कम होता पानी

देश में उपलब्ध पानी की मात्रा और कुल जल आवश्यकता के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्थिति उतनी भयावह नही लगती जितनी प्रचारित की जाती है। केन्द्रीय जल आयोग और समेकित जल संसाधन विकास योजना के राष्ट्रीय आयोग का निष्कर्ष है कि देश में हर वर्ष हिमपात व वर्षा के रूप में चार हजार अरब घनमीटर पानी बरसता है जिसमें से 3600 अरब घनमीटर पानी जून से सितंबर तक मानसून के तीन महीनों में ही बरस जाता है। जल आयोग का मानना है कि शेष पानी में से 1140 अरब घनमीटर सतही और भूजल उपयोग में लाया जा सकता है।

2025 की जनसंख्या, सिंचाई और औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए 1050 अरब घनमीटर यानि कुल उपयोगी जल का 92 प्रतिशत उपयोग में लाना होगा। विशाल जलराशि उपलब्ध होने के बावजूद पानी के लिए मारामारी का जो कारण समझ में आता है वह देश की भौगोलिक विविधता, जल दोहन और प्रबंधन की वर्तमान नीतियों का परिणाम लगता है। जल आवश्यकताओं की पूर्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा देश का विविध भौगोलिक स्वरूप है जिसमें पानी की उपलब्धता एक समान नहीं है। ब्रह्मपुत्र घाटी में पानी की उपलब्धता जहां 18400 घनमीटर प्रति व्यक्ति है वहीं तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में यह मात्र 380 घनमीटर प्रति व्यक्ति है। चेरापूंजी में वर्षा का औसत 10 हजार मिलीमीटर है जबकि देश का एक तिहाई हिस्सा हमेशा सूखे की चपेट में रहता है। देश में जल प्रबंधन के लिए बांध निर्माण को सबसे लोकप्रिय तकनीक के रूप में अपनाया गया है। अब तक निर्मित किये जा चुके 4200 छोटे-बड़े बांधों में कुल 178 अरब घनमीटर पानी एकत्र किया जा रहा है। 75 अरब घनमीटर जल संग्रह करने की परियोजनायें निर्माणाधीन हैं। पेयजल के अलावा तेजी से बढ़ी बिजली, सिंचाई और औद्योगिक जरूरतों ने सरकार को बांधों के रास्ते पर चलने को प्रेरित किया। लेकिन पुनर्वास, पर्यावरण-लाभ और लागत विषयों पर गंभीरता न दिखाये जाने के कारण बांधों का निर्माण विवाद का विषय वन गया। नर्मदा और टिहरी के बांध विरोधी आंदोलनों ने इन विषयों को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने में मुख्य भूमिका निभाई है। अंतरघाटी जल परियोजना दीर्घकालीन समाधान का रास्ता हो सकता है लेकिन एक तो यह राजनैतिक सर्वानुमति प्राप्त नहीं कर पा रहा है और बांधों के निर्माण में छले गये लोग इस परियोजना को सामान्य गरीब व वनवासियों को उजाड़ने तथा पर्यावरण विनाश के रूप में देख रहे हैं।

जल संकट से निपटने का एक और रास्ता जल संरक्षण की परंपरागत विधियों को पुनजीर्वित करने व वर्षा जल संग्रह का है, जिसमें व्यापक संभावनाएं हैं। जल अभियंताओं और नीति निर्यताओं को भले ही यह तत्काल परिणाम देने वाली न दिखाई देती हो लेकिन जल संकट के दीर्घकालीन व निर्विवाद समाधान की गुंजाइश इसी रास्ते से प्राप्त की जा सकती है। अध्ययन बताते हैं कि देश में बरसने वाले जल का 80 से 85 प्रतिशत हिस्सा सीधे समुद्र में समा जाता है। विश्व बांध आयोग की एक रपट बताती है कि आजादी से पहले जब जल प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप नगण्य था, वर्षा का केवल 65 प्रतिशत समुद्र तक पहुंचता था। शेष पानी लोग तालाब, कुएं, कच्ची नहरें बनाकर रोक लेते थे। लेकिन अब जबकि पानी पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में है 85 प्रतिशत पानी समुद्र में चला जाता है। आजादी के बाद बांधों से निकाली गई बड़ी-बड़ी नहरों ने किसानों और ग्रामीणों को परंपरागत पद्धतियों से हटा दिया गया। शहरीकरण के कारण लाखों तालाब पाट दिये गये। कुएं सूख गए और जल संरक्षण का परंपरागत ज्ञान समाप्त होने लगा। जल संकट का सामना करने के लिए 2002 की राष्ट्रीय जलनीति में सरकार ने जल संरक्षण की परंपरागत विधाओं की ओर लौटने की सहमति दी है। पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करने और नये तालाब खुदवाने की योजनायें चल रही हैं। नदियां भूजल का पर्याप्त संभरण कर सकें। इसके लिए परियोजनाएं बन रही हैं। वर्षा जल संरक्षण के लिए जरूरी उपाय किये जा रहे हैं। गैर सरकारी विशेषज्ञ योजनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण कर समर्थन व विरोध करके सरकार पर दबाव बना रहे हैं।
दून दर्पण (देहरादून), 27 May, 2006

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