शिव की नगरी में गंगा प्रदूषण

प्रो. वीरभद्र मिश्र

(विश्व विख्यात पर्यावरणविद्, पूर्व विभागाध्यक्ष, सिविल इंजीनियरिंग विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। स्वच्छ गंगा अभियान एवं संकट मोचन फाउन्डेशन के संस्थापक। विश्वस्तरीय सम्मान सात धरती पुत्रों में से एक `धरती पुत्र' से सम्मानित। इसके अतिरिक्त गंगा के स्वच्छता हेतु चलाये जा रहे अभियान के लिए अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित।)

काशी में देवनदी गंगा का लोकोत्तर महत्त्व है। यहाँ गंगा और गंगा की मिट्टी कुछ और ही अलौकिकता धारण कर लेती है। असी संगम से वरुणा संगम तक सात किमी. में फैली घाटों की श्रृखँला पर प्रतिदिन लगभग ६० हजार नर-नारी श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं जो संभवत: संसार के किसी अन्य नदी तट पर देखने को नहीं मिलेगा। काशी का वह दृश्य अद्भुत है। इसी स्वरूप ने कला, संस्कृति व परम्परा को जन्म दिया है। इसका बने रहना एवं इसमें विश्वास रखकर मज्जन पान करने वालों को स्वस्थ व प्रसन्न रखना हम सबका दायित्व है।

गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण में इस दायित्व का निर्वाह हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। असी-वरुणा के बीच स्थित कई नाले आज भी गंगा में मलजल गिरा रहे हैं। इस क्षेत्र में गंगा पर तैरने वाले वस्तुओं का वर्णन करने से मन बहुत खराब हो जाता है। इस देवभूमि से निकलती गंगा का दर्शन करने से हमें सुख एवं शान्ति का अनुभव हो, यह लक्ष्य सर्वोपरि है। आज के भौतिकवादी युग में इन भावनात्मक बातों का कितना असर पड़ेगा यह तो हम नहीं जानते लेकिन अभी भी पर्याप्त मात्रा में ऐसे लोग हैं जिनकी भावनाओं का यह सत्यनिरूपण है कि वे गंगा के साथ जियेंगे तथा गंगा के साथ ही मरेंगे। कम से कम इन प्राणियों की रक्षा के लिए गंगा को साफ करना आवश्यक है। ये लोग बी.ओ.डी., फीकल कोलीफार्म आदि की बात नहीं सुनेंगे। पक्षियों एवं जानवरों की नस्ल बचाने में लगे पर्यावरणविदों को इन प्राणियों की रक्षा के लिये, उनकी भावनाओं की रक्षा के लिए गंगा को साफ रखना चाहिये।

वैज्ञानिकों की भाषा में मुझे यह कहना पड़ रहा है कि असी-वरुणा के बीच गंगा जल का बी.ओ.डी. तीन मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। कुछ स्थानों पर तो १०-१५ मिग्रा० प्रति लीटर तक है। पेट की बहुतेरी एवं जानलेवा बीमारियों को फैलाने वाले जीवाणुओं में फीकल कोलीफार्म बहुत खतरनाक है। असी-वरुणा के बीच ये जीवाणु ७० हजार से १ लाख की संख्या जल के प्रत्येक १०० घन सेमी. (सी.सी.) के नमूने में पाये जा रहे हैं। गंगा कार्य योजना में इन्हें कम करने का कोई उपाय नहीं किया गया है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि यह सब नालों के अवजल गंगा में गिरने से हो रहा है। असी से पहले ६ किमी. दूर गंगा जल का बी.ओ.डी. एक मिलीग्राम प्रति लीटर एवं फीकल कोलीफार्म बैक्टीरिया की संख्या शून्य है। यानी कि वहाँ का जल अत्यधिक निर्मल है। जाहिर है कि गंगा जल की दुर्दशा काशी में ही गंगा में गिरने वाले नालों से हो रही है।

गंगा कार्य योजना के प्रथम-चरण की अवधारणा एवं कार्यों की वरीयता में कुछ ऐसी असावधानियाँ भी हैं जिनके चलते वाराणसी नगर की भी स्थिति बिगड़ी है। `एक्टीवेटेड स्लज प्रणाली' से अवजल शोधक इकाई का निर्माण, वाराणसी के सीवेंज की प्रकृति को बिना देखे अवजल शोधन इकाई में बायोगैस बनाकर विशालकाय जेनरेटरों के चलाने का निर्णय, बिजली की अनियमित आपूर्ति को ध्यान में रखकर कोनिया टर्मिनल सीवेज पम्प के संपवेल को छोटा तथा उथला बनाना, वाराणसी नगर के बीच में जाने वाली प्राचीन ट्रंक सीवर के जीर्णोद्धार पर एक पैसा खर्च न करना प्रथम चरण की कुछ मुख्य गलतियाँ हैं। इन त्रुटियों के चलते गंगा का पानी साफ नहीं हो पाया और वाराणसी नगर का पर्यावरण भी दूषित हो गया। नगर के अनेक स्थानों पर प्रतिदिन सीवेज का जमाव नागरिकों के लिए असद्य्य होता जा रहा है। बरसात में नगर की नारकीय स्थिति से हम सबका उबर पाना कठिन हो रहा है। इतना ही नहीं मुख्य सीवर लाइन बैठती जा रही है। सीवर से रिसता हुआ अवजल नगर के पेयजल में मिल रहा है।

गंगा कार्य योजना (प्रथम चरण) लागू किये जाने के पूर्व शहर में इस प्रकार की दुर्दशा कदापि नहीं थी शहर के बाहर गावों में जहाँ यह शोधित मलजल जा रहा है वहाँ के लोग पीलिया, डायरिया आदि के शिकार हो रहे हैं। यदि सीवेज ट्रीटमेंट प्लाट ठीक से चलाये जाते तो कम से कम गावों को दुर्दशा से बचाया जा सकता है। लेकिन दीनापुर एक्टीवेटेड स्लज प्लांट को ठीक से चलाना उचित रूप से प्रशिक्षित कर्मचारियों के अभाव में संभव नहीं हो पा रहा है। काशी में कुछ संस्थाएं एवं कुछ तकनीकी विशेषज्ञ प्रारम्भ से ही गंगा कार्य योजना की सफलता के लिए अच्छी राय देते रहे हैं जो दिल्ली में गंगा निदेशालय मानता है, लेकिन जब निदेशालय इन्हें स्थानीय स्तर पर कार्यान्वित करने की सिफारिश करता है तो यहाँ के अधिकारी उसे टाल जाते हैं। स्थानीय स्तर में गंगा कार्य योजना के द्वितीय चरण का प्रारूप अधिकारियों ने बिना जनता एवं इसके विशेषज्ञों का विचार लिये ही दिल्ली भेज दिया। उचित तकनीकी चुनाव एवं रख-रखाव की गड़बड़ी के कारण गंगा कार्य योजना असफल हुई है। असफलता का एक बड़ा गंभीर कारण जनसहयोग की कमी भी है।
साभार- http://www.abhyuday.org

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