2- भाखड़ा बांध: विकास मंदिर की अंतर्कथा - श्रीपाद धर्माधिकारी

आजादी का मतलब बार-बार ना पूछें तो आजादी बेमानी हो जाती है। आजाद हिंदुस्तान में तो यह सवाल सबसे पहले और हर लम्हा पूछने की जरूरत है। देश के अस्सी फीसदी लोगों के पास जीवन-जीविका के महज बीस फीसदी संसाधनों का होना इस बात की दलील है कि देश में ऐसा कुछ है जो बड़ा जालिम है। क्या जुल्म का एक रास्ता बड़ी बांध परियोजनाओं की कंक्रीटों से होकर जाता है? भाखड़ा नांगल की यह भीतरी कथा तो कम से कम यही कहती है। 'भाखड़ा: परत-दर-परत पड़ताल' नामक शोध रिपोर्ट के एक अधयाय की अविकल प्रस्तुति।
'भाखड़ा: परत-दर-परत पड़ताल' नामक शोध रिपोर्ट के एक अधयाय की अविकल प्रस्तुति।

जवाहरलाल नेहरू ने भाखड़ा के अपने एक दौरे के दौरान भाषण में यह घोषणा की थी कि विस्थापित परदेश पर जा रहे हैं ... हम उन्हें पानी, बिजली, स्कूल, सड़कें... सब देंगे... वे अपने गांव भूल जाएंगे। ''लेकिन जब हम यहां पंहुचे तो यहां कुछ भी नहीं था'' - एक विस्थापित श्री अजमेर सिंह ने हमें बताया।

बाँध और विस्थापन पुनर्वास नीति

कुछ विस्थापितों को केवल नकद मुआवजा ही दिया गया। बाकियों को जमीन या नकद मुआवजे के विकल्प में से एक चुनने को कहा गया। नकद मुआवजा पाने वालों को अपना इंतजाम खुद ही करने के लिए छोड़ दिया गया। उनमें से अधिकांश हिमाचल प्रदेश में ही बने रहे और नीचे की जमीन से नदी किनारे के पहाड़ों की ढलानों पर उपर की ओर जाकर बस गये।
भाखड़ा बोर्ड के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में बसने वाले विस्थापितों को जो सुविधएं दी गयीं, वे थीं - गोविंद सागर जलाशय में मछली मारने के लिए तीन वर्ष तक मुफ्त लाइसेंस, नयी नावें, डुबोयीं गयीं पगडंडियों और सड़कों के बदले नयी सड़केंं और गांवों के रास्ते, बाँध स्थल पर उपयोगी रोजगार। जमीन चाहने वाले विस्थापितों को हिसार जिले (हरियाणा) में जमीन दी गयी। ये जगह उनके रहने के मूल ठिकानों से करीब 200 किमी दूर थी। फनर्वास नीति कहती थी कि किसी भी विस्थापित को 25 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं दी जाएगी, लेकिन उससे कम भी नहीं होगी, जितनी उससे अधिग्रहित की गयी हो बशर्ते कि उसे मिलने वाली मुआवजे की रकम उसकी (जमीन की) लागत पूरी करने के लिए पर्याप्त हो। दूसरे शब्दों में, यह फनर्वास नीति वास्तव में जमीन के बदले जमीन की नीति थी ही हीं। विस्थापितों को नकद मुआवजा दिया गया और नयी जमीनों को खरीदने के लिए उन्हें रकम अदा करनी पड़ी।
भूमिहीन काश्तकारों (लीज या मेहनताने पर खेती करने वाले) को भी उतनी जमीन के बराबर जमीन आवंटन की पात्रता दी गयी जितनी उनकी लीज वाली जमीन डूब में आ गयी थी। इनके लिए अध्कितम सीमा रखी गयी 5 एकड़। जो जमीन उन्हें दी गयी, उसकी कीमत 5.25 प्रतिशत ब्याज पर 20 बराबर-बराबर छमाही किस्तों के जरिये वसूली गयी। इस कीमत में 15 प्रतिशत अनिवार्य भू-अर्जन शुल्क भी शामिल रहता था। यह भी तय किया गया कि ग्रामीण इलाके के ऐसे प्रत्येक दस्तकार और मजदूर को आध एकड़ जमीन मुफ्त दी जाए जिसके पास अपनी मिल्कियत की कोई जमीन न हो, या जो खेती न करता हो, बशर्ते वो हिसार जिले में जाकर वहीं बस गया हो। ऐसी जमीन की कीमत, दूसरे विस्थापितों को दी गयी जमीन पर एक प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क लगाकर वसूल की गयी। हिसार में नये फनर्वास स्थलों पर विस्थापितों को कुछ प्राथमिक सुविधओं का प्रावधन था। बिलासफर शहर को पूरा डूबना था। इसलिए पास के पहाड़ के ढलान पर एक नया शहर बसाया गया। फराने शहर के लोगों को नया घर बनाने के लिए भूखण्ड और फनर्वास राहत राशि दी गयी।

हिसार चले गये विस्थापित
8 नवंबर 1953 को 'भाखड़ा बाँध पीड़ित संघ' ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक मांग पत्रा पेश किया। उसमें अन्य महत्वपूर्ण मांगें थीं- ''विस्थापितों को ऐसी जमीनों पर बसाया जाय जहां नयी नहरें सिंचाई सुविध प्रदान करने वाली हों, तथा उन्हें लगभग एक ही जगह पर बसाया जाए।'' विस्थापितों को हिसार (हरियाणा) में जमीन दिखाई गयी, लेकिन वे उस पर राजी न हुए। फिर भी उनके लिए वही, उनकी नापसंदगी वाली जमीनें अध्गिृहित कर ली गयीं।
जवाहरलाल नेहरू ने भाखड़ा के अपने एक दौरे के दौरान भाषण में यह घोषणा की थी कि विस्थपित परदेश पर जा रहे हैं ... हम उन्हें पानी, बिजली, स्कूल, सड़कें... सब देंगे... वे अपने गांव भूल जाएंगे। ''लेकिन जब हम यहां पंहुचे तो यहां कुछ भी नहीं था''- एक विस्थापित श्री अजमेर सिंह ने हमें बताया। उन्होंने आगे कहा- ''यह पूरा इलाका जंगल था। बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ थे यहां। यहां 'दिला' नामक जंगली घास भी बहुत ज्यादा थी और वह फैलती भी बहुत जल्दी थी। इस घास में मोटी-मोटी गठानें होती हैं और इसे उखाड़ना भी काफी मुश्किल होता है। यहां की जमीन पूरी तरह बंजर थी। खेती के लायक तो हर्गिज नहीं। इसे खेती लायक बनाने में हमें 15-20 बरस की कमरतोड़ मेहनत लगी। इस मिट्टी से कुछ उगा सकें, इस खातिर हमारी एक पूरी पीढ़ी खर्च हो गयी।'' ''पीने के पानी तक का कोई इंतजाम नहीं था। हम 1956 में यहां आये थे और हमें बिजली मिली 1972 में।'' ''जब हम यहां आये तो हर परिवार को सर छुपाने के लिए कुल जमा जो सामान दिया गया - वो था एक तंबू। कुछ जगहों पर कुछ झोपड़ियां भी बनायी गयी थीं। यहां सांप-बिच्छू सहित तरह-तरह के जंगली जानवर थे। उनकी वजह से भी इन भूखंडों पर रहना बहुत खतरनाक था। इसके अलावा चोरी- राहजनी जैसी और अनगिनत तकलीफें थीं, लेकिन शिकायत करने हम किसके पास जाते, कोई था ही नहीं।'' ''बहुत से विस्थापितों को मिले हुए नकद मुआवजे से ही अपनी जिंदगी चलानी पड़ी। बहुत से परिवारों को दो वक्त का खाना जुटाना भी मुश्किल था।'' वहां न स्कूल-कॉलेज थे, न हस्पताल-डिस्पेंसरियां। डाकखाने के न होने से विस्थापितों को अपने फराने या मूल घरों-गांवों के साथ संपर्क रख पाना भी बहुत मुश्किल हो गया था।
नीति यह थी कि जमीन उतनी ही दी जाए जितनी विस्थापित लोग अपने मुआवजे से खरीद सकें। इस वजह से बहुत से विस्थापितों को अपनी मूल जमीनों की तुलना में काफी कम जमीन मिली। इस पर भी, जिन किसानों से सरकार ने विस्थापितों के लिए जमीन अधिगृहित की थी, वे न्यायालय में चले गये और अदालत ने अध्कि मुआवजे की उनकी दरख्वास्त मानी भी। इससे जमीनों के बढ़े दाम भी विस्थापितों को ही भुगतने पड़े। कमान क्षेत्रा में जमीन देने से भी कोई मकसद पूरा नहीं हुआ, क्योंकि सिंचाई की सुविध तो लोगों को 15 वर्षों बाद मिल सकी। और यह सिंचाई भी अपर्याप्त थी। जहां विस्थापितों को बसाया गया वे इलाके नहरीय सिंचाई व्यवस्था के अंतिम सिरे पर मौजूद थे। बहुत से मामलों में, विस्थापितों को जो आवासीय भूखण्ड मिले थे, उन पर उन जमीनों के मूल निवासियों ने जबरन कब्जा कर लिया। जब बाँध विस्थापितों ने इसके खिलाफ शिकायत दर्ज की तो स्थानीय लोगों ने उनके खिलाफ झूठे प्रकरण दर्ज करा दिये। स्थानीयता के परिचय इत्यादि का लाभ भी स्थानीय लोगों को मिला तथा समूचे प्रशासनिक तंत्रा ने स्थानीय लोगों के समर्थन में विस्थापितों का भरपूर उत्पीड़न किया। हमें बताया गया है कि आज भी ऐसे भूखण्ड हैं जिन पर जोर-जबरदस्ती से कब्जा किया गया है।
बहुत वर्षों तक विस्थापितों को जमीन पर उनके स्वामित्व के दस्तावेज नहीं दिये गये। अभी भी करीब 2500 प्रकरण बाकी हैं। जो विस्थापित यहां (हिसार) आ गये, उन्हें परंपरागत तौर पर मिलने वाली फौज की नौकरी भी नहीं मिल सकी, क्योंकि विस्थापन के बाद वे आरक्षण के हकदार नहीं रह गये थे। फौज की नौकरियां खो देने और जमीन की मालिकी कम हो जाने से हिमाचल में अपने समुदाय के बीच उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुंचा।
इस बीच पचास बरस गुजर जाने के बाद भी लोग इस इलाके के स्थानीय समुदाय द्वारा बाहर वाले ही समझे जाते हैं। स्थानीय मूल के लोग अक्सर इन्हें उपेक्षा से 'बिलासफरिया' बुलाते हैं। चूंकि विस्थापित या फनर्वसित लोग अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व या पद-प्रतिष्ठा आदि भी नहीं है।
इस पूरे परिदृश्य में औरतों की हालत विशेष रूप से खराब है। औरतों ने हमें बताया कि अपने समाज, अपने लोगों को खोने का कितना गहरा सदमा उन्हें पहुंचा है। उन्होंने हमें यह भी बताया कि हिमाचल में उनके रीति-रिवाज के अनुसार घूमने-फिरने की भी काफी स्वतंत्रता थी लेकिन फनर्वसित किये गये इलाके में न तो ऐसा चलन है और न ही वैसी सुरक्षा। इस तरह विस्थापितों की आबादी के इस कथित फनर्वसित हिस्से के आर्थिक और सामाजिक ढांचे का पूरा ताना-बाना विस्थापन के साथ बिखर गया। इन सभी गंभीर वजहों से, हिसार में फनर्वास स्वीकार कर चुके बहुत से परिवार या तो आये ही नहीं या फिर आने के बाद वापस वहीं चले गये, जहां जिंदगी थी तो ज्यादा मुश्किल, लेकिन अपने जाने-पहचाने लोगों के बीच और अपने इलाके में थी। जो यहां रूके, वो आज भी अपने लिये उचित फनर्वास पाने की कोशिश में संघर्षरत हैं। इसके लिए उन्होंने एक संगठन भी बना लिया है।
यहां एक अहम मसले पर धयान दिया जाना चाहिए कि विस्थापितों के लिए हिसार में जमीन अध्ग्रिहित की गयी, जबकि हिसार विस्थापितों के अपने उजड़े घर-गांवों से सबसे ज्यादा दूर था, और कमान क्षेत्र का सबसे सूखा और मुश्किल इलाका था। अधिकारी इन विस्थापितों के लिए पटियाला के नजदीक भी जमीनें खरीद सकते थे जो कमान में भी थीं, बेहतर थीं और नजदीक भी थीं। लेकिन नुक्स नजरिये में था - हिंदुस्तान में बड़े बाँध बनाने वालों के जेहन में गहरे पेवस्त यह नजरिया बाँध विस्थापितों को दोयम दर्जे का नागरिक मानता है।
हिमाचल प्रदेश में पुर्नवासित किये गये विस्थापित
बहुत संघर्ष के बाद, हिमाचल प्रदेश सरकार ने राज्य में रह रहे बाँध विस्थापितों को 'नौ तोड़' की नीति के तहत कुछ जमीनें दी। नौ तोड़ का अर्थ है कि पहली बार सरकार ने बाँध प्रभावितों के लिए सरकारी जमीन को 'तोड़ा' और उन्हें जमीनें दीं। लेकिन ये जमीनें दरअसल जमीन के नाम पर एक एकड़ से भी छोटे-छोटे टुकड़े थे।
ग्रामीणों को उनके डूब में आये बाग-बगीचों, फल उद्यानों और उनकी जमीनों पर खड़े वृक्षों के लिए बहुत ही कम मुआवजा दिया गया था। कुओं के लिए मुआवजा सरकार को दिया गया था। पहाड़ों की ढलानों पर जा बसे लोगों के पास जमीनें तो थीं नहीं, लेकिन जिंदा रहना उनके लिए काफी मुश्किल और मशक्कत भरा काम था।

''...... उनके सामने सबसे बड़ी समस्या है पीने के पानी की। इंसानों के लिए और जानवरों के लिए। यह समस्या तब गंभीर रूप ले लेती है जब गोविंद सागर में पानी बढ़ने लगता है..... छोटी धराएं और कुएं डूब जाते हैं। ऐसे में उनके पास, फनर्वास स्थलों पर पानी का कोई इंतजाम नहीं रहता। कोई चारा न होने पर वे पीने के पानी को मीलों दूर से, और कभी-कभी तो विशाल गोविंद सागर को पार करके उसके दूसरी तरफ से ढोकर लाते हैं..।''

कुछ लोगों को बाँध स्थल पर काम मिला, लेकिन ये भी आसान नहीं था। आमतौर पर इस यकीन को सच माना जाता था कि स्थानीय लोग निर्माण सामग्री के साथ अच्छी कुशलता व दक्षता से काम करना नहीं जानते। इसलिए उत्तर- पश्चिमी सीमावर्ती प्रांत (पाकिस्तान) से पठानों को लाया गया। ये माना जाता था कि पत्थरों और वैसी निर्माण सामग्री से ढांचे खड़े करने में वे निफण हैं। वैसी कोई नीति भी तब नहीं थी जिसके अनुसार हर प्रभावित परिवार के कम से कम एक सदस्य को बाँध निर्माण में रोजगार दिया जाए।
उस क्षेत्र की परंपरा के तौर पर कुछ लोग फौज की नौकरियां पाते रहे। लोगों ने हमें बताया कि बस ऐसे ही किसी तरह वे खुद को जिंदा रख पाये। जीने की पीस्थितियां बहुत दयनीय, बेहद खराब थीं। डूब और विस्थापन की वजह से, भौतिक सुविधओं जैसे सड़क, बिजली, पानी, डाक, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का जो ढांचा मौजूद था, वो पूरी तरह तितर-बितर हो गया था। सबसे बड़ी मुश्किल थी पानी की। और वो ही आज भी सबसे बड़ी मुश्किल है।
बतौर नषीर फनर्वास समिति की 2 सितंबर 1966 को हुई बैठक के एजेंडे की यह टीप देखी जा सकती है जो पानी की स्थिति को स्पष्ट करती है - सन्् 1966 की यह टीम विस्थापन के 10 वर्षों के बाद की, और प्रधनमंत्राी द्वारा पूर्ण निर्मित बाँध को राष्ट्र के प्रति समर्पित कर दिये जाने के 3 वर्ष बाद की है। इससे भी ज्यादा बेचैन करने वाली बात यह है कि उक्त टीप में कहीं गयी बातें आज भी वैसी ही सच हैं।
भाखड़ा बाँध के 'कैप्टन' ओंकार सिंह चंदेल के अनुसार - ''हमारी सबसे बड़ी मुश्किल है पानी। हम नीचे गोविंद सागर जलाशय का पानी देख सकते हैं, लेकिन हमारे पास पानी नहीं है। सिंचाई के बारे में भूल जाइए, हमें पीने का पानी भी ठीक से नहीं मिलता।'' हालांकि सरकार ने इन वर्षों में इस इलाके के लिए पीने का पानी मुहैया कराने की कुछ योजनाएं बनायी थीं, लेकिन वे बेहद अपर्याप्त और अविश्वसनीय थीं। बिजली? जी हां, बिजली पैदा करने के लिए जिस परियोजना को लोगों ने अपनी जमीनें और आजीविका तक सौंप दी, उन विस्थापितों को बिजली का लाभ वर्षों तक नहीं मिला। भाखड़ा गांव को खुद बिजली 1970 में हासिल हुई थी।
पहाड़ों की ढलानों पर रह रहे लोगों के लिए एक और बड़ी समस्या है - भूस्खलन की। लोगों को यकीन है कि इस क्षेत्रा में बड़े पैमाने पर किए गए विस्फोटों की गतिविधियां बढ़ते जाते भूस्खलन का एक प्रमुख कारण हैं। इसके कारण जान-माल का काफी बड़े पैमाने पर नुकसान होता रहा है।
एक और गंभीर समस्या उन सड़कों, पगडंडियों, रास्तों व नावों के फराने रास्तों की है जो विशाल जलाशय की वजह से छिन्न-भिन्न और खत्म हो गये हैं। अधिकारियों व अधिकृत विभागों ने यह वायदा किया था कि उनकी जगह दूसरे रास्ते, सड़कें वगैरह बना देंगे। लेकिन लंबे समय तक ऐसा कुछ किया ही नहीं गया और जो किया उससे आज भी लोगों को बहुत लंबी दूरियां तय करनी होती हैं।
विस्थपितों को 'राष्ट्रीय महत्व' के स्थान पर रहने की भी कीमत अदा करनी पड़ी है। गांवों तक जाने-अनजाने में पाबंदियां हैं। किसी बाहरी व्यक्ति को यहां दाखिल होने से पहले भाखड़ा बोर्ड के नंगल शहर के कार्यालय से परमिट लेना होता है। रात के बाद गांव में, क्षेत्र में प्रवेश भी बंद हो जाता है। कुछ वर्षों पहले तक, ये कायदा स्थानीय रहवासियों पर भी लागू होता था।

मछली पालन
बाँध बनाने के पहले इस क्षेत्र में अनौपचारिक एवं असंगठित तरीके से मछली पालन किया जाता था। जलाशय बनने के बाद से यह गतिविधि वाणिज्यिक-व्यापारिक गतिविधि में बदल दी गयी और किसी को भी बगैर लाइसेंस के मछली मारने की इजाजत नहीं दी गयी। बाँध बनने के 2-3 वर्ष बाद तक सरकार ने जलाशय में मछली पालन की गतिविधियों को इजाजत नहीं दी थी। सरकार का यह निर्णय मछली पालन पर ही जीविका चलाने वाले समुदाय ;दाउफद और राणाध्द के लिए तो बेहद हानिकारक सिध्द हुआ। आखिरकार 1972 में (जैसा हमें विस्थापितों ने बताया), मछुआरे परिवारों को 50 रुपये/लाइसेंस की दर से लाइसेंस दिये गये।
स्थिति पत्रक कहता है कि विस्थापितों को 3 वर्षों के लिए मुफ्त लाइसेंस दिये गये थे लेकिन उसमें उन तीन वर्र्षों की किसी अवधि का जिक्र नहीं है। चूंकि बाँध के जलाशय में मछली पालन व मछली पकड़ना नदी में मछली पकड़ने की प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, इसलिए जलाशय में मछली पालन का फायदा विस्थापित मछुआरे समुदायों को नहीं हासिल हो सका। दाउद और राणा समुदाय नदी के किनारों पर पानी से चलने वाली आटा चक्कियां भी चलाते थे। नदी पर बाँध बन जाने से गेहूं की इन आटा चक्कियों को बंद करना पड़ा।
परियोजना में इस वजह से प्रभावित ऐसे 700 परिवार हैं। बाँध ने इन समुदायों के आमदनी के जरियों को पूरी तरह निगल लिया। इन समुदायों को थोड़ी जमीन घर बनाने के लिए और थोड़ी खेती के लिए दी गयी थी। लेकिन बताया गया कि वो जमीन खेती के लायक ही नहीं थी। हमें इस बात का कोई अंदाज नहीं हो सका कि मछली पालन ने विस्थापितों की आजीविका उपलब्ध कराने में कितनी भूमिका निभाई और कितने विस्थापितों को इससे लाभ हुआ फिर भी, चूंकि
(1) मछुआरों के फराने तरीके और उनके फराने साजो-समान जलाशय में मछली पकड़ने के लिए उपयोगी नहीं रह गये थे,
(2) बाँध बनने के बाद बाहर के मछुआरे, (जिन्हें जलाशय में मछली पकड़ने का तजुर्बा था) क्षेत्र में आ गये,
(3) शुरुआती वर्षों में मछली मारने-पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था
- इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि शुरुआती 15-20 वर्षों तक तो मछुआरा समुदाय के लिए मछली पालन की गतिविधि ने आर्थिक सहारा देने वाली कोई बड़ी भूमिका अदा नहीं की होगी।
& मंचन अधययन के्रद्र द्वारा प्रकाशित भांखड़ा परत-दर-परत एक पड़ताल से साभार भाखड़ा गांव में रहने वाले व्यक्ति को भाखड़ा गांव में, उसके अपने ही गांव में, दाखिल होने के लिए अनुमति का आवेदन करना होता था। यह कायदा तभी बदला गया, जब लोगों ने इसके खिलाफ धरने-प्रदर्शन किये।
- सामयिक वार्ता

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