गमगीन झीलों में गंगा को तबदील मत कीजिए

यह नदी हमारी आस्था और परंपराओं से जुड़ी है, जिनके बूते ही हम बचे रह सके हैं
पवन कुमार गुप्ता
पिछले दिनों प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल ने घोषणा की कि वह आगामी गंगा दशहरा यानी 17 जून से उत्तरकाशी में गंगा की रक्षा एवं संवर्ध्दन-संरक्षण को लेकर आमरण अनशन करेंगे। मुजफ्फरनगर के एक गांव में पैदा हुए गुरुदास अग्रवाल आईआईटी कानपुर में एनवायरमेंटल साइंस पढ़ाते रहे। पर्यावरण संरक्षण पर गठित केंद्र और राज्य सरकार की अनेक समितियों के वह सदस्य भी रहे। बर्कले यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद प्रोफेसर अग्रवाल ने पश्चिमी अवधारणाओं के बजाय भारतीय चिंतन और परंपरा के नजरिये से पर्यावरण को देखने पर बल दिया। पर्यावरण के बारे में उनकी समझ गहरी रही है। लेकिन उनकी दृष्टि को लगातार नजरअंदाज किया गया। इस संदर्भ में वर्तमान निर्वासित ति4बती सरकार के प्रधानमंत्री सामदोंग रिन्पोछे का वह कथन याद आता है, जिसमें उन्होंने तब कहा था, 'अधिकांश लोग वही शब्दावली इस्तेमाल करते हैं, जो पाश्चात्य पध्दति में प्रचलित है।
...एक भारतीय व्यक्ति भारतीय पध्दति से जीवन व्यतीत करे, भारतीय सोच-पध्दति से सोचे, तो उसमें एक मौलिकता रहती है। लेकिन हम लोगों ने यह आदत डाल रखी है कि जो कुछ भी सोचना हो, खोजना हो, विश्लेषण करना हो, सभी पाश्चात्य पध्दति से करें, ताकि उसको कहा जा सके कि वह साइंटिफिक है।' साफ है, पढ़े-लिखे भारतीय, जिनमें हमारे नीतिकार और विषेशज्ञ शामिल हैं, पश्चिम से बुरी तरह प्रभावित हो गए हैं। कहीं गहरे में एक हीन भावना भी है कि हमें अपनी चीजों, अपनी परंपराओं को या तो नजरअंदाज करना है या उन्हें 'साइंटिफिक' चोला पहनाकर पेश करना है। मानो साइंस सत्य की खोज न रहकर, एक भूत जैसा बन गया है, जो हमें डराता रहता है और हम डर की वजह से जो सही है, जो हमें अंदर से स्वीकार होता है, उसे नकारते रहते हैं। हमारे देश में नदियों का जितना सम्मान है, उतना शायद किसी अन्य देश में नहीं। ऐसा अनुमान है कि नर्मदा नदी, अमर कंटक से अरब सागर तक की तीन हजार किलोमीटर की दूरी की परिक्रमा किसी भी समय पचास हजार साधारण ग्रामीण करते रहते हैं। ये लोग इस यात्रा को तीन वर्ष, तीन माह और 33 दिन में पूरा करते हैं। और इस पूरी अवधि में रहने-खाने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता। रास्ते भर साधारण लोग इनका आतिथ्य सत्कार करके अपने को धन्य मानते हैं। कमोबेश ऐसा अन्य नदियों के साथ भी होता है। एक बार एक साधु ने, जिन्होंने गोमुख से गंगा सागर तक की 2,500 किलोमीटर की परिक्रमा जीवन में दो बार की है, लेखक को बताया कि नदी के दोनों तटों पर उन्हें एक भी ऐसा गांव ऐसा नहीं मिला, जिसका गंदा-मैला गंगा में जाता हो और इसके उलट, एक भी ऐसा शहर नहीं मिला, जिसका गंदा-मैला, गंगा में नहीं जाता हो। पर्यावरण की बात करने वाले पढ़े-लिखे लोग फिर भी गांव को पिछड़ा और शहर को विकसित कहते हैं। क्या वास्तव में यह विरोधाभास नहीं है?
हमें तीर्थ यात्रियों, श्रध्दालुओं की गंदगी दिखलाई देती है, परंतु शहर, जो लगातार अपना मल-मूत्र, मैला-कुचला और फैक्टरियों का प्रदूषण हमारी पवित्र नदियों और सागर में दिन-रात डालते रहते हैं, वह हमें नजर नहीं आता, क्योंकि यह पश्चिम वालों को भी नजर नहीं आता।
आज भी नदियों का प्रदूषण धार्मिक अनुष्ठानों की वजह से जितना होता है और शहर की गंदगी एवं औद्योगिक कचरे से जितना होता है, इसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी धार्मिक अनुष्ठान करने वाले लोग हीन दृष्टि से देखे जाते हैं। आज आस्था और विश्वास अंधविश्वास के पर्याय बन गए हैं। जबकि इस आस्था के अनेक प्रतीक आज भी विद्यमान हैं, जिनमें भारत की पवित्र नदियां एक अहम भूमिका निभाती हैं। और इन नदियों में सर्वोपरि है गंगा। ठीक उसी तरह, जैसे पहाड़ों में हिमालय। दरअसल, हमारी आस्था और हमारी परंपराओं ने ही हमें बचा रखा है। देश के साधारण व्यखति के लिए उसकी आस्था एक बड़ी श1ति है। इसलिए उसे बाहर से कितना ही क्यों न दबाया जाए, अंदर से इस बड़ी शखति में उसे भरोसा रहता है। इसकी वजह से हजारों जुल्मों के बीच भी आदमी अपने को जिंदा रख पाता है।
भारतीय समाज के इस विश्वास की गहरी समझ महात्मा गांधी को थी। तभी वह इतने बड़े जनमानस को अपने साथ खड़ा कर पाए। तभी 1907 के भारत में जिन लोगों की यह हालत थी कि वे अंगरेजों के सामने बोलना तो दूर, अपनी आंखें नीची किए रखते थे, वही गांधी जी के भारत आने के साल-दो-साल के बाद ही, यानी 1917 तक इतनी हिम्मत जुटा लेते हैं कि अंगरेजों को दो-चार बातें सुनाने लायक बन जाते हैं। महात्मा गांधी लोगों के भीतर बसी इस आस्था के बीज का सहारा लेकर उनमें शक्ति फूंकते थे। लेकिन इसके विपरीत आधुनिक शिक्षा एवं तंत्र अनजाने ही इस आस्था के बीज को कुचलकर लोगों को श1तिहीन करने के प्रयास करते आए हैं। जाहिर है, शक्तिहीन लोगों पर शासन करना आसान है, उन्हें हांकना आसान है, उन्हें मारना भी आसान है। वे कठपुतली बन जाते हैं, वे आशाविहीन होते हैं। आस्थाविहीन होने का मतलब ही है आशाविहीन होना। ऐसा व्य1ति ज्यादा-से-ज्यादा एक कानून मानने वाला एक अच्छा नागरिक बन सकता है। इस अच्छे नागरिक की लालसा अमेरिकी जीवनशैली की नकल करने की हो सकती है। इस अच्छे नागरिक को फिर अपनी ही जनसं2या बोझ लगने लगती है।
ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आजकल अमेरिकी राष्ट्रपति को हमारी जनसंख्या बोझ लगने लगी है। इन्हें साफ-सुथरे मकानों और मुहल्लों में रहना तो बहुत महत्वपूर्ण लगता है, परंतु उस सफाई को बनाए रखने के लिए जिन स्लमों में रहने वाले लोगों की जरूरत पड़ती है, वे आंखों से ओझल रहें, ऐसा भी जरूरी लगता है। ऐसे ही विकास के वे सेवक बन जाते हैं। दुनिया और भारत को अगर बचाना है, तो आस्था को बचाना महत्वपूर्ण है। अन्यथा हम एक आक्रामक और भयभीत समाज को पोषित करेंगे। गंगा हमारी आस्था की प्रतीक नदी है। इसकी राह में अवरोध पैदा करना, इसको प्रदूषित करने के समान एक बड़ा अपराध है। 1योंकि यह अवरोध हमारी आस्था को डगमगाएगा। और जब आस्था डगमगाएगी, तो हम बच नहीं पाएंगे। टिहरी बांध से पहले ही बहुत बड़ा नुकसान हम कर चुके हैं। टिहरी से गंगा अविरल बहने वाली नदी न रहकर एक ठहरी हुई, गमगीन व उदास झील में परिवर्तित हो गई है। प्रोफेसर अग्रवाल जैसे मनीषी चाहते हैं कि कम से कम उत्तरकाशी तक तो भागीरथी को मानव-हस्तक्षेप से दूर रखा जाए।
(लेखक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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