नदियों के प्रदूषण पर धयान जरूरी

संजय सिंह- मीडिया स्टार


राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे बनें भव्य अक्षरधाम मंदिर और २०१० में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनने वाले फ्लेट दिल्ली के विकास को सिद्ध करते हैं लेकिन विशेषज्ञों ने इन दोनों निर्माणों के संबंध में जो विचार व्यक्त किये हैं उन से दिल्ली वाले निराश हैं।

भारतीय नदियों की स्थिति पर हाल ही में आयोजित संगोष्ठी में उपरोक्त निर्माण के बारे में कहा गया कि ये निर्माण विशेषज्ञों की राय के विरूद्ध कराये गये हैं और ये आत्म हत्या की तरह है।

संगोष्ठी में यमुना जय अभियान के डॉ० मनोज मिश्रा के अनुसार खेल गांव बनाने के पीछे एक बड़ा घपला है।खेल तो एक बहाना है इसके हो जाने के बाद वहां बनें हुए फ्लेट प्राइवेट मालिकों को बेच दिये जायेंगे जिस से डीडीए और ठीकेदारों को करोड़ों रूपये मिलेंगे।

डॉ० मिश्रा ने दलील पेश करते हुए कहा कि नेंशनल इन्वायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीटियूट (एन ई ई आर आई) ने अपनी एक रिपोर्ट में सलाह दी थी कि यमुना के किनारे स्थायी अवासीय ढांचा न बनाया जाये। उन्हों ने कहा कि यमुना से संबंधित स्टैंडिंग कमीटी ने सूचना अधिकार के अन्तर्गत आवेदन करने वाले एक व्यक्ति को बताया था कि उसने नदी के किनारे किसी स्थायी ढांचा की निर्माण की अनुमति नहीं दी है।

दिल्ली फाल्ट लाईन पर बसी हुई है और विशेषज्ञों के जायजे के अनुसार शहर में इंजीनियर स्केल के अनुसार सात की क्षमता वाला भुकंप आ सकता है जिसमें नदी के आस पास बने मकान बराबर हो जायेंगे। प्रो० मिश्रा ने उन लोगों को चेतावनी दी जो यूरोपीय नगरों आक्सफोर्ड और वायना की तरह नदी के किनारे के हिस्सों को प्रगति देने की बातें करते हैं। उन्हों ने कहा कि उपरोक्त यूरोपीय शहरों में साल भर बारिश होती रहती है जबकि दिल्ली में मुशिकल से तीन महीने बारिश होती है।

विशेषज्ञों के जायजे और जायजों पर डॉ० मिश्रा के विचार ध्यान देने योग्य हैं। यहां सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि यमुना स्टैंडिंग समिति की अनुमति के बिना निर्माण शुरू किस तरह हुआ? ये सवाल भी महत्वपूर्ण है कि खेल गांव के निर्माण के पीछे व्यापारिक उद्देश्यों को सामने रखा जा रहा है। विकास का सब्ज+ बाग दिखाकर जान बुझ कर अगर दिल्ली वालों को खतरे में डाला जा रहा है तो यह दुःख की बात है। सरकार को इस संबंध में सक्रिय हो जाना चाहिए।

ये अच्छी खबर है कि गंगा यमुना और अन्य बड़ी नदियों में बढ़ते प्रदूषण से चिंतित राज्य सरकारों के साथ दस्तावेजी समझौते पर हस्ताक्षर करने पर विचार कर रही है ताकि वह सिवेज ट्रेटमेंट प्लांटों का आरंभ कर सके।

राज्यों में पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जो सिवेज प्लांट लगाये हैं उन में से अधिकतर या तो खराब पड़े हैं या तो फिर अच्छी तरह से काम नहीं कर रहे हैं। परिणामस्वरूप शहर का कूड़ा नदियों में यूं ही जाकर गिर जाता है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधिकारी ने बताया कि जब राज्य सरकारें कूड़ा साफ करने वाले प्लांटों को चालू रखने के लिए समझौते करेंगी तो फिर उनकी देख रेख और चलाने की उनकी जिम्मेदारी हो जायेगी। अधिकारी ने बताया कि इस संबंध में राज्य सरकारों और दूसरे मंत्राालयों से बात चीत जारी है।

देश के बड़े और छोटे शहरों में हर वर्ष २९ हजार मिलियन लीटर सिवेज रोजाना पैदा होता है जबकि केवल ६ हजार मिलियन लीटर सिवेज की सफाई की गुंजाईश है। उपरोक्त अधिकारी के अनुसार दुःख की बात ये है कि इस क्षमता का भी पूरा इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

राज्य सरकारों का सहयोग नदियों से साफ करने से संबंधित प्रोजेक्टों को चलाने में सबसे बड़ी रूकावट है।रीभर एक्शन प्लांट के अन्तर्गत कूड़ा साफ करने वाले प्लांट तैयार करने पर करोड़ों रूपये खर्च किये जाते हैं लेकिन कोई उत्साहवर्द्धक परिणाम सामने नहीं आ रहा है।प्लांटों के लिए पर्र्याप्त फंड चाहिए लेकिन राज्य सरकारें इस मोर्चे पर भी नाकाम हैं। इन प्लांटों को चलाने के लिए बिजली भी पूरी नहीं पड़ती। पर्यावरण और वन मंत्रालय प्रदूषण को रोकने के लिए निर्णायक बनाता है लेकिन नदियों के किनारे बढ़ती आबादी की वजह से वित्तीय संसाधन की उपलब्धता और कामों के बीच हमेशा अंतर रहता है।

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