सूखे का ऐसे किया इलाज

नींबी गाँव के लोगों ने तालाब को साफ़ कर पानी मुहैया कराया

अभिसार शर्मा

राजस्थान में जयपुर के निकट नीबी गाँव के लोग कुछ समय पहले तक बूँद-बूँद पानी को तरसते थे लेकिन आज नज़ारा ही कुछ और है. इस बदलाव का श्रेय किसी सरकारी अधिकारी को या सरकारी सहायता को नहीं, बल्कि राधू गूजर को जाता है. अगर उन्हें नींबी गाँव का नायक कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. उनके गाँव के सभी कुएँ सूख चुके थे और उसके सभी युवक बेहतर रोज़ग़ार और रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों का रुख़ कर चुके थे. तभी राधू गुजर की मुलाक़ात तरुण भारत संघ के राजेंद्र सिंह से हुई.
राजेंद्र सिंह ने गाँववालों से मिलकर गाँव में बरसों से खाली पड़े तालाब की मरम्मत कराई जिसके परिणामस्वरूप न केवल तालाब पानी से भर गए बल्कि उसके आस-पास के कुएँ भी पानी से भरे रहते हैं.
नींबी के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ वह राजेंद्र सिंह को मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के साथ बदस्तूर जारी है.

मिसाल
जयपुर में जब राजेंद्र सिंह से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने कहा कि नींबी की कहानी देश के पूरे संघीय ढाँचे के लिए एक मिसाल है. इससे भारत का संघीय ढाँचा तो मज़बूत होगा ही साथ ही भारत के अपने समाज की ताक़त बढ़ेगी उसका आत्मगौरव बढ़ेगा.
''इससे भारत का संघीय ढाँचा तो मज़बूत होगा ही साथ ही भारत के अपने समाज की ताक़त बढ़ेगी उसका आत्मगौरव बढ़ेगा.''
और सिर्फ़ राधू गुजर या राजेंद्र सिंह ही नहीं नींबी का हर निवासी इसकी सफलता का हकदार है.
गाँव के एक निवासी कहते हैं, ''कुएँ में पानी कम था वो ज़्यादा हो गया उसमें. इस बाँध की वजह से ही हुआ है. बेरोज़ग़ारों को सब्ज़ियाँ उगाने का रोज़ग़ार मिल गया है.''

सरकारी मदद
लेकिन यह बहुत अफ़सोस और बेहद उत्साह की भी बात है कि इसे पूरे प्रयोग में नींबी गाँव को सरकारी तंत्र की कोई विशेष मदद नहीं मिली.
गाँववालों ने सरकारी मदद के बिना तालाब गहरा किया
अब भी जब गाँववाले तालाब की सीमा को पत्थरों और ईँटों से मज़बूत बनाने की योजना बना रहे हैं उन्हें सरकारी मदद की कोई उम्मीद नहीं है.
प्रोफ़ेसेर राजेंद्र सिंह का मानना है कि आज़ादी के पचास वर्षों में पानी को लेकर देश की दिव्य दृष्टि की उपेक्षा हुई है.
वे कहते हैं, ''पानी के संरक्षण और पुनर्भरण के पारंपरिक तरीक़ों की उपेक्षा से सरकारी तंत्र का अपना स्वार्थ जुड़ा है.'' वे इसे एक सोची-समझी साज़िश का नाम देते हैं.
''पूरे भारत में हज़ारों तरह के पानी के तरीक़े थे. जहाँ जिस तरह की खेती होती थी वहाँ वैसे ही पानी की व्यवस्था थी.''
''आज भारत में सिर्फ़ बाँध बनाकर सिंचाई करने का तरीक़ा बचा है. जब आप एक ही तरीक़े को सब जगह अपनाएँगे तो वहाँ का समाज तो सोचता है हम बुद्धू हैं.''
''तो भारतीय समाज को भारतीय इंजीनियरों, योजनकारों, नौकरशाहों और राजनेताओं ने एक तरह से बुद्धू बनाया है कि भई तुम कुछ नहीं जानते हम ही जानते हैं.''

परंपरागत साधन
जल संसाधन मंत्रालय से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भारत में सिंचाई कुओं और ट्यूबवेलों की संख्या में पिछले पचास वर्षों में पाँच गुना वृद्धि हुई है. अब ये करीब 195 लाख तक पहुँच गए हैं. - अनुपम मिश्र

उसी तरह भारत में घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए 25-30 लाख कुए और ट्यूबवेल हैं. अब सवाल यह है कि क्या पानी रोकने के लिए कुए और ट्यूबवेल तालाब जैसे पारंपरिक तरीकों की तुलना में खरे उतरते हैं. गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े अनुपम मिश्र ऐसा नहीं मानते. उनका कहना है, ''अगर प्रकृति ने पानी गिराने का तरीक़ा नहीं बदला है, तो रोकने का भी हम बदल ही नहीं सकते.'' ''हम यह नहीं कह सकते कि दो हज़ार साल पहले रेगिस्तान में जैसे पानी रोकते थे क्या आज भी वैसे ही रोकोगे.''
''मुझे यह प्रश्न कोई चुनौती का नहीं लगता. मैं तो कहूँगा हाँ वैसे ही रोकना पड़ेगा. क्योंकि हम भूल जाते हैं कि ये जो डिलेवरी के नए तरीक़े अपनाए गए हैं जैसे हैंडपंप है ट्यूबवेल है ये पानी को उलीच कर वितरण करने के तरीक़े हैं.''
भारत में जल हमेशा से ही एक संवेदनशील मुद्दा रहा है और तालाब बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. जहाँ बिहार में इसे घारमेल की संज्ञा दी जाती रही है वहीं राजस्थान और गुजरात में इसे ल्हास का नाम दिया जाता है.
जिसकी जड़ें यहाँ के परंपरागत नृत्य ल्हासे में है. यानी तालाब बनाना न सिर्फ़ समाज में भाई-चारे को बढ़ावा देना है बल्कि यह आनंद का एक काम भी है.

Hindi India Water Portal

Issues