सरस्वती नदी की खोज में

सरस्वती की खोज में

वैज्ञानिकों के अनुसार सरस्वती के बारे में नए प्रमाण मिले हैं सरस्वती नदी के बारे में भारत में कई युगों से कहानियाँ चली आ रही हैं. वेद पुराणों में सरस्वती को कोटि-कोटि जनों की जीवन धारा बताया गया है और नदी की स्तुति में श्लोक लिखे गए.

अब टेलीविज़न की जानी-मानी हस्ती मधुर जाफ़री ने एक रेडियो कार्यक्रम में सरस्वती नदी के मिथक का जायज़ा लिया है. साथ ही इन चौंका देने वाले नए प्रमाणों की जाँच-परख की है कि शायद यह मिथक नहीं बल्कि एक वास्तविकता थी. ऐसा माना जाता है कि विशाल और विस्मयकारी पवित्र सरस्वती नदी का उद्गम-स्रोत हिमालय पर्वत है. वहाँ से शुरू हो कर सरस्वती नदी का जल सागर में जा मिलने से पहले नदी के किनारों के आस-पास की ज़मीन की प्यास बुझाता जाता है.

लेकिन जैसे-जैसे सदियाँ बीतती गईं और कोई भी सरस्वती नदी का पता नहीं लगा पाया तो मिथक, आस्था तथा धार्मिक विश्वास की मिली-जुली भावना हावी हो गई और सरस्वती नदी भारतीय मिथक का अंग बन गई.

नदी या मिथक?
अब भारत के अधिकांश लोग इसे एक मिथक नदी समझते हैं. कुछ लोगों का ऐसा भी विश्वास है कि यह एक अदृश्य नदी है और यह अब भी भूमिगत बहती है. एक अन्य आम धारणा यह है कि सरस्वती नदी किसी समय पर उत्तरी भारत के इलाहाबाद नगर से हो कर बहती थी, जहाँ गंगा और यमुना नदियों से इसका संगम होता था.इन तीनों नदियों के संगम को, जो सामान्य आँख से दिखाई नहीं पड़ता, भारत के सबसे पावन स्थलों में समझा जाता है. अधिकांश भारतवासी सरस्वती नाम को विद्या की देवी, सरस्वती की पूजा से जोड़ कर देखते हैं.

सरस्वती-पूजा का उत्सव फ़रवरी के महीने में आता है.

सरस्वती उत्सव

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में सरस्वती-पूजा का उत्सव बहुत ही शानौ-शौकत के साथ मनाया जाता है. उत्सव का समापन हुगली नदी के जल में सरस्वती देवी की हज़ारों प्रतिमाओं के अर्पण के साथ होता है जहाँ वे हमेशा-हमेशा के लिए नदी के जल में अमर हो जाती हैं. सरस्वती देवी का जल से सम्बन्ध उसी रहस्य और मिथक का अंग है जो सरस्वती नदी से जुड़ा हुआ है. लेकिन जैसे-जैसे कुछ चौंका देने वाला वैज्ञानिक प्रमाण सामने आ रहा है, सरस्वती नदी के अस्तित्व का रहस्य हमेशा एक पहेली बन कर नहीं रह सकता.

उपग्रह प्रमाण

वैज्ञानिकों को रेगिस्तान में जल खोजने की उम्मीद
उपग्रह से लिए गए चित्रों के माध्यम से वैज्ञानिकों ने एक ऐसी विशाल नदी के प्रवाह-मार्ग का पता लगा लिया है जो किसी समय पर भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में बहती थी. उपग्रह से लिए गए चित्र दर्शाते हैं कि कुछ स्थानों पर यह नदी आठ किलोमीटर चौड़ी थी और कि यह चार हज़ार वर्ष पूर्व सूख गई थी.
जोधपुर में सुदूर संवेदी उपग्रह केन्द्र के अध्यक्ष डा. जे आर शर्मा का विश्वास है कि सरस्वती नदी सम्भवतः एक भीषण भूकंप के कारण सूख गई थी. उनके अनुसार, भूगर्भीय पट्टियों की गतिविधि के कारण सरस्वती नदी में पानी की आपूर्ति बन्द हो गई थी.
डा. शर्मा और उनके खोजी-दल का विश्वास है कि उन्हें सरस्वती नदी मिल गई है और वे इस बात के प्रति काफ़ी उत्साही हैं कि इस खोज के भारत के लिए क्या मायने हो सकते हैं.

जल स्रोत
वे पानी के सम्भावित स्रोत के तौर पर इसकी खोज-परख करना चाहते हैं. जल इंजीनियर राजस्थान के रेगिस्तानी इलाक़े के प्राचीन प्रवाह-मार्गों या भूमिगत जलाशयों को खोजने के काम में लगे हुए हैं. अगर वे इस काम में कामयाब हो जाते हैं, तो उनकी इस खोज से हज़ारों की संख्या में उन स्थानीय लोगों को भारी राहत मिलेगी जिन्हें पीने के पानी के भारी अभाव का सामना करना पड़ रहा है. राजस्थान राज्य भूमिगत बोर्ड के केएस श्रीवास्तव का विश्वास है कि इन दबे हुए प्राचीन जलमार्गों में से एक सरस्वती नदी हो सकती है. उनका कहना है कि कार्बन डेटिंग से यह तथ्य सामने आया है कि इस इलाक़े के प्राचीन जल-मार्गों में उन्हें जो पानी मिल रहा है, वह चार हज़ार साल पुराना है.

प्राचीन सभ्यता

इसका मतलब यह है कि यह पानी सरस्वती नदी के काल का ही है. किसी प्रमुख नदी के किनारे पर रहने वाली एक विशाल प्रागैतिहासिक सभ्यता की खोज ने इस प्रबल होते आधुनिक विश्वास को और पुख़्ता कर दिया है कि सरस्वती नदी अन्ततः मिल गई है. इस नदी के प्रवाह-मार्ग पर एक हज़ार से भी अधिक पुरातात्त्विक महत्व के स्थल मिले हैं और वे ईसा पूर्व तीन हज़ार वर्ष पुराने हैं.इनमें से एक स्थल उत्तरी राजस्थान में प्रागैतिहासिक शहर कालीबंगन है. इस स्थल से कांस्य-युग के उन लोगों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी का ख़ज़ाना मिला है जो वास्तव में सरस्वती नदी के किनारों पर रहते थे. पुरातत्त्वविदों ने पाया है कि इस इलाक़े में पुरोहित, किसान, व्यापारी तथा कुशल कारीगर रहा करते थे. इस क्षेत्र में पुरातत्त्वविदों को बेहतरीन क़िस्म की मोहरें भी मिली हैं जिन पर लिखाई के प्रमाण से यह संकेत मिलता है कि ये लोग साक्षर थे. लेकिन दुर्भाग्यवश इन मोहरों की गूढ़-लिपि का अर्थ नहीं निकाला जा सका है.

शायद इन मोहरों पर हुई लिखाई से एक दिन यह गुत्थी खुल सके कि सरस्वती नदी का क्या हश्र हुआ और कि क्या सरस्वती नदी फिर से मिल गई है?

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