सहारा की रेत पर लहलहाएंगे हरे-भरे खेत.....................नील नदी के पानी से

मिस्र को जाना जाता है रहस्यमयी पिरामिडों के लिए, ममी से जुड़ी हैरतअंगेज कहानियों के लिए और इन पिरामिडों के इर्द-गिर्द के मीलों लंबे रेत के मैदान यानी रेगिस्तान के लिए जहां लाखों कहानियां पानी के इंतजार में दफन हैं। और इसी रेगिस्तान में होने को है एक चमत्कार....

रेत के ऊपर एक हरी-भरी दुनिया पनपने लगती है। मीलों तक फैले खजूर के पेड़, सब्जियों की क्यारियां और रेत पर लुढ़कते तरबूज। मिस्र ने अपनी बढ़ती आबादी को नई जमीन मुहैया कराने की खातिर रेत के मैदानों को हरा-भरा और आबाद करने की ठानी है।

सहारा रेगिस्तान के कारण ही मिस्र का केवल 5 प्रतिशत इलाका ही रहने योग्य है और मुल्क की साढ़े 7 करोड़ जनता नील नदी और भूमध्य सागर के किनारों पर रह कर गुजर-बसर कर रही है। अब सरकार ने फैसला किया है कि लोगों को रेतीले इलाके में रहने के लिए तैयार किया जाए। इसके लिए 70 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत से अगले दल सालों में लगभग 34 लाख एकड़ रेतीले इलाके को रहने योग्य भूमि में तब्दील किया जाएगा। तोशाका नाम के इस प्रॉजेक्ट से 2017 तक मिस्र में रहने योग्य जमीन लगभग 40 फीसदी बढ़ जाएगी।

लेकिन पर्यावरण संरक्षण से जुड़े लोग सरकार की इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं और इसका कारण है रेगिस्तान का सबसे बड़ा डर यानी पानी। इस महत्वाकांक्षी परियोजना को पूरा करने के लिए सरकार को भूगर्भ जल के स्रोतों का दोहन करना होगा और पिछले कुछ सालों से बारिश न के बराबर होने के कारण नील नदी का जल स्तर पहले से ही बहुत नीचे है। इन लोगों का तर्क है कि सरकार की इस कोशिश से रेगिस्तान में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा क्योंकि ये हरियाली ज्यादा समय तक टिकेगी नहीं और इस बदलाव से होने वाले परिवर्तन घातक हो सकते हैं।

स्टॉकहोम इंटरनैशनल वॉटर इंस्टिट्यूट के निदेशक एंडर्स जैगर्सकोग का कहना है कि मिस्र के मामले में इतने कीमती पानी का इस्तेमाल रेगिस्तान में खेती-बाड़ी के ख्याल पर खर्च करना कहां तक उचित है जबकि सूर्य भी पानी को ज्यादा तेज रफ्तार से सोखेगा। उनके मुताबिक राजनैतिक नजरिए से ये ख्याल अच्छा लग सकता है कि इस प्रॉजेक्ट से लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा लेकिन पानी के नजरिए से ये बेवकूफी होगी।

इतना ही नहीं नील नदी के पानी का इस तरह इस्तेमाल करने से इस इलाके में तनाव भी फैल सकता है क्योंकि मिस्र के अलावा दूसरे देश भी इस नदी के पानी का बंटवारे की शर्त के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं। इस प्रॉजेक्ट में मिस्र तकरीबन 5 अरब क्यूबिक मीटर पानी का अगले 10 साल तक हर साल इस्तेमाल करेगा। इस कारण पहले ही पानी के बंटवारे के समझौते से नाराज चल रहे दक्षिणी देशों जैसे सूडान और इथोपिया का गुस्सा भड़कने की आशंका है। हालिया शर्त के मुताबिक नील नदी का लगभग आधा पानी अकेले मिस्र ही यूज करता है।


विशेषज्ञों का कहना है कि मिस्र की सरकार को रेतीले इलाकों को हरा-भरा करने की बजाय रेगिस्तानी पर्यटन को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए। यहां के इलाकों को हरा-भरा करने की कोशिश पहले से रह रहे जंगली जानवरों और इको सिस्टम को भी नुकसान पहुंचा सकता है।

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