समझना होगा गंदे पानी के गणित को - सुनीता नारायण

जन इस्तेमाल के बाद निकलने वाले गंदे पानी के बारे में आज कोई सोचने की जरूरत नहीं समझता। इस बारे में अगली दफा जब आप सड़क मार्ग या रेल से देश के किसी हिस्से की यात्रा पर निकलें, तो खिड़की से बाहर जरा गौर से झांकिए।
रास्ते में जहां कहीं भी आपको रिहायशी इलाके दिखेंगे, उनके इर्दगिर्द गंदे और काले पानी से भरे गङ्ढे (कचड़ों के ढेर के अलावा) नजर आएंगे, जिनसे जलनिकासी का कोई रास्ता नहीं होता।
एक मशहूर जुमला है - जहां मानव आबादी रहती है, वहां मल उत्सर्जन तो होगा ही। पर आधुनिक समाज ने एक और सचाई गढ़ दी है, वह है - जहां पानी है, वहां उसकी बर्बादी तो होगी ही।

माना जाता है कि घरों में पहुंचने वाले पानी के मोटे तौर पर 80 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल कर उसे बहा दिया जाता है।इस समस्या की जड़ में दो चीजें हैं। पहली यह कि हमारी सोच सिर्फ पानी तक ही सीमित है। हम इस बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं करते कि पानी से पैदा होने वाले कचड़े (गंदे पानी) का क्या हो। दूसरी यह कि हमें लगता है कि हमारे पास सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जो गंदे पानी की रीसाइकलिंग कर इसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बना देते हैं। यहां तक कि योजनाकारों की फिक्र भी ज्यादातर इसी बात को लेकर होती है कि लोगों को पानी मिले, उनकी नजर सिक्के के दूसरे पहलू की ओर नहीं जाती।

यानी लोगों द्वारा साफ पानी का इस्तेमाल किए जाने के बाद जो गंदा पानी आएगा, उसके बारे में सोचना वे ज्यादा जरूरी नहीं समझते। पर यह सोचा जाना बहुत जरूरी है कि गंदा पानी आखिरकार कहीं तो जाएगा (और जाता ही है) चाहे वे नाले, तालाब, झील हों या नदियां। इस तरह फैलने वाली गंदगी से पशु और मनुष्य जाति की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। इस गंदे पानी को जमीन भी सोख लेती है। इससे ग्राउंड वाटर प्रदूषित होता है, जिनका इस्तेमाल लोग पीने के लिए करते हैं। ग्राउंड वॉटर से जुड़े सर्वे बताते हैं कि उनमें नाइट्रेट की ज्यादा से ज्यादा मात्रा बढ़ रही है, जो बेहद घातक है।

ग्राउंड वॉटर में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने के लिए जाहिर तौर पर जमीन के ऊपर से सोखे जाने वाला गंदा पानी ही जिम्मेदार है। मिसाल के तौर पर दो शहरों दिल्ली और आगरा को ही ले लीजिए, जो यमुना के किनारे बसे हैं। दोनों ही शहर पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। दिल्ली को पहले से ही टिहरी बांध (जहां 500 किलोमीटर क्षेत्र में जल संचय किया गया है) से पानी मिल रहा है। अपनी प्यास बुझाने के लिए आगरा की नजर भी टिहरी पर टिकी है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में यमुना को इतना ज्यादा प्रदूषित कर दिया जाता है कि आगरा पहुंचकर भी उसका पानी इस लायक नहीं रहता कि सफाई के बाद उसे पीने लायक बनाया जा सके।

आगरा का कहना है कि इस पानी को साफ करने के लिए उसे बड़े पैमाने पर क्लोरीन का इस्तेमाल करना पड़ेगा और इससे बेहतर है कि टिहरी (जहां गंगा की ऊपरी धारा है) से स्वच्छ पानी के इंतजाम के विकल्प को खंगाला जाए।जाहिर है हम एक अजीब घातक भंवर में फंसते जा रहे हैं। जैसे-जैसे भूजल और भूमिगत जल गंदा हो रहा है, शहरों के पास पानी के दूसरे विकल्प तलाशने के अलावा कोई और उपाय नहीं है। यह खोज काफी व्यापकता ले रही है और जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, पंपिंग और सप्लाई का खर्च काफी बढ़ जाता है।

यदि नेटवर्क की मेंटिंनेस पर ध्यान नहीं दिया जाए, तो पानी की बर्बादी काफी बढ़ जाती है। आज देश के नगर निगमों का आधिकारिक रूप से कहना है कि लीकेज की वजह से 30 से 50 फीसदी पानी की बर्बादी होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सप्लाई के लिए कम पानी है और उन पर आने वाला खर्च ज्यादा है।यह मामला पानी से पैदा होने वाले कचड़े से भी जुड़ा है। इस बारे में हमारे पास अभी किसी तरह के आंकड़े नहीं है। यानी कितना कचड़ा पैदा होता है, उसमें से कितने का ट्रीटमेंट किया जाता है और कितने का नहीं, इस बारे में अभी कोई ठोस आकलन नहीं है।

पानी से पैदा होने वाले कचड़े का कितना बोझ हमारे शहरों पर है, इस बारे में भी कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, क्योंकि लोग अलग-अलग स्रोतों से पानी लेते हैं और अलग-अलग तरीकों से उसे अपशिष्ट के रूप में छोड़ते हैं।फिलहाल हम सीवेज के आकलन का काम काफी अजीब तरीके से करते हैं। हम यह मान लेते हैं कि नगर निगमों द्वारा सप्लाई किए जाने वाले पानी का 70 से 80 फीसदी हिस्सा सीवेज के रूप में वापस आ जाता है। पर पानी का यह गणित सही नहीं है। ऐसा होता है कि पानी की सप्लाई की गई, पर वह लीकेज की वजह से रास्ते में ही बर्बाद हो गया यानी घरों तक पहुंचा ही नहीं। कई दफा पानी की सप्लाई बाधित होने की वजह से लोग मजबूरन या तो ग्राउंड वॉटर का इस्तेमाल करते हैं या टैंकर आदि से पानी खरीदते हैं। पर ये सारा पानी सीवेज का रूप तो लेता ही है।

यानी पानी हासिल करने का स्रोत जो भी हो, इसे सीवेज तो बनना ही है।फिलहाल देश में उत्सर्जित कुल गंदे पानी (सरकारी आंकड़े के हिसाब से लें तो) के महज 18 फीसदी हिस्से का ट्रीटमेंट किया जाता है। वॉटर ट्रीटमेंट प्लांटों में रीसाइकलिंग कर ऐसा किया जाता है। पर यह बात स्वीकारी जा चुकी है कि इनमें से कुछ ट्रीटमेंट प्लांट इसलिए काम नहीं करते, क्योंकि इन्हें चलाने में आने वाली लागत काफी ज्यादा है और कुछ प्लांट इसलिए काम नहीं करते, क्याेंकि उन्हें जरूरी मात्रा में गंदा पानी हासिल नहीं हो पाता। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वॉटर पाइपलाइन की तर्ज पर सीवेज पाइपलाइन नहीं हैं और यदि थोड़े बहुत हैं भी, तो उनके रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि इन सब मामलों पर गंभीरता से विचार किया जाए, तो नतीजा निकलता है कि लोगों द्वारा उत्सर्जित गंदे पानी के 13 फीसदी हिस्से का ट्रीटमेंट सही तरीके से हो पाता है। हमें गंदे पानी के इस गणित को समझना होगा, ताकि हम इसका हल निकाल सकें।
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