पानी का प्रबंधन
यह चेतावनी भी अब पुरानी पड़ गई है कि चौथा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। विश्वयुद्ध तो दूर की बात है, क्या हम घर-घर, गांव-गांव में लड़ी जा रही पानी की लड़ाई के प्रति तनिक भी गंभीर हैं? आज भी देश के लगभग आधे गांवों में या तो पानी की घोर किल्लत है या वहां पानी अशुद्ध है। उत्तर भारत की स्थिति और भी दयनीय है। लेकिन हमारे नीति नियंता हैं कि उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिर्फ गरमी के मौसम में वे निद्रा से जागते हैं और कुछ आश्वासन देकर फिर अगली गरमियों तक सो जाते हैं। चूंकि पानी की समस्या सिर्फ एक देश तक सीमित नहीं है, इसलिए संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन पानी को लेकर लगातार आगाह कराते रहते हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2027 तक 250 करोड़ लोगों को बमुश्किल पानी उपलब्ध हो पाएगा। आंकड़े बताते हैं कि आज भी 110 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हैं। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इनमें अधिसंख्य भारतीय ग्रामवासी है। कहने को तो दुनिया का दो तिहाई हिस्सा पानी से घिरा है, लेकिन उसमें से सिर्फ ढाई फीसदी पानी ही खारा नहीं है। यह ढाई फीसदी मीठा पानी भी पहाड़ों की ऊंची चोटियों में बर्फ के रूप में या नदियों और झीलों के पानी के रूप में है। जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ रही है, वैसे-वैसे पानी की जरूरत भी बढ़ रही है। अनुमान है कि वर्ष 2020 तक हमें 17 फीसदी ज्यादा पानी की दरकार होगी। बावजूद इसके दुनिया के जल प्रबंधकों का मानना है कि यदि उपलब्ध जल का ही सही संरक्षण किया जाए और उसका वितरण संतुलित हो, तो हम भावी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में जल संरक्षण की बातें फैशन के तौर पर हो रही है, लेकिन अभी भी हम इस काम के प्रति गंभीर नहीं है। यूरोपीय देशों ने पानी की किल्लत को देखते हुए पहले से कुछ उपाय कर लिए हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में नियोजन के स्तर पर अभी जागरूकता आनी बाकी है।
हमारे यहां सरकार से पहले स्वयंसेवी क्षेत्र ने इस संबंध में सोचना शुरू किया। सरकारें उनका अनुसरण कर रही हैं। दुर्भाग्य इस बात का है कि हमारे नीति नियोजकों के पास कोई समेकित दृष्टि नहीं है। यदि कोई एक योजना कहीं सफल हो जाती है, तो वे उसी के पीछे पड़ जाते हैं। मसलन पिछले दिनों वाटर हारवेस्टिंग का फैशन-सा चल पड़ा। लेकिन भारत में केवल वाटर हारवेस्टिंग से समस्या हल नहीं हो सकती। इसके साथ ही साथ, हमें जंगल बचाने, नहर बनाने, छोटे बांध बनाने और कुएं रिचार्ज करने जैसे उपाय भी करने होंगे और सबसे बड़ी बात, हमें प्रकृति का दोहन कम करना होगा। जिस देश की संस्कृति में प्रकृति के कण-कण की पूजा का विधान हो, वहां किसी और देश की तरफ ताकने की जरूरत ही नहीं बचती, क्योंकि यह सारा झगड़ा प्रकृति से छेड़छाड़ और आसमान वितरण का है। जब तक हम प्रकृति के मर्म को नहीं समझेंगे, तब तक कैसे किसी समाधान तक पहुंच सकते हैं?
अमर उजाला (देहरादून), 16 May, 2006