बेगाना होता बसंत : राजकुमार
वसंत और कवियों का रिश्ता पुराना है। लेकिन आज जिस तरह पर्यावरण की पैतरेबाजी चल रही है उससे कवि भी ऋतुभ्रमित हैं। आज विद्यापति जैसा कोई समर्थ कवि भी नहीं दिखता जो इस 'नवजात ऋतुराज' पर छाए संकट को रूपक बनाकर हमारी आज की समस्या को उठाता। एक दो कवियों ने कहीं- कहीं इस पर चिंता जाहिर की है। रघुवीर सहाय ने लिखा है- 'और ये वसंत की हवाएं। दक्षिण से नहीं चारों ओर खुली चौड़ी-चौड़ी सड़कों से आएं। धूल और एक जाना हुआ शब्द।' वसंद मंद-मंद बयार के लिए जानी जाती रही हे। धूप में गुनगुनेपन के लिए। लेकिन पर्यावरण में उलट- फेर के कारण इतना बदलाया आया है कि यह अहसास ही नहीं रहा कि वसंत का मौसम कब गुजरा।
मुंशी द्वारका प्रसाद 'उफक' लखनवी ने लिखा है- 'साकी कुछ आज तुमको खबर है बसंत की/ हर सू बहार पेशे नजर है बसंत की।' नजीर लुधियानवी ने लिखा- 'देखो बसंत लाई है गंगा पे क्या बहार/ सरसों के फूल हो गए हर स्िमि आभाकार।'
भले ही 'फैयाज' कहते रहें- 'गुलाबी सर्दियां आईं, हवा में नर्मियां आई/ सुनहरी साअतें लेकर बसंती नमियां आईं, लेकिन इस वर्ष ऐसा कुछ भी नहीं लगा। इस वर्ष 'फल्गुन के गुलाबी छीटों से, हर सू सब्जे नहीं उगे हैं।' खेतों में हवा के चलने से जौ की हरियाली नहीं लहरा रही। न तो मटर के फूल महके न ही सरसों में फूल ही लगे। कत्ले ठीक से फूटे भी नहीं, आलू उखड़ने से पहले ही बारिश और शीत लहर की भेंट चढ़ गए। गेहूं और चने की फसलें खेतों में बर्बाद हो गईं। अब ऐसे में क्या कोई फाग और चांचर गाएगा। तापमान शून्य के आसपास जाकर स्थिर हो गया। 'चेहरे पर बसंती आलम' और 'लौंग की बेल को छूती-छूती मलिया गिर की मस्त पवन' केवल कवियों के यहां मौजूद है। बाहर दमघोंटू विषैली, हवाएं भरी हैं जो बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण का नतीजा है। श्रीकांत वर्मा ने लिखा है- 'वसंत की प्रतीक्षा में /कविताओं का जुलूस/रुका हुआ है।' अब प्रेम और रोमांस का जुलूस रुका रहे तो अच्छा ही है। कवियों को चाहिए की आज की विनाश लीला भी देख लें।
कभी मुन्नवर ने कहा था- वृंदावन की कुर्बत में यह सुंदर-सुंदर जो धरती है/ यमुना अपने जल से उसको मनसब पाक अता करती है। लेकिन आज तो यमुना ही संकट में है। एक तो शहरीकरण के बढ़ते दबाव ने उसे सिकोड़कर नाले में बदलना शुरू कर दिया है, दूसरी तरफ शहर के सारे कचरे- गंदे पानी और कल- कारखाने से निकले वाले रासायनिक अवशिष्टों को गिराकर उसे इतना जहरीला बना दिया है कि अब वह स्वयं पाक नहीं हो सकती तो दूसरे को क्या पाक अता करेगी? यमुना और वसंत का रूपक बहुत पहले ही अप्रासंगिक हो गया है। यह और बात है कि कवियों ने इस टूटने को दर्ज नहीं किया है इस रूप में।
आज यमुना के पानी में आर्सेनिक, कैडियम जैसे विषैले तत्वों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यह न सिर्फ मनुष्यों, पशु पक्षियों के लिए जहर बन चुकी है, पेड़- पौधों के लिए भी। ज्यादातर नदियों का यही हाल है। शहर का सारा जहर इन नदियों को निगल चुका है। हम जिस पॉलीथीन युग में जी रहे हैं, क्या वहां बसंत बचा रह सकता है, यह महत्वपूर्ण सवाल है। पॉलीथीन न सिर्फ पेड़- पौधे पानी के लिए नुकसानदेह हैं, हवा को भी विषैला बना रहे हैं। धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रहे हैं। ये कैंसर जैसी घातक बीमारियों के भी जन्मदाता होते हैं। जलाने पर इससे निकले वाला हाइड्रोजन साइनाइट इतना विषैला, दमघोंटू होता है कि मौत का कारण बन सकता है। ऊपर से कीटनाशक दवाएं तितलियों, भौरों व अन्य कीट- पतंगों को नष्ट कर रहे हैं। क्या ऐसे परागकणों का पल्लवन- पुष्पण और फूलों का जीवंत, मुस्कुराता जीवन संभव है। फूल, तितली और वसंत के रिश्ते संभव है? जिस तरह से तितलियों की अनेक प्रजातियों के पिछले कुछ वर्षों से विलुप्त हो गई हैं, वसंत जीवित रह पाएगा : उद्यान में उड़ रही है तितलियां/ वसंत के प्रेम पत्र।
वसंत से जुड़े शायद ही कवि हों जिनके यहां 'डाली- डाली पर मतवाली कोयल कूकती' और मीठी तान सुनाती न हो।' कोयल की कूक से ही विरहनी नारियों की विरह आर्द्रता बढ़ जाती थी। लेकिन यह जंगल और पेड़ का ही विनाश हो रहा है तो कोयल कहा कूकेगी? बढ़ता भोगवाद, अनंत सुख-संपन्नता जमा जमा करा करने की चाहत, शहरीकरण, औद्योगीकरण ने प्रकृति का ऐसा दोहन किया है कि जंगल साफ हो रहे हैं। धरती बंजर होती जा रही है। ऐसे में कहां कोयल की तान और विरही हृदय की तीव्रता। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। हम भूकंप, सुनामी, भयानक किस्म के समुद्री तूफान, अतिवृष्ट, अनावृष्टि, बाढ़, शीतलहर, बर्फबारी आदि के शिकार हो रहे हैं। कार्बन मोनो आक्साइड, कार्बन ऑक्साइड, सल्फर डाठ आक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन सल्फाइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन, नाईट्रोजन डाई बेरेलियम के अतिरिक्त रेडियोधर्मी रासायनिक यौगिकों, यूरेनियम, थोरियम आदि का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। इस कारण ओजोन परत का सुराख बढ़ते-बढ़ते अमेरिका के भूगोल के दुगुने से बड़ा हो गया है। वातानुकूलित गाड़ियों, घरों, फ्रीज, हवाई जहाज आदि से निकलने वाली गैंसे इतने हानिकारक हैं कि एक तरफ धरती को गर्म कर रही हैं तो दूसरी तरफ ओजोन परत, जो हम मनुष्य समुदायों की छत है, को तोड़-फोड़ रहे हैं उसके टूटने पराबैंगनी किरण्ों सीधे धरती तक आ रही है। यह आंख और त्वचा के लिए बेहद हानिकारक है। कैंसर रोग में बढ़ोत्तरी का एक महत्वपूर्ण कारक यही है। क्लोरो फ्लोरोकार्बन का एक- एक अणु इतना घातक है कि इस सभ्यता को नष्ट कर देगा। अमेरिका, जापान और यूरोप के कुछ देश पूरे विश्व के क्लोरो फ्लोरो कार्बन का लगभग 75 फीसदी उत्पादन उर्त्सजन कर रहे हैं और तीसरी दुनिया के देशों पर अवांछित बीमारियां लाद रहे हैं। करोड़ों लोग त्वचा कैंसर से ग्रस्त हैं तो एक अरब से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें स्वच्छ हवा नसीब नहीं है। बेंजीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सीसा आदि प्रजनन तंत्र से लेकर हृदय गति और रक्तचाप तक को गहरे प्रभावित करते हैं। जस्ता तो इतना खतरनाक है कि बच्चों की याददाश्त छीन लेता है। मानसिक रूप से विकलांग बना देता है। पर्यावरणविद लगातार इन खबरों से सचेत कर रहे हैं, लेकिन कविगण अब भी 'वसंत राग' गा रहे हैं।
गरीब आदमी को जीवित रहने के लिए तो अमीर आदमी अनंत सुखोपभोग ओर जीवन स्तर को ऊंचा उठाए रखने के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहा है। समुद्रतटीय इलाकों से मैनग्रोव के जंगल जिस तरह साफ हुए हैं, सुनामी के खतरे से कौन रोकेगा? प्रकृति को उपनिवेश बनाकर, उसका दोहन कर हम वसंत को भी सुरक्षित रख पाएंगे- यह आज महत्वपूर्ण सवाल है। यह ठीक है कि पर्यावरणविदों के दबाव में पृथ्वी को बचाने के लिए 'वन महोत्सव' मनाया जा रहा है। इक्कीस मार्च को विश्व वानिकी दिवस, बाई अप्रैल को पृथ्वी दिवस, पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। बावजूद इसके इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एग्रोफोरेस्ट्री के महानिदेशक बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि आने वाले दिन परिस्थितिकी के लिए बेहद खतरनाक होें। यह सच्चाई है कि पेड़ लगाने के अभियान में गति आई है, लेकिन हमारे यहां जो विदेशी पेड़ लगाए जा रहे हैं न उनमें फूल लगते हैं न फल। पीपल, आम, कटहल, जामुन, बरगद, नीम जैसे पेड़ जो लंबी उम्र जीते हैं, पर्यावरण के लिए बेहद अच्छे हैं। ये मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षियों के लिए भी उपयोगी हैं। फल और औषधि दोनों रूपों में काम आते हैं शहरों में तकरीबन ये पेड़ गायब हो गए हैं। शहरों में आम के पेड़ जिस तरह लुप्तप्राय हैं, उसमें छिपी कोयल की कूक का रूपक शायद ही किसी कवि की कविता में जगह बना पाए। देखते ही देखते भूमंडलीय दुनिया में पेड़-पौधे, फूल, वसंत, कोयल, तितली, वर्चुअली रियलिटी बचते जा रहे हैं।