जागने से पहले ढल न जाए धूप
हिमालय के विशाल ग्लेशियरों से निकलकर पूर्वोत्तर के असम और अरुणाचल प्रदेश की सुदूर वादियों में बहने वाली कई नदियों में से एक है जिया भरोली. कुछ दिनों पहले इसकी धारा में 16 किलोमीटर तक राफ्टिंग के दौरान हमने तरह-तरह के पक्षियों, जानवरों और वनस्पतियों सहित प्रकृति के कई दुर्लभ नजारे देखे. हमारी यात्रा जहां खत्म हुई वो उन प्रस्तावित 168 जगहों में से एक है जहां भारत सरकार बांध बनाने जा रही है. इसका मतलब है कि जिस अनछुई सुंदरता का हमने आनंद उठाया था वो कुछ समय बाद अथाह जलराशि के नीचे दफन हो जाएगी .
भारत सरकार ने 2017 तक 50 हजार मेगावॉट अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य तय किया है. इसमें तीन लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा जो कि पिछले अनुभवों को देखा जाए तो 50 फीसदी तक बढ़ सकता है. पॉवर कट से परेशान भारत के तेजी से उभरते मध्यवर्ग के लिए ज्यादा बिजली उत्पादन की बात राहत भरी बात हो सकती है. मगर ये भी हो सकता है कि जब तक ऊर्जा की इस विशाल अतिरिक्त मात्रा को पैदा करने के लिए आखिरी बांध बन रहा हो तब तक हिमालय के तेजी से पिघलते ग्लेशियरों में नए टरबाइनों को चलाने लायक पानी ही न बचे.
जाने-माने ब्रिटिश अर्थशास्त्री लॉर्ड निकोलस स्टेर्न जलवायु परिवर्तन के खतरों से चेताने के लिए दुनिया भर में आवाज उठाने वाले कुछ प्रमुख लोगों में से एक हैं. जिया भरोली में राफ्टिंग के दौरान लॉर्ड स्टेर्न भी हमारे साथ थे. 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्ली में उनकी अगवानी की. ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सलाहकार लॉर्ड स्टेर्न ने मनमोहन समेत बड़े-बड़े दिग्गजों के सामने भारत के लिए सबसे अच्छी संभावित जलवायु रणनीति का खाका खींचा. उन्हें सुनने वालों में वित्त मंत्री पी चिदंबरम, विज्ञान और तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, इंफोसिस के प्रबंध निदेशक नंदक निलेकनी, पूर्व यूएन अंडर सेक्रेटरी जनरल नितिन देसाई और शिक्षाविद और पांच भारतीय प्रधानमंत्रियों के आर्थिक सलाहकार रह चुके किरीट पारेख शामिल थे. लॉर्ड स्टेर्न की सलाह सीधी और सप्ष्ट थी—ज्यादा देर न करें. विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम से कम रखें और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से खुद को ढाल लें.
लॉर्ड स्टेर्न की मानें तो अगर भारत और दुनिया ने वक्त रहते कोई कदम नहीं उठाया तो जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम भयानक होंगे. फसलों का उत्पादन घट जाएगा और पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी. समुद्र का बढ़ता स्तर भारी नुकसान का सबब बनेगा. बाढ़ और तूफान जैसी कई आपदाएं पहले से कई गुना ज्यादा कहर बरपाएंगी. स्टेर्न के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के सबसे भयंकर दुष्परिणामों को अगर हम टालना चाहते हैं तो अब भी हमारे पास थोड़ा सा समय बचा है. मगर बात तभी बन सकती है जब पूरी दुनिया बिना समय गंवाए एक साथ इसके लिए काम करना शुरू कर दे.
उपग्रह से मिली तस्वीरें इसकी पुष्टि करती हैं कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़ दें तो पृथ्वी पर मौजूद पेयजल का ज्यादातर हिस्सा इन ग्लेशियरों में ही जमा है. इनसे उपजी विशाल नदियां भारत के करोड़ों लोगों को जीवनदान देती हैं. दो दशक से भी कम समय में ऐसा होने वाला है कि पहले तो ग्लेशियरों के बहुत तेजी से पिघलने के कारण इन नदियों में बाढ़ आएगी और फिर बाद में उनमें पानी कम होता जाएगा. 25 सालों के भीतर ऐसा हो सकता है कि हिमालयी ग्लेशियर पूरी तरह से खत्म हो जाएं. और हां, इंडिया गेट के चारों तरफ मौजूद रेत के टीले अभी भले ही कोरी कल्पना लगते हों मगर यदि हम ऐसे ही बेपरवाह बने रहे तो ये कल्पना निकट भविष्य में हकीकत में बदल सकती है.
वैसे भारत सरकार यदि भयानक भविष्य की ये आहट पहचानकर फौरन इस दिशा में काम करना शुरू कर दे तो मुश्किलों को कुछ कम जरूर किया जा सकता है. मगर जिस हठधर्मिता से विकास की ये नीति जारी रखी जा रही है उससे कयामत का दिन तेजी से पास आता जा रहा है. अगर आप ये सोचते हैं कि समस्या अभी बहुत दूर है तो आप गलत हैं. हकीकत ये है कि भारत पर संकटों की शुरुआत तो असल में हो चुकी है. वायुमंडल में ग्रीन हाऊस गैसों की भारी मात्रा के चलते मौसम की अनिश्चितताएं अब आम हो चुकी हैं. बरसात के दौरान मुंबई में आने वाली बाढ़, भूमिगत जल का गिरता स्तर, खराब फसल के बाद किसानों की आत्महत्याएं और खाद्य सुरक्षा पर मंडराता संकट इशारे कर रहा है कि युद्धस्तर पर उपाय किए जाने की जरूरत है.
दुर्भाग्य से हमारी नीतियां कुछ ऐसी हैं कि उनमें प्रकृति के कहर से लोगों को बचाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था ही नहीं है. पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच स्थित सुंदरबन डेल्टा में रहने वाले कई लोगों ने नदी की अनियमित धारा और ज्वार की ऊंची लहरों के चलते अपने घर छोड़ने शुरू कर दिए हैं. ये लोग अब शरणार्थियों के नए वर्ग में आते हैं जिसे ‘क्लाइमेट रिफ्यूजी’ कहा जाता है.
ज्यादातर अध्ययन और अनुमान सीधा संकेत करते हैं कि जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े दुष्प्रभावों में से कुछ की मार भारत को झेलनी पड़ेगी. हिमालयी ग्लेशियर हर साल 10 से लेकर 15 मीटर तक पिघल रहे हैं. 1981 के बाद से सियाचिन ग्लेशियर का आकार तो हर साल 31.5 मीटर कम हो रहा है जबकि पिंडारी के लिए ये आंकड़ा 23.5 मीटर है. गंगा को जन्म देने वाले गंगोत्री ग्लेशियर का आकार 1935-76 तक 15 मीटर प्रति वर्ष की दर से पिघल रहा था मगर 1985 के बाद से इसमें तेजी आ गई और ये आंकड़ा 23 मीटर प्रति वर्ष हो गया. ग्लेशियरों के पिघलने की यही रफ्तार अगर जारी रही तो सिंधु और गंगा जैसी नदियों का पानी दो तिहाई तक कम हो सकता है. इससे 50 करोड़ लोग प्रभावित होंगे. प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में अगले चार दशकों के दौरान 30 फीसदी से भी अधिक की गिरावट आ जाएगी.
उधर, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह से बढ़ता रहा तो 2080 तक भारत में तापमान बढ़कर 70 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है और बारिश में काफी कमी आ सकती है. इसकी वजह से भारत लगभग 12.5 करोड़ टन खाद्यान्न की पैदावार से हाथ धो बैठेगा. गेहूं की पैदावार 25 और चावल की पैदावार 40 फीसदी तक गिर सकती है और मौसमी अनियमितताओं के चलते बुआई का चक्र अनियमित हो सकता है.
गर्मी बढ़ने से मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियों के मामलों में वृद्धि होगी. अधिक तापमान और आर्द्रता नई-नई बीमारियों को भी जन्म दे सकती है जिन पर कोई दवा असर नहीं करेगी. अगले सौ साल में समुद्र का स्तर 40 सेंटीमीटर तक उठ सकता है यानी जो स्थान कम ऊंचाई पर स्थित हैं वो डूब सकते हैं. अगर ये स्तर एक मीटर तक बढ़ जाता है 6000 वर्ग किलोमीटर के तटीय इलाके जलमग्न हो सकते हैं जिससे लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है. कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि तटीय इलाकों के जलमग्न हो जाने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में नौ फीसदी तक की कमी आ सकती है. कुछ ऐसे भी हैं जो इस आंकड़े को 20 से 40 फीसदी तक बताते हैं.
मुंबई और चेन्नई जैसे शहरी इलाकों में आर्थिक नुकसान अभूतपूर्व होगा. अकेले मुंबई को ही समुद्र की विनाशलीला के चलते 48 अरब डॉलर के नुकसान का सामना करना पड़ सकता है. बाढ़ और सूखे का दुश्चक्र शहरों की तरफ आबादी के अभूतपूर्व पलायन को जन्म देगा जिससे उनके बुनियादी ढांचे पर बोझ बहुत बढ़ जाएगा. शहर बढ़ेंगे और सीमित संसाधनों पर कब्जे के लिए तीखे टकराव होंगे. मानसून की अवधि कम होती जाएगी और अरब सागर व बंगाल की खाड़ी में समुद्री तूफानों की संख्या बढ़ती जाएगी.
हालांकि इन भयावह हकीकतों का सामना पूरी दुनिया को ही करना पड़ेगा मगर दिलचस्प ये है कि इसके लिए जिम्मेदार देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और आस्ट्रेलिया को नुकसान कम होगा और दक्षिण एशियाई, अमेरिकी और अफ्रीकी देशों को सबसे ज्यादा. विकसित और विकासशील देशों में भी गरीबों पर इसकी पहली और सबसे ज्यादा मार पड़ेगी क्योंकि भोजन-पानी की कमी, बीमारियों, विस्थापन और बेरोजगारी जैसी सुरसाओं से बचने के लिए उनके पास सबसे कम संसाधन होते हैं.
जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए सारी शक्तियां भारत सरकार के पास ही निहित हैं. मगर वोट की राजनीति के इस दौर में संभावनाएं क्षीण ही लगती हैं कि इस दिशा में मजबूत इच्छाशक्ति के साथ कुछ किया जाएगा. प्रधानमंत्री द्वारा जलवायु परिवर्तन पर बनाई गई समिति को इस मुद्दे से निपटने के लिए नेशनल क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करना है. जून तक समाप्त होने वाले इस काम पर अभी तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है. सरकार इस दिशा में कितनी गंभीर है ये इसी बात से समझा जा सकता है कि बेहतर रणनीति विकसित करने के लिए खुली चर्चा कराने की बजाय वो कह रही है कि योजना तैयार हो जाएगी तो वह उसे जारी कर देगी. ये देखते हुए संभावना कम ही है कि आर्थिक समृद्धि की संभावनाओं से मदहोश और गठबंधन की मजबूरियों से बंधा हमारा देश कड़े निर्णय करने का साहस जुटा पाएगा.
आश्चर्य नहीं होगा यदि रिपोर्ट में अमेरिका और चीन को इस दिशा में कदम उठाने के लिए कहा जाए और खुद उनकी बराबरी करने के लिए उसी रास्ते पर आगे बढने की प्रक्रिया जारी रखी जाए. ये एक घातक भूल होगी. भले ही औद्योगिक देशों की जिम्मेदारी ज्यादा बनती हो मगर भूलना न होगा कि जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं के पहले पीड़ित भारतीय ही होंगे. अपनी भलाई के लिए ही सही, हमें एक उदाहरण स्थापित करना जरूरी है.
क्या हों कदम
दुनिया की कुल आबादी का छठवां हिस्सा भारत में बसता है और इस नाते जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनने वाली योजना में भारत को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए. हमें युद्धस्तर पर कार्बन निर्भरता से हटने की शुरुआत करनी होगी. इसके लिए कोयला आधारित संयत्रों की जगह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत विकसित करने होंगे. साथ ही हमें जैविक खेती और पारिस्थिकीय सुरक्षा और संरक्षण को भी बढ़ावा देना होगा. आखिर कोलकाता, नई दिल्ली और मुंबई तक बिजली पहुंचाने के लिए सुदूर पूर्वोत्तर के जंगलों को जलमग्न करने को न्यायसंगत कैसे ठहराया जा सकता है?
तमाम विकल्पों में से पांच का जिक्र यहां कर रहा हूं। मुझे यकीन है कि इन्हें अपना कर भारत सरकार पर्यावरण परिवर्तन के खिलाफ अपने अभियान की शुरुआत कर सकती है।
1- विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर जारी बहस में भारत को सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन उसके उत्तरी पड़ोसी के मुकाबले बहुत कम है। इसका फायदा उठा कर हम बाकी देशों पर प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा में कटौती का दबाव बना सकते हैं। अगर भारत इससे मजबूती से निपटने में सफल रहा तो वर्तमान में प्रति वर्ष 45 अरब टन ग्रीन हाउस उत्सर्जन को अगले पांच दशकों में आधा किया जा सकता है।
2- भारत को तत्काल जंगलों के कटान और पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश पर लगाम लगानी चाहिए। जंगल, नम प्रदेश, तटीय इलाके, खाड़ियां और घास के मैदान जैसे प्राकृतिक ढांचे पर्यावरण को सुधारने का काम करते हैं। सरकार विश्व के औद्योगिक देशों से एक फंड की मांग कर सकती है जिसकी सहायता से दोबारा जंगलों का प्राकृतिक रूप से निर्माण किया जा सके और संरक्षित इलाकों में कार्बन को भंडारित किया जा सके। हमें अपने अभ्यारण्यों, जंगलों, राष्ट्रीय पार्कों में कार्बन का भंडार करने के लिए औद्योगिक देशों से भुगतान की मांग करनी चाहिए। अगर इसके लिए किसी तरह की प्रोत्साहन राशि नहीं होगी तो ये कार्बन धुंए के रूप में पर्यावरण में घुलेगा। ये पैसा जंगलों के आस-पास रहने वाले समुदायों की पारिस्थितिकी को बचाने के एवज में प्रोत्साहन के रूप में दिया जाना चाहिए।
3- उपलब्ध वनस्पतियों से अधिकतम ऊर्जा हासिल करने के लिए सरकार को ऊर्जा कुशलता के क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन देना चाहिए। बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में ये काफी सफल हो सकता है। उन्नत उत्पादन और वितरण, साफ सुथरी तकनीक और प्रदूषण नियंत्रण जैसे क़दम तत्काल उठाए जाने चाहिए। अधूरी पड़ी ऊर्जा परियोजनाओं को जल्द से जल्द पूरा किया जाना चाहिए। नहरों से हो रही पानी की बर्बादी को रोका जाना चाहिए और उपलब्ध बांधों की जल संचय क्षमता को और मजबूत किया जाना चाहिए।
4-सरकार को ऊर्जा के लिए कार्बन आधारित स्रोतों पर निर्भरता की बजाय वायु, सौर और टाइडल ऊर्जा (समुद्री लहरों से पैदा की जाने वाली बिजली) जैसे वैकल्पिक स्रोतों की ओर रुख करने की जरूरत है। राष्ट्रीय नीतियों में बदलाव करके व्यापार और उद्योग जगत को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। ये बात जानकर आप आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि भारत में परमाणु संयत्रों से ज्यादा ऊर्जा वैकल्पिक स्रोतों से पैदा होती है। इसके बाद भी इस विकल्प के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। इस तरह का बदलाव एक नई शुरुआत करेगा और साथ ही भारत को एक नैतिक मजबूती भी देगा ताकि वो दूसरे देशों से भी ऐसा ही करने को कह सके।
5- बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक परियोजनाएं बनाकर जलवायु परिवर्तन के असल प्रभावों का आंकलन करने की क्षमता सिर्फ सरकार के पास ही है। ये आंकड़े वास्तविक ख़तरे और उनकी तीव्रता का अनुमान लगाने के साथ ही इसके तार्किक समाधान की खोज में मदद कर सकते हैं। नीति निर्माताओं को व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए हरसंभव वैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए।
लेकिन ये विकल्प उसी हालत में कारगर हो सकते हैं जब इनके साथ-साथ कुछ बंदिशें भी हों। सरकार को अपना ढुलमुल रवैया त्यागना होगा। महत्वपूर्ण ये भी है कि उसे गोपनीयता की आड़ में जलवायु परिवर्तन की असलियत को लोगों से छिपाना नहीं चाहिए। वातावरण में आने वाले बदलावों के बारे में खुद प्रधानमंत्री को जनता के नाम संदेश देना चाहिए। ये संदेश नोबल शांति पुरस्कार विजेता डॉ. आर पचौरी की अध्यक्षता वाले अंतरराष्ट्रीय पैनल की रिपोर्ट पर आधारित हो सकता है। रिपोर्ट की छोटी से छोटी जानकारी आम लोगों तक पहुंचनी चाहिए। इसके साथ ही सरकार को तत्काल हिमालय की उंचाइयों पर बनने वाली खतरनाक विशाल बांध परियोजनाओं से हाथ खींच लेना चाहिए। इन बांधों की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में कहीं इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि जलवायु परिवर्तन का नदियों के बहाव पर क्या असर पड़ेगा। हमें समझना होगा कि जीवन का बुनियादी ढांचा, जो मैंग्रूव्स, कोरल्स, घास के मैदानों, नम इलाकों, जंगलों, नदियों, झीलों और रेगिस्तानों से मिलकर बनता है, अब और कुर्बानी नहीं दे सकता। जल आपूर्ति, मृदा और उसकी उपजाऊ क्षमता का संरक्षण, बाढ़ और सूखा नियंत्रण, समुद्री तूफानों से सुरक्षा जैसे तमाम फायदों के लिए जरूरी है कि जंगल बचे रहें।
सुंदरबन और हिमालय पर पहले से ही पर्यावरण परिवर्तनों का प्रभाव दिख रहा है। दिसंबर महीने में कोलकाता के अमेरिकन सेंटर में आयोजित एक वर्कशॉप में हिस्सा लेने आए अतिथि वहां मौजूद 24 परगना ज़िले से आए विस्थापितों की भयावह आपबीती सुनकर सन्न रह गए। इसकी पुष्टि छह सालों तक सुंदरबन में वतावरणीय बदलावों का अध्ययन करने वाली जादवपुर यूनिवर्सिटी के शोध दल ने भी की। सुंदरबन का अधिकतर हिस्सा समुद्र तल पर स्थित है। ग्रामीण खाड़ी से आने वाली लहरों से मिट्टी की दीवारों और तटबंधों के जरिए निपटते हैं। लोहाछारा नाम के एक टापू पर रहने वाले परिवारों को मजबूरी में रहने के लिए उतने ही संवेदनशील लेकिन थोड़े बड़े टापू 'सागर' पर स्थांतरित होना पड़ा। सागर टापू का भी करीब 10,000 एकड़ का हिस्सा समुद्र के बढ़े जलस्तर की चपेट में आ चुका है। यही कहानी कई दूसरे इलाकों की भी है।
पश्चिम बंगाल के अधिकारी विस्थापितों को सागर द्वीप पर बसाने की हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी चिंता सिर्फ इस बात को लेकर नहीं है कि खेत और गांव डूब जाएंगे बल्कि आने वाले समय में बेहद खराब मौसमी हालात पैदा होंगे जो पूरे इलाके में भयानक समुद्री लहरें ले आएंगे। ये ऊंची लहरें सुंदरबन के मीठे जल वाले संसाधनों को खारा बना देंगी। विशेषज्ञों की राय है कि इस इलाके और पड़ोसी बांग्लादेश में रहने वाले करीब पांच करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने को मजबूर होंगे। इसकी वजह से असम, मेघालय, मिजोरम और पश्चिम बंगाल के उंचाई वाले इलाकों की ओर पलायन करने वाली आबादी का आंकड़ा 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश के जन्म के समय पैदा हुई शरणार्थियों की संख्या को मात दे देगा। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी वजह से होने वाली आबादी के विस्थापन की संख्या 1947 के भारत के बंटवारे के दौरान हुए विस्थापन को पीछे छोड़ सकती है।
कुछ-कुछ इसी तरह की त्रासदी हिमालय की श्रेणियों में भी दिखने लगी है जहां मौजूद ग्लेशियर भारत, पाकिस्तान, चीन, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल में नौ नदियों के जरिए करीब 100 करोड़ लोगों का पालन-पोषण करते हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से पहले तो बाढ़ आएगी और फिर सूखा पड़ेगा। ये सूखा देश के अनाज के कटोरे (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश) को धूल के कटोरे में बदल देगा। मनुष्य की बनायी इस आपदा का पहला दुष्प्रभाव देखने को मिलेगा पेयजल की कमी के रूप में और आगे चलकर इसका नतीजा सिंचाई की असमर्थता के रूप में सामने आएगा।
वाशिंगटन डीसी स्थित पीटरसन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशन इकोनॉमिक रिसर्च के वरिष्ठ फेलो विलियम क्लाइन का मानना है कि इस तरह के हालात में भारत का कुल कृषि उत्पाद 40 फीसदी तक गिर सकता है। ऐसे में आज की खाद्यान्न की कमी का दौर भी आने वाले समय में "सुनहरे बीते हुए दिनों" की तरह याद किया जाएगा।
फिर से ऊर्जा क्षेत्र की ओर लौटते हैं जिसमें भारत जुनून के साथ भारी निवेश करने में जुटा है। 2007-08 के आर्थिक सर्वेक्षण में भी ये बात सामने आयी थी कि अप्रैल-दिसंबर के दौरान ऊर्जा उत्पादन निर्धारित लक्ष्य से नीचे रहा। ऊर्जा की सबसे ज्यादा मांग वाले समय में इसकी कमी का स्तर 14.8 फीसदी हो जाता है जबकि आम दिनों में इसकी कमी का औसत 8.4 फीसदी रहता है। जल, परमाणु और तापीय ऊर्जा में और ज्यादा निवेश का परिणाम ये होगा कि पर्यावरण में गर्मी बढ़ेगी। इस कारण शहरी लोगों को अपने रिहाइशों और व्यावसायिक स्थलों को ठंडा रखने के लिए और ज्यादा ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। सतह का पानी सूख रहा है इसलिए ज़मीन के अंदर से पानी खींचने के लिए और अधिक पंपिंग सेट की जरूरत होगी। इससे भूगर्भीय जलस्रोत भी सूखेंगे। हिमालय में ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश की निर्रथकता के दर्शन हमें पहले ही हो चुके हैं।
पवन एवं सौर ऊर्जा और छोटी-छोटी जलविद्युत परियोजनाओं में निवेश करके भारत के हर घर में बिजली पहुंचायी जा सकती है। मगर क्योंकि अर्थशास्त्रियों की राय है कि इसकी लागत बहुत ज्यादा है इसलिए इन विकल्पों का लाभ पूरी तरह से उठाया नहीं जा रहा। सच्चाई ये है कि अगर हमने आज सही क़दम नहीं उठाए तो पर्यावरण में आने वाला बदलाव आने वाले कल से जीवन का आनंद खींच लेगा चाहे आप कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार हों।
मगर इस दिशा में की जा रही कोशिशें कितनी अपर्याप्त हैं ये अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और 2007 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार जीत चुके अल गोर की इन पंक्तियों से साफ हो जाता है, "एक समय था जब वो कहते थे कि पर्यावरण का परिवर्तन सिर्फ एक मिथक है। आज एक दूसरा मिथक फैलाया जा रहा है कि दुनिया भर की सरकारें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बहुत कुछ कर रही हैं. "
बिट्टू सहगल
(लेखक जाने-माने पर्यावरणविद और सेंचुरी पत्रिका के संपादक हैं.)
http://www.tehelkahindi.com/InDinon/608.html