क्या आने वाली पीढ़ी हमें माफ करेगी
डॉ. सुबोध कुमार गुप्त
(प्राचार्य, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, काशीपुर, नैनीताल, उत्तरांचल)
मैं आपको भविष्य में घटने वाले एक भयानक सत्य से परिचित कराना चाहता हूँ। आपको भविष्य में किसी के जन्मदिन पर यह कहना मुश्किल होगा कि आपके जीवन में यह दिन बार-बार आये। क्या आप ऐसा कह सकेंगे ? जरा वर्तमान हालात पर गौर करिये। अपने आस-पास देखिए क्या हो रहा है ?
आप किसी नगर अथवा महानगर को देखें जहाँ कल कारखाने लगे हुए हैं। यह मुरादाबाद, फिरोजाबाद, सहारनपुर, कानपुर, दिल्ली अथवा मुम्बई हो सकता है और यदि आपसे इन स्थानों पर हो रहे पर्यावरण प्रदूषण की भयावहता की बातें करें तो आप अपने कन्धे उचका सकते हैं, और कह सकते हैं कि `मैं क्या करूं' ? विश्वास करें आप बहुत कुछ कर सकते हैं। यह इसी प्रकार करना होगा जैसे निर्वाचन में वोट डालना। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो अपना वोट नहीं डालता, उसके वोट का दुरुपयोग बोगस वोट डालकर हो सकता है।
प्रतिदिन प्रयोग में लायी जाने वाली वस्तुओं से एक है `पालिथिन बैग'। कागज का लिफाफा अब भूतपूर्व हो गया, और आपके स्टेटस से मेल भी नहीं खाता। रंग बिरंगे पोलिथीन बैग देखने में कितने सुन्दर लगते हैं। परन्तु यही बैग जब कूड़ा कचरा बन जाते हैं तो उससे भी अधिक भयानक हो जाते हैं। यदि कूड़ा इकट्ठा करने वाला इसे उठा लेते हैं तो यह पुन: कारखानें में जाकर जहरीली गैसें पैदा करता है और यदि नाली में बहा दिया जाता है नाली को बन्द कर देता है। यह खेल कब समाप्त होगा ? क्या आपने इसके परिणाम के बारे में सोचा है। विदेशों में कागज के लिफाफे वापस आ गये हैं। वहाँ के लिफाफों और अन्य कागजों पर मोटे व स्पष्ट अक्षरों पर लिखा रहता है - Recycled Paper अर्थात् पुनर्चक्रित कागज से बना। विदेशी पत्रिकायें बड़े गर्व से लिखती हैं कि कागज पुन: बन जाता है और प्राकृतिक रूप से विघटित होकर मिट्टी में मिलकर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। विदेशों के लगभग बीस शहरों में मैंने स्वयं देखा है कि वहाँ का नागरिक सड़क पर चलता हुआ यदि कुछ खा पी रहा है तो वह अपना खाली लिफाफा या केन अपने हाथ में तब तक पकड़े रहता है जब तक कि उस सड़क के किनारे स्थान-स्थान पर रखा गया डस्टबिन नहीं मिल जाता।
वायु प्रदूषण से सांस व त्वचा की बीमारियों के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है। सर्वेक्षण के आंकड़े यह बताते हैं कि धुएँ के कारण मौत तेजी से नजदीक आ रही है, परन्तु हम चेत नहीं रहे हैं। चिन्ता का सबसे बड़ा कारण यह है कि हम प्रदूषण की भयानकता को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं।
आइए, एक और सत्य देखें। स्कूटर और कारों की पाल्यूशन चेकिंग हो रही है। प्रदूषण नियन्त्रण जाँच प्रमाण-पत्र पर लिख दिया गया है कि वाहन का कार्बन मोनोआक्साइड उत्सर्जन स्तर निर्धारित मानक से कम है। जबकि यही वाहन सड़कों पर जहर उगल रहे हैं जिसकी चिन्ता किसी को भी नहीं है। सर्दियों में यही धूआँ जब ऊपर उठता है तथा वायुमण्डल में ठहर जाता है तब आँखों और सांसों का क्या हाल होता है इसका अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है। यह स्थिति नगरों एवं महानगरों की ही नहीं है, पहाड़ी इलाकों के शहर भी प्रदूषण की चपेट में आ गये हैं। आप देहरादून के चौराहे, घण्टाघर पर पाँच मिनट खड़े होकर न चाहते हुए भी आँखों में जलन और आँसुओं को नहीं रोक सकेंगें। ऊँचे स्थानों मसूरी, नैनीताल अथवा शिमला की हवा भी प्रदूषित हो गयी है। भारत वर्ष के नगरों-कस्बों से ज्यादा वाहन अमेरिका, जापान या अन्य यूरोपीय शहरों में है, परन्तु इतना शोर और धूँआ कहीं नहीं है जितना हमारे देश के शहरों में है। मुम्बई अथवा दिल्ली में रहने वाले दस सिगरेट के बराबर धूँआ अपने फेफड़ों में श्वांस द्वारा ग्रहण करते हैं।
आज समाज व देश की हित-चिन्ता में अभूतपूर्व कमी आई है। ऐसे परिवारों की कमी नहीं है जहाँ घर के प्रत्येक सदस्य के पास अपनी अलग कार है। यह उपभोक्तावाद है। अब प्रदूषण के साथ-साथ कारों की पार्किंग की समस्या है। वाहनों की संख्या बढ़ने पर ट्रेफिक जाम होता है। धुआं बढ़ता है और उनमें बैठे यात्रियों की श्वांस में जाता है। सजा और फाईन का डर कितने लोगों को है, और यदि कुछ दोषी पाये भी जाते हैं तो कितने सजा पाते हैं। हमें इस ट्रेफिक नियमों की जानकारी के साथ-साथ यह स्वयं समझना चाहिए कि हम पर्यावरण के साथ क्या कर रहे हैं।
उन लोगों की बुद्धि पर तरस खाना पड़ेगा जो आज भी समझते हैं कि पर्यावरण का सवाल उठाना एक फैशन है, परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश, बढ़ती हुई बीमारियों, पेड़ों की कटान पर रोक, वाहनों की संख्या कम करने के आदेश, जहर उगलने वाले कल कारखानें को बन्द करना आदि पर्यावरण-प्रदूषण की गम्भीरता को इंगित करते हैं।
संसार में वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ आधुनिक जीवन पद्धति के इस विरोधाभास से सहमत हैं कि जैसे-जैसे समाज धनवान बनता है उसका पर्यावरण गरीब (प्रदूषित) बनता है। शिक्षा, शोध, तकनीकी सहायता, अनुशासन एंव नियन्त्रण द्वारा हम प्रदूषण से मुक्त हो सकते हैं। वृक्षों को लगाना, प्रदूषण को कम करना है। कारखानों के जहरीले पदार्थ पानी में छोड़ने से पूर्व विषमुक्त करने होंगे। गन्दे जल एवं मल-जल को साफ करने के उपकरणों की बनावट इन प्रदूषणों की मात्रा के अनुरूप करनी होगी। कूड़े-कचरे को पुन: उपयोग योग्य बनाना होगा। विकाश के प्रबंध को प्रत्येक कारखाने का अनिवार्य अंग बनाना होगा। कुछ आधुनिक यन्त्र जैसे हाई फिल्टरेशन वैक्यूम क्लीनर, फ्यूम एक्सास्ट, डस्ट क्लेक्शन, एक्सास्ट पंखे, आटो स्क्रबर तथा हाई प्रेशर क्लीनर आदि प्रदूषण को कम करने के उपयोग में लाने चाहिए। कारखानों को नियमित रूप से पर्यावरण का आडिट कराना चाहिए। सरकार को पर्यावरण स्वच्छ रखने के लिए अधिक धन की व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान में यह राशि लगभग ०.२ प्रतिशत है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय मानक के आधार पर यह ०.४ प्रतिशत होनी चाहिए।
भारतीय कल कारखानों के संघ के अनुसार केवल ४० प्रतिशत कारखाने ही पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के नियमों का पालन करते हैं। रसायनिक पदार्थ बनाने वाले कारखानों को इन नियमों का पालन विशेष रूप से करना चाहिए। यह हम सब का दायित्व है कि हम आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ हवा, पानी और भूमि उपलब्ध करा सकें। यह दायित्व राम राज्य की परिकल्पना से भी बड़ा है
साभार- http://www.abhyuday.org