गांवों में सूखती, सिकुड़ती जमीन
(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। शहर वालों जैसे क्यों नहीं रह पाते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। इसी ठहराव-बदलाव का मैं एक बड़ा चित्र खींचने की कोशिश कर रहा हूं। इसी श्रृंखला की ये पांचवी कड़ी। इस कड़ी में गांवों में सिकुड़ती, सूखती जमीन और इसकी वजहों की चर्चा। अच्छी बात ये कि बरबादी के बाद थोड़ी उम्मीद की रोशनी भी दिख रही है।)गांवों से लोग शहरों की तरफ बेतहाशा भाग रहे हैं फिर भी जमीन सिकुड़ती जा रही है। जमीन सिकुड़ती जा रही है यानी जोत का आकार छोटा होता जा रहा है। और, उस पर भी काम करने वाले लोग नहीं मिल रहे हैं। मेरे गांव के आसपास काफी उपजाऊ जमीन है। लेकिन, प्रतापगढ़ के ज्यादा इलाकों में ऊसर (बंजर) जमीन ज्यादा है। और, जिस तरह से जमीन के नीचे का जलस्तर तेजी से और नीचे जा रहा है। वो, भयावह स्थिति बना रहा है।
जलस्तर लगातार घटने के लिए ज्यादातर गांव के लोग ही जिम्मेदार हैं। पानी घटा तो, शहरों से जाकर गावों में जल संरक्षण की बात हो रही है, आंदोलन चल रहे हैं। एनजीओ संगठित तरीके से काम कर रहे हैं। जब पानी ही पानी था तो, जल का अपमान किस तरह हुआ इसका बेहतरीन उदाहरण मैंने देखा है। शायद ये हर किसी को अपने गांव की कहानी लगे। मेरे गांव में तीन कुएं थे। और, गांव के अगल-बगल तीन तालाब थे। एक मेरे घर के सामने की चकरोड के पार और दो गांव के पिछले हिस्से में। तीन कुओं में से एक मेरे दरवाजे पर ही था। लेकिन, पता नहीं कौन से बंटवारे के लिहाज से पूरी जमीन तो हमारी थी लेकिन, हमरे दुआरे का कुआं सुकुलजी क रहा। औ, सुकुलजी का घर हमारे घर के पीछे है। अब सुकुलजी न तो उस कुएं से कभी पानी भरने आते थे और कुआं कच्चा होने की वजह से न तो हम लोग ही उस कुएं का इस्तेमाल करते।
पता नहीं क्या वजह थी मैंने एकाध बार पिताजी से पूछा- ये कुआं हम्हीं लोग क्यों नहीं बनवा लेते। पता चला सुकुलजी को ऐतराज है। खैर, शायद हमारे घर वाले भी यही चाहते थे और, कच्चा कुआं धीरे-धीरे भंठ गया (कुआं रह ही नहीं गया)। बचा-खुचा कुआं, कुएं के आगे की हमारी बैठकी की मिट्टी से पट गया। हमारा घर पहले ही पक्का था। मिट्टी-गारे से बनी दोनों बैठकी भी धीरे-धीरे करके खत्म हो गई। दूसरी बैठकी की ही जगह पर दादा ने नया पक्का घर बनवाया है। अच्छे कमरे बने हैं। शहरातू लैट्रिन भी बन गई है। हैंडपंप घर के अंदर लग गया है (पहले हैंडपंप बाहर था। कोई बी प्यासा राहगीर दो हाथ चलाकर अपनी प्यास बुझा लेता था)। टुल्लू लगा है जो, लाइट रहने पर टंकी भर देता है और लैट्रिन का दरवाजा बंद करने पर नल से गिरता पानी शहर में होने का अहसास दिलाता है। पहले सुबह जल्दी उठकर खेत में दिशा-मैदान जाना शहर वालों को अचरज में डालता था। अब गांव वाले भी दिशा-मैदान नहीं जाते। लैट्रिन जाते हैं। दिशा-मैदान अब तो पता नहीं कितने लोग ही समझते होंगे।
कच्ची बैठकी-कुएं क साथ दुआरे प खड़ा महुआ औ मदीना क पेडौ समय क भेंट चढ़ि ग। महुआ सूखि ग तो, दूसर लगावा नाहीं ग। औ, पिताजी-दादाजी म बंटवारा के बाद मदीना क पेड़ कटवाए दीन ग। दूसरी कच्ची बैठकी में सिर्फ दो बहुत लंबे-लंबे कमरे ( कमरे क्या बड़े से एरिया को चारों तरफ से घेरकर बीच में एक और मिट्टी की दीवार बनाई गई थी) थे। कच्ची मिट्टी के कमरे खपरैल की छत। कुल मिलाकर इस बैठकी में एक साथ 50 से कुछ ज्यादा ही चारपाई बिछ जाती थी। और, ये ज्यादातर गांव की बारात का जनवासा बन जाती थी। अब तो एक दूसरे से इतने मधुर संबंध भी नहीं रहे कि अपनी बारात रुकवाने के लिए कोई किसी दूसरे की बैठकी मांगे। अब तो, गांव में भी बरात टेंट कनात में रुक रही है।
गरमी कितनी भी हो, कच्ची बैठकी में एयरकंडीशनर जैसी ठंडक का अहसास मिलता था। और, दो महीने की गरमी की छुट्टियों में खेलकूद से फुरसत मिलने पर इसी कच्ची बैठकी में गजब की नींद आती थी। लेकिन, धीरे-धीरे गरमी की छुट्टियों में सबका जाना कम हुआ। मिट्टी-गारा की दीवार और खपरैल की छत का रखरखाव महंगा (झंझटी) लगने लगा। क्योंकि, हर साल गोबर और पिड़ोर (नदी से निकली मिट्टी) से दीवारों की पुताई करनी पड़ती थी। जिससे दीवार कमजोर न पड़े और बाहर के तापमान को संतुलित किए रहे। खपरैल भी हर दूसरी बारिश के पहले फिर से बदलवानी पड़ती थी। लेकिन, खपरा छावै वाले औ मिट्टी-गारा क देवाल बनवै वाले कम होत गएन (ज्यादातर पंजाब से लैके महाराष्ट्र तक टैक्सी, रिक्शा चलाने, फैक्ट्री में काम करने चले गए)।
घर के सामने चकरोड के पार वाले तलाव म बेसरमा क फूल (पता नहीं कितने लोग अब बेशरमा क गोदा औ ओकर फूल देके होइहैं) इतना बढ़िया खिलत रहा कि मन खुश होए जाए। 1991 में मेरी छोटी दीदी की शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग में ये तालाब ऐसे दिख रहा था जो, किसी फिल्म में खूबूसरत लोकेशन पर हीरो-हीरोइन के गाने के लिए तैयार की जाती है। इस खूबसूरत का अहसास भी हमें अच्छे से रिकॉर्डिंग का कैसेट टीवी पर देखते ही हुआ। यही तालाब था जिसकी वजह से पांडेजी लोगों के हिस्से (पड़ान) में जाने के लिए थोड़ा घूमकर जाना पड़ता था। लेकिन, इस बार मैं गया तो, चकरोड ने तालाब का कुछ और हिस्सा लील लिया था। और बचा हिस्सा जिनके सामने तलाव रहा उनकर दुआर बनि ग।
गांव के बीच के दोनों कुएं बचे तो हैं लेकिन, उनका इस्तेमाल अब ना के बराबर होता है। रस्सी में बाल्टी बांधकर पानी बांधने से बेहतर गांवावालों को हैंडपंप चलाना लगता है। गांव के पीछे के दोनों तालाब भी सूख गए हैं। इन तालाबों में मैंने भी खूब रंगबिरंगी गुड़िया पिटी है। बांसे क कैनी से गुड़ियां पीटै म खुब मजा आवत रहा।
वैसे, अब पड़ान घूमके जाए क जरूरत नाहीं तालाब पटि ग। दुआरे प मदीना क फूल से गंदगी नाहीं होत। महुआ बिनै वालेन से झगड़ा नाही करै क परत। मिट्टी-गारा क दीवार पोतावै औ खपरा छवावै से मुक्ति मिली। सब बड़ा अच्छा होइ ग। बस गरमी कुछ बढ़ि ग। नवा हैंडपंप म पानी अब 70 मीटर नीचे मिलत बा। 10 साल पहिले तक 30 मीटर पर बढ़िया मीठा पानी मिल जात रहा।
उम्मीद की रोशनी
मैं गांव गया तो, एक निमंत्रण में दिन में ही जाकर लौटा तो, एक बाघराय बाजार से एक नहर के रास्ते जाना था। इस तरफ कुछ ज्यादा ही बंजर जमीन है। दूर-दूर तक ऊसर जमीन की सफेद मिट्टी दिखती है। लेकिन, उसके बीच-बीच में कुछ छोटे-छोटे चौकोर गड्ढे खुदे दिख रहे थे। जहां सरकारी बोर्ड लगा हुआ था। मौसी के लड़के ने जो, रहता तो, इलाहाबाद में है लेकिन, अक्सर गांव आता-जाता रहता है। उससे मैंने पूछा तो, उसने बताया कि सरकारी नियम आए ग बा। जे तलाव भंठवाए के दुआर बनै लेहे रहेन या घर बनवाए लेहे रहे उनकै घर तोड़वाए क तलाव बनावावा जात बा। और, दूसरी जगहों पर भी छोटे-छोटे गड्ढे खुदवा दिए गए हैं कि बारिश में इन तालाबों में कुछ जल संरक्षण हो जाए।
जल संरक्षण के जरिए गांव की तकदीर बदलने की एक कहानी मैंने गुजरात के एक गांव में देखी है। अब गुजरात के मुकाबले तो, यूपी के खड़ा होने में बहुत टाइम लगेगा। लेकिन, अगर ये मुहिम कुछ रंग लाई तो, फिर से मीठा पानी तो तीस मीटर पर मिल सकेगा।
http://batangad.rediffiland.com/blogs/2008/05/04/.html