भागीरथी का गंगा बनना

कई पौराणिक गाथाओं से जुड़ा देवप्रयाग वह मनोरम तीर्थस्थल है जहां भगीरथी नदी अलकनंदा से मिलकर गंगा का नाम पहली बार प्राप्त करती है। समुद्रतल से 618 मीटर की ऊंचाई पर, ऋषिकेष से 70 किमी दूरी पर स्थित देवप्रयाग से ही गंगा नदी अपना यह विश्वविख्यात नाम प्राप्त करती है।
ऋषिकेश से देवप्रयाग तक की सड़क गंगा नदी के साथ-साथ चलने के कारण रमणीक है। पर प्रस्तावित बांध निर्माण कार्यों के कारण आने वाले दिनों में इस सुंदर प्राकृतिक अंचल में भी बहुत उथल-पुथल हो सकती है, जैसा कि कुछ हद तक आज भी पत्थर तोड़ने के कारण हो रही है। इस क्षेत्र की सुंदरता व नदी के पहाड़ी बहाव को ध्यान में रखते हुए शिवपुरी व कोडियाल जैसे स्थानों को रफ्टिंग या नौका-विहार केंद्र के रूप में चुना गया है। नदी किनारे कुछ कैंप भी लगाए गए हैं।
पर इस क्षेत्र में पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए सबसे सुंदर स्थल तो भगीरथी व अलकनंदा का संगम स्थल ही है जो देवप्रयाग का एक छोटा पहाड़ी नगर है जहां जगह-जगह से ये नदियां दिखाई देती हैं।
गंगोत्री से निकली भगीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुंचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफानी शोर के साथ भगीरथी का शुध्द शीतल जल यहां बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भगीरथी यहां वास्तव में भागती हुई प्रतीतहोती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, मानो उसे बहुत जल्दी है। बहुत वेग, बहुत तेज है उसमें। अठखेलियां करती भगीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
पहाड़ों के एक ओर यों तेज वेग से भागती दौड़ती भगीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर बिल्कुल अलग ही दृश्य है। दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है। शांत, शीतल, अपेक्षाकृत मंद गति। गति में एक किस्म की स्थिरता, संतुलन। गहराई में बैठा संतोष का- सा अहसास। मंद-मंद बहना, पर निरंतर गतिशील। मन को शांति, संतोष देने वाली छवि।
देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भगीरथी अपनी तेज गति और तूफानी अंदाज से जुटी विशाल जलराशि को विस्तृत बिखेर देती है और उसकी लहरें अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा ने भी भगीरथी की ओर मुड़ने से पहले मानो ठिठक कर भगीरथी के तेज वेग, जोश को देखा है। इससे उसमें भी उत्साह पैदा हुआ है। अपने भीतर से उसने हिम्मत जुटाई है। नई स्फूर्ति का संचार हुआ है उसमें। उसे भी तो आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना होगा। अपनी मूल प्रकृति, संतुलन, गहराई में छिपी स्थिरता न खोते हुए भी उसने मुड़कर अपनी गति को बढ़ाया है। उमंग से आगे बढ़ी है अलकनंदा भगीरथी की ओर।
इतनी तैयारी के बाद, दो अलग-अलग स्वभावों के परस्पर मेल के लिए व्यापक होने के प्रयासों के बाद यह संगम बिना किसी तामझाम के बहुत ही सहज रूप में हो जाता है। संगम की यह सहजता-सरलता ही इसे विशेष बनाती हैं। बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से दोनों नदियां, उनकी लहरें एक-दूसरे से मिलती हैं। एक-दूसरे का स्वागत करती हैं, गले मिलती हैं। सहज रूप से परस्पर घुल-मिल जाती हैं। यह मिलना इतना सहज है कि ध्यान से देखने पर ही नजर में आता है। ऊपरी तौर पर देखें तो दोनों ओर से आती नदियां मिलकर एक बनती ही प्रतीत होती हैं। इस संगम से ही भगीरथी अपना नाम यहां खो देती है और बन जाती है गंगा। अलकनंदा की जलराशि अपनी शांति, अपना धैर्य बड़े गरिमामय ढंग से फैलाती है। फिर पहाड़ी चट्टानें उनके लिए संकरा मार्ग तैयार कर उन्हें और अधिक घुलने-मिलने का मौका देती हैं। जल्द ही दोनों भली-भांति घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। गंगा बन जाती हैं।

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