जहर बना सरसा नदी का पानी

नालागढ़ : पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की लापरवाही के कारण औद्योगिक क्षेत्र बद्दी-बरोटीवाला-नालागढ़ में दिन प्रतिदिन प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। बीबीएन के साथ लगती सरसा नदी जो एक लाख से ज्यादा आबादी वाले नालागढ़ उपमंडल की हजारों एकड़ भूमि को सिंचती थी। उसका पानी अब लोग पीना तो दूर छूने से भी कतराते हैं। बीबीएन में लगे करीब 2500 उद्योगों का रसायनयुक्त जहरीला पानी बीबीएन के किसानों की रीढ़ समझी जाने वाली सरसा नदी में गिर रहा है और इस जहरीले पानी से आए दिन मछलियों के मरने की घटनाएं घट रही हैं।
यहां के दवा उद्योग, धागा उद्योग व पेस्टीसाइड्स उद्योग बेरोकटोक अपने यहां प्रयोग में आने वाले रसायनों को सरसा नदी में डाल कर जहर घोल रहे हैं। सरसा में जहरीला पानी गिरने से यहां पर जीव जंतु लुप्त हो चुके हैं। यहां के किसानों ने सरसा नदी का पानी खेतों में फसलें सींचने के काम में लाना भी बंद कर दिया है। जानवर भी इस नदी का पानी पीकर बीमार हो रहे हैं। लोगों में भी सरसा के पानी से चर्म रोग की बीमारियां फैल रही हैं। प्रदूषण बोर्ड के सूत्रों के अनुसार बीबीएन औद्योगिक क्षेत्र में प्रदूषण की मात्रा खतरे के पैमाने से काफी ऊपर है और यहां एसपीएम की मात्रा हर साल बढ़ रही है। बीबीएन की आबादी में एसपीएम की मात्रा छह सौ से ऊपर चली गई है जो दो सौ होनी चाहिए। इन क्षेत्रों में सांस लेना भी दूभर हो गया है। यहां के कुओं का भू-जल भी गंदा हो चुका है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिशासी अभियंता बृजभूषण ने माना कि सरसा का पानी 50 फीसदी से ज्यादा गंदा हो चुका है। भूषण ने कहा कि साफ पानी में दस फीसदी गंदा पानी खपाया जा सकता है। लेकिन यहां तो स्थिति उल्टी है। यहां सरसा में 60 फीसदी गंदा पानी गिर रहा है और 40 फीसदी पानी जल स्रोतों से है।

नया मुहावरा : अब पानी के लिए बहेगा पैसा

लखनऊ। किसी अभियान पर पानी की तरह पैसा बहाने का मुहावरा पुराना है। भूजल संरक्षण के मामले में यूपी की नौकरशाही ने अपनी कार्यशैली से जो नया मुहावरा गढ़ा है, उसके मुताबिक अब यहां पानी के लिए पैसा बहाया जायेगा। वर्षो से भूगर्भ जल स्तर में गिरावट की अनदेखी करने के बाद सल नीति निर्धारकों के कान पर जूं रेंगी जब आधे से ज्यादा विकास खंडों में पानी की समस्या 36 जिलों के 141 विकास खंडों में सर के ऊपर पहुंच गयी। यहां भूजल संरक्षण के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में दो हजार करोड़ रुपये लागत की योजना प्रस्तावित है।
कृषि व जल वैज्ञानिक '80 के दशक से इस संकट के प्रति आगाह करते रहे हैं। तब संकट मामूली था और समाधान आसान। बहरहाल, तब न सरकार की नींद टूटी, न अंधाधुंध जल दोहन करनेवालों की। अब संकट का विस्तार प्रदेश के आधे से ज्यादा हिस्सों में हो चुका है। बुंदेलखंड में कुएं व अन्य प्राकृतिक जलस्रोत सूखे पड़े हैं, जबकि मध्य व पश्चिमी जिलों में हैंडपंप-ट्यूबवेल जलस्तर नीचे खिसक जाने से बेकार हो गये हैं। देवरिया, सोनभद्र, मिर्जापुर, फैजाबाद जैसे कई पूर्वी जिलों के अलावा राजधानी लखनऊ व रायबरेली भी इस संकट के चपेट में है।
भूगर्भ जल विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक सूबे में 11 ऐसे विकास खंड हैं, जिनमें भूगर्भ जलस्तर में गिरावट की सालाना दर 50-60 सेमी है। ये विकास खंड एटा, फतेहपुर, सुल्तानपुर, इटावा, बागपत, मुजफ्फरनगर व सहारनपुर जिलों से सम्बन्धित हैं। कृषि वैज्ञानिक इसे गंभीर संकट मानते हैं, यद्यपि करीब पचास अन्य विकास खंडों में भी हालात चिन्ताजनक हैं, जहां 20-50 सेमी वार्षिक दर से भूगर्भ जल स्तर गिर रहा है।
भूगर्भ जल विभाग विकास खंडों को चार श्रेणियों में रखकर भूगर्भ जल स्तर का आकलन करता है, जिसके मुताबिक 682 विकास खंड फिलहाल सुरक्षित क्षेणी हैं। जो 138 विकास खंड समस्याग्रस्त हैं, उनमें 37 अति-दोहित, 13 क्रिटिकल व 88 सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना में जिन 36 जिलों के लिए जल संरक्षण परियोजना प्रस्तावित है, उनमें बुंदेलखंड के सभी जिले शामिल हैं।
शहर भी संकटमुक्त नहीं
अधिकांश शहरी क्षेत्रों में भी भूगर्भ जल स्तर में सालाना 22-56 सेमी गिरावट दर्ज की जा रही है। राजधानी लखनऊ 56 सेमी वार्षिक गिरावट दर के साथ सर्वोपरि है, जबकि यह दर कानपुर में 45 सेमी, आगरा में 40 सेमी, वाराणसी में 23 सेमी, अलीगढ़ में 40 सेमी, गाजियाबाद में 22 सेमी तथा मथुरा में 36 सेमी है। भूजल स्तर में इस दर गिरावट की मुख्य वजह अनियोजित जल दोहन है, जिसे नियंत्रित करने के लिए प्रदेश में कोई नीति नहीं है। सरकार ने सभी सरकारी भवनों की छतों पर वर्षा जल संचयन प्रणाली स्थापित करने की अनिवार्यता जरूर कर रखी है, लेकिन इसका भी महज रस्मी पालन हो रहा है।
क्या कहते हैं वैज्ञानिक
कृषि वैज्ञानिक डॉ. डीपी सिंह व भूजल वैज्ञानिक डॉ.धनेश्वर राय के मुताबिक, सूबे के करीब 41 लाख हेक्टेयर पठारी क्षेत्र में पहले ही सीमित भूजल भंडार है। यहां अधिकांश वर्षा जल नदियों में बह जाता है। लगातार चार वर्षो से चल रहे सूखे ने इस क्षेत्र में हालात 'कोढ़ में खाज' जैसे कर दिए हैं। उधर, गहरे भूजल स्तर वाले मैदानी क्षेत्र में भी न्यूनतम रिचार्ज व अधिकतम दोहन के कारण जल स्तर में तीव्र गिरावट दर्ज की जा रही है। ऐसे करीब 45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में अधिसंख्य स्थानों पर भूजल स्तर दस मीटर या इससे अधिक है।

बाहुबलियों ने कब्जाए 400 तालाब

आगरा। जल स्तर में निरंतर गिरावट के चलते न सिर्फ पेयजल की किल्लत बढ़ी है बल्कि पशुओं को भी प्यास बुझाने के लाले हैं। हैण्डपम्प शो पीस बन गये हैं तो कुंऐ सूख चुके हैं। बाहुबलियों ने जिले में करीब 400 तालाब और पोखर कब्जा लिये हैं। इन पर क्षेत्रीय लेखपाल की मेहरबानी से अब मकान बने हुए हैं।
एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने सभी तालाब और पोखरों को कब्जा मुक्त कराने का आदेश दिया था। इसके अनुपालन के लिए हाईकोर्ट ने भी प्रदेश सरकार पर लगाम कसी और मुख्य सचिव को तलब किया। हर जिले में सर्वे के बाद अवैध कब्जों की गिरफ्त में फंसे तालाबों का लेखा-जोखा हाईकोर्ट में दाखिल हुआ। अब हाईकोर्ट की गाज से बचने के लिए हर जिले में तालाबों से कब्जे हटाने की कसरत हो रही है। डीएम मुकेश मेश्राम पहले ही अल्टीमेटम दे चुके हैं कि जहां ऐसे कब्जे मिलेंगे, वहां एसडीएम खुद जिम्मेदार होंगे। इसलिए पहले तालाब-पोखर कब्जाने वालों को नोटिस जारी किये गये। अब जेसीबी मशीन की सहायता से उनके कब्जे हटाए जा रहे हैं। इसके बाद हाईकोर्ट में तालाबों को कब्जों से मुक्त कराने का शपथ पत्र दाखिल किया जायेगा।

कर्मनाशाः एक अपवित्र नदी ?

"काले सांप का काटा आदमी बच सकता है,हलाहल जहर पीने वाले की मौत रुक सकती है ,किन्तु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले,वह फिर हरा नहीं हो सकता.कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ जाये तो बिना मानुस की बलि लिये नहीं लौटती."
"कर्मनाशा को प्राणों की बलि चहिये ,बिना प्राणों की बलि लिये बाढ नहीं उतरेगी....फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय, जिसने यह पाप किया....परसाल न के बदले जान दी गई,पर कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी....त्रिशंकु के पाप की लहरें किनारों पर संप की तरह फुफकार रही थीं."
हिन्दी के मशहूर कथाकार शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'कर्मनाशा की हार' के ये दो अंश उस नदी के बारे में हैं जो लोक प्रचलित किंवदंतियों -आख्यानों में एक अपवित्र नदी मानी गई है क्योंकि वह कर्मों का नाश करती है.उसके जल के स्पर्श मात्र से हमारे सारे पुण्य विगलित हो जाते हैं.गंगा में स्नान करने से पुण्य लाभ होता है क्योंकि वह पतितपावनी -पापनाशिनी है,हमारे पापों को हर लेती है और इसके ठीक उलट का जलस्पर्श हमें पुण्यहीन कर देता है.ऐसा माना गया है. लेकिन विन्धयाचल के पहाड़ों से निकलने वाली यह छुटकी-सी नदी चकिया में सूफी संत बाबा सैय्यद अब्दुल लतीफ शाह बर्री की मजार पर मत्था टेकती हुई,मेरे गांव मिर्चा के बगल से बतियाती हुई, काफी दूर तक उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमारेखा उकेरती हुई अंततः बक्सर के पास गंगा में समाहित हो जाती है.पुण्य और पाप की अलग - अलग धारायें मिलकर एकाकार हो जाती हैं. कबीर के शब्दों में कहें तो 'जल जलहिं समाना' की तरह आपस में अवगाहित-समाहित दो विपरीतार्थक संज्ञायें .
'कर्मनाशा की हार'कहानी इंटरमीडिएट के कोर्स में थी.हमारे हिन्दी के अध्यापक विजय नारायण पांडेय जी ने( जो एक उपन्यासकार भी थे.उनके लिखे 'दरिया के किनारे'को हम उस समय तक हिन्दी का एकमात्र साहित्यिक उपन्यास मानते थे क्योंकि हमने पढा ही वही था.)कहानी कला के तत्वों के आधार पर 'प्रस्तुत' कहानी की समीक्षा तथा इसके प्रमुख पात्र भैरों पांड़े का चरित्र चित्रण लिखवाते हुये मौखिक रूप से विस्तारपूर्वक कर्मनाशा की अपवित्रता की कथा सुनाई थी जिसमें कई बार त्रिशंकु का जिक्र आया था. इस कथा के कई 'अध्यायों' की पर्याप्त सामग्री पीढी दर पीढी चली आ रही परम्परा का अनिवार्य हिस्सा बनकर हमारे पास पहले से ही मौजूद थी क्योंकि कर्मनाशा हमारी अपनी नदी थी -हमारे पड़ोस की नदी. और मेरे लिये तो इसका महत्व इसलिये ज्यादा था कि यह मेरे गांव तथा ननिहाल के बीच की पांच कोस की दूरी को दो बराबर -बराबर हिस्सों में बांट देती थी.गर्मियों में जब इसमें पानी घुटने-घुटने हो जाया करता था तब उसके गॅदले जल में छपाक-छपाक करते हुये,पिता की डांट खाते हुये उस पार जाना पैदल यात्रा की थकावट को अलौकिक -अविस्मरणीय आनंद में अनूदित-परिवर्तित कर देता था. वर्ष के शेष महीनों में नाव चला करती थी.मल्लाह को उतराई देने के लिये अक्सर पिताजी मुझे दो चवन्नियां इस हिदायत के साथ पकड़ा दिया करते थे कि इन्हें पानी में नहीं डालना है.क्यों? पूछने की हिम्मत तो नहीं होती थी लेकिन बालमन में यह सवल तो उठता ही था कि जब हम गाजीपुर जाते वक्त् गंगाजी में सिक्के प्रवाहित करते हैं तो कर्मनाशा में क्यों नहीं? हां, एक सवाल यह भी कौंधता था कि गंगाजी की तर्ज पर कर्मनाशाजी कहने की कोशिश करने से डांट क्यों पड़ती है? इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर उम्र बढ़ने के साथ स्वतः मिलते चले गये,कुछ के लिये दूसरों से मदद ली, कुछ के लिये किताबों में सिर खपाया और कुछ आज भी,अब भी अनसुलझे हैं-जीवन की तरह्. नीरज का एक शेर आद आ रहा है-
कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो,
जिन्दगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह्.
'वृहत हिन्दी कोश'(ज्ञानमंडल,वाराणसी)और 'हिन्दू धर्म कोश'(डा० राजबली पांडेय) के अनुसार सूर्यवंशी राजा त्रिंशंकु की कथा के साथ कर्मनाशा के उद्गम को जोड़ा गया है.राजा त्रिंशंकु को सत्यवादी हरिश्चन्द्र(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित नाटक 'सत्य हरिश्चन्द्र' का नायक) का पिता बताया जाता है. 'तैत्तिरीय उपनिषद' में इसी नाम के एक ऋषि का उल्लेख भी मिलता है किन्तु वे दूसरे हैं.त्रिंशंकु दो ऋषियों -वसिष्ठ और विश्वामित्र की आपसी प्रतिद्वंदिता और द्वेष का शिकार होकर अधर में लटक गये. विश्वामित्र उन्हें सदेह स्वर्ग भेजना चाहते थे जबकि वसिष्ठ ने अपने मंत्र बल से उन्हें आकाशमार्ग में ही उल्टा लटका दिया,तबसे वे इसी दशा में लटके हुये पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं.उनके मुंह जो लार-थूक आदि गिरा उसी से कर्मनाशा नदी उद्भूत हुई है.जहां बाकी नदियां या तो प्राकृतिक या दैवीय स्रोतों से अवतरित हुई हैं वहीं कर्मनाश का स्रोत मानवीय है संभवतः इसीलिये वह अस्पृश्य और अवांछित है,कर्मों का नाश करने वाली है. एक अन्य कथा में त्रिशंकु को तारा होना बताया गया है साथ ही कहीं-कहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग से धकेल दिया था.
खैर,कथा-पुराण-आख्यान-लोक विश्वास जो भी कहें इस सच्चाई को झुठलाने का कोई ठोस कारण नहीं है कि कर्मनाशा एक जीती जागती नदी का नाम है.इसके तट की बसासतों में भी वैसा ही जीवनराग-खटराग बजता रहा है,बजता रहेगा जैसा कि संसार की अन्य नदियों के तीर पर बसी मानव बस्तियों में होता आया है ,होता रहेगा. संभव है और इसका कोई प्रमाण भी नहीं है कि इतिहास के किसी कालखंड में सिंधु-सरस्वती-दजला फरात-नील जैसी कोई उन्नत सभ्यता इसके किनारे पनपी-पली हो ,हो सकता है कि इसने राजाओं-नरेशों, आततायिओं-आक्रमणकारियों के लाव-लश्कर न देखे हों,हो सकता है कि इसके तट पर बसे गांव-जवार के किसी गृहस्थ के घर की अंधेरी कोठरी में किसी महान आत्मा ने जन्म न लिया हो, न ही किसी महत्वपूर्ण निर्माण और विनाश की कोई महागाथा इसके जल और उसमें वास करने वाले जीवधारियों-वनस्पतियों की उपस्थिति से जुड़ी हो फिर भी क्या इतना भर न होने से ही इसे महत्वहीन,मूल्यहीन तथा अपवित्र मान लिया जाना चहिये?

पत्थर खदानों के कारण सिमट रही हरियाली

डोमचांच (कोडरमा)। कोडरमा जिला अंतर्गत डोमचांच और इसके आसपास के इलाकों में संचालित सैकड़ों स्टोन क्रशर इकाइयों और पत्थर खदानों के कारण प्रकृति की हरियाली सिमट रही है। यहां पर संचालित सबसे वृहद अंबादहा पत्थर खदान से, जो 1987 से चालू है, प्रतिदिन सैकड़ों टन पत्थर का उत्पादन जारी है। जहां एक तरफ इन खदानों एवं सैकड़ों क्रशर यूनिटों में सैकड़ों मजदूरों की रोजी-रोटी चलती है। वहीं पत्थर व्यवसाय से जुड़े लोग मालामाल हो रहे है, लेकिन इस व्यवसाय से जुड़े लोग वन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ रहे है। इससे विभिन्न तरह की समस्याएं उत्पन्न हो रही है। करीब दो दशक पूर्व तक प्रकृति की हरियाली के आगोश में खेल रहा यह इलाका आज बंजर सा होने लगा है। अंबादहा एवं इसके आसपास अनेक पत्थर खदानों की गहराई हजारों फीट हो चुकी है और प्रतिदिन इसमें ब्लास्टिंग व खुदाई जारी है। इन गहरे खदानों में सालो भर हजारों लीटर पानी भरा रहता है, जिसे बड़े-बड़े पंप सेट मशीनों द्वारा बाहर बहा दिया जाता है। एक मशीन एक घंटे में 1500 लीटर पानी बाहर फेंकती है और एक-एक खदानों में ऐसे दर्जनों मशीनें लगीे हई है, जो 24 घंटे चलता रहती है, जबकि यहां दर्जनों माइंस हैं। यहां पर प्रतिदिन हजारों लीटर पानी का अपव्यय किया जा रहा है। इससे भूमिगत जल की बर्बादी का अंदाजा लगाया जा सकता है। जिसके कारण आसपास के गांवों के कुएं गर्मी शुरू होते ही सूखने लगते हैं। जहां कुछ वर्ष पूर्व 50 फीट बोरिंग से पानी आता था, वहां आज 200 फीट पर गहराई के बाद भी पानी आना कठिन है। वैसे भी पेयजल की समस्या से तो डोमचांच की जनता वर्षो से जूझ ही रही है। ऐसे में जल के इस अपव्यय से किसान सकते में है। कुआं, तालाब, नदी, नाला सब समय से पूर्व सुख जाते है। आने वाले दिनों में अगर इसे नहीं रोका गया तो जल समस्या डोमचांच वासियों के लिए काल बनकर उभरेगा।
दूसरी तरफ खनिज पदार्थो के दोहन में पहला शिकार वन पर्यावरण को बनाया जाता है। पत्थर खादानों की लीज हो या फिर ढिबरा खोदना, सबसे पहले उक्त भूमि के हरेभरे भाग को नष्ट किया जाता है। दूसरी तरफ कत्था बनाने वाले माफियाओं के द्वारा खैर व अन्य कीमती लकड़ियों की अंधाधुंध कटाई की गई। आज भी साल एवं अन्य लकड़ियों की अंधाधुंध कटाई जारी है। करीब एक लाख आबादी वाले इस क्षेत्र अधिसंख्य घरों में भोजन जंगली लकड़ी से ही पकाई जाती है, जिसमें सैकड़ों टन जलावन प्रतिदिन जलता है। एक तरफ वनों की अंधाधुंध कटाई एवं पानी के अपव्यय से समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। यहां पर अवस्थित सैकड़ों क्रशर यूनिटों द्वारा पत्थर की पिसाई से भी पर्यावरण लगातार दूषित हो रहा है। प्रदूषण इस प्रकार बढ़ चुका है कि सड़क के किनारे एवं आसपास के वन प्रक्षेत्रों में क्रशर मिलों से उड़ने वाली धूल एवं गर्द से सैकड़ों पेड़ सूख चुके है और दिन-प्रतिदिन इसकी संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। क्रशर यूनिट में काम करने वाले मजदूर टीबी के रोग से ग्रस्त हो रहे हैं। जल, जंगल और प्रदूषण आने वाले समय में डोमचांच के लिए भीषण समस्या बनकर उभरने वाली है, जिसकी तरफ सरकार, प्रशासन एवं विभागीय लोगों का कोई ध्यान नहीं है।

गिर गया भूजल स्तर, फट गयी धरती

हमीरपुर (उत्तर प्रदेश)। जिले में जल संरक्षण की बात की जाये तो साफ है यदि इस बारे में कोई पहल की गयी होती तो शायद आज बुंदेलखंड सूखे जैसे हालात से न गुजर रहा होता। तालाब और कुएं सूखते गये, नदियों की जलधारा दूर जाती रही, नहरों में पानी का बहाव बंद होता गया स्थिति साल-दर-साल बिगड़ती गयी। लेकिन जल संरक्षण के लिए न तो कोई कवायद की गयी और न ही जिले में किसी संगठन या राजनीति दल के नेताओं ने इसे मुहिम बनाने का प्रयास किया।
नदी, नहर, कुओं और तालाबों से पानी नहीं मिला तो लोग भूजल के दोहन में जुट गये। अब हालात ये हैं कि हमीरपुर जिला सूबे के उन जिलों में शामिल हो गया है, जहां पिछले दस सालों में सबसे ज्यादा भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की गयी है। प्रतिवर्ष यहां दस से 56 सेमी की दर से भूजल स्तर में गिरावट हुई है। भूजल स्तर के इतनी रफ्तार से गिरने के परिणाम भी सामने आये जिगनी हो या खंडेह या फिर परछा का क्षेत्र, सभी जगह धरती फटने की घटनाओं से लागों में दहशत बन गयी। इतना सब होने के बाद भी प्रशासन ने अभी तक जल संरक्षण के लिए किसी योजना का क्रियान्वयन किया है और न ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग की अनिवार्यता के लिए सख्त कदम उठाये हैं।
पांच सालों में 1.31 मीटर गिरा जल स्तर
पिछले पांच सालों के दौरान जिले में जलस्तर में 1.31 मीटर की गिरावट आयी है। भू-गर्भ जलस्तर नीचे गिरने से जमीन भी फटी। भूगर्भ जल के जानकार एएच जैदी बताते हैं कि बुंदेलखंड क्षेत्र में वर्षा के घंटे और दिन कम होते जा रहे हैं। खेत का खेत पानी खेत में का संकल्प पूरा नहीं हो पा रहा है। हैंडपंपों के जरिए भूजल का अत्याधिक दोहन और दुरुपयोग हो रहा है। ऐसे में रीचार्ज पिट बनाये जाने की बेहद जरूरत है। क्योंकि भूजल की वांछित रिचार्जिग नहीं हो पा रही है। पर्याप्त वर्षा न होने के कारण नदियों में पानी कम हो गया है, बांध और तालाब सूख गये हैं, जिसके कारण पेयजल व सिंचाई के लिए भूगर्भ जल भंडारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। भूजल दोहन की मात्रा हर साल बढ़ रही है। क्षेत्र में ग्राउंड वाटर की ओवर एक्सप्लाइटेड कंडीशन का प्रबल संकेत है, जो चिंता का विषय है।
वर्षा जल केंद्र की जरूरत
बुंदेलखंड के सातों जनपदों में एक-एक वर्षा जल केंद्र की स्थापना की जरूरत है ताकि सूचनायें एकत्रित कर एक छत के नीचे सेवा उपलब्ध हो सके। चेकडैम व अन्य जल संभरण के संसाधनों को बनाया जाये। भूजल की रसायनिक अशुद्धियों वाले क्षेत्र में नलकूपों का आप्टिमम यूज हो सकता है। वर्षा जल को संरक्षित, संचयन और भंडारण किया जाये। पिछले बीस साल के आंकड़े बताते हैं कि जून, जुलाई, अगस्त में 2002 से 2007 के बीच औसत वर्षा 473.7 मिमी हुई, जबकि वर्ष 1996 से 2001 तक 681.6 मिमी वर्षा रिकार्ड की गयी है।
भूजल ही एकमात्र विकल्प
जिले की प्रमुख नदियों में पानी कम हो गया है। नहरें, तालाब व कुएं सूख गये है। अब सिर्फ लोगों के लिए भूगर्भ जल ही एक विकल्प है। भू-गर्भ वैज्ञानिक बीके उपाध्याय ने बताया कि जिले में पानी का स्तर 100 फिट नीचे है। धसान और बेतवा नदी में खदान हो रही है। जिसके चलते जल संरक्षण पर ध्यान देने की जरूरत है। डा. जेपी विश्वकर्मा ने कहा कि पानी न बरसने से जल सोखने का कृषि वर्ग सिस्टम समाप्त हो गया है। यदि यही हालात रहे, तो अगले 40 वर्षो में बुंदेलखंड रेगिस्तान बन जायेगा। उन्होंने कहा कि सामान्य खेतों में भी भूमि में क्षरण हो रहा है। भूगर्भ के जलस्तर नापने के लिए पीजो मीटर में भी बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां की गयीं हैं।
जलस्तर गिरने से बिगड़े हालात
हमीरपुर : अधिशास अभियंता जल निगम एमएल अग्रवाल भूजल स्तर गिरने से हालात बिगड़े हैं। भू-गर्भ का जलस्तर नीचे खिसक जाने से पेयजल योजनायें साथ नहीं दे रही हैं। ऐसे में जल संचयन के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग और जल संरक्षण की अन्य विधियों पर कारगार कदम उठाये जाने जरूरी हैं। जिले की 26 पेयजल योजनाओं में 93 हजार लोगों को पानी की आपूर्ति की जा रही है। 13 नई पेयजल योजनाओं के लिए 512.9 लाख रुपये मिले हैं। इसमें 47847 लोग लाभान्वित होंगे। पानी की किल्लत सबसे अधिक ग्रामीण इलाकों में है। यहां नियमित बिजली की सप्लाई नहीं है, तालाब और कुएं सूखे पड़े हैं, हैंडपंपों ने जवाब दे दिया है। जिले में पानी की समस्या दिनोंदिन बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि एक आदमी को 70 लीटर पानी रोजाना की जरूरत है। आम आदमी को भी पानी की फिजूल खर्ची रोकनी होगी।

बुन्देलखंड में सूख रही धरती की कोख

लखनऊ। बुन्देलखण्ड में पानी की समस्या जगजाहिर है। प्रदेश के इस पठारी भू-भाग की पथरीली जमीन से पानी आसानी से रिसता नहीं। वहीं दूसरी ओर अनवरत दोहन से यहां का भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। इस क्षेत्र में पानी का प्रमुख साधन कुएं और हैंडपम्प हैं जो भूजल स्तर में गिरावट के कारण शनै: शनै: सूखते जा रहे हैं।
दरअसल लकड़ी, तेंदू पत्ता, जड़ी-बूटियों के लिए अवैध कटान के कारण यहां के जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। वहीं चूना पत्थर, ग्रेनाइट, कोयला, तांबा, आदि के खनन ने यहां के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ दिया। ऐसे में यहां की पथरीली जमीन में वर्षा जल संचयन नहीं हो पाता और गिरते भू जल स्तर के कारण हैण्डपम्प व कुएं सूख रहे हैैं।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार बुन्देलखंड के झांसी, ललितपुर, महोबा, हमीरपुर और बांदा जिलों में चूना पत्थर व ग्रेनाइट की चट्टानें पायी जाती हैं। यह विन्ध्य क्षेत्र से लगा पठारी क्षेत्र हैैै। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार यहां अस्सी प्रतिशत वर्षा जून के अन्त से लेकर सितम्बर के बीच होती है। तीन महीने में हुई वर्षा का जल पथरीली जमीन नहीं सोख पाती। वर्षा जल संचयन न होने के कारण वह केन, बेतवा नदियों में बह जाता है। केन नदी का जल यमुना में बह जाता है। गर्मी में केन भी सूख जाती है।
उपग्रहीय आंकड़ों के हिसाब से दतिया, दामोह, सागर और पन्ना जिलों को छोड़कर बुन्देलखंड के शेष जिलों में हरित क्षेत्र नाममात्र बचा है। इसलिए पहले की तरह वर्षा जल पेड़ की जड़ों से रिस कर जमीन के अंदर नहीं संचित हो पाता। राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन के तहत यहां वर्षा जल संचयन के लिए तालाब, पोखर बनाकर वर्षा जल इकट्ठा करने की जरूरत एक लम्बे समय से व्यक्त की जा रही है।

संकट में पावन धारा

जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में पर्यावरण असंतुलन, वैश्विक तापमान में वृध्दि तथा भूमंडल पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करके जो निष्कर्ष निकाला गया, उसके अनुसार मिस्र की नली, चीन की यांगत्सी, मेकाम भारत की गंगा सहित विश्व की दस बड़ी नदियां सन 2040 के आसपास सूख जाएंगी। भारतीयों के लिए यह निष्कर्ष एक त्रासद चेतावनी है क्योंकि अमेरिकी और यूरोपीय नदियों की तरह गंगा मात्र एक जलस्रोत नहीं है बल्कि धर्म, आस्था व संस्कृति से जुड़ी है। ऋग्वेद में इस मां कहकर प्रणाम किया गया है। विश्व की तेरहवीं सबसे बड़ी नदी गंगा की उत्पत्ति और गुण के साथ कई मिथ जुड़े हैं।
पंडित नेहरू ने भारत एक खोज में लिखा है- 'आदि से आज तक यह भारत की सभ्यता और संस्कृति, साम्राज्याें के उत्थान और पतन, बड़े और छोटे शहरों के साथ साथ समृध्दि, पूर्णत्व एवं वैराग्य की गाथा है...। 21 जून 1954 को लिखी वसीयत में नेहरू जी ने लिखा- 'गंगा मेरे लिए निशानी है प्राचीनता की, यादगार की जो बहती आई है। वर्तमान तक और बहती चली जा रही है। भविष्य के स्वर्णिम महासागर की ओर। उसे मेरा शत शत प्रणाम...'।
वाराणसी के प्रसिध्द प्राचीन संकटमोचन मंदिर की आठवीं पीढ़ी के महंत और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में सिविल इंजीनियरिंग के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर व दुनिया के जाने माने हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग वीरभद्र मिश्र गंगा के बारे में अक्सर भावुक हो जाते हैं। उनका कहना है कि गंगा मां है, इसके बिना हमारे जीवन में कुछ भी नहीं है।... गंगा में मैं प्रतिदिन स्नान करता हूं और जीवन के अंतिम क्षण तक इतना सामर्थ्य चाहता हूं कि गंगा में डुबकी ले सकूं।
आखिर क्या है गंगा में जो नील, चार्ल्स, यांगत्सी या टेम्स में नहीं है? ये नदियां प्रदूषण रहित होने के बाद भी सीधे पानी के काम नहीं आती, न ही गंगा की तरह कोई जन आस्था, श्रध्दा या संस्कृति जुड़ी हुई है।गंगा जल का आचमन करते है।, स्नान करते हैं। हिंदू मृत्यु के समय मुख में डालते हैं। भारत में 14 बड़ी नदियां हैं मगर उन्हें गंगा का- सा महत्व नहीं मिला है। कारण है इसके जल की पवित्रता। जयपुर के सिटी पैलेस में सन् 1922 में दो घड़े में बंद गंगा जल जब सन् 1962 में खोला गया तब भी वैसा का वैसा ही निकला। न सड़न, न दुर्गंध। वस्तुत: गंगाजल में जीवाणुभोजी (बैक्टी-रियोफाजो और रासायकि तत्व मिले होते हैं। ये ये तत्व गंगाजल में गंगोत्री से ऋषिकेश तक के मार्ग में पर्वतीय घाटियों, जंगलों से गुजरते हुए जड़ी-बूटियाें से समृध्द मिट्टी के संसर्ग में आने से मिलते हैं। नदी की पवित्रता का एक पैमाना है उसके जल का डीओ (घुलित आक्सीजन) और बीडीओ (बायोलोजिकल आक्सीजन डिमांड) जल में इनका स्तर क्रमश: पांच मिग्रा/ली तथा तीन मिग्रा/ली तक होने चाहिए। आज तो खतरनाक रसायनों के नदी में छोड़े जाने के कारण बीओडी स्तर छह तक पहुंच गया है जो यह प्रदर्शित करता है गांगा का जैव- पारिस्थितिकी संतुलन/ जैव विविधता खतरे में पड़ गई है। नब्बे के दशक में पटना के विभिन्न जलस्रोतों से जल और गंगाजल लेकर दोनों के साथ अलग अलग जीवाणु डाल कर प्रयोग किया गया। दोनों में 65 फीसद एरारीशिया कोलाई, 75 फीसद, स्ट्रोप्टोकोकस, 99.5 फीसद विब्रओ कालरी डालकर दोनों की जीवाणु भोजी क्षमता का अध्ययन किया गया। यह पाया गया कि गंगाजल में सारे जीवाणु 24 घंट में खत्म हो गए जबकि अन्य जल में सभी जीवाण्ाु मौजूद थै।
पौराणिक आख्यानों की मानतें तो जब गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरा पड़ा तो उतरने से पहले उसने आशंका व्यक्त की 'जब मैं स्वयं पृथ्वी तल पर गिरूं तो कोई भी तो मेरा वेग धारण करने वाला होना चाहिए, अन्यथा हे राजन्! मै। पृथ्वी फोड़कर रसातल में चली जाऊंगी। इसके अतिकरक्त मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं आना चाहूंगी क्योंकि लोग मुझमें पाप धोएंगे, मैं उन पापों को कहां धोऊंगी?
मनुष्य के प्रति गंगा की यह आशंका आज सच साबित हो रही है। गंगा आज अपने ही मानव पुत्रों के हाथों मृत्यु के खतरे से जूझ रही है। डॉ. अशोक कुमार शुक्ल ने अपने काव्य ग्रंथ 'पर्यावरण काव्यम' में गंगा की यही व्यथा व्यक्त की है- पतितों को पवित्र करने से गंगा अपवित्र नहीं हुई बल्कि पतितों द्वारा फेंके गए प्रदूषित पदार्थों से वह दूषित हुई है।
आज गंगा के अस्तित्व को दो ओर से खतरा है : पहला, औद्योगिक तकनालोजी क्रांति के फलस्वरूप वैश्विक तापमान में वृध्दि। दूसरा, प्रदूषण के कारण। बीसवीं शताब्दी के पांचवे दशक में पूरे विश्व में उद्योग, तकनीक, सूचना क्रांति आई। पृथ्वी का मिजाज गर्म होने लगा। प्रति दशाब्दी 0.2 सेंटीग्रेड तापमान में वृध्दि हो रही है। भूताप में वृध्दि के लिए ग्रीन हाउस गैसों के वायुमंडल में खतरनाक स्तर तक उत्सर्जन जिम्मेदार है। सन् 2010 तक भूताप में 6.4 सेंटीग्रेड तक वृध्दि का अनुमान है। उस तापमान वृध्दि का सबसे बुरा प्रभाव बर्फ पर पड़ रहा है। दुनिया के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। संसार के हिमनदों पर भूताप वृध्दि का अध्ययन करने वाले हिमनद- वैज्ञानिक एल थामसन की अध्यक्षता में एक दल ने विस्तृत अध्ययन किया। उन्हाेंने एक सूचना और दी कि तिब्बत के पठार में आक्सीजन-16 और आक्सीजन-18 के अनुपात में असंतुलन है। उस परिमंडल में आक्सीजन 18 की मात्रा ज्यादा थी जो तापवृध्दि में सहायक है। थामसन ने बताया कि हिमालय के 67 फीसद हिमनद खिसक रहे हैं। गंगोत्री हिमनद 25 मीटर प्रतिवर्ष की दर से खिसक रहा है। नतीजा पहले बाढ़, फिर सूखा। एक नमूना अध्ययन के अनुसार उत्तरकाशी में गंगा का स्तर अगले 20 साल में 20-30 प्रतिशत बढ़ जाएगा उसके बाद अगले दस वर्षों में अपने मूल स्तर से 50 प्रतिशत घट जाएगी।
गंगोत्री से गंगासागर तक 2500 किमी तक यात्रा पूरी करने वाली, 40 करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जल अन्न आदि देने वाली गंगा में 300 मिलियन गैलन मानव मल-मूत्र और अन्य अपसर्ज्य गिरते हैं। ऋषिकेश के प्रयाग तक गंगा में 132 नालों से कचरा गिरता है। अकेले फाफामऊ से इलाहाबाद तक ही 73 नाले हैं। (मात्र इलाहाबाद में 61 नाले हैं), कानपुर में 22, हरिद्वार में 20 नाले हैं। गंगा किनारे 27 बड़े शहरों में 146 कल कारखाने चिन्हित किए गए जो अपना रासायनिक कचरा गंगा में गिराते हैं। ऐसे तो 76 अकेले कानपुर में ही है। दवा, रंग, रोगन, कागज, चमड़ा, उर्वरक, तेलशोधक उद्योगों के अपसर्ज्य गंगा के पानी के लिए भयंकर रूप से हानिकारक हैं। इनमें सबसे हानिकारक डीटीटी है जो जल के साथ शरीर में प्रवेश करता है। अमेरिकी, यूरोपीय नदियों में डीटीपी बहाने पर सख्त प्रतिबंध हैं, क्योंकि यह कैंसर का एक बहुत बड़ा कारक है। विभिन्न त्योहारों पर पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन नदियों में किया जाता है। मूर्तियाें को रंगने में जो खतरनाक रसायन इस्तेमाल होते हैं उनमें प्रयुक्त तेज जहर कैडमियम, पारा, क्रोमियम, सीसा, चूना, सीमेंट, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि भी पानी में घुल जाते हैं। वाराणसी की बात करें। 60 हजार लोग रोज गंगा में नहाते हैं। यहां के गंगाजल के नमूना विश्लेषण में प्रति 100 मिली में 50,000 फीकल कोलीफार्म बैक्टीरिया मिला जो सामान्य से 10 हजार फीसद ज्यादा है। गंगा का 1760 किमी हिस्सा प्रदूषित है जो अन्य सभी भारतीय नदियों से बहुत ज्यादा है। नर्मदा 120 किमी, सिंधु का 70 किमी, ताप्ती का 160 किमी और साबरमती का 65 किमी हिस्सा प्रदूषित है।
सस्ती लागत पर ज्यादा बिजली प्राप्त करने की हवस ने हमारी सभी नदियों को बांध दिया। हिमालयी नदियों पर करीब 200 बांध है। गंगा पर तीन बड़े बांध हैं- अपर गंगा कैनाल- लोअर गंगा कैनाल, (हरिद्वार), फरक्का (बंगाल), और टिहरी (उत्तरांचल)। 20 मझोले दर्जे की जल-विद्युत परियोजनाएं हैं। गंगा की कमर तोड़ने के लिए ये योजनाएं कम नहीं हैं। 1916 में हिन्दू प्रतिनिधियों और ब्रिटिश सरकार के बीच इस मुद्दे पर समझौता हुआ था कि गंगा की प्राकृतिक धारा से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। ब्रिटिश सरकार ने तो समझौते का पालन किया, मगर स्वतंत्र भारत की सरकार ने तो जरा भी ख्याल नहीं किया।

भागीरथी का गंगा बनना

कई पौराणिक गाथाओं से जुड़ा देवप्रयाग वह मनोरम तीर्थस्थल है जहां भगीरथी नदी अलकनंदा से मिलकर गंगा का नाम पहली बार प्राप्त करती है। समुद्रतल से 618 मीटर की ऊंचाई पर, ऋषिकेष से 70 किमी दूरी पर स्थित देवप्रयाग से ही गंगा नदी अपना यह विश्वविख्यात नाम प्राप्त करती है।
ऋषिकेश से देवप्रयाग तक की सड़क गंगा नदी के साथ-साथ चलने के कारण रमणीक है। पर प्रस्तावित बांध निर्माण कार्यों के कारण आने वाले दिनों में इस सुंदर प्राकृतिक अंचल में भी बहुत उथल-पुथल हो सकती है, जैसा कि कुछ हद तक आज भी पत्थर तोड़ने के कारण हो रही है। इस क्षेत्र की सुंदरता व नदी के पहाड़ी बहाव को ध्यान में रखते हुए शिवपुरी व कोडियाल जैसे स्थानों को रफ्टिंग या नौका-विहार केंद्र के रूप में चुना गया है। नदी किनारे कुछ कैंप भी लगाए गए हैं।
पर इस क्षेत्र में पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए सबसे सुंदर स्थल तो भगीरथी व अलकनंदा का संगम स्थल ही है जो देवप्रयाग का एक छोटा पहाड़ी नगर है जहां जगह-जगह से ये नदियां दिखाई देती हैं।
गंगोत्री से निकली भगीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुंचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफानी शोर के साथ भगीरथी का शुध्द शीतल जल यहां बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भगीरथी यहां वास्तव में भागती हुई प्रतीतहोती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, मानो उसे बहुत जल्दी है। बहुत वेग, बहुत तेज है उसमें। अठखेलियां करती भगीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
पहाड़ों के एक ओर यों तेज वेग से भागती दौड़ती भगीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर बिल्कुल अलग ही दृश्य है। दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है। शांत, शीतल, अपेक्षाकृत मंद गति। गति में एक किस्म की स्थिरता, संतुलन। गहराई में बैठा संतोष का- सा अहसास। मंद-मंद बहना, पर निरंतर गतिशील। मन को शांति, संतोष देने वाली छवि।
देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भगीरथी अपनी तेज गति और तूफानी अंदाज से जुटी विशाल जलराशि को विस्तृत बिखेर देती है और उसकी लहरें अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा ने भी भगीरथी की ओर मुड़ने से पहले मानो ठिठक कर भगीरथी के तेज वेग, जोश को देखा है। इससे उसमें भी उत्साह पैदा हुआ है। अपने भीतर से उसने हिम्मत जुटाई है। नई स्फूर्ति का संचार हुआ है उसमें। उसे भी तो आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना होगा। अपनी मूल प्रकृति, संतुलन, गहराई में छिपी स्थिरता न खोते हुए भी उसने मुड़कर अपनी गति को बढ़ाया है। उमंग से आगे बढ़ी है अलकनंदा भगीरथी की ओर।
इतनी तैयारी के बाद, दो अलग-अलग स्वभावों के परस्पर मेल के लिए व्यापक होने के प्रयासों के बाद यह संगम बिना किसी तामझाम के बहुत ही सहज रूप में हो जाता है। संगम की यह सहजता-सरलता ही इसे विशेष बनाती हैं। बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से दोनों नदियां, उनकी लहरें एक-दूसरे से मिलती हैं। एक-दूसरे का स्वागत करती हैं, गले मिलती हैं। सहज रूप से परस्पर घुल-मिल जाती हैं। यह मिलना इतना सहज है कि ध्यान से देखने पर ही नजर में आता है। ऊपरी तौर पर देखें तो दोनों ओर से आती नदियां मिलकर एक बनती ही प्रतीत होती हैं। इस संगम से ही भगीरथी अपना नाम यहां खो देती है और बन जाती है गंगा। अलकनंदा की जलराशि अपनी शांति, अपना धैर्य बड़े गरिमामय ढंग से फैलाती है। फिर पहाड़ी चट्टानें उनके लिए संकरा मार्ग तैयार कर उन्हें और अधिक घुलने-मिलने का मौका देती हैं। जल्द ही दोनों भली-भांति घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। गंगा बन जाती हैं।

नहीं बिकेगा हीराकुंड का पानी - लिंगराज

पानी किसका है- ताल-तलैया और मेघ को आठो पहरन खेत में बुलाते पती किसान का या बहते पानी को बोतल में बंद करने और कारखानों की कालिख से काला करने वाली कंपनियों का? प्यासे कंठ और सूखी जमीन का या पानी को पेरकर पैसा निकालने वाले मुनाफाखोर कारोबारियों का? हीराकुंड बांध के पानी के अधिकार को लेकर इन सवालों ने एक आंदोलन का रूप ले लिया है। उड़ीसा से एक रिपोर्ट


छह नवम्बर को उड़ीसा के हीराकुंड बांध के समीप बांध के पानी पर अपने अधिकार की मुहर लगाने के लिए किसानों का एक अभूतपूर्व आंदोलन आयोजित किया गया। पश्चिम उड़ीसा कृषक संगठन समन्वय समिति के आह्वान पर आयोजित 'कानून तोड़ो आंदोलन में करीब 30 हजार किसानों ने हिस्सा लिया।
आंदोलन के अगले दिन राजनैतिक चालबाजी से भरे अपने बयान में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा कि किसानों का एक बूंद पानी उद्योगों को नहीं दिया जाएगा। उड़ीसा के तटीय इलाकों में बाढ़ नियंत्रण के मकसद से हीराकुंड बांध बना। उन इलाके के किसानों के लिए सिंचाई की व्यवस्था, पन बिजली और मछली उत्पादन भी अन्य मकसद थे। उद्योगों के लिए पानी मुहैया कराना कभी हीराकुंड बांध का उद्देश्य नहीं रहा। इस बांध के लए तब करीब 15 हजार परिवारों के लिए डेढ़ लाख लोगों को विस्थापित किया गया था। कुछ साल पहले सरकारी स्वीकारोक्ति के मुताबिक 3540 परिवारों को अब तक मुआवजा नहीं मिल सका है।
तय किया गया है कि रोजाना करीब 478 क्यूसेक्स पानी उद्योगों को दिया जाएगा। करार में शामिल प्रमुख कंपनियां हैं- भूषण स्टील कंपनी, वेदांत एल्युमिनियम कंपनी, आदित्य विरला की एल्युमिनिनयम कंपनी और ई थर्मल कंपनी।
एक क्यूसेक पानी से औसतल एक सौ एकड़ जमीन सिंचित होती है। करीब 50 हजार एकड़ जमीन की सिंचाई करके जितना पानी उद्योगों को देने का करार हुआ है। शुरू में सरकार ने बताया कि बांध का अतिरिक्त पानी उद्योगों ो दिया जाएगा। पहले बांध से 50 एकड़ जमीन को पानी मिलता था, जिसे बंद कर दिया । ऐसे में किसानों की मांग है कि अतिरिक्त पानी सबसे पहले उन जमीनों को मुहैया कराओ। सरकारी अध्ययन के मुताबिक 2002 तक हीराकुंड बांध का 27 प्रतिशत हिस्सा गाद (सिल्ट) से पट चुका है। महानदी के ऊपरी हिस्सों में छत्तीसगढ़ में पांच अन्य मझोले बांध बनने से हीराकुंड बांध की जल धारण क्षमता घटती जा रही है तथा सिंचाई सुविधा और बिजली उत्पादन प्रभावित हो रहा है। ऐसे में उद्योगों को पानी देने का कदम आत्मघाती साबित होगा।
इस सवाल को लेकर 2006 के शुरू में इलाके के किसानों को सचेत और संगठित करने की प्रक्रिया 'पश्चिम उड़ीसा कृषक संगठन समन्वय समिति' के बैनर तले आरंभ हुई। सात अप्रैल 2006 को संबलपुर आर. डी. सी. कार्यालय के सामने करीब सात हजार किसानों ने प्रदर्शन किया। उसी साल 26 अक्तूबर को हीराकुंड बांध की गांधी मीनार से नेहरू पीलर तक के 18 किलो मीटर लंबे रास्ते पर बीस हजार किसानों की मानव श्रृंखला बनायी गयी। गांव-गांव से राज्य के मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन तथा पोस्टकार्ड भेजने की मुहिम भी चली। बीस जनवरी 2007 को बरगढ़ में बीस हजार किसानों के चेतावनी समावेश का आयोजन किया गया। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए गत छह नवम्बर को आंदोलन का आह्वान किया गया।
छह नवंबर को हीराकुंड बांध के प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश कर कानून तोड़ने (सिविल नाफरमानी) का एलान किया गया। आंदोलन में बड़ी संख्या में संबलपुर, बरगढ़ और सोनपुर जिला के प्रभावित किसान जमा हुए। उनके अलावा गंधमाइन सुरक्षा आंदोलन, नियमगिरि सुरक्षा आंदोलन, लोयर सुकतेत बांध विरोधी आंदोलन तथा कालाहांड़ी, नूआपड़ा लिागिर, झारसुगुड़ा जिलों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे।
पांच दिन बांद 11 नवंबर को कृषक संगठन समन्वय समिति की ओर से एक प्रतीकात्मक कदम और उठाया गया। पानी लेने के लिए वेदांत कंपनी द्वारा बिछायी जा रही पाइपलाइन जहां तक बन चुकी है वही पर किसानों ने ईंट की दीवार खड़ी कर दी और नाम दिया - 'किसानों की लक्ष्मण रेखा'। कंपनी इससे आगे पाइप बिछाने बढ़ेगी तो उसका प्रतिरोध होगा। किसानों की यह प्रतीकात्मक दीवार कंपनियों और सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गयी है।

Hindi India Water Portal

Issues