आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-5

छत्तीसगढ़ में ही एक ही जाति है-रमरमिहा। कहा जाता है कि मिट्टी के काम में ये लोग भी विशेष हुआ करते थे। हालांकि आज वे इसे नहीं मानते। उनका कहना है कि वे उसी तरह तालाब या कुआं खोदते हैं जैसे समाज के बाकी लोग। रमरमिहा दरअसल सतनामी जाति का ही एक अंग है। कहते हैं कि सन् 1776 में चारपारा गांव के एक मालगुजार परशुराम जी की नींद में किसी ने हाथ और माथे पर राम नाम गोद दिया और तबसे शुरू हुआ रमरमिहा संप्रदाय। परशुराम जी पहले गुरु हुए और महानदी के किनारे के पीरदा गांव में सन् 1911 में रमरमिहा संप्रदाय का पहला सम्मेलन या समुंद हुआ। चारपार गांव में पांच-छह एकड़ का मूड़ाबांधा तालाब, रामडबरी आदि इन्हीँ लोगों ने बनाए थे।

छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। आज के बालौद, बलौदा, बलौदा बाजार, बलदाकछार आदि जगहों पर एक जमाने में बैलों- का बाजार भरता था। तुलसी-बाराडेरा भी जानवरों का बाजार हुआ करता था। यहां आज भी एक बंजारा आम के पेड़ों की नीलामी के लिए आता है। मोतीपुर गांव में हीरा-मोती का व्यापार होता था। इसी तरह बंजारिन माता और बंजारी घाट भी कई जगह मिलते हैं। इन बंजारों ने मराठा और मुसलमान आक्रामकों को रसद पहुंचाने का काम भी किया था और इसीलिए मराठों ने उन्हे 'नायक' की पदवी दी थी। इन जगहों पर और बंजारों के नाम से दर्जनों तालाब, उनके किनारे छायादार पेड़ या अमराई और मंदिर मिलते हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ की ही एक देवार जाति भी तालाबों को खोदने की विशेषज्ञ मानी जाती है। अघरिया जाति के लोग खेती
के लिए प्रसिध्द है और बहुत मेहनती होते हैं। किसी अघारिया की 20-25 एकड़ जमीन भी हो तो एक एकड़ में तालाब जरूर बनवाते हैं। ये तालाब जिन्हे डबरी कहा जाता है नहाने-धोने और जानवरों को पानी पिलाने के अलावा खेत में नमी बनाए रखने का काम करते हैं।


छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में खासकर बिलासपुर जिले के डभरा, मालखरौदा, किरारी जैसे गांव में ऐसी कई डबरियां देखी जा सकती हैं। शुरुआत में तालाबों के ये विशेषज्ञ यहीं बसते गए और धीरे-धीरे पूरे समाज ने इनके कौशल से सीखा। इस तरह आज भी भाषा में कहें तो 'ट्रांसफर ऑफ टेक्नालाँजी' यानी 'तकनीक का हस्तांतरण होता गया। जो काम एक जमाने में विशेषज्ञाता के दर्जे का था वह आजकल 'फुड फॉर वर्क' या 'काम के बदले अनाज' सरीखी सरकारी योजनाओं के चलते मामूली मजदूरी का काम हो गया है।

तालाबों को बांधने में सबसे पहले 'ओगरा', 'आगोर' या जिसे आजकल 'जलग्रहण क्षेत्र कहा जाता है देखा जाता है। आगोर अगोरना से बना है जिसका मतलब होता है समेटना। पानी की इस आमद को जानने के लिए किसी महंगे इंजीनियर या यंत्र की बजाए बरसों का अभ्यास और अनुभव ही काम आता है। आगोर से सिमटकर पानी तालाब की मुंही यानी मुंह के रास्ते पैठू में जाता है। पैठू एक तरह का छोटा तालाब या कुंड होता है जिसमें रुकने से पानी का कूड़ा-करकट, रेत और मिट्टी तलहटी में बैठ जाती है। अब यह साफ और निथरा पानी मुख्य तालाब में जाता है। लबालब भर जाने के बाद पानी तालाब के 'छलका' से पुलिया या पुल के रास्ते निकलकर अगले तालाब के पैठू या खेत में या फिर किसी नदी, नाले से मिलकर आगे बढ़ जाता है। 'छलका' तालाब के छलकने पर पानी की निकासी के लिए बनाया गया अंग होता है।

तालाबों का आकार चम्मच की तरह पैठू की तरफ उथला और छलका की तरफ गहरा होता है। बरसात में लबालब भर जाने के बाद उपयोग करने और भाप बनकर उड़ जाने के कारण पानी धीरे-धीरे कम होता जाता है। यह प्रक्रिया खुली और चौड़ी सतह से ज्यादा तेजी से होती है क्योँकि सूर्य की किरणेँ ज्यादा हिस्से पर अपना प्रभाव जमा पाती हैं। लेकिन कम होते जाने के कारण पानी छलका की तरफ के गहरे हिस्से में ही बचता है और वहां सूर्य की किरणेँ को ज्यादा सतह नहीं मिलती। नतीजे में भाप बनने की प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। चम्मच के आकार की बनावट तालाब के पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए की जाती है।


आमतौर पर तालाबों के किनारे अमराई और मंदिर रहते हैं जिनसे इस पूरे क्षेत्र में छाया और पवित्रता बनी रहती है। कहावत भी है कि 'कहां देखओ अइसन तरिया जहां आमा के छांव'। छत्तीसगढ़ में कई प्रसिध्द और ऐतिहासिक मंदिर तालाबों के किनारे ही पाए जाते हैं। पाली, जांजगीर, शिवरीनारायण मंदिर हसौद, रायपुर, रतनपुर, सिरपुर आदि के ऐतिहासिक तालाबों और मंदिरों का निर्माण साथ-साथ ही हुआ था।

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