प्रदूषण यानी पलक्कड
पी एम रवींद्रम, केरल से
पलक्कड – यानी ईश्वर के अपने देश का प्रवेशद्वार.
कोला का जश्न
हिंदुस्तान कोका कोला बेवरेजेस द्वारा प्लाचीमाड़ा में किए जा रहे प्रदूषण की कहानी हमें बताती है कि कैसे कथित विकसित देश तीसरी दुनिया के निवासियों के साथ उनकी अक्षम और भ्रष्ट सरकारों की मदद से बुरा बर्ताव करते हैं. सेटेलाईट तस्वारों की मदद से पलक्कड़ के दूरस्थ गावों में मौजूद भूमिगत जल संसाधनों की प्रचुरता का पता लगाके, इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने यहां पर एक फैक्ट्री सन 1999 के अंत में लगाई. इस फैक्ट्री में उत्पादन शुरु होने के छह महीने के भीतर ही लोगों ने अपने कुओं में पानी कम होने और उपलब्ध पानी के प्रदूषित होने की शिकायत दर्ज की. यहां ये बताना लाज़िमी है कि कोला के नमूने को हैदराबाद में जिला उपभोक्ता विवाद निपटान फोरम के आदेश पर जाँचने के बाद पता चला कि नमूने में कैडमियम जैसे भारी धातु वाले 42 प्रदूषक तत्व हैं, जिनका स्त्रोत अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है.
कई लोग इसे पलघट कहते हैं– पश्चिमी घाटों में एक दर्रा, जो केरल को बाकी देश से जोड़ता है.
दक्षिण रेलवे यानी तब की पहली रेल लाइन जब बिछाई जाने लगी तो सवाल उठा कि तत्कालीन शासकों के उत्तरी किनारे स्थित मद्रास (अब चेन्नई) में प्रशासकीय मुख्यालय को उनके पश्चिमी किनारे में स्थित व्यापारिक बंदरगाह मैंगलोर से जोडने का रास्ता कहां से हो.
इसका उत्तर मिला – पलघट.
पलक्कड की पहचान खो गई
इलाके की नदियां सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं. बरसात के दिनों में भी इलाके की तीनों प्रमुख नदियां पानी को तरसती हैं
जिन्होंने कोयंबटूर से पलक्कड़ की रेल यात्राएं की हों, उनके लिए यह स्वर्ग से कम नहीं है. इन यात्राओं में आप तमिलनाडु के शुष्क मौसम को पीछे छोड़ कर एक ऐसे मौसम में प्रवेश करते थे, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है. वालायार की हरी-भरी छटाएं, अंदर कहीं गहरे तक उतर जाती थीं.
लेकिन अब यह सब पुरानी बाते हैं.
आज वालायार की हरी भरी छटाएं केरल सरकार के मालाबार सिमेंट से फैल रही सिमेंट की परत से अटी पड़ी हैं. इस इलाके में रहने वाले लोग हर सांस के साथ सिमेंट की एक मोटी परत अपने फेफड़े में भरते हैं और हांफते-खांसते अपनी किस्मत को कोसते हैं, जिससे मुक्त होना उनके बस में नहीं है. उनके फेफड़ों को सिमेंट कणों को सहने की आदत हो गई है. और फेफड़े ? वे तो शायद सिमेंट जैसे ही सख्त हो गए हैं.
मालाबार सिमेंट फैक्ट्री ने इस इलाके की तस्वीर ही बदल कर रख दी है. इस फैक्ट्री ने इलाके की नदियों ओणसपूझा और काल्लमपूझा के पानी का रुख मोड़ दिया है, जिससे चूना पत्थर के उत्खनन में सुविधा हो. इन दोनों नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोकने के अलावा चूना पत्थर से निकले कचरे को तीसरी नदी सीमांथीपूझा में बहा दिया जाता है.
नदिया तरसे पानी को
विनाश के कगार पर पहुंच चुकी इन नदियों के कारण, मानसून के समय जब सारी नदियां और बांध लबालब हो जाते हैं तब भी इलाके की जीवनदायिनी मालमपूझा नदी पानी को तरसती रहती है. मालमपूझा से 42,330 हेक्टेर जमीन को सिंचाई उपलब्ध होती रही है और पलक्कड नगर निगम के अंतर्गत 15 लाख और उससे जुड़ी हुई सात पंचायतों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध होता रहा है.
लेकिन पानी की कमी के कारण मालमपूझा सूखने लगी और हालत ये हुई कि मालमपूझा के सूखते इलाके में लोगों ने खेती करनी शुरु कर दी. जमीन जोतने से उसका अवसादन हो गया और फलस्वरूप बांध की क्षमता कम हो गई और खेती में कीटनाशकों के प्रयोग से पानी प्रदूषित होता चला गया.
परंतु यह इस भयावह कथा का अंत नहीं है.
पलक्कड तो जैसे इसी तरह के विनाश के लिए बना है. इंडियन मेडिकल एसोशियेशन गोस इको-फ्रेंडली (इमेज) के नाम से एक चिकित्सकीय कचरे के प्रशोधन की इकाई लगाने की बात हुई तो उसके लिए जगह तय की गई- पलक्कड.
सन 2007 के स्टॉकहोम संगोष्ठी, जिसमें भारत भी एक हस्ताक्षरक है, के अनुसार किसी भी भट्टी की स्थापना चिकित्सा संबंधी कचरे को जलाने के लिए नहीं की जाएगी एवं मौजूदा भटिटयों को भी चरणबद्ध तरीके से हटाया जाएगा.
पलक्कड के लिए कहा जाता है कि जब यहां के लोगों को जोर से छींक भी आती है तो लोग कोयंबटूर या त्रिसूर की ओर चिकित्सीय मदद लेने के लिए भागते हैं. जाहिर है, पलक्कड में चिकित्सकीय कचरा नाममात्र का है. ऐसे में राज्य के 14 में से 11 ज़िलों का कचरा निपटाने के लिए पलक्कड़ का चयन दर्शाता है कि राज्य सरकार पलक्कड़ के विनाश को लेकर न केवल आंखें बंद किए हुए है, वह इस विनाश में मदद भी कर रही है.
इमेज के सचिव डॉ. जी राजागोपालन नैयर कहते हैं – “पलक्कड की ये इकाई राज्य में परिकल्पित चार इकाईयों में पहली है. एक टन कचरे में से बमुश्किल 5 किलो राख झड़ती है जिसे वैज्ञानिक रूप से प्रसंस्कृत किया जाता है. ”
कचराघर
हालांकि रिपोर्टें बताती हैं कि पलक्कड में लगभग 10 टन कचरे का प्रसंस्करण होता है जो कि स्वीकृत 3 टन से कहीं ज्यादा है. और इस कचरे को अधिकारिक तौर पर फैक्ट्री परिसर में मौजूद कांक्रीट चैंबरों में दबा दिया जाता है.
रही-सही कसर इस उपक्रम के पड़ोस में शुरु हुए स्पांज आयरन की फैक्ट्री ने पूरी कर दी. फिर जंगल की जमीन पर कब्जा करके एक और सिमेंट फैक्ट्री शुरु कर दी गई.
पूर्व यू.एन., एफ.ए.ओ विशेषज्ञ डॉ. एम. एन. कुट्टी, मालमपूझा जलाशय में मछलियों के बड़े पैमाने पर मरने के हादसे के बाद लिखते हैं, “एक टन मछलियों से ज्यादा, जिनमें हरेक का वजन एक किलोग्राम से ज्यादा था, जलाशय के पानी में मरी और तैरती हुई पाई गईं. ये पानी का अशुद्ध होने के संकेत हैं. ये संभव है कि उद्योगों से निकलने वाले रसायनिक कचरे और अन्य विषैले तत्व, जिनमें नए बने बायो-मेडिकल प्रसंस्करण संयंत्र का बना कचरा भी शामिल है, के कारण इन समुद्रीय जीवों की मौतें हो रही हैं.”
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के पूर्व जल संसाधनों के वैज्ञानिक और ऑस्ट्रेलिया स्थित ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के सिंगापुर में अतिथि प्रोफेसर डॉ. ए. पी. जयारामन ने भी यह चेतावनी दोहराई “मालमपूझा बांध के जलग्रहण क्षेत्र में भारतीय मेडिकल एसोसियेशन द्वारा निर्मित बायो-मेडिकल कचरा प्रसंस्करण करने के संयंत्र में भट्टी के कारण यहां के रहवासियों के स्वास्थ्य पर निश्चित ही बुरा असर पड़ेगा.”
बायो-मेडिकल कचरे के निपटान की जगह के चुनाव के बारे में भारतपूझा संरक्षण समिति के डॉ. पी एस पणिक्कर कहते हैं – “आईएमए ने पहले ही तोडूपूझा और कन्नूर का चुनाव इस इकाई के लिए किया था. पर स्थानीय रहवासियों के विरोध से ये इरादा छोड़ना पड़ा. अब कन्नूर जैसे सुदूर इलाकों से भी खतरनाक चिकित्सीय कचरे को लाकर पलक्कड में खपाया जा रहा है.”
पलक्कड में रहने वाले किसी बुजुर्ग से अगर आप पूछें कि पलक्कड को वे किस तरह याद करते हैं ? उसका जवाब मिलेगा- कौन सा पल्लकड ? कैसा पलक्कड ? पलक्कड तो अब अतीत है.
साभार - www.raviwar.com