आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़, भाग 6

बड़े-बड़े तालाबों में उठने वाली विशाल लहरों को तोड़ने में इन मंदिरों की खास भूमिका होती है। बड़े जल भंडारों में हवा के कारण उठने वाली पल्लरें धीरे-धीरे तालाबों की पाल को तोड़ती है। इससे बचने के लिए बीच तालाब में मंदिर निर्माण किया जाता है। इसके अलावा बड़े तालाबों को खोदने से निकली मिट्टी को फेंकने के लिए दूर तक जाना पड़ता है। इससे बचने के लिए भी एक समय के बाद तालाब के बीच में ही मिट्टी फेंकी जाने लगती है। इस तरह से बीच तालाब में बने टीले पर मंदिरों का निर्माण किया जाता है। कभी-कभी इस जगह पर छोटा-मोटा बगीचा भी लगा दिया जाता है। जगदलपुर के जगतदेव तालाब या रायपुर के बूढ़ातालाब के बीच में बने शिव मंदिर इसी वजह से बनाए गए हैं। आखिर शिवजी पर्यावरण के रक्षक देवता ही तो होते हैं।

मोटे-तौर पर देखें तो आबादी की पेयजल व निस्तार की जरूरतों के लिए तालाबों की शृंखला बनाई जाती है और सिंचाई तथा जानवरों के लिए कई बार अकेले तालाब। सारंगढ़, रतनपुर, रायपुर, जांजगीर, आरंग सरीखे कस्बों, शहरों में तालाबों की इस शृंखला में पीने और भोजन पकाने के पानी के लिए एक या दो तालाब खासतौर पर बनाए जाते हैं। इनमें सफाई बनाए रखने के नियम-कायदे होते हैं। लेकिन जानवरों या सिंचाई के लिए ढलानों पर पानी रोककर बंधिया, बंधा या बंध बनाए जाते हैं। कई जगह पुरानी नदियों के रास्ता बदलने से 'सरार' या गङ्ढों में भी पानी इकट्ठा हो जाता है। मध्य छत्तीसगढ़ में खोचका, खुचका, तरिया, डबरा या डबरी पाए जाते हैं जो आकार में छोटे
तालाब ही होते हैं।

बड़े और बारहमासी तालाबों में 'दहरा' या 'दहारा' यानी की धारा पाई जाती है। तल में निकली इस धारा का स्रोत कहीं और होता है तथा यह तालाब को लगातार पानी देती रहती है। इस धारा के लिए तीन से चार हाथ तक के गङ्ढे भी किए जाते हैं। कई जगह तालाबों की तलहटी में कुएं खोद दिए जाते हैं। जगदलपुर, कोंडागांव, रायपुर आदि शहरों में इस तरह के कुएं भीषण अकाल में भी तालाबों को पानी देते रहते हैं। इन कुओं की चिनाई भी की जाती है।

आमतौर पर तो तालाबों में भिन्न-भिन्न जातियों के लिए पत्थर रखे जाते हैं ताकि उन पर बैठकर स्नान या कपड़े धोने जैसे काम किए जा सकें। लेकिन खास तालाबों पर बहुत सुंदर घाट बनाए गए हैं। राजनांदगांव के राजा बलरामदास ने रानी सागार तालाब में ऐसे विशाल घाट और तैरने के लिए बुर्ज बनाने का ठेका दिया था। तब के ठेकेदार शिवरतनलाल ने काम तो कर दिया लेकिन उन्हेँ या उनके परिवार को बकाया दस हजार रुपए आज तक नहीं मिले। राजा बलराम दास ने अपनी वसीयत में इसका जिक्र भी किया है। रायपुर, जशपुर, रायगढ़, सारंगढ़, रतनपुर और जगदलपुर सरीखे कस्बों, शहरों में आज भी ऐसे तालाब देखे जा सकते हैं जिन पर सुंदर घाट और बुर्ज बने हैं। सारंगढ़ के राजा के बारे में कहा जाता है कि उन्होँने अपने तालाब पर आने वाले पक्षियों का शिकार करने के लिए चारों तरफ ऐसे बुर्ज बनवाए थे जहां से छिपकर गोली चलाई जा सके। ऐसे शिकारियों में क्रिप्स कमीशन वाला प्रसिध्द अंग्रेज लार्ड क्रिप्स भी हुआ करता था।

आज की तरह उन दिनों तालाब खोदकर तुरत-फुरत पानी उलीचने की उतावली नहीं रहती थी। आखिर तालाब खोदना इष्टापुर्त धर्म यानी परमार्थ के लिए किया जाने वाला पुण्य का काम माना जाता था। बगीचे लगवाना, तालाब खुदवाना, राजाओं-जमीदारों का कर्तव्य माना जाता था। दानी, समाजसेवी संपन्न लोगों के लिए ऐसे लोकोपकारी काम
करवाना पुण्य माना जाता था। इस काम में समाज को संबोधित किया जाना अभिष्ठ था। तालाब यदि व्यक्तिगत उपयोग के हों तो पूजा करना जरूरी नहीं था लेकिन सार्वजनिक तालाबों की पूजा जरूरी थी। इसमें देवताओं को साक्षी मानकर अपने पर्यावरण के कर्ज को उतारने जैसा लोकार्पण का भाव रहता था। सबसे पहले जलदेवता वरुण का यूप या स्तंभ प्रतिष्ठित किया जाता था। यह यूप सरई या साल की लकड़ी का होता था। यूप प्रतिष्ठा संस्कार के बारे में 'प्रतिष्ठा महोदधि' नामक ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है। विशेष और विशाल तालाबों के लोकार्पण के इन विधि-विधानों के अलावा लोकजीवन में आज भी तालाबों के विवाह की परंपरा जारी है। मान्यता है कि विवाह
हुए बिना किसी भी तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता।

तालाब विवाह या विहाव राजस्थान से आई परंपरा मानी जाती है जिसमें स्तंभ पति का प्रतीक माना जाता है। इस तरह से कुओं के भी विवाह होते हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में आमतौर पर तालाब जोड़े से बनाए जाते हैं और इनके बाकायदा विवाह होते हैं। पूरे तालाब को सात बार सूत से बांधा जाता है, गौदान किया जाता है। यह परंपरा दरअसल तालाबों के लोकार्पण की मानी जाती है। तालाब विवाह में प्रतीक स्वरूप स्तंभ गाड़ने की परंपरा तो है ही लेकिन इन स्तंभों से पानी के स्तर का भी पता लगता रहता है। नियम है कि एक खास चिन्ह तक तालाब का जलस्तर उतर जाए तो फिर निस्तार, स्नान आदि की मनाही हो जाती है। मान लिया जाता है कि अब पानी कम बचा है और इसे किफायत से इस्तेमाल करने की जरूरत है। इन स्तंभों पर तालाब बनाने वालों के नामों के नामों के अलावा सुंदर कलाकृतियां उकेरी जाती थी। किरारी गांव में मिले और रायपुर के संग्रहालय में रखे ऐसे ही एक स्तंभ में बारहवीं शताब्दी के राजअधिकारियों के अलावा तालाब बनाने वालों के नाम भी खुदे पाए गए हैं।

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