प्रकृति का बिगड़ता संतुलन : गहराता जल संकट -

जी.के. छिब्बर
भू-जलस्तर पर आई रिपोर्ट एक बार फिर मानव और प्रकृति के बीच बिगड़ते संतुलन को इंगित करती है। रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के 22 जिलों में भू-जल स्तर लगभग 10 मीटर गिर गया है। इस सबसे भयावह स्थिति मालवा निमाड़ क्षेत्र की है। इस क्षेत्र के लोगों को तीन से सात कि.मी. दूर जाकर पानी लाना पड़ रहा है। केन्द्रीय भू-जल बोर्ड के राज्य के सर्वेक्षण के अनुसार मंदसौर, बुरहानपुर आदि जिलों में जल की समस्या की वजह अफीम की खेती है। अफीम की खेती के लिए पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। जिसके वजह से इस क्षेत्र में गांववासियों द्वारा ट्यूबवेल और पंपसेटों का प्रयोग बहुत अधिक संख्या में और असंवैधानिक तरीके के किया गया है। सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयासों पर नजर डाले तो इसके लिए पाइप लाइनों, ट्यूबवेलों और टैंकर सप्लाई आदि की व्यवस्था की जा रही है। ये उपाय शायद त्वरित समस्या को दूर कर दें, परंतु भविष्य में इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए हमें दूरगामी नीतियों और पारंपरिक उपायों की ओर देखना होगा। देश में जल प्रबंधन, सिंचाई आदि के लिए आजादी के बाद बड़े-बड़े बांधों का प्रयोग किया गया। इन उपायों से यह माना गया कि बड़े बांध केवल बिजली की समस्या को दूर कर सकेंगे, बल्कि सिंचाई व पानी की समस्या को भी दूर करेंगे।

केन्द्रीय जल आयोग के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश के 76 विशाल जलाशयों में जल भंडारण की स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई है। इन जलाशयों में राज्य के गांधी सागर व तवा बांध भी शामिल हैं। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार बड़े बांध बनाने में न केवल बड़ी आबादी विस्थापित होती है, बल्कि हजारों वनों को भी काटा जाता है। जबकि ये जंगल जलवायु संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं। वनों के कारण मिट्टी में 0.2 आर्द्रता रहती है। फलस्वरूप शीतलता वातावरण में व्याप्त रहती है। इन अभावों के चलते हम हर समस्या से जूझ रहे हैं मप्र नर्मदा घाटी परियोजना बड़े बांधों के निर्माण से उत्पन्न समस्या का मुख्य उदाहरण है। बीस वर्ष पूर्व शुरू हुई इस परियोजना में सरदार सरोवर, इंदिरा गांधी सागर जैसे चार बड़े बांध बनाए गए, परंतु आज तक इन बांधों की क्षमता का उपयोग नहीं किया जा सका। जबकि इस पूरे निर्माण में न केवल तीन से चार लाख आबादी विस्थापित की गई बल्कि हजारों एकड़ वनों को नष्ट भी कर दिया गया। इसके अलावा हरसूद जैसे शहर आज केवल इतिहास में रह गए हैं। वर्तमान में एक बार फिर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकार ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के आदेश दिए हैं। आदेश का कारण विद्युत उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना है। यदि हम नर्मदा बचाओ आदोलन के प्रणेता मेधा पाटकर व स्थानीय स्रोतों के जरिए नजर डाले तो पूर्व निर्धारित विद्युत उत्पादन (1450 मेगावाट) भी अब तक नहीं हो सका है। वर्तमान में तो विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक भी बड़े-बड़े बांधों को ज्यादा उपर्युक्त मान रहे हैं। उनके अनुसार छोटे बांधों से न केवल आबादी कम विस्थापित होती है, वन कम नष्ट होते हैं बल्कि भू-स्खलन और भू-जलस्तर में कमी आने की संभावना भी कम होती है। महाराष्ट्र के कोयना क्षेत्र में आया भूकंप बड़े बांध कोयना का ही परिणाम था।

उदारीकरण के इस दौर में जल समस्या से निपटने के लिए जल के निजीकरण की बात विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लाई जा रही है। उनके अनुसार जल के निजीकरण से न केवल सभी लोगों को जल आपूर्ति होगी, बल्कि स्वच्छ जल भी मिलेगा। भारत में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयास शुरु हो गए हैं। मुंबई में इस पर पायलट प्रोजेक्ट शुरु कर दिया गया है। यदि जल का निजीकरण कर दिया गया तो भारत में जो अभी लोगों को पानी पीने को मिल रहा है वह भी शायद गरीब लोगों को नसीब न हो। अभी तो गांव के लोग जलों को पुराने तरीके से भंडारण आदि कर पा रहे हैं वह शायद उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो जाएंगे। दिल्ली की राज्य सरकार तो राज्य में जल के निजीकरण के लिए कानून बनाने जा रही थी, परंतु चौतरफा विरोध से वह ऐसा न कर सकी।

यदि हम विश्व के अन्य देशों में जल के निजीकरण की स्थिति देखें तो हम पाते हैं कि चाहे चिली पेरु बोलीविया, उरुग्वे आदि कोई भी देश हो तो वहां के लोगों ने इसका विरोध किया है। हमारे नीति निर्धारकों ने पारंपरिक जीवन पद्धतियों की अवहेलना कर विकास के नए ढांचे को सदियों के लिए उपयोगी बताकर भले ही खड़ा किया हो, कुछ दशकों के भीतर ही ये प्रकृति के साथ खिलवाड़ को स्पष्ट करने लगे हैं। इस समस्या का उपाय जल का निजीकरण व बड़े-बड़े बांध बनाना नहीं है। इसके लिए हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ देखने की जरूरत नहीं है, बल्कि हमें अपने गांवों में राजेन्द्र सिंह व अन्ना हजारे जैसे लोगों को देखना है। उन्होंने अपने क्षेत्रों को केवल वर्षा के जल को तालाबों आदि के जरिए भंडारित किया और वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया। जिसका परिणाम यह है कि राजस्थान के बीकानेर जैसे मरुस्थलीय क्षेत्र में आज कृषि हो रही है। महाराष्ट्र का रालेगनसिद्धि गांव समाज के विकास का ठोस आधार बना है। इस उपायों से जमीन का जलस्तर बढ़ा है। भू-क्षरण रुका है। जल संग्रहण की इन पारंपरिक विविधयों की एक खासियत यह है कि इनके इस्तेमाल से बाहर सामग्री लेने की जरूरत नहीं पड़ती। स्थानीय मिट्टी, पानी और पत्थर से ही जल गंभीरता से अनुसरण किया जाए तो हमें जल संकट का सामना शायद न करना पड़े।
दून दर्पण (देहरादून), 12 May, 2006

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