पानी की फिक्र

पिछले कुछ सालों में जिस तरह सिंचाई और पेयजल की समस्या लगातार बढ़ती गई है उससे जल संसाधनों के संरक्षण को लेकर चिंता स्वाभाविक है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने इस समस्या से निपटने के लिए भूजल के औद्योगिक उपयोग पर कर लगाने और कुछ नदियों को राष्ट्रीय संपदा के रूप में चिन्हित करने का इरादा जताया है। जमीनी पानी के अंधाधुंध दोहन पर लगाम लगाने के सुझाव लंबे समय से दिए जाते रहे हैं। दिल्ली जैसे कुछ शहरों में सरकारों ने निजी नलकूपों पर कर लगाए भी हैं। मगर शीतल पेय, बोतलबंद पानी, कपड़े की बुनाई- रंगाई जैसे कारोबार में लगी औद्योगिक इकाइयां अभी तक भूजल कर के दायरे से बाहर हैं, जबकि इन इकाइयों में पानी की काफी खपत होती है और ये मुख्य रूप से भूजल का इस्तेमाल करती हैं। अनेक अध्ययनों से यह तथ्य उजागर हो चुका है कि जिन इलाकों में ऐसी फैक्टरियां हैं वहां का भूजल स्तर बहुत तेजी से नीचे गया है। इसके चलते वहां सिंचाई या पेयजल के मकसद से लगाए गए ज्यादातर नलकूप बेकार हो गए हैं। लेकन भूजल दोहन पर कर लागने से इस समस्या पर कितना काबू पाया जा सकता है, कहना मुश्किल है। कर के भुगतान को लेकर इन कंपनियों को शायद ही एतराज हो, मगर इनके लिए जमीन से निकाले जाने वाले पानी की मात्रा निर्धारित करना और उन पर नजर रखना खासा पेचीदा मसला हो सकता है। कंपनियां भूजल कर को अपनी लागत में शुमार कर उत्पादन की कीमत में इजाफा करते हुए अपनी भरपाई कर सकती है, मगर जमीनी पानी का क्या होगा।
नदियों में मिलने वाले औद्योगिक कचरे को रोकना और उनकी जल संग्रह क्षमता को बनाए रखना राज्यों की जिम्मेदारी है। मगर ज्यादातर राज्य इस मामले में लापरवाह हैं। गंगा कार्य योजना के तहत केंद्र की तरफ से अब तक एक हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए जा चुके हैं, पर स्थिति में इसलिए कोई उल्लेखनीय बदलाव नजर नहीं आ पाया है क्योंकि इसमें राज्य सरकारों की भूमिका निराशाजनक ही रही है। केंद्र अगर गुछ नदियों को राष्ट्रीय संपदा के रूप में चिन्हित करना चाहता है तो इससे यह उम्मीद बनती है कि इनकी साफ-सफाई और जल संग्रह क्षमता बढ़ाने की दिशा में चलाई जा रही परियोजनाओं में गति आएगी। सरकार का मानना है कि इससे राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर पैदा होने वाले विवादों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। संविधान के मुताबिक नदियों का मामला चूंकि राज्य का विषय है इसलिए इस प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के विरोध की आशंका के मद्देनजर सरकार ने पहले ही साफ कर दिया है कि राज्यों का अधिकार बरकरार रहेगा। केंद्र केवल इन नदियों के संरक्षण और विकास संबंधी परियोजनाओं के मामले में हस्तक्षेप करेगा। लेकिन राज्य सरकारों के सहयोग के बिना इस दिशा में कोई कदम बढ़ा पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। लिहाजा इस दिशा में कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि केंद्र किस तरह राज्यों के साथ तालमेल बिठा पाता है।

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