जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए नई तकनीक

विष्णु पांडे / कानपुर

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और हरकोर्ट बटलर टैक्ोलॉजिकल इंस्टीटयूट (एचबीटीआई) ने प्राकृतिक संसाधन जल के प्रदूषण को रोकने के लिए एक नई तकनीकि को ईजाद किया है।
यह नई तकनीकि आईआईटी कानपुर के पर्यावरणीय इंजीनियर विनोद तारे ने सैन सिस्टम तकनीक के आधार पर विकसित की है। इस तकनीक में प्रदूषण को रोकने के लिए जीरो डिस्चार्ज सिद्वांत का प्रयोग किया जाएगा।
इस तकनीक में टायलेट में प्रयोग किये जाने वाले पानी को सफाई के बाद पुन: प्रयोग किया जा सकता है। इसमें अपशिष्ट पदार्थ के ठोस और तरल भाग को अलग-अलग टैकों में एकत्रित कर लिया जाएगा। इन टैंको में जमा ठोस अपशिष्ट को खाद और तरल अपशिष्ट को तरल उर्वरक के रुप में विकसित किया जा सकेगा। इसके लिए टायलेट सीट के नीचे पानी को अलग करने के लिए एक यंत्र लगाया जाएगा।
तारे के अनुसार वर्तमान में टायलेट में अपशिष्ट को साफ करने के लिए स्वचछ पानी का प्रयोग किया जाता है। शहरों के सीवरों से नदी में जाने वाले पानी का लगभग 90 फीसदी हिस्सा बिना किसी दोहन के ही नदियों में पहुचाया जाता है, जो जल प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण है। इस तकनीकि से न केवल जल प्रदूषण को रोका जा सकेगा साथ ही श्रम और पूंजी के अतिव्यय को भी रोका जा सकेगा।
तारे और उनके छात्रों द्वारा निर्मित की गई इस तकनीकि को भारतीय रेल द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई है और रेलवे अपनी आगामी परियोजना में इसका इस्तेमाल करने वाला है। इस बाबत डॉ तारे ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि इस तकनीकि का सबसे पहला प्रयोग चेन्नई और त्रिवेन्द्रम रेलवे के मध्य किया जाएगा। इसके अलावा यूनीसेफ भी इस तकनीकि के लिए आईआईटी से संपर्क कर रहा है।

इसके अलावा जल क्षेत्रों में प्रदूषण की दर को नापने के लिए एचबीटीआई के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख दीपेश सिंह ने एक कंप्यूटर प्रोग्राम का निर्माण किया है। इससे किसी क्षेत्र में उपस्थित जल क्षेत्रों में प्रदूषण की जांच की जा सकेगी और समय-समय पर बदल रहें प्रदूषण के आंकड़ो को भी दिखाया जा सकेगा।
दीपेश सिंह ने बताया कि इस तकनीकि से बिना किसी यंत्र की सहायता के किसी स्थान में जल की गहराई को भी नापा जा सकता है। अभी तक जल प्रदूषण को जांचने के लिए ट्रायल और एरर तकनीकि का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने भी इस तकनीकि को रायबरेली के 9 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगाने के लिए भी रुचि दिखाई है।

नदियों के प्रदूषण पर धयान जरूरी

संजय सिंह- मीडिया स्टार


राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे बनें भव्य अक्षरधाम मंदिर और २०१० में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनने वाले फ्लेट दिल्ली के विकास को सिद्ध करते हैं लेकिन विशेषज्ञों ने इन दोनों निर्माणों के संबंध में जो विचार व्यक्त किये हैं उन से दिल्ली वाले निराश हैं।

भारतीय नदियों की स्थिति पर हाल ही में आयोजित संगोष्ठी में उपरोक्त निर्माण के बारे में कहा गया कि ये निर्माण विशेषज्ञों की राय के विरूद्ध कराये गये हैं और ये आत्म हत्या की तरह है।

संगोष्ठी में यमुना जय अभियान के डॉ० मनोज मिश्रा के अनुसार खेल गांव बनाने के पीछे एक बड़ा घपला है।खेल तो एक बहाना है इसके हो जाने के बाद वहां बनें हुए फ्लेट प्राइवेट मालिकों को बेच दिये जायेंगे जिस से डीडीए और ठीकेदारों को करोड़ों रूपये मिलेंगे।

डॉ० मिश्रा ने दलील पेश करते हुए कहा कि नेंशनल इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीटियूट (एन ई ई आर आई) ने अपनी एक रिपोर्ट में सलाह दी थी कि यमुना के किनारे स्थायी अवासीय ढांचा न बनाया जाये। उन्हों ने कहा कि यमुना से संबंधित स्टैंडिंग कमीटी ने सूचना अधिकार के अन्तर्गत आवेदन करने वाले एक व्यक्ति को बताया था कि उसने नदी के किनारे किसी स्थायी ढांचा की निर्माण की अनुमति नहीं दी है।

दिल्ली फाल्ट लाईन पर बसी हुई है और विशेषज्ञों के जायजे के अनुसार शहर में इंजीनियर स्केल के अनुसार सात की क्षमता वाला भुकंप आ सकता है जिसमें नदी के आस पास बने मकान बराबर हो जायेंगे। प्रो० मिश्रा ने उन लोगों को चेतावनी दी जो यूरोपीय नगरों आक्सफोर्ड और वायना की तरह नदी के किनारे के हिस्सों को प्रगति देने की बातें करते हैं। उन्हों ने कहा कि उपरोक्त यूरोपीय शहरों में साल भर बारिश होती रहती है जबकि दिल्ली में मुशिकल से तीन महीने बारिश होती है।

विशेषज्ञों के जायजे और जायजों पर डॉ० मिश्रा के विचार ध्यान देने योग्य हैं। यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि यमुना स्टैंडिंग समिति की अनुमति के बिना निर्माण शुरू किस तरह हुआ? ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि खेल गांव के निर्माण के पीछे व्यापारिक उद्देश्यों को सामने रखा जा रहा है। विकास का सब्ज+ बाग दिखाकर जान बुझ कर अगर दिल्ली वालों को खतरे में डाला जा रहा है तो यह दुःख की बात है। सरकार को इस संबंध में सक्रिय हो जाना चाहिए।

ये अच्छी खबर है कि गंगा यमुना और अन्य बड़ी नदियों में बढ़ते प्रदूषण से चिंतित राज्य सरकारों के साथ दस्तावेजी समझौते पर हस्ताक्षर करने पर विचार कर रही है ताकि वह सिवेज ट्रेटमेंट प्लांटों का आरंभ कर सके।

राज्यों में पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जो सिवेज प्लांट लगाये हैं उन में से अधिकतर या तो खराब पड़े हैं या तो फिर अच्छी तरह से काम नहीं कर रहे हैं। परिणामस्वरूप शहर का कूड़ा नदियों में यूं ही जाकर गिर जाता है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधिकारी ने बताया कि जब राज्य सरकारें कूड़ा साफ करने वाले प्लांटों को चालू रखने के लिए समझौते करेंगी तो फिर उनकी देख रेख और चलाने की उनकी जिम्मेदारी हो जायेगी। अधिकारी ने बताया कि इस संबंध में राज्य सरकारों और दूसरे मंत्राालयों से बात चीत जारी है।

देश के बड़े और छोटे शहरों में हर वर्ष २९ हजार मिलियन लीटर सिवेज रोजाना पैदा होता है जबकि केवल ६ हजार मिलियन लीटर सिवेज की सफाई की गुंजाईश है। उपरोक्त अधिकारी के अनुसार दुःख की बात ये है कि इस क्षमता का भी पूरा इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

राज्य सरकारों का सहयोग नदियों से साफ करने से संबंधित प्रोजेक्टों को चलाने में सबसे बड़ी रूकावट है।रीभर एक्शन प्लांट के अन्तर्गत कूड़ा साफ करने वाले प्लांट तैयार करने पर करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं लेकिन कोई उत्साहवर्द्धक परिणाम सामने नहीं आ रहा है।प्लांटों के लिए पर्र्याप्त फंड चाहिए लेकिन राज्य सरकारें इस मोर्चे पर भी नाकाम हैं। इन प्लांटों को चलाने के लिए बिजली भी पूरी नहीं पड़ती। पर्यावरण और वन मंत्रालय प्रदूषण को रोकने के लिए निर्णायक बनाता है लेकिन नदियों के किनारे बढ़ती आबादी की वजह से वित्तीय संसाधन की उपलब्धता और कामों के बीच हमेशा अंतर रहता है।

कानपुर में भूजल को साफ करने के लिए अभियान की शुरुआत

विष्णु पाण्डेय / कानपुर

कानपुर के विभिन्न इलाकों में प्रदूषित भूजल को साफ करने का अभियान शुरू करने के लिए उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा है।
प्रस्ताव में मंत्रालय से जमीनी पानी को साफ करने के लिए जांची परखी बायो-रेमिडेशन तकनीक को प्रायोजित करने पर विचार करने का अनुरोध किया गया है। यहां के नौरीखेरा और जाजमऊ इलाके में पानी में हानिकारक तत्व हेक्सावेलेंट क्रोमियम की मात्रा तय मानक से 100 गुना ज्यादा है।
राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जमीन के अंदर गंदे पानी से हानिकारक तत्वों को हटाने में नई बायो-रेमिडेशन तकनीक की उपयोगिता की जांच के मद्देनजर अध्ययन भी कर रहा है। इस प्रोजेक्ट को अमेरिका के ब्लैकस्मिथ इंस्टिटयूट द्वारा तैयार और लागू किया गया है। ब्लैस्मिथ पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर नजर रखने के अलावा इसके समाधान की दिशा में उपाय सुझाने वाली अग्रणी संस्था है।
इस संस्थान ने भारत में की वजह से प्रदूषित हो रहे पानी को साफ करने के काम में अग्रणी भूमिका अदा की है। हेक्सावेलेंट क्रोमियम का इस्तेमाल चमड़ा उद्योग में किया जाता है। गौरतलब है कि कानुपर भारत में चमड़ा उद्योग का सबसे बड़ा केंद्र है और इस वजह से आसपास के इलाकों का भूजल इस विषैले पदार्थ से संक्रमित हो रहा है। अध्ययन बताते हैं कि हेक्सावेलेंट क्रोमियम की वजह से फेफड़े का कैंसर होने का खतरा होता है।
साथ ही इस हानिकारक तत्व की गंध की वजह से सांसों की बीमारी भी हो सकती है। साथ यह किडनी और लीवर को भी नुकसान पहुंचा सकता है। जमीनी पानी को साफ करने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने संस्थान के साथ मिलकर ट्रायल प्रोग्राम भी शुरू किया है। इसके तहत भूजल में कुछ रसायन डाला जाता है, जिसके परिणामस्वरूप क्रोमियम से जहरीले तत्व दूर हो जाते हैं।
यह ट्रायल काफी हद तक सफल रहा है। यहां तक कि कुछ टेस्ट में हेक्सावेलेंट क्रोमयिम की मात्रा नहीं के बराबर पाई गई। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी राधेश्याम ने बताया कि यह भूजल को साफ करने की दुनिया की आधुनिक तकनीक है।
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खुशियों की सौगात देने वाली सांवली नदी देग

पंजाब की भूमि अपनी पांच नदियों की विशेषता से प्रसिध्द है। बहुत कम लोग जानते हैं कि पंजाब में केवल पांच नदियां नहीं हैं। इसकी भूमि पर रक्त नाड़ियों की भांति अनेक छोटी-बड़ी नदियां प्रवाहित होती हैं। बल्कि हर नगर की अपनी एक नदी है। मगर हमारे लोग नदियों को कम ही पहचानते हैं।
जब मैं प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर रहा था तो मेरे सामने बार-बार देविका नदी की धारा चलने लगती थी। पंजाब के मानचित्र में और फिर भूमि पर देविका को देखता तो मुझे अनुभव होता कि वह नदी भी कभी एक शक्तिशाली जलधारा रही होगी। इसे ही अलबरूनी ने अपने ग्रंथ 'अलहिंद' में कहा है कि वह सौवीरा अर्थात मुल्तान देश में प्रवाहित थी।
समय की गति के साथ देविका का स्रोत काफी हद तक कम हो गया और लोगों ने भी उसका नाम देविका से देग और फिर लोक मुहावरे में 'डेक' बना लिया।

देग के ईद-गिर्द बसने वाले लोगों ने मुझे बताया था कि-एक बरसाती नदी है, मगर जब उसमें पर्वतमाला का सांवला पानी आता है तो फसल खूब पैदा होती है। इसके पानी में ऊपर पहाड़ से गारा बहुत आता है। इसका मतलब है कि देग का स्रोत ऊपर हिमालय पर्वत नहीं, बल्कि शिवालिक पर्वतमाला में ही है। मगर हमें लगता है कि कहीं नगर के बाहर निकट ही इसका स्रोत है। क्योंकि अचानक ही इसके पाट में पानी भर जाता है। अपने स्रोत से चलकर रावी में संगम तक उसकी रफ्तार इसी प्रकार की अकस्मात किस्म की है। विश्वासहीन सी... देविका अथवा देग का स्रोत मैनाक पर्वतमाला (शिवालिक) में जम्मू क्षेत्र के जसरोता के आंचल में से आरंभ होता है, मगर उस पर्वतमाला पर क्योंकि हिमपात नहीं होता, इसलिए देविका का स्वभाव अब सदानीरा नहीं रहा। वर्षा ऋतु के अलावा उसमें बहुत कम पानी रहता है। फिर भी उसकी धारा कुछ समय में ही अपने क्षेत्र की भूमि को जितना उपजाऊ बना देती है, उसी वरदान के कारण लोग उसे वर्ष भर याद रखते हैं। मोह-मोहब्बत से।
पाणिनी ने भी 'अष्टाध्यायी' में लिखा है कि देविका अपने तटों पर रौसली (रजसवला अथवा बरसाती) मिट्टी की एक तह छोड़ जाती है जो फसल के लिए लाभकारी होती है। किसान को सुख देती है।
मेरे एक मित्र जगदीश सिंह नामधारी ने बताया था कि जितना बढ़िया बासमती धान इसके पानी के निकट पैदा होता है, और कहीं शायद ही होता हो।
मंडी मुरीदके और कामोके से जो सुगंधित चावल विदेशों में जाते हैं, उनका मूल्य बहुत अधिक है।
'स्यालकोट और शेखूपुरा के क्षेत्र को तो देग ने स्वर्ग बना दिया है।' नामधारी जगदीश सिंह कहता था हंसकर।
पिछले वर्ष जब मैं 'उन्नीसवीं सदी का पंजाब' नामक पुस्तक पढ़ रहा था तो उसमें स्यालकोट शहर के वर्णन में डेक नदी का स्वरूप पूरी तरह साकार हो गया,'स्यालकोट नगर में निचली तरफ एक नदी है जिसे डेक (देग) कहते हैं। यह नदी वर्षा के दिनों में जीवित हो जाती है। कहा जाता है कि अतीत में यह सदानीरा थी। वर्षा में इसे पार करना कठिन था। हजरत शाह दौला दरवेश ने आने-जाने वाले लोगों के लिए इसके पाट पर एक पुल बनाया, जिसे शाह दौला पुल कहते थे।' देग नदी खैरी रहाल नाम के गांव के पास से फूट कर जम्मू के गांव-मोरचापुर डबलड़, मांजरा और आरीना आदि में प्रवाहित होती है। सईयांवान गांव के निकट और करटोपा के बीच में पहुंचकर यह कहीं सूखी और कहीं प्रवाहित दिखाई देती है। वहां से यह स्यालकोट के नीचे की ओर जा निकलती है। आगे चलकर सोहदरा तथा भोपाल वाला तक चली जाती है। फिर कावांवाला, धड़ और नुकल गांव के बराबर बिखर जाती है। वहां इसका नाम 'कुलहरी' है। नदी की दूसरी ओर स्यालकोट के पूर्व में रंगपुर, रायपुरा तथा जठापुरा बस्तियां हैं। इन्हें बडेहरा खतरियों ने आबाद किया था। रंगपुर में कागज तैयार करने वाले कारीगर रहते हैं। माबड़ों की औरतें रंगदार रेशमी धागे से सफेद सुर्ख वस्त्रों पर कसीदाकारी का काम करती हैं।
पंजाब में फिरंगी सरकार से पूर्व रावी और चिनाब के बीच वाला अधिक क्षेत्र बिल्कुल जंगल था और जंगली लोग देग के निकट आबाद थे। इन लोगों के बारे में ही प्रो. पूर्ण सिंह ने अपनी पुस्तक 'खुले आसमानी रंग' में लिखा था-'यहां मुझे मालुम हुआ कि हवा, पानी, मिट्टी, प्रकाश, चांद, सूर्य, आदमी, जानवर, पंछी, प्यार के बारीक रेशमी धागे से एक जीवन में बंधे हुए हैं। मुर्गे की बांग और प्रभाव के मेघों के रंगों का सौंदर्य दोनों की कोई मिली-जुली उकसाहट है। फूलों का खिलना और सूर्य प्रकाश का नित नए विवाह की भांति प्रसन्नता और चाव में अपना एक जादुई अचम्भा है। किरण फूल के दिल में कुछ कह जाती है और दिन भर फूल अपनी छोटी सी झोंपड़ी में अनंत हुआ, आता ही नहीं।'
प्रो. पूर्ण सिंह की कविता 'जांगली छोहर' भी इस क्षेत्र के जीवन की गवाही बनती है। प्रो. पूर्ण सिंह महान प्रतिभा का कवि था और वह मानवीय मानसिकता में गहराई तक पहुंचकर मानव के सबसे अधिक प्रिय भाव को प्रकाशित कर देता था। उसने इस क्षेत्र के बारे में लिखा था, 'मुझे महसूस हुआ है जैसे मैं किसी जादू के देश में आ गया हूं। यहां बच्चे फूल हैं, वृक्ष मानव हैं और नारियां सौंदर्य का साकार स्वरूप दिखाई देती हैं। धरती आकाश जहां मिलते हैं, वहां ही मैत्री का स्नेह है।'
पुरातन शास्त्रों में आता है कि मूला स्थान अर्थात मुल्तान भी देविका की धारा के निकट ही था। यह बात निश्चित है कि देविका की धारा मुल्तान तक भी जाती होगी। अवश्य ही...
देग नदी का फासला अपने स्रोत से चलकर रावी में संगति तक दो सौ किलोमीटर से अधिक ही है। रावी के पानी में यह दाएं हाथ से शामिल होती है। जिस प्रकार रावी और पंजाब की शेष नदियों की चाल तेज रही है, वैसे ही लोगों के स्वभाव भी तीखे और रुष्ट किस्म के रहे हैं। नगरों में यदि शिष्ट स्वभाव के कुटिल लोग रहते थे तो दूर जंगलों में सादे लोग भले मानस किस्म के-जिन्हें हम जांगली कहते थे। वे जांगली खुद को राजपूत समझते थे। वे शूरवीर लोगों से अपना विरसा मिलाकर प्रसन्न होते थे। नूरा नहंग इस क्षेत्र का लोककवि था। वह अपने खेतों में झोंपड़ी बनाकर रहता था और आज भी जांगली लोगों के दिलों की धड़कन में बसा-रसा हुआ है-

पंजाबियों की बात कैसी
लड़ना है किस काम का
रक्तपात होता है लोगों का
रक्तरंजित हुआ है नदी का पानी।
कई जगहों पर रावी और देग के निकट बसने वाले लोगों की भाषा बहुत मधुर और शिष्ट है-
जितवल यार उतेवल काअबा।
मैं हज करों दिहुं रातीं।
न गुण रूप न दौलत पल्ले।
हिक ओंदी जात पछाती।


रावी के उत्तर में रावी और चिनाब के बीच के क्षेत्र में जो छोटी तूफानी नदियां चलती हैं, उनमें से देग अधिक शक्तिशाली है। शायद कभी, शताब्दियों पूर्व जब सिंधु और राजस्थान में सागर रहा होगा और शिवालिक में हिमपात तथा वर्षा का जोर रहा होगा, तब देविका भी शक्तिशाली धारा के रूप में चलती होगी। मगर अब तो एक मामूली जलधारा ही है। हां, पूर्ण भगत और महान पंजाबी लेखक और चिंतक गुरब2श सिंह प्रीतलड़ी इसी क्षेत्र से संबंध रखते थे, इसलिए देविका भी महान रही होगी। मगर अब तो मुझे लगता है, जैसे वह एक मुल्तानी काफी सुनाकर हमें कह रही हो-

सजनां दी महमानी खातर
खून जिगर दा छानी दा।
की साडा मंजूर ना करसें
हिक कटोरा पाणी दा?



देविका अथवा देग का स्रोत मैनाक पर्वतमाला (शिवालिक) में ज6मू क्षेत्र के जसरोता के आंचल में से आरंभ होता है, मगर उस पर्वतमाला पर क्योंकि हिमपात नहीं होता, इसलिए देविका का स्वभाव अब सदानीरा नहीं रहा। वर्षा ऋतु के अलावा उसमें बहुत कम पानी रहता है। फिर भी उसकी धारा कुछ समय में ही अपने क्षेत्र की भूमि को जितना उपजाऊ बना देती है, उसी वरदान के कारण लोग उसे वर्ष भर याद रखते हैं। मोह-मोहब्बत से...। पाणिनी ने भी 'अष्टाध्यायी' में लिखा है कि देविका अपने तटों पर रौसली (रजस्वला अथवा बरसाती) मिट्टी की एक तह छोड़ जाती है जो फसल के लिए लाभकारी होती है

पिघलता गंगोत्री : क्या गंगा अक्षुण्ण रहेगी?

गौमुख की राह उमंग और आसभरी होती है. चट्टानों पर आपका एक-एक कदम उस ग्लेशियर की तरफ ले जाता है जो गंगा का उद्भव है. घाटी में नीचे भागीरथी चीड़ व देवदार के बीच उछलती बहती है. जैसे-जैसे ग्लेशियर नजदीक आता जाता है. पेड़ दुर्लभ होते जाते हैं, केवल चट्टानें व पत्थर ही नजर आते है. यहां भी छोटे-छोटे मंदिर व ढाबे जरूर मिल जाएंगे. गंगोत्री ग्लेशियर 30 डिग्री 44' से 30 डिग्री 56' उत्तरी अक्षांश व 79 डिग्री 04' से 79 डिग्री 16' पूर्वी देशांतर के बीच फैला है. इसके सामने के मुख पर एक विशाल हिम गुफा है. भौगोलिक रूप से यह उच्च हिमालय के क्रिस्टेलाइन क्षेत्र है. यह छोटे-बड़े ग्लेशियरों का समूह है. मुख्य ग्लेशयर की लंबाई 30.20 कि.मी. व चौड़ाई 0.5-2.5 कि.मी. है. चार हजार फीट ऊंचाई पर स्थित गौमुख भागीरथी नदी का स्रोत है जो देवप्रयाग में अलकनंदा से संगम के बाद गंगा कहलाती है.
जब आप गंगा ग्लेयिर या गौमुख पर पहुंचते है तो आपकी कल्पनाएं चकनाचूर हो जाती है. यह कोई विशाल ग्लेशियर नहीं है वरन बर्फ से ढंकी चट्टानें भर है. गंगोत्री ग्लेशियर दिन-ब-दिन सिकुड़ रहा है. रास्ते में मीनारों की तरह खड़ी चट्टानों पर लिखा मिलेगा, गंगोत्री 1991 में, गंगोत्री 1961 में, गंगोत्री .... में. इसकी सिकुड़ती लंबाई को उन चट्टानों पर रिकार्ड किया जाता है. जो कभी ग्लेशियर का एक हिस्सा थीं. यदि गंगोत्री ग्लेशियर इस तरह पिघलते रहे, तो गंगा का भविष्य कैसा होगा? क्या ग्लोबल वार्मिंग उस नदी को सुखा देगा जो 50 करोड़ लोगों की जीवन रेखा है? पिघलते ग्लेशियर बर्फ का सबसे बड़ा भू भाग बनाते हैं. यहां से 7 महानदियां (यमुना, सिंधु व ब्रह्मपुत्र आदि) निकलती है. राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन संबंधी सरकारी पेनल (आई.पी.सी.सी.) विश्व भर में जलवायु परिवर्तन पर किए गए वैज्ञानिक शोध को इकट्ठा करती है.
पेनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सख्त चेतावनी दी है: 'सारी दुनिया में हिमालय के ग्लेशियर सबसे तेजी से पिघल रहे हैं और अगर यही दर जारी रही तो सन् 2035 या शायद और भी पहले ये विलुप्त हो जाएंगे.' वर्तमान का 5 लाख का वर्ग कि.मी. बर्फीला क्षेत्र एक लाख वर्ग कि.मी. रह जाएगा. ग्लेशियरों के पिघलने का वर्तमान रुझान गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र व उत्तर भारतीय मैदानों में बहने वाली अन्य नदियों को मौसमी बना देगा. लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ग्लेशियर भूसंरचना विज्ञानी मिलाप शर्मा का मानना है यद्यपि ग्लेशियर पिघल रहे हैं. फिर भी वे गुम होने नहीं जा रहे हैं क्योंकि पिछले 30-35 वर्षों से सिकुड़ने की दर में कमी आई है. करंट साइंस में छपे एक लेख में किरीट कुमार व उनके साथियों ने भी यही कहा है कि ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम से पिछले 69 वर्षों में 15.19 मीटर सुकड़न पता चली है. यद्यपि सन् 1971 के बाद सिकुड़न की दर कम हुई है और 2004-05 के बीच तो बेहद कम रही है.
यह अध्ययन एक अन्य तथ्य की ओर इशारा कर रहा है कि ग्लेशियर का दक्षिणी मुख उत्तरी भाग की तुलना में धीमे पिघल रहा है. दूसरी ओर अधिकतम सिकुड़न ग्लेशियर की मध्य रेखा में पाई गई है. इनका समर्थन करते हैं लखनऊ के रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर के ए.के. टांगरी. उनके अनुसार ग्लेशियर पिघलने की दर में कमी से तापमान बढ़ने की दर में भी कमी का संकेत मिलता है. हिमालय पर तापमान परिवर्तन का कोई अध्ययन नहीं हुआ है. दरअसल ऊपरी हिमालय पर दशकों से तापमान के रिकार्ड लेना मुश्किल रहा है. तापमान में वृध्दि के सही रुझान को समझने के लिये पिघले 30-40 वर्षों के आंकड़ों की जरूरत होती जबकि मात्र 7 वर्ष पहले कुछ स्वचलित मौसम केंद्र स्थापित किये गये हैं. वैसे हिमालय को छोड़कर शेष भारत में तापमान 0.42 डिग्री से 0.57 डिग्री सेल्सियस प्रति 100 वर्ष की दर से बढ़ रहा है. आई.पी.सी.सी. के अनुसार पूरे विश्व का तापमान 0.74 डिग्री सेल्सियस प्रति शब्द बढ़ा है.
सन् 1980 से भागीरथी क्षेत्र में बर्फ का भाग कम हो रहा है. अर्थात् नदी को पानी देने के लिये कम बर्फ उपलब्ध है. टांगरी का मत है कि भागीरथी के जलग्रहण क्षेत्र में कम बर्फ पिघलकर कम पानी पहुंच रहा है. राष्ट्र जल विज्ञान संस्थान, रुड़की के हिमखंड विशेषज्ञ मनोहर अरोड़ा के अनुसार ''गंगा अपने पानी के लिए गौमुख ग्लेशियर पर पूरी तरह निर्भर नहीं है.'' पश्चिम बंगाल तक का ज्यादातर जलग्रहण क्षेत्र वर्षा से ही जल प्राप्त करता है. देवप्रयाग तक का भागीरथी बेसिन (20,000 वर्ग कि.मी.) कुल गंगा जलग्रहण क्षेत्र का 7 प्रतिशत है. गंगा के कुल वार्षिक बहाव का 48 प्रतिशत जल गंगोत्री से भागीरथी में व 29 प्रतिशत देवप्रयाग में गंगा से मिलता है. शेष वर्षा के जल से प्राप्त होता है.
डॉ. चंद्रशीला गुप्ता

गमगीन झीलों में गंगा को तबदील मत कीजिए

यह नदी हमारी आस्था और परंपराओं से जुड़ी है, जिनके बूते ही हम बचे रह सके हैं
पवन कुमार गुप्ता
पिछले दिनों प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल ने घोषणा की कि वह आगामी गंगा दशहरा यानी 17 जून से उत्तरकाशी में गंगा की रक्षा एवं संवर्ध्दन-संरक्षण को लेकर आमरण अनशन करेंगे। मुजफ्फरनगर के एक गांव में पैदा हुए गुरुदास अग्रवाल आईआईटी कानपुर में एनवायरमेंटल साइंस पढ़ाते रहे। पर्यावरण संरक्षण पर गठित केंद्र और राज्य सरकार की अनेक समितियों के वह सदस्य भी रहे। बर्कले यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद प्रोफेसर अग्रवाल ने पश्चिमी अवधारणाओं के बजाय भारतीय चिंतन और परंपरा के नजरिये से पर्यावरण को देखने पर बल दिया। पर्यावरण के बारे में उनकी समझ गहरी रही है। लेकिन उनकी दृष्टि को लगातार नजरअंदाज किया गया। इस संदर्भ में वर्तमान निर्वासित ति4बती सरकार के प्रधानमंत्री सामदोंग रिन्पोछे का वह कथन याद आता है, जिसमें उन्होंने तब कहा था, 'अधिकांश लोग वही शब्दावली इस्तेमाल करते हैं, जो पाश्चात्य पध्दति में प्रचलित है।
...एक भारतीय व्यक्ति भारतीय पध्दति से जीवन व्यतीत करे, भारतीय सोच-पध्दति से सोचे, तो उसमें एक मौलिकता रहती है। लेकिन हम लोगों ने यह आदत डाल रखी है कि जो कुछ भी सोचना हो, खोजना हो, विश्लेषण करना हो, सभी पाश्चात्य पध्दति से करें, ताकि उसको कहा जा सके कि वह साइंटिफिक है।' साफ है, पढ़े-लिखे भारतीय, जिनमें हमारे नीतिकार और विषेशज्ञ शामिल हैं, पश्चिम से बुरी तरह प्रभावित हो गए हैं। कहीं गहरे में एक हीन भावना भी है कि हमें अपनी चीजों, अपनी परंपराओं को या तो नजरअंदाज करना है या उन्हें 'साइंटिफिक' चोला पहनाकर पेश करना है। मानो साइंस सत्य की खोज न रहकर, एक भूत जैसा बन गया है, जो हमें डराता रहता है और हम डर की वजह से जो सही है, जो हमें अंदर से स्वीकार होता है, उसे नकारते रहते हैं। हमारे देश में नदियों का जितना सम्मान है, उतना शायद किसी अन्य देश में नहीं। ऐसा अनुमान है कि नर्मदा नदी, अमर कंटक से अरब सागर तक की तीन हजार किलोमीटर की दूरी की परिक्रमा किसी भी समय पचास हजार साधारण ग्रामीण करते रहते हैं। ये लोग इस यात्रा को तीन वर्ष, तीन माह और 33 दिन में पूरा करते हैं। और इस पूरी अवधि में रहने-खाने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता। रास्ते भर साधारण लोग इनका आतिथ्य सत्कार करके अपने को धन्य मानते हैं। कमोबेश ऐसा अन्य नदियों के साथ भी होता है। एक बार एक साधु ने, जिन्होंने गोमुख से गंगा सागर तक की 2,500 किलोमीटर की परिक्रमा जीवन में दो बार की है, लेखक को बताया कि नदी के दोनों तटों पर उन्हें एक भी ऐसा गांव ऐसा नहीं मिला, जिसका गंदा-मैला गंगा में जाता हो और इसके उलट, एक भी ऐसा शहर नहीं मिला, जिसका गंदा-मैला, गंगा में नहीं जाता हो। पर्यावरण की बात करने वाले पढ़े-लिखे लोग फिर भी गांव को पिछड़ा और शहर को विकसित कहते हैं। क्या वास्तव में यह विरोधाभास नहीं है?
हमें तीर्थ यात्रियों, श्रध्दालुओं की गंदगी दिखलाई देती है, परंतु शहर, जो लगातार अपना मल-मूत्र, मैला-कुचला और फैक्टरियों का प्रदूषण हमारी पवित्र नदियों और सागर में दिन-रात डालते रहते हैं, वह हमें नजर नहीं आता, क्योंकि यह पश्चिम वालों को भी नजर नहीं आता।
आज भी नदियों का प्रदूषण धार्मिक अनुष्ठानों की वजह से जितना होता है और शहर की गंदगी एवं औद्योगिक कचरे से जितना होता है, इसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी धार्मिक अनुष्ठान करने वाले लोग हीन दृष्टि से देखे जाते हैं। आज आस्था और विश्वास अंधविश्वास के पर्याय बन गए हैं। जबकि इस आस्था के अनेक प्रतीक आज भी विद्यमान हैं, जिनमें भारत की पवित्र नदियां एक अहम भूमिका निभाती हैं। और इन नदियों में सर्वोपरि है गंगा। ठीक उसी तरह, जैसे पहाड़ों में हिमालय। दरअसल, हमारी आस्था और हमारी परंपराओं ने ही हमें बचा रखा है। देश के साधारण व्यखति के लिए उसकी आस्था एक बड़ी श1ति है। इसलिए उसे बाहर से कितना ही क्यों न दबाया जाए, अंदर से इस बड़ी शखति में उसे भरोसा रहता है। इसकी वजह से हजारों जुल्मों के बीच भी आदमी अपने को जिंदा रख पाता है।
भारतीय समाज के इस विश्वास की गहरी समझ महात्मा गांधी को थी। तभी वह इतने बड़े जनमानस को अपने साथ खड़ा कर पाए। तभी 1907 के भारत में जिन लोगों की यह हालत थी कि वे अंगरेजों के सामने बोलना तो दूर, अपनी आंखें नीची किए रखते थे, वही गांधी जी के भारत आने के साल-दो-साल के बाद ही, यानी 1917 तक इतनी हिम्मत जुटा लेते हैं कि अंगरेजों को दो-चार बातें सुनाने लायक बन जाते हैं। महात्मा गांधी लोगों के भीतर बसी इस आस्था के बीज का सहारा लेकर उनमें शक्ति फूंकते थे। लेकिन इसके विपरीत आधुनिक शिक्षा एवं तंत्र अनजाने ही इस आस्था के बीज को कुचलकर लोगों को श1तिहीन करने के प्रयास करते आए हैं। जाहिर है, शक्तिहीन लोगों पर शासन करना आसान है, उन्हें हांकना आसान है, उन्हें मारना भी आसान है। वे कठपुतली बन जाते हैं, वे आशाविहीन होते हैं। आस्थाविहीन होने का मतलब ही है आशाविहीन होना। ऐसा व्य1ति ज्यादा-से-ज्यादा एक कानून मानने वाला एक अच्छा नागरिक बन सकता है। इस अच्छे नागरिक की लालसा अमेरिकी जीवनशैली की नकल करने की हो सकती है। इस अच्छे नागरिक को फिर अपनी ही जनसं2या बोझ लगने लगती है।
ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आजकल अमेरिकी राष्ट्रपति को हमारी जनसंख्या बोझ लगने लगी है। इन्हें साफ-सुथरे मकानों और मुहल्लों में रहना तो बहुत महत्वपूर्ण लगता है, परंतु उस सफाई को बनाए रखने के लिए जिन स्लमों में रहने वाले लोगों की जरूरत पड़ती है, वे आंखों से ओझल रहें, ऐसा भी जरूरी लगता है। ऐसे ही विकास के वे सेवक बन जाते हैं। दुनिया और भारत को अगर बचाना है, तो आस्था को बचाना महत्वपूर्ण है। अन्यथा हम एक आक्रामक और भयभीत समाज को पोषित करेंगे। गंगा हमारी आस्था की प्रतीक नदी है। इसकी राह में अवरोध पैदा करना, इसको प्रदूषित करने के समान एक बड़ा अपराध है। 1योंकि यह अवरोध हमारी आस्था को डगमगाएगा। और जब आस्था डगमगाएगी, तो हम बच नहीं पाएंगे। टिहरी बांध से पहले ही बहुत बड़ा नुकसान हम कर चुके हैं। टिहरी से गंगा अविरल बहने वाली नदी न रहकर एक ठहरी हुई, गमगीन व उदास झील में परिवर्तित हो गई है। प्रोफेसर अग्रवाल जैसे मनीषी चाहते हैं कि कम से कम उत्तरकाशी तक तो भागीरथी को मानव-हस्तक्षेप से दूर रखा जाए।
(लेखक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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समझना होगा गंदे पानी के गणित को - सुनीता नारायण

जन इस्तेमाल के बाद निकलने वाले गंदे पानी के बारे में आज कोई सोचने की जरूरत नहीं समझता। इस बारे में अगली दफा जब आप सड़क मार्ग या रेल से देश के किसी हिस्से की यात्रा पर निकलें, तो खिड़की से बाहर जरा गौर से झांकिए।
रास्ते में जहां कहीं भी आपको रिहायशी इलाके दिखेंगे, उनके इर्दगिर्द गंदे और काले पानी से भरे गङ्ढे (कचड़ों के ढेर के अलावा) नजर आएंगे, जिनसे जलनिकासी का कोई रास्ता नहीं होता।
एक मशहूर जुमला है - जहां मानव आबादी रहती है, वहां मल उत्सर्जन तो होगा ही। पर आधुनिक समाज ने एक और सचाई गढ़ दी है, वह है - जहां पानी है, वहां उसकी बर्बादी तो होगी ही।

माना जाता है कि घरों में पहुंचने वाले पानी के मोटे तौर पर 80 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल कर उसे बहा दिया जाता है।इस समस्या की जड़ में दो चीजें हैं। पहली यह कि हमारी सोच सिर्फ पानी तक ही सीमित है। हम इस बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं करते कि पानी से पैदा होने वाले कचड़े (गंदे पानी) का क्या हो। दूसरी यह कि हमें लगता है कि हमारे पास सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जो गंदे पानी की रीसाइकलिंग कर इसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बना देते हैं। यहां तक कि योजनाकारों की फिक्र भी ज्यादातर इसी बात को लेकर होती है कि लोगों को पानी मिले, उनकी नजर सिक्के के दूसरे पहलू की ओर नहीं जाती।

यानी लोगों द्वारा साफ पानी का इस्तेमाल किए जाने के बाद जो गंदा पानी आएगा, उसके बारे में सोचना वे ज्यादा जरूरी नहीं समझते। पर यह सोचा जाना बहुत जरूरी है कि गंदा पानी आखिरकार कहीं तो जाएगा (और जाता ही है) चाहे वे नाले, तालाब, झील हों या नदियां। इस तरह फैलने वाली गंदगी से पशु और मनुष्य जाति की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। इस गंदे पानी को जमीन भी सोख लेती है। इससे ग्राउंड वाटर प्रदूषित होता है, जिनका इस्तेमाल लोग पीने के लिए करते हैं। ग्राउंड वॉटर से जुड़े सर्वे बताते हैं कि उनमें नाइट्रेट की ज्यादा से ज्यादा मात्रा बढ़ रही है, जो बेहद घातक है।

ग्राउंड वॉटर में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने के लिए जाहिर तौर पर जमीन के ऊपर से सोखे जाने वाला गंदा पानी ही जिम्मेदार है। मिसाल के तौर पर दो शहरों दिल्ली और आगरा को ही ले लीजिए, जो यमुना के किनारे बसे हैं। दोनों ही शहर पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। दिल्ली को पहले से ही टिहरी बांध (जहां 500 किलोमीटर क्षेत्र में जल संचय किया गया है) से पानी मिल रहा है। अपनी प्यास बुझाने के लिए आगरा की नजर भी टिहरी पर टिकी है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में यमुना को इतना ज्यादा प्रदूषित कर दिया जाता है कि आगरा पहुंचकर भी उसका पानी इस लायक नहीं रहता कि सफाई के बाद उसे पीने लायक बनाया जा सके।

आगरा का कहना है कि इस पानी को साफ करने के लिए उसे बड़े पैमाने पर क्लोरीन का इस्तेमाल करना पड़ेगा और इससे बेहतर है कि टिहरी (जहां गंगा की ऊपरी धारा है) से स्वच्छ पानी के इंतजाम के विकल्प को खंगाला जाए।जाहिर है हम एक अजीब घातक भंवर में फंसते जा रहे हैं। जैसे-जैसे भूजल और भूमिगत जल गंदा हो रहा है, शहरों के पास पानी के दूसरे विकल्प तलाशने के अलावा कोई और उपाय नहीं है। यह खोज काफी व्यापकता ले रही है और जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, पंपिंग और सप्लाई का खर्च काफी बढ़ जाता है।

यदि नेटवर्क की मेंटिंनेस पर ध्यान नहीं दिया जाए, तो पानी की बर्बादी काफी बढ़ जाती है। आज देश के नगर निगमों का आधिकारिक रूप से कहना है कि लीकेज की वजह से 30 से 50 फीसदी पानी की बर्बादी होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सप्लाई के लिए कम पानी है और उन पर आने वाला खर्च ज्यादा है।यह मामला पानी से पैदा होने वाले कचड़े से भी जुड़ा है। इस बारे में हमारे पास अभी किसी तरह के आंकड़े नहीं है। यानी कितना कचड़ा पैदा होता है, उसमें से कितने का ट्रीटमेंट किया जाता है और कितने का नहीं, इस बारे में अभी कोई ठोस आकलन नहीं है।

पानी से पैदा होने वाले कचड़े का कितना बोझ हमारे शहरों पर है, इस बारे में भी कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, क्योंकि लोग अलग-अलग स्रोतों से पानी लेते हैं और अलग-अलग तरीकों से उसे अपशिष्ट के रूप में छोड़ते हैं।फिलहाल हम सीवेज के आकलन का काम काफी अजीब तरीके से करते हैं। हम यह मान लेते हैं कि नगर निगमों द्वारा सप्लाई किए जाने वाले पानी का 70 से 80 फीसदी हिस्सा सीवेज के रूप में वापस आ जाता है। पर पानी का यह गणित सही नहीं है। ऐसा होता है कि पानी की सप्लाई की गई, पर वह लीकेज की वजह से रास्ते में ही बर्बाद हो गया यानी घरों तक पहुंचा ही नहीं। कई दफा पानी की सप्लाई बाधित होने की वजह से लोग मजबूरन या तो ग्राउंड वॉटर का इस्तेमाल करते हैं या टैंकर आदि से पानी खरीदते हैं। पर ये सारा पानी सीवेज का रूप तो लेता ही है।

यानी पानी हासिल करने का स्रोत जो भी हो, इसे सीवेज तो बनना ही है।फिलहाल देश में उत्सर्जित कुल गंदे पानी (सरकारी आंकड़े के हिसाब से लें तो) के महज 18 फीसदी हिस्से का ट्रीटमेंट किया जाता है। वॉटर ट्रीटमेंट प्लांटों में रीसाइकलिंग कर ऐसा किया जाता है। पर यह बात स्वीकारी जा चुकी है कि इनमें से कुछ ट्रीटमेंट प्लांट इसलिए काम नहीं करते, क्योंकि इन्हें चलाने में आने वाली लागत काफी ज्यादा है और कुछ प्लांट इसलिए काम नहीं करते, क्याेंकि उन्हें जरूरी मात्रा में गंदा पानी हासिल नहीं हो पाता। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वॉटर पाइपलाइन की तर्ज पर सीवेज पाइपलाइन नहीं हैं और यदि थोड़े बहुत हैं भी, तो उनके रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि इन सब मामलों पर गंभीरता से विचार किया जाए, तो नतीजा निकलता है कि लोगों द्वारा उत्सर्जित गंदे पानी के 13 फीसदी हिस्से का ट्रीटमेंट सही तरीके से हो पाता है। हमें गंदे पानी के इस गणित को समझना होगा, ताकि हम इसका हल निकाल सकें।
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पानी रे पानी - महेश परिमल


२२ मार्च विश्व जल दिवस के अवसर पर विशेष

२२ मार्च याने विश्व जल दिवस। पानी बचाने के संकल्प का दिन। पानी के महत्व को जानने का दिन और पानी के संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन। आँकड़े बताते हैं कि विश्व के १.४ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है। प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना आज के दिन बहुत आवश्यक है।

पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं। विश्व में और विशेष रुप से भारत में पानी किस प्रकार नष्ट होता है इस विषय में जो तथ्य सामने आए हैं उस पर जागरूकता से ध्यान देकर हम पानी के अपव्यय को रोक सकते हैं। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो हमें आने वाले ख़तरे से तो सावधान करते ही हैं, दूसरों से प्रेरणा लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और पानी के महत्व व इसके अनजाने स्रोतों की जानकारी भी देते हैं।

- मुंबई में रोज़ वाहन धोने में ही ५० लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है।
- दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण रोज़ १७ से ४४ प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है।
- इज़राइल में औसतन मात्र १० सेंटी मीटर वर्षा होती है, इस वर्षा से वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात कर सकता है। दूसरी ओर भारत में औसतन ५० सेंटी मीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है।
- पिछले ५० वर्षों में पानी के लिए ३७ भीषण हत्याकांड हुए हैं।
- भारतीय नारी पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती है।
- पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष २२ लाख लोगों की मौत हो जाती है।
- हमारी पृथ्वी पर एक अरब ४० घन किलो लीटर पानी है. इसमें से ९७.५ प्रतिशत पानी समुद्र में है, जो खारा है, शेष १.५ प्रतिशत पानी बर्फ़ के रूप में ध्रुव प्रदेशों में है। इसमें से बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुओं, झरनों और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का ६० वाँ हिस्सा खेती और उद्योग कारखानों में खपत होता है। बाकी का ४० वाँ हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ़-सफ़ाई में खर्च करते हैं।
- यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पाँच मिनट में करीब २५ से ३० लीटर पानी बरबाद होता है।
- बाथ टब में नहाते समय ३०० से ५०० लीटर पानी खर्च होता है, जबकि सामान्य रूप से नहाने में १०० से १५० पानी लीटर खर्च होता है।
- विश्व में प्रति १० व्यक्तियों में से २ व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है।
- प्रति वर्ष ६ अरब लीटर बोतल पैक पानी मनुष्य द्वारा पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
नदियाँ पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। जहाँ एक ओर नदियों में बढ़ते प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोज रहे हैं वहीं कल कारखानों से बहते हुए रसायन उन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाती, अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है।
- पृथ्वी पर पैदा होने वाली सभी वनस्पतियाँ से हमें पानी मिलता है।
आलू में और अनन्नास में ८० प्रतिशत और टमाटर में ९५ प्रतिशत पानी है।
- पीने के लिए मानव को प्रतिदिन ३ लीटर और पशुओं को ५० लीटर पानी चाहिए।
- १ लीटर गाय का दूध प्राप्त करने के लिए ८०० लीटर पानी खर्च करना पड़ता है, एक किलो गेहूँ उगाने के लिए १ हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए ४ हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार भारत में ८३ प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।

पानी के विषय में विभिन्न सरकारी नियमों और नीतियों के विषय में जानकारी भी इसके संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में १९९१ में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलेपन कारण एक के बाद एक कई क्षेत्रों में निजीकरण की परंपरा शुरू हो गई है। सबसे बड़ा झटका जल क्षेत्र के निजीकरण का मामला है। जब भारत में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया, तब इसके बहुत से लाभ देखे गए थे और इसके दुष्परिणामों का ठीक से आकलन नहीं किया गया। बाद में सरकार ने यह स्वीकार किया निजीकरण सफल नहीं रहा। अब जल के निजीकरण से पहले ही इसके दुष्परिणामों पर भी पहले से ठीक से विचार करना आवश्यक है।

समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हज़ारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हज़ारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है।

पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं। आज पानी की स्थिति देखकर हमारे चेहरों का पानी तो उतर ही गया है, मरने के लिए भी अब चुल्लू भर पानी भी नहीं बचा, अब तो शर्म से चेहरा भी पानी-पानी नहीं होता, हमने बहुतों को पानी पिलाया, पर अब पानी हमें रुलाएगा, यह तय है। सोचो तो वह रोना कैसा होगा, जब हमारी आँखों में ही पानी नहीं रहेगा? वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे।

लेकिन कहा है ना कि आस का दामन कभी नहीं छूटना चाहिए तो ईश्वर से यही कामना है कि वह दिन कभी न आए जब इंसान को पानी की कमी हो।

लेकिन कहा है ना कि आस का दामन कभी नहीं छूटना चाहिए तो ईश्वर से यही कामना है कि वह दिन कभी न आए जब इंसान को पानी की कमी हो। विज्ञान और पर्यावरण के ज्ञान से मानव ने जो प्रगति की है उसे प्रकृति संरक्षण में लगाना भी ज़रूरी है। पिछले सालों में तमिलनाडु ने वर्षा के पानी का संरक्षण कर जो मिसाल कायम की है उसे सारे देश में विकसित करने की आवश्यकता है।
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हर बीस मिनट में मछली की एक प्रजाति का अंत

संसार भर में पर्यावरण पर प्रदूषण का असर कितना खतरनाक हो रहा है, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। प्रदूषण और विश्व में हो रहे मौसम परिवर्तन के कुप्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक 20 मिनट में मछली की एक प्रजाति लुप्त हो रही है। लखनऊ में शनिवार को इंडियन फिश जेनेटिक रिसोर्सज विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में इंडियन काउंसिल और एग्रिकल्चरल रिसर्च (आई.सी.ए.आर.) के ए.डी.जी. (फिशरी) डाक्टर ए.डी. दीवान ने कहा कि यह खतरा भारत के संदर्भ में और बढ़ जाता है, क्योंकि कई समुद्री जीव पहले से ही लुप्त होने के कगार पर है। दीवान ने भारतीय उप महाद्वीप में लुप्त हो रही प्रजातियों को बचाने के लिए प्रभावी कदम उठाने पर जोर दिया उन्होंने जैव विविधता कानून 2002 और कानून 2004 के बारे में कहा कि इस पर अभी अमल शुरू भी नहीं किया गया है। साथ ही, संबंधित अधिकारियों और लोगों से इस कानून पर अमल करने का अनुरोध किया।
कन्हैया ने कहा कि भारत में खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मछली पालन को बढ़वा दिया जाना चाहिए। वर्तमान स्थिति को देखते हुए मछली और समुद्री खाद्यों के क्षेत्र में शोध किए जाने और इनकी उत्पादकता बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि जैव विविधता से संपन्न देशों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इसके उदाहरण के रूप में उन्होंने भारत, ब्राजील और चीन का नाम लिया। इस अवसर पर एन.बी.एफ.जी.आर. के निदेशक डाक्टर डब्लू.एस. लाकरा ने कहा कि भारत जल जैव विविधता के क्षेत्र में काफी समृद्ध रहा है, इसलिए इनका संरक्षण काफी महत्वपूर्ण है। साथ ही लाकरा ने मछली के जेनेटिक संसाधनों के विकास और संरक्षण पर प्रभावी कदम उठाने को जोर दिया। जिससे प्रकृति के विविध रूपों को बचाया जा सके। इन सब बातों को देखते हुए मनुष्य अब भी नहीं चेतता है, तो वह दिन दूर नहीं, जब इन जीवों के दर्शन किताबों में ही हुआ करेंगे। फिलहाल दुनिया में मछलियों की करीब 26,710 प्रजातियां हैं, जिनमें से 7000 प्रजाति की मछलियों तक मानव की अच्छी पहुंच है।
करीब 2000 मछलियों के बारे में ही मानव ठीक से जान पाया है। इनमें से कई प्रजाति की मछलियों का उपयोग खाने, सजाने व अन्य कामों में होता है। केवल नदियों में ही नहीं, बल्कि समुद्र में भी मछलियों पर संकट मंडरा रहा है।

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