यमुना तट पर उभरते पर्यावरणीय नासूर - मनोज कुमार मिश्र
दिल्ली की जान! यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार 1993 से ही 'यमुना एक्शन प्लान' जैसी कई योजनाओं द्वारा सफाई अभियान चला रहा है, जिस पर करोड़ों-अरबों रुपए लगाए जा चुके हैं। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय एक दशक से भी ज्यादा समय से राज्यों को उनकी लापरवाही पर चेतावनी दे रहे हैं। यहां तक कि माननीय उच्च न्यायालय, दिल्ली ने तो नदी के 300 मीटर के दायरे से प्रदूषण फैलाने वाले कारकों और कब्जों को हटाने के लिए 'ऊषा मेहरा समिति' नियुक्त कर दी, नतीजा एक साल के अन्दर ही 2006 में नदी तट पर बनी झुग्गियों को जोर-जबरदस्ती से हटा दिया गया। राष्ट्रीय संसद ने भी इस कार्यवाही पर अफसोस जाहिर करते हुए राज्य प्रशासन को तुरन्त आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिये। लेकिन शायद किसी को भी उन बेघर-उजड़े लोगों की परवाह ही नहीं थी।
किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए उसके 'इको सिस्टम' की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता। हालांकि नदी से मैला साफ करने के लिए महंगी-महंगी तकनीकें मौजूद हैं लेकिन अगर वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज तक 22 किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के 'रिवर बैड' या 'नदियों का तट' पर किसी भी तरह का कोई ढांचा खड़ा किया गया तो आने वाले खतरों से बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। 1962 और 2001 के मास्टर प्लान में 'जोन-ओ' नाम से अंकित क्षेत्र को पर्यावरणीय कारणों और रिवर बैड पर ग्राउण्ड वाटर को सलाना रिचार्ज करने की क्षमता के कारण ही अलंघनीय घोषित किया गया था। दिल्ली में पानी की बढ़ती हुई जरूरत का अधिकतम हिस्सा 'ग्राउंड वाटर' ही पूरा करता रहा है और आज भी कर रहा है।
नदियों का लंबा-चौड़ा तट न केवल ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए जरूरी है, बल्कि विध्वंसक बाढ़ के खतरों से बचाने के लिए भी जरूरी है। दिल्ली 1977, 1978, 1988 और 1995 में बाढ़ की विनाश लीला देख चुकी है। इसके अलावा, जरूरी तथ्य यह है कि भूकम्पीय खतरों से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों के ('जोन-4' जहां भूकम्प का सबसे ज्यादा खतरा है) राष्ट्रीय नक्शे में दिल्ली को भी अंकित किया गया है। क्योंकि यमुना का तट भी जोन-4 का हिस्सा है, इस दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है और इसी वजह से, विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस क्षेत्र में कुछ भी निर्माण कार्य करना संकट को दावत देना है।
यदि इस संबंध में पहले से कोई सावधानी न रखी गई तो विशेषज्ञों की राय में निकट भविष्य में जल्दी ही भूकम्प के कारण भीषण विनाश होगा, क्योंकि भूकम्प नहीं मारते बल्कि इमारतें मारती हैं, संवदेनशील क्षेत्र में बनी इमारतें नरसंहार करती हैं। इसलिए नदियों के तट पर कुछ भी बनाना, मौत को दावत देना है।
दिल्ली में यमुना तट को पहले ही 30 स्थानों से लगभग खत्म कर दिया गया है। अनधिकृत रिहायशी कालोनियां, पावरप्लांट, 1982 में एशियाड के लिए बनाया गया स्पोर्टिंग कॉम्प्लेक्स, दिल्ली सचिवालय (जो मूलरूप में 1982 में खिलाड़ियों का छात्रावास था) जैसी प्रशासनिक इमारतें और दिल्ली स्टॉक एक्सचेंज जैसे 'पर्यावरणीय-नासूर' इन स्थानों पर उभर आए हैं। इनमें से कई तो राज्य द्वारा बनवाए गए हैं जो नदी के पश्चिमी तट पर स्थित हैं और पूर्वी तट शास्त्री पार्क मैट्रों डिपो और यमुना मैट्रो डिपो के लिए कब्जाया जा रहा है। इतना ही नहीं इस क्षेत्र को व्यापारिक रूप से प्रयोग करने के लिए डीएनडी फ्लाईवे का इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रमाण के तौर पर यहां आयोजित किया जा चुका 'टाइम्स ग्लोबल विलेज' में तटों का व्यवसायीकरण साफ दिखाई देता है।
पूर्व के अनेक प्रशासनिक और गैर-प्रशासनिक विरोधों के बावजूद भी राजनीतिक संरक्षण में, यमुना तट के 100 एकड़ के दायरे में 'राष्ट्रीय सम्मान' की आड़ लेकर डीडीए (दिल्ली डेवलपमेंट ऑथोरिटि) द्वारा यमुना तट पर कब्जा किया जा रहा है, वह भी मात्र 10 दिन के लिए। अक्टूबर 2010 में होने वाले अन्तरराष्ट्रीय कॉमनवेल्थ खेलों के लिए। दिल्ली के लोगों को यह कह कर बहकाया जा रहा है कि 2010 के कॉमनवेल्थ खेल एक राष्ट्रीय गौरव की घटना है, जिससे देश की गरिमा का सवाल जुड़ा है। जबकि सच्चाई तो बिल्कुल उलट है- इसमें सरकार के खेल मंत्रालय का कोई योगदान नहीं है। कॉमनवेल्थ खेलों का प्रबन्धन और प्रशासन गैर-सरकारी निकाय द्वारा किया जाता है, इसके लिए लंदन स्थित 'कॉमनवेल्थ गेम्स् फेडरेशन' और दिल्ली स्थित 'इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन' है। भारत सरकार को नहीं बल्कि आईओए को सीजी (कॉमनवेल्थ गेम्स्) 2010 के आयोजन की जिम्मेदारी मिली है जबकि भारत सरकार ने डीडीए के माध्यम से और दिल्ली सरकार ने, आईओए को दरकिनार करते हुए, खुद ही खेलों के प्रबन्धन का सारा जिम्मा ओढ़ लिया है। नदियों के तट के 'विकास' के नाम पर तो कभी 'देश की इज्जत' का सवाल बनाकर अन्तरराष्ट्रीय खेलों के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए पूरे शहर को खतरे की बाढ़ में झोंका जा रहा है।
खेल गांव के लिए नदी तट पर स्थाई रूप से रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनाए जाने की योजनाएं चल रही हैं इन इमारतों के लिए यमुना की 100 एकड़ जमीन कब्जाई जाएगी। शायद ही आम आदमी इस बात को जानता है कि ये कालोनियां प्राइवेट बिल्डर्स द्वारा बनाई जांएगी और 10 दिन के खेलों का समापन होते ही, उसे बेच दी जाएंगी।
'बिल्डर-डेवलेपर्स' की यमुना तट को कब्जाने की नीयत का इस तथ्य से खुलासा होता है कि खेल गांव बनाने की योजना बनाते समय डीडीए ने इस बात पर विचार तक नहीं किया कि क्या ''यह किसी अन्य स्थान पर बनाया जा सकता है?'' 'समय का अभाव' और 'देश की इज्जत' के नाम पर डीडीए ने पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर आवश्यक 'पर्यावरणीय स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली, जबंकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने केवल अस्थायी निर्माण के लिए ही स्वीकृति दी थी।
तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, सुरक्षित जीवन के अधिकार, यहां तक कि पीने के पानी को छीना जाता हुआ देखकर, देश का आम-आदमी कब तक चुप रह सकता है?
किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए उसके 'इको सिस्टम' की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता। हालांकि नदी से मैला साफ करने के लिए महंगी-महंगी तकनीकें मौजूद हैं लेकिन अगर वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज तक 22 किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के 'रिवर बैड' या 'नदियों का तट' पर किसी भी तरह का कोई ढांचा खड़ा किया गया तो आने वाले खतरों से बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। 1962 और 2001 के मास्टर प्लान में 'जोन-ओ' नाम से अंकित क्षेत्र को पर्यावरणीय कारणों और रिवर बैड पर ग्राउण्ड वाटर को सलाना रिचार्ज करने की क्षमता के कारण ही अलंघनीय घोषित किया गया था। दिल्ली में पानी की बढ़ती हुई जरूरत का अधिकतम हिस्सा 'ग्राउंड वाटर' ही पूरा करता रहा है और आज भी कर रहा है।
नदियों का लंबा-चौड़ा तट न केवल ग्राउंड वाटर रिचार्ज के लिए जरूरी है, बल्कि विध्वंसक बाढ़ के खतरों से बचाने के लिए भी जरूरी है। दिल्ली 1977, 1978, 1988 और 1995 में बाढ़ की विनाश लीला देख चुकी है। इसके अलावा, जरूरी तथ्य यह है कि भूकम्पीय खतरों से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों के ('जोन-4' जहां भूकम्प का सबसे ज्यादा खतरा है) राष्ट्रीय नक्शे में दिल्ली को भी अंकित किया गया है। क्योंकि यमुना का तट भी जोन-4 का हिस्सा है, इस दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है और इसी वजह से, विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस क्षेत्र में कुछ भी निर्माण कार्य करना संकट को दावत देना है।
यदि इस संबंध में पहले से कोई सावधानी न रखी गई तो विशेषज्ञों की राय में निकट भविष्य में जल्दी ही भूकम्प के कारण भीषण विनाश होगा, क्योंकि भूकम्प नहीं मारते बल्कि इमारतें मारती हैं, संवदेनशील क्षेत्र में बनी इमारतें नरसंहार करती हैं। इसलिए नदियों के तट पर कुछ भी बनाना, मौत को दावत देना है।
दिल्ली में यमुना तट को पहले ही 30 स्थानों से लगभग खत्म कर दिया गया है। अनधिकृत रिहायशी कालोनियां, पावरप्लांट, 1982 में एशियाड के लिए बनाया गया स्पोर्टिंग कॉम्प्लेक्स, दिल्ली सचिवालय (जो मूलरूप में 1982 में खिलाड़ियों का छात्रावास था) जैसी प्रशासनिक इमारतें और दिल्ली स्टॉक एक्सचेंज जैसे 'पर्यावरणीय-नासूर' इन स्थानों पर उभर आए हैं। इनमें से कई तो राज्य द्वारा बनवाए गए हैं जो नदी के पश्चिमी तट पर स्थित हैं और पूर्वी तट शास्त्री पार्क मैट्रों डिपो और यमुना मैट्रो डिपो के लिए कब्जाया जा रहा है। इतना ही नहीं इस क्षेत्र को व्यापारिक रूप से प्रयोग करने के लिए डीएनडी फ्लाईवे का इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रमाण के तौर पर यहां आयोजित किया जा चुका 'टाइम्स ग्लोबल विलेज' में तटों का व्यवसायीकरण साफ दिखाई देता है।
पूर्व के अनेक प्रशासनिक और गैर-प्रशासनिक विरोधों के बावजूद भी राजनीतिक संरक्षण में, यमुना तट के 100 एकड़ के दायरे में 'राष्ट्रीय सम्मान' की आड़ लेकर डीडीए (दिल्ली डेवलपमेंट ऑथोरिटि) द्वारा यमुना तट पर कब्जा किया जा रहा है, वह भी मात्र 10 दिन के लिए। अक्टूबर 2010 में होने वाले अन्तरराष्ट्रीय कॉमनवेल्थ खेलों के लिए। दिल्ली के लोगों को यह कह कर बहकाया जा रहा है कि 2010 के कॉमनवेल्थ खेल एक राष्ट्रीय गौरव की घटना है, जिससे देश की गरिमा का सवाल जुड़ा है। जबकि सच्चाई तो बिल्कुल उलट है- इसमें सरकार के खेल मंत्रालय का कोई योगदान नहीं है। कॉमनवेल्थ खेलों का प्रबन्धन और प्रशासन गैर-सरकारी निकाय द्वारा किया जाता है, इसके लिए लंदन स्थित 'कॉमनवेल्थ गेम्स् फेडरेशन' और दिल्ली स्थित 'इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन' है। भारत सरकार को नहीं बल्कि आईओए को सीजी (कॉमनवेल्थ गेम्स्) 2010 के आयोजन की जिम्मेदारी मिली है जबकि भारत सरकार ने डीडीए के माध्यम से और दिल्ली सरकार ने, आईओए को दरकिनार करते हुए, खुद ही खेलों के प्रबन्धन का सारा जिम्मा ओढ़ लिया है। नदियों के तट के 'विकास' के नाम पर तो कभी 'देश की इज्जत' का सवाल बनाकर अन्तरराष्ट्रीय खेलों के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए पूरे शहर को खतरे की बाढ़ में झोंका जा रहा है।
खेल गांव के लिए नदी तट पर स्थाई रूप से रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनाए जाने की योजनाएं चल रही हैं इन इमारतों के लिए यमुना की 100 एकड़ जमीन कब्जाई जाएगी। शायद ही आम आदमी इस बात को जानता है कि ये कालोनियां प्राइवेट बिल्डर्स द्वारा बनाई जांएगी और 10 दिन के खेलों का समापन होते ही, उसे बेच दी जाएंगी।
'बिल्डर-डेवलेपर्स' की यमुना तट को कब्जाने की नीयत का इस तथ्य से खुलासा होता है कि खेल गांव बनाने की योजना बनाते समय डीडीए ने इस बात पर विचार तक नहीं किया कि क्या ''यह किसी अन्य स्थान पर बनाया जा सकता है?'' 'समय का अभाव' और 'देश की इज्जत' के नाम पर डीडीए ने पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर आवश्यक 'पर्यावरणीय स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली, जबंकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने केवल अस्थायी निर्माण के लिए ही स्वीकृति दी थी।
तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, सुरक्षित जीवन के अधिकार, यहां तक कि पीने के पानी को छीना जाता हुआ देखकर, देश का आम-आदमी कब तक चुप रह सकता है?
'बिल्डर-डेवलेपर्स' के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि केन्द्रीय खेल मंत्री अकेले ही इस सारे षडयंत्र का विरोध कर रहे हैं क्योंकि अन्तराष्ट्रीय खेलों के लिए यमुना तट पर होने वाले निर्माण की कीमत, देश की जनता को चुकानी होगी। अनुवाद-मीनाक्षी अरोड़ा(पीएनएन)