मनुष्य का अस्तित्व संकट में

श्री शुभंकर बनर्जी

आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि मानव जाति के अस्तित्व को शीघ्र ही बहुत बड़े संकट से गुजरना पड़ेगा। फिलहाल तो ऐसा कोई संकट मोटे तौर पर नहीं दिखता, परन्तु मानव के सामान्य स्वास्थ्य में जो ह्रास हो रहा है यदि उस पर वैज्ञानिक ढंग से कोई नियन्त्रण नहीं किया गया तो निश्चय ही मानव अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। इस स्थिति के लिए सबसे तेज बुद्धि वाला मानव स्वयं ही जिम्मेदार है। यदि हम बढ़ते हुए संक्रामक रोग को ही लें तो देखेंगे कि अनेक स्वास्थ्य सुविधाएँ तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के विशेष प्रयास भी व्यर्थ सिद्ध करते हुए मलेरिया, चेचक, गलाघोंटू, ज्वर आदि रोगों पर अभी तक पूर्ण नियन्त्रण नहीं पा सके हैं। हृदय रोग, रक्तचाप तथा सांस सम्बन्धी रोगों का आक्रमण तो साधारण बात हो गई है। पहले केवल अमीर लोगों को इन रोगों का सामना करना होता था परन्तु आजकल आम जनता भी इन रोगों की चपेट में आने लगी है। यह कहना गलत न होगा कि आम जनता की रोगग्रस्तता में यह वृद्धि न केवल विकासशील देशों में ही है बल्कि अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी रोगों के संक्रमण में वृद्धि हुई है। एड्स जैसी महाव्याधि ने तो पूरे विश्व को ही हिला दिया है।

मानव जीवन के आरम्भ से ही सूर्य कि किरणों को शक्ति का स्रोत माना जाता रहा है, जबकि आज स्थिति यह है कि कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि विकसित देशों में नागरिकों को चेतावनी दी गई है कि सूर्य-स्नान करना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। पर्यावरणीय क्षय के कारण सूर्य स्नान के शौकीन लोगों में चर्म-कैन्सर होने की आशंका बढ़ गयी है।

भारत में भी ऐसे अनेक रोग फैल रहे हैं जो जानलेवा सिद्ध हो रहे हैं, परन्तु उनकी वैज्ञानिक व्याख्या अभी तक नहीं हो सकी है। जब भी किसी रोग के बारे में हमें कुछ भी पता नहीं चलता है तो हम इन्हें विषाणुओं (वाइरस) का प्रकोप मान लेते हैं। हमें रोगों के असली कारणों का पता लगाना होगा। महज वायरस पर दोष थोपना ही काफी नहीं है। हालांकि सच्चाई तो यह है कि इसका असली कारण मानव स्वयं ही है। हमने प्रकृति का बेतहाशा शोषण करके इन दुष्परिणामों को जन्म दिया है।

समस्या यह है कि स्थिति पर काबू कैसे पाया जाए ? प्रकृति के साथ अंधाधुंध खिलवाड़ से ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। कई प्रकार की जान लेवा तथा संक्रामक रोगों के प्रकोप का सिलसिला-सा बन चुका है। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध चिंतक हिपोक्रेट्स के विचार औषधि विज्ञान के क्षेत्र में इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हीं की याद में चिकित्सा-व्यवसायियों द्वारा शपथ ली जाती है जिसे `हिपोक्रेटिक ओथ' कहा जाता है। उन्होंने कहा था - ``औषधि एवं चिकित्सा सम्बन्धी उचित अनुसंधानों के लिए सबसे पहले विभिन्न ऋतुओं तथा स्वास्थ्य पर इनके प्रभावों की संभावना का पर्याप्त ज्ञान होना परम आवश्यक है।'' लगभग २५०० वर्ष पहले कही इस महान चिंतक की बात आज भी सच है। उन्होंने स्वयं तथा अपने समकालीन चिकित्सकों के अनुभवों के आधार पर मौसम तथा मानव-स्वास्थ्य सम्बन्धी सामग्री का संकलन कर विस्तार से अध्ययन भी किया था। अनेक अनुसंधानों एवं प्रयोगों से आज यह बात सिद्ध हो चुकी है कि प्राय: सभी रोगों का मुख्य कारण वायु तथा मौसम के विभिन्न संयोगों का मानव के मन तथा शरीर पर पड़ने वाला विपरीत प्रभाव ही है। उनके अनुसार धुंधली दृष्टि, सिर का भारीपन तथा सुनने में परेशानी का कारण दक्षिणी हवाएं हैं जबकि उत्तरी हवा की वजह से खांसी, गले में खराबी, अंतड़ियों में कठोरपन तथा सीने में तकलीफ आदि की आशंका होती है। बेशक, उनके ये विचार भले ही कुछ अजीब से लगते हों परन्तु उनका यह विचार आज भी लागू होता है कि जलवायु मनुष्य जाति के स्वास्थ्य को सर्वाधिक प्रभावित करती है।

यह एक प्रकृति प्रदत्त तथ्य है कि यदि सुबह उठकर ग्रीष्मऋतु में मानव को शीतल बयार का आनन्द मिले या शरद काल में गुनगुनी धूप, मन एकाएक प्रसन्न हो ही जाता है। ऐसा लगने लगता है कि मानो सम्पूर्ण शरीर में स्फूर्ति का संचार अनायास ही हो गया हो तथा मुख से फूट पड़ता है `वाह! क्या मौसम है'। ठीक इसके विपरीत यदि ग्रीष्मऋतु में सुबह उठते ही उमस भरी गर्मी हो या शीत ऋतु में कड़ाके की ठंडी हवा बह रही हो तो मनुष्य की कार्य-क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार तापमान का सुख के साथ सीधा सम्बन्ध है परन्तु इस के साथ कई अन्य कारकों का भी सहयोग होना जरूरी है जैसे आर्द्रता, वायु (उसकी दिशा एवं गति) तथा धूप की तीव्रता आदि। विशेषत: आर्द्रता हमारे स्वास्थ्य को अत्यन्त प्रभावित करती है। जिसे गर्मी के दिनों में विशेष रुप से अनुभव किया जा सकता है। यदि हवा गर्म हो जाए तो स्वास्थ्य पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य की मानसिक कार्यक्षमता को काफी हद तक प्रभावित करता है। ज्यादा गर्म और आर्द्र वातावरण में निरंतर एकाग्रता की जरूरत पड़ती है। यदि प्राकृतिक परिस्थिति थोड़ी-बहुत खराब हो तो मानव कुछ देर तक अपनी क्षमता का प्रयोग कर लेता है परन्तु अत्यधिक प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थिति होने की दशा में मानव की कार्य-क्षमता तेजी से घट जाती है। इस आधार पर रोगों का निदान करने के लिए कई परिस्थितियों में जलवायु उपचार किसी रोगी के लिए औषधि सेवन या शल्य चिकित्सा से भी ज्यादा लाभकारी तथा कम खर्चीला सिद्ध होता है।

समाज पर जलवायु परिवर्तन के कारण परोक्ष दुष्प्रभावों की बढ़ती आशंका से विश्व के वैज्ञानिक चिंतित हैं। इस विषय पर कई प्रकार के अध्ययनों में पाया गया कि यदि ग्रीन हाउस गैसों की वर्तमान उत्सर्जन दर पर रोक लगाने में हमें सफलता न मिली तो धरती का औसत तापमान आगामी दशकों में इतना बढ़ जाएगा कि उसे सहन करना कठिन हो जाएगा।

वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह पाया गया कि वर्ष २०३० तक धरती के औसत तापमान में ३ डिग्री से० तक की वृद्धि हो जाएगी। यह वृद्धि उत्तरी गोलार्द्ध के उच्च अक्षांश पर स्थित क्षेत्र में १० डिग्री से० तक बढ़ सकती है। पृथ्वी पर तापमान वृद्धि के कारण दक्षिणी तथा उत्तरी ध्रुवों पर जमी बर्फ के पिघलने से समुद्र का जलस्तर एक से तीन मीटर तक ऊपर उठ जायेगा। इन जलवायु परिवर्तनों का प्रभाव आने वाले दशकों में धीरे-धीरे ही होगा परन्तु इसके दूरगामी प्रभाव खतरनाक होंगे।

एक अन्य खोज में पाया गया कि ग्रीन हाऊस गैसों में कार्बन डाईआक्साइड ही प्रमुख गैस है परन्तु समताप मंडल के ओजोन स्तर में क्षय का प्रमुख कारण क्लोराफ्लोरो गैस है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन नामक गैस वायुमंडल में बिना विघटित हुए अनेक वर्षो तक रह सकती है। यदि क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उपयोग पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी जाय तो भी उसका दुष्प्रभाव आने वाले दशकों तक बना रहेगा। इसके अतिरिक्त ओजोन परत के क्षय के कारण सन् २०५० तक पराबैगनी (अल्ट्रावायलेट) विकिरण की मात्रा में भी २० से ५० प्रतिशत तक की वृद्धि का खतरा बना हुआ है।
उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान न देना हर परिस्थिति में आत्महंता सिद्ध होगा। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व मौसम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्तराष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम से सम्बन्धित सभी पर्यावरण एवं प्रकृति वैज्ञानिकों को समर्पित भाव से एकजुट होकर कार्य करना होगा। धरती पर प्रलयकारी परिस्थिति पैदा होने की आशंका को टालने के लिये निरन्तर संघर्ष करना होगा। आखिरकार प्रकृति के संभावित प्रकोपों के दुष्प्रभावों को तो पूरे मानव समाज को ही भुगतना पड़ेगा। अत: प्रदूषण के लिए जिम्मेदारियाँ निर्धारित करने से अच्छा यह होगा कि हम धरती के निवासी सभी मनुष्य मिलजुल कर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कार्य करें तथा मानव अस्तित्व पर मंडराते संकट के बादल को हटाने के लिए सामूहिक प्रयास करें। विश्व के प्रमुख राष्ट्राध्यक्षों ने भी यही बात सामूहिक रूप से `पृथ्वी सम्मेलन' रियो (ब्राजील) में कही थी ``खबरदार! आदमी का वजूद खतरे में है। इसे सामूहिक रूप से बचाने के लिए संषर्घ करना होगा। यह उत्तरदायित्व पूरे मानव समाज का है जिसे अनिवार्य रूप से पूरा करना है''।

आप पर्यावरण के लिए क्या कर सकते हैं?

आप सोचें अकेला व्यक्ति अधिक कुछ नहीं कर सकता परन्तु यदि हम सभी मिलकर कुछ करें तो इसका बहुत बड़ा असर पड़ेगा। यदि हम लोग कुछ नहीं करेंगे तो कुछ समस्यायें विकराल रूप धारण कर लेंगी।
वायुमंडल में लगभग ७८ प्रतिशत नाइट्रोजन, २१ प्रतिशत आक्सीजन, ०.३ प्रतिशत कार्बन डाईआक्साइड तथा शेष निष्क्रिय गैसें पायी जाती हसाभार- http://www.abhyuday.org

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