ज़दार देशों में अपना राज चलाते हैं, बल्कि अन्य कर्जों के लिए भी चौकीदारी करते हैं। विकासशील देश कर्जों तथा इसके लिए अन्य सेवाओं के चलते इस जटिल दुष्चक्र में फंसकर परनिर्भर होते चले जाते हैं और बंधुआ हालातों के शिकार हो जाते हैं। अंतत: बैंक अपने निजी क्षेत्र में निवेश के मुख्य हथियार अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम के जरिये निजीकरण की परियोजनाओं में निवेश करने वाले निजी निगमों की साझेदारी और पूंजी के लिए कर्ज देता है। विश्व बैंक के साथ-साथ इसका साझेदार एशियाई विकास बैंक विश्व बैंक की तर्ज़ पर जहां-तहां गरीबी उन्मूलन के नारे लगता रहता है। एशियाई विकास बैंक अपनी लागत की पूरी वसूली के सिध्दांत को ध्यान में रखते हुए ही जल क्षेत्र के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाता है। वित्तीय संकट से ग्रस्त सार्वजनिक सेवाओं को संकट से उबारने के नाम पर निजी निवेशकों को बढ़ावा देता है।

विकासशील देशों के कई समुदायों में पानी के निजीकरण के खिलाफ लड़ाई अब जीवन और मौत का मामला बन चुका है। सबसे मौजूदा चुनौती पानी के निजीकरण की प्रक्रिया का विरोध कर इसकी दिशा को बदल देने की है। इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि पानी के निजीकरण का एक सार्वजनिक और प्रजातांत्रिक विकल्प ढूंढ़ा जाये। इस विकल्प को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक सामाजिक परिवर्तन लाये जायें, तथा जैसे-जैसे हमारा यह संघर्ष आगे बढ़ेगा, तो साफ हो जायेगा कि निजीकरण का मुद्दा विकासशील देशों के निरंतर शोषण, दमन और उन पर दबदबा कायम कर लेने के मुद्दों से अलग नहीं है। स्पष्ट है कि इस संकट का समाधान धीमी गति से नहीं हो सकता। (इंसाफ-पीएनएन)

यमुना तट पर उभरते पर्यावरणीय नासूर - मनोज कुमार मिश्र

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीदिल्ली की जान! यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार 1993 से ही 'यमुना एक्शन प्लान' जैसी कई योजनाओं द्वारा सफाई अभियान चला रहा है, जिस पर करोड़ों-अरबों रुपए लगाए जा चुके हैं। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय एक दशक से भी ज्यादा समय से राज्यों को उनकी लापरवाही पर चेतावनी दे रहे हैं। यहां तक कि माननीय उच्च न्यायालय, दिल्ली ने तो नदी के 300 मीटर के दायरे से प्रदूषण फैलाने वाले कारकों और कब्जों को हटाने के लिए 'ऊषा मेहरा समिति' नियुक्त कर दी, नतीजा एक साल के अन्दर ही 2006 में नदी तट पर बनी झुग्गियों को जोर-जबरदस्ती से हटा दिया गया। राष्ट्रीय संसद ने भी इस कार्यवाही पर अफसोस जाहिर करते हुए राज्य प्रशासन को तुरन्त आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिये। लेकिन शायद किसी को भी उन बेघर-उजड़े लोगों की परवाह ही नहीं थी।

किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए उसके 'इको सिस्टम' की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता। हालांकि नदी से मैला साफ करने के लिए महंगी-महंगी तकनीकें मौजूद हैं लेकिन अगर वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज तक 22 किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के 'रिवर बैड' या 'नदियों का तट' पर किसी भी तरह का कोई ढांचा खड़ा किया गया तो आने वाले खतरों से बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। 1962 और 2001 के मास्टर प्लान में 'जोन-ओ' नाम से अंकित क्षेत्र को पर्यावरणीय कारणों और रिवर बैड पर ग्राउण्ड वाटर को सलाना रिचार्ज करने की क्षमता के कारण ही अलंघनीय घोषित किया गया था। दिल्ली में पानी की बढ़ती हुई जरूरत का अधिकतम हिस्सा 'ग्राउंड वाटर' ही पूरा करता रहा है और आज भी कर रहा है।

नदियों का लंबा-चौड़ा तट न केवल ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए जरूरी है, बल्कि विध्वंसक बाढ़ के खतरों से बचाने के लिए भी जरूरी है। दिल्ली 1977, 1978, 1988 और 1995 में बाढ़ की विनाश लीला देख चुकी है। इसके अलावा, जरूरी तथ्य यह है कि भूकम्पीय खतरों से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों के ('जोन-4' जहां भूकम्प का सबसे ज्यादा खतरा है) राष्ट्रीय नक्शे में दिल्ली को भी अंकित किया गया है। क्योंकि यमुना का तट भी जोन-4 का हिस्सा है, इस दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है और इसी वजह से, विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस क्षेत्र में कुछ भी निर्माण कार्य करना संकट को दावत देना है।

यदि इस संबंध में पहले से कोई सावधानी न रखी गई तो विशेषज्ञों की राय में निकट भविष्य में जल्दी ही भूकम्प के कारण भीषण विनाश होगा, क्योंकि भूकम्प नहीं मारते बल्कि इमारतें मारती हैं, संवदेनशील क्षेत्र में बनी इमारतें नरसंहार करती हैं। इसलिए नदियों के तट पर कुछ भी बनाना, मौत को दावत देना है।
दिल्ली में यमुना तट को पहले ही 30 स्थानों से लगभग खत्म कर दिया गया है। अनधिकृत रिहायशी कालोनियां, पावरप्लांट, 1982 में एशियाड के लिए बनाया गया स्पोर्टिंग कॉम्प्लेक्स, दिल्ली सचिवालय (जो मूलरूप में 1982 में खिलाड़ियों का छात्रावास था) जैसी प्रशासनिक इमारतें और दिल्ली स्टॉक एक्सचेंज जैसे 'पर्यावरणीय-नासूर' इन स्थानों पर उभर आए हैं। इनमें से कई तो राज्य द्वारा बनवाए गए हैं जो नदी के पश्चिमी तट पर स्थित हैं और पूर्वी तट शास्त्री पार्क मैट्रों डिपो और यमुना मैट्रो डिपो के लिए कब्जाया जा रहा है। इतना ही नहीं इस क्षेत्र को व्यापारिक रूप से प्रयोग करने के लिए डीएनडी फ्लाईवे का इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रमाण के तौर पर यहां आयोजित किया जा चुका 'टाइम्स ग्लोबल विलेज' में तटों का व्यवसायीकरण साफ दिखाई देता है।

पूर्व के अनेक प्रशासनिक और गैर-प्रशासनिक विरोधों के बावजूद भी राजनीतिक संरक्षण में, यमुना तट के 100 एकड़ के दायरे में 'राष्ट्रीय सम्मान' की आड़ लेकर डीडीए (दिल्ली डेवलपमेंट ऑथोरिटि) द्वारा यमुना तट पर कब्जा किया जा रहा है, वह भी मात्र 10 दिन के लिए। अक्टूबर 2010 में होने वाले अन्तरराष्ट्रीय कॉमनवेल्थ खेलों के लिए। दिल्ली के लोगों को यह कह कर बहकाया जा रहा है कि 2010 के कॉमनवेल्थ खेल एक राष्ट्रीय गौरव की घटना है, जिससे देश की गरिमा का सवाल जुड़ा है। जबकि सच्चाई तो बिल्कुल उलट है- इसमें सरकार के खेल मंत्रालय का कोई योगदान नहीं है। कॉमनवेल्थ खेलों का प्रबन्धन और प्रशासन गैर-सरकारी निकाय द्वारा किया जाता है, इसके लिए लंदन स्थित 'कॉमनवेल्थ गेम्स् फेडरेशन' और दिल्ली स्थित 'इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन' है। भारत सरकार को नहीं बल्कि आईओए को सीजी (कॉमनवेल्थ गेम्स्) 2010 के आयोजन की जिम्मेदारी मिली है जबकि भारत सरकार ने डीडीए के माध्यम से और दिल्ली सरकार ने, आईओए को दरकिनार करते हुए, खुद ही खेलों के प्रबन्धन का सारा जिम्मा ओढ़ लिया है। नदियों के तट के 'विकास' के नाम पर तो कभी 'देश की इज्जत' का सवाल बनाकर अन्तरराष्ट्रीय खेलों के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए पूरे शहर को खतरे की बाढ़ में झोंका जा रहा है।

खेल गांव के लिए नदी तट पर स्थाई रूप से रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनाए जाने की योजनाएं चल रही हैं इन इमारतों के लिए यमुना की 100 एकड़ जमीन कब्जाई जाएगी। शायद ही आम आदमी इस बात को जानता है कि ये कालोनियां प्राइवेट बिल्डर्स द्वारा बनाई जांएगी और 10 दिन के खेलों का समापन होते ही, उसे बेच दी जाएंगी।

'बिल्डर-डेवलेपर्स' की यमुना तट को कब्जाने की नीयत का इस तथ्य से खुलासा होता है कि खेल गांव बनाने की योजना बनाते समय डीडीए ने इस बात पर विचार तक नहीं किया कि क्या ''यह किसी अन्य स्थान पर बनाया जा सकता है?'' 'समय का अभाव' और 'देश की इज्जत' के नाम पर डीडीए ने पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर आवश्यक 'पर्यावरणीय स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली, जबंकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने केवल अस्थायी निर्माण के लिए ही स्वीकृति दी थी।

तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, सुरक्षित जीवन के अधिकार, यहां तक कि पीने के पानी को छीना जाता हुआ देखकर, देश का आम-आदमी कब तक चुप रह सकता है?


'बिल्डर-डेवलेपर्स' के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि केन्द्रीय खेल मंत्री अकेले ही इस सारे षडयंत्र का विरोध कर रहे हैं क्योंकि अन्तराष्ट्रीय खेलों के लिए यमुना तट पर होने वाले निर्माण की कीमत, देश की जनता को चुकानी होगी। अनुवाद-मीनाक्षी अरोड़ा(पीएनएन)

डबल क्रास : यूरोपीय यूनियन का पानी पर नजरिया

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीकहते हैं- सभ्य लोग कोई भी काम सभ्य तरीके से करते हैं। पश्चिम के तथाकथित सभ्य मुल्कों के द्वारा अपने और शेष विश्व के लिए बनाए गए नियम-कानून अलग-अलग होते हैं। शेष विश्व के लिए यूरोपीय यूनियन के नियम पक्षपाती और दबाव बनाने वाले होते हैं। आजकल युरोप की नीतियों में बहुत बड़ा अंतर-विरोध दिख रहा है जो पानी के मामले में तो गहरा होता जा रहा है।

पानी को विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाने का मुख्य प्रस्तावक यूरोपीय यूनियन ही था। पिछले पाँच सालों में यूरोपीय यूनियन ने विकासशील देशों पर गैट और विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से दबाव डालकर उनके पानी सेक्टर को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खुलवा दिया। परंतु युरोप के भीतर यूरोपीय यूनियन ने पानी तथा दूसरी संवेदनशील मुद्दों को उदारीकरण संबंधी बातचीत या चर्चाओं से निकाल दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने यूरोपीय यूनियन से जोरदार ढंग से अपील की है कि वह अपनी डब्लूटीओ के अंतर्गत माँगों को वापस ले लें। क्योंकि उदारीकरण और निजीकरण के अभी तक सिर्फ़ नकारात्मक प्रभाव ही सामने आए हैं। इसलिए राष्ट्रों की जल नीति वैश्विक व्यापार वार्ताओं द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकतीं।

यूरोपीय कमीशन जो यरोपीय यूनियन की व्यापारिक नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, का दावा है कि यूरोपीय यूनियन के व्यापारिक हितों के लिए इसकी आवश्यकता है और यह विकासशील देशों के हित में भी है। इस खतरनाक रणनीति के पीछे जो मुख्य आधारभूत समझ है वह यह कि यूरोपीय कमीशन अपने को यूरोपीय यूनियन के व्यापारिक हितों का सबसे बड़ा हितैषी के रूप में प्रदर्शित करना चाहता है। यूरोपीय जल-दानव (कम्पनी) पूरे विश्व के निजी जल-व्यापार पर अपना वर्चस्व कायम कर लेना चाहते हैं तथा यूरोपीय यूनियन इसमें उसकी मदद कर रहा है। कमीशन फ्रांस की स्वेज तथा ओवल जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुँचाने के लिए पक्षपात पूर्ण ढंग से लाबिंग कर रहा है। वहाँ पर कार्पोरेट लाबी का दबदबा बहुत ज्यादा है। 2006 में 'अंतरराष्ट्रीय निजी पानी आपरेटर फेडरेशन' (एक्वाफेड) ने अपना कार्यालय ब्रुसेल्स में यूरोपीय कमीशन के मुख्यालय के ठीक सामने खोला है। एक्वाफेड निजीकरण सर्मथक लाबी है, जिसका नियंत्रण फ्रांसीसी पानी की बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा है।

फ्रांस दुनिया का सबसे बड़ा पानी व्यवसायी कंपनियों का देश है। डच सरकार की जल नीति में भी जबर्दस्त विरोधाभास हैं। नयी जलनीति के अनुसार घरेलू जल सप्लाई में निजी आपरेटरों की भूमिका को पूरी तरह खारिज कर दिया गया है। जबकि अंतरराष्ट्रीय नीति इसके ठीक विपरीत है। ऐसी ही नीति जर्मनी, स्वीडन और स्विटजरलैंड की भी है। पिछले वर्ष निजीकरण की नीति के असफ़ल होने के बाद एक बार फिर यूरोपीय देश पानी और सीवेज के निजीकरण को दुबारा नए तरीके से लॉच करना चाहते हैं। पर निजीकरण की राह मे बोलीविया का अनुभव रोड़ा बना हुआ है। जहां पर सरकार ने सात साल पुराने पानी के निजीकरण से संबंधित समझौते को रद्द कर दिया है जो फ्रांस की बहुराष्ट्रीय कंपनी स्वेज सीवेज और सरकार के बीच हुआ था। इसका कारण था कंपनी द्वारा अपने वादों को पूरा न कर पाना। कंपनी अपने उन वादों को पूरा नहीं कर पाए थे जो उसने किए थे। वहां पर लोग पानी पर सरकार के साथ-साथ आम लोगों का भी अधिकार चाहते हैं।

एक यह दु:खद सच्चाई यह भी है की यूरोपीय यूनियन में ब्रिटेन तथा दूसरे अन्य यूरोपीय देश केवल प्राइवेट सेक्टर के लिए ही धन देने के सिध्दान्त के समर्थक हैं और वर्ल्डबैंक के साथ पब्लिक- प्राइवेट इनफ्रास्ट्रक्चर एडवाइजरी फेसयलिटी (पीपीआइ एएफ) के जरिए निजीकरण के लिए धन मुहैया कराते हैं। इस तरह पीपीआइएएफ ने अफगानिस्तान से लेकर जम्बिया तक दुनिया के 37 गरीब मुल्कों में थोड़े मुनाफ़े के लिए पानी का निजीकरण करवा दिया है। हालांकि पीपीआइएएफ का सलाना बजट बहुत कम है पर उसका राजनैतिक प्रभाव बहुत ज्यादा है तथा यह सभी जगह पानी के निजीकरण के फ़ायदे की विचारधारा को प्रचार-प्रसार में लगा है। पीपीआईएएफ़ का मुख्य उद्देश्य सिर्फ निजीकरण की प्रक्रिया के लिए धन मुहैया कराना है। मैक्सिको सिटी में मार्च 2006 में हुए चौथे विश्व जल फोरम की मंत्रीस्तरीय बातचीत में भी यूरोपीय यूनियन कुछ खास प्रभावी नेतृत्व नहीं प्रदान कर सका। बोलिविया की सरकार ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया था कि पानी लोगों का मूलभूत मानवाधिकार है तथा पानी को व्यापार समझौते से बाहर कर दिया जाय। बैठक के दौरान एक समय तो लगभग दस सरकारों ने पानी के अधिकार को मंत्रिस्तरीय घोषणापत्र में शामिल करने का समर्थन कर दिया था परंतु ब्रिटेन, नीदरलैण्ड, फ्रांस तथा अमेरिका के जबरदस्त विरोध के बाद ''पानी का मानवाधिकार'' को अंतिम घोषणापत्र से हटा दिया गया। इनके बाद बोलिविया ,क्यूबा वेनेजुएला तथा उरूग्वे ने अपना सम्पूरक घोषणापत्र जारी किया। यहां पर यूरोपीय यूनियन की भूमिका विचारने योग्य है जहां यूरोपीय संसद ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके अनुसार यूरोपीय यूनियन की सरकारों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि पानी को मानवाधिकार के रूप में मान्यता प्रदान करें। परन्तु मैक्सिको सिटी में यूरोपीय यूनियन का कहना था कि पानी मानव की प्राथमिक जरूरत तो हो सकता है, परंतु अधिकार नहीं हो सकता ।

इस तरह के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद नीतियों में बदलाव का दबाव बढ़ता जा रहा है। निजीकरण प्रयोगों के फेल होने से सरकारों के बीच भ्रम की स्थिति है और इसके उचित अनुचित होने पर बहस शुरू हो गई है। यूरोप के सिविल सोसायटी में इनकी आलोचना करने वाले ग्रुपों की संख्या बढ़ती जा रही है। साथ ही लोग पानी और सेनिटेशन के क्षेत्र में पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशिप (जिसमें संगठनों और सरकार के बीच फायदा न कमाने के उद्देश्य) की वकालत करने लगे हैं। फरवरी 2007 में नार्वे जो की यूरोपीय यूनियन का सदस्य नहीं हैं ने पीपीआईएएफ में अपना अंशदान बंद कर दिया, जो निजीकरण को बढ़ावा देने वाली संस्था है। ऐसा ही दबाव यूरोप के दूसरे देशों का भी उसके उपर बढ़ता ही जा रहा है।

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