जल प्रदूषण नियन्त्रण में जलीय पौधों का योगदान

डॉ. उपेन्द्रनाथ राय
(वरिष्ठ वैज्ञानिक, राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान संस्थान, लखनऊ)

जल प्रकृति की अनमोल देन तथा जीवन का मूलभूत आधार है। पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है। परन्तु इस प्रचुर जल संसाधन का ९७ प्रतिशत समुद्रीय खारा पानी है। केवल ३ प्रतिशत ही मीठा पानी है जिसका ६६ प्रतिशत ध्रुवों पर हिमखण्डों के रूप में, २२ प्रतिशत भूमिगत तथा शेष नदियों, झीलों तथा तालाबों में पाया जाता है। यही जल पीने, कृषि, उद्योग तथा दैनिक जीवन में काम आता है। अनुमान है कि विश्व के लगभग ८० प्रतिशत जल स्रोतों का पानी पीने लायाक नहीं है और इसकी कमी विकराल रूप धारण कर चुकी है। देश की बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण तथा आधुनिक कृषि-तकनीक के कारण जल की गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन प्रभावित हो रही है। अनेक क्षेत्रों में नदियों, झीलों व तालाबों का पानी, मल-जल विसर्जन, कीटनाशियों, उर्वरकों, औद्योगिक और घरेलू छीजनों से प्रदूषित हो चुका है। सतही जल स्रोतों में निहित हानि कारक तत्व रिसकर भूमिगत जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं।

अपशिष्ट जल में मौजूद हानिकारक तत्व जलीय जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के जीवन-चक्र तथा जैव-विविधता को प्रभावित करते हैं। ये हानिकारक तत्व इन पौधों तथा जीवों द्वारा सोख लिये जाते हैं लेकिन जब ये भोजन के साथ मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं तो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर देते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण से उत्पन्न रोगों के कारण कृषि, निर्यात, पर्यटन तथा देश की आर्थिक स्थिति को काफी नुकसान होता है। इन प्रदूषकों की वजह से जल स्रोतों में शैवालों तथा अन्य जलीय पौधों की बेतहाशा वृद्धि होने लगती है। कभी-कभी तो इनके कारण जल मार्ग तक अवरुद्ध हो जाते हैं। ये जलीय पौधे व शैवाल सड़ते समय पानी का सारा आक्सीजन सोखकर मछलियों व अन्य जीवों का जीना दूभर कर देते हैं। इस प्रकार जल संसाधन की प्राथमिक उत्पादकता प्रभावित होती है।

प्रदूषित जल को भौतिक व रासायनिक तकनीकों के द्वारा शुद्ध किया जाता है परन्तु इससे भी पर्यावरणीय खतरा पूरी तरह से दूर नहीं होता है। इसके पूर्ण निदान के लिए जैव-प्रौद्योगिकी का प्रयोग हो रहा है। इस उपचार विधि में प्रयुक्त बैक्टीरिया, कवक, सूक्ष्मजीव तथा शैवाल इन प्रदूषकों को तोड़कर इनके हानिकारक प्रभाव को खत्म कर देते हैं। इस प्रकार से उपचारित जल जब नदियों या अन्य जल स्रोतों में गिराया जाता है तो पर्यावरण को कम खतरा होता है। इस विधि से जल-मल में मौजूद नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश तथा अन्य तत्वों की खपत हो जाती है परन्तु भारी विषैली धातुयें (क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, पारा, तांबा इत्यादि), जिनका जैविक विघटन नहीं होता, दूर नहीं हो पाते हैं।

विभिन्न अन्वेषणों में पाया गया है कि इन धातुओं को जलीय पौधे अपने अन्दर ग्रहण कर लेते हैं जिससे इनकी मात्रा पानी में काफी कम हो जाती है। इस प्रकार के उपचारित पानी का पुन: प्रयोग सिंचाई, मछली-पालन तथा अन्य जल-क्रियाओं के लिए किया जा सकता है तथा इन पौधों का प्रयोग उर्वरक तथा भूमि शोधक के रूप में भी किया जा सकता है। जलीय पौधों के इन गुणों को सोना, चांदी तथा अन्य बहुमूल्य धातुओं को प्राप्त करने में उपयोग करने का भी प्रयास चल रहा है। समुद्रतट, प्रदूषित झीलों व नदियों के पर्यावरण को सुरक्षित तथा साफ करने में छिछले जलाशयों को प्राकृतिक मित्र की तरह उपयोग किया जा रहा है। जलीय पौधों पर आधारित उपचार विधि सस्ती तथा रख-रखाव में आसान होती है। ये पौधे बिना किसी खर्चे के सूर्य के प्रकाश व जल में उपस्थित पोषक तत्वों का उपभोग करके बढ़ते हैं। बाद में इनका उपयोग मछली का भोजन, खाद, मिथेन गैस तथा अन्य पोषक खाद्य पदार्थ बनाने के लिए किया जा सकता है।

जल उपचार तकनीकी में तैरते, पानी में डूबे और किनारे उगने वाले पौधों तथा जलकुम्भी का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार प्रदूषित तट तथा नदी व झीलों को साफ करने के लिए नम-भूमियों के सोख्ते का उपयोग करते हैं जिसमें मौजूद शैवाल, जलीय पौधे व सूक्ष्मजीव प्रदूषकों का निम्नीकरण कर उसे आत्मसात कर लेते हैं। चर्म उद्योग से निकलने वाले छीजनों में मौजूद ``क्रोमियम'' की मात्रा को कम करने में दो प्रकार के जलीय पौधों का मिश्रण अधिक उपयुक्त पाया गया है। निष्कर्ष है कि पौधों में विषैले तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है तथा धातुओं के प्रकार पर निर्भर करती है। इसके साथ ही सभी जलीय पौधे इस प्रदूषित बेकार पानी में उग नहीं पाते और मर जाते हैं। इस प्रकार के कुछ प्रदूषण सहने वाले पौधों, जिनमें अधिक धातु ग्रहण करने की क्षमता होती है, को अपशिष्ट जल में मौजूद हानिकारक तत्वों को दूर करने में प्रयोग किया जाता है। प्रदूषण से प्रभावित पौधों के जैविक, रासायनिक व भौतिक घटकों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले खतरे का पूर्व संकेत समझा जाता है। इस जल का गुणवत्ता मूल्यांकन में बड़ा महत्व है। मुख्यतया निम्न विधियाँ जल उपचार प्रयोग में लायी जाती है।

तैरने वाले पौधों पर आधारित विधि

इस विधि में ``जलकुम्भी'' तथा ``डकवीड'' का प्रयोग किया जाता है। इससे नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की काफी मात्रा का उपभोग हो जाता है। एक जलकुम्भी का पौधा ६-७ दिन के भीतर दुगुना हो जाता है। यह भारी धातुओं के अलावा रोगाणु, शैवाल, दुर्गन्ध पैदा करने वाले अवयव तथा तैरते कणों को भी दूर करता है। परन्तु जल स्रोतों में जलकुंभी के ज्यादा फैलने से पानी में घुली आक्सीजन की मात्रा काफी कम हो जाती है जिसका जलीय जैव-विविधता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत ``डकवीड'' के पौधों से कोई खतरा नहीं है। उपचार के बाद प्राप्त होने वाले पौधों को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। सतही पौधों को उपचार के बाद जलस्रोतों से हटना आसान होता है।

पानी में डूबने वाले पौधों की विधि

ये पौधे अपना जीवन-चक्र पानी के अन्दर पूरा करते हैं। अत: इनमें पोषकों को चूसने की क्षमता अधिक होती है। यह गुण इनमें अधिक सतह जीवभार के कारण होता है। इस विधि में ``सिरेटोफिलम'' तथा ``हायीड्रिला'' का ज्यादा प्रयोग होता है। जिस पानी में कार्बनिक तत्वों की मात्रा अधिक हो और सूक्ष्मजीवों द्वारा विघटनकारी क्रिया अधिक हो रही हो वहाँ इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि पौधों को बढ़ने के लिए आक्सीजन की जरूरत होती है। जल स्रोतों से इन पौधों को निकालना भी कठिन होता है।

किनारे उगने वाले पौधों की विधि


इस प्रकार के जलीय पौधों की जड़ें काफी विकसित होती हैं तथा तना खोखला होता है। इस कारण जड़ प्रक्षेत्र में सूक्ष्मजीवों द्वारा कार्बनिक तत्वों का विघटन तथा भारी धातुओं की घुलनशीलता बढ़ जाती है। ये पौधे कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थों को चूसने में अधिक सक्षम होते हैं। इस विधि में पौधों को बालू या कंकड़ पर उगाया जाता है तथा अपशिष्ट जल को सतह के ऊपर से प्रवाहित किया जाता है। इससे काफी मात्रा में अघुलनशील पदार्थ नीचे बैठ जाते हैं तथा अन्य हानिकारक तत्व, जीवाणु और घुलनशील भारी धातुएं पौधों के द्वारा दूर हो जाती हैं। इस विधि में पानी की जैविक आक्सीजन घुलनशीलता भी बढ़ जाती है। इन पौधों को हटाना बहुत आसान है। इनमें रेशा अधिक होता है जिसका समुचित प्रयोग किया जाता है।

इन विधियों में एक ही प्रकार के पौधों का प्रयोग किया जाता है। परन्तु हाल के शोध कार्यों से पता चला है कि इस प्रकार के पौधों के संयुक्त प्रयोग से जल शुद्धीकरण अधिक प्रभावी हो सकता है। इसलिए खासतौर पर समुद्रतट तथा नदियों के पास छिछले जलाशयों द्वारा, जहाँ अनेक प्रकार के पौधे व शैवाल पाये जाते हैं, जल-मल तथा अपशिष्ट जल का उपचार किया जाता है। ये तटवर्ती क्षेत्र जैविक दृष्टि से सबसे अधिक उर्वर होते हैं। आवश्यकता है इनके संरक्षण तथा विवेकपूर्ण उपयोग की। इन पौधों का प्रयोग यदि केवल विषैले तत्वों, रोगाणु तथा कैन्सर-जनक पदार्थों से प्रदूषित पानी के उपचार के लिए किया गया हो तो उनका पुन: प्रयोग या सुरक्षित जगह फेंकना बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार के पौधों का मिथेन गैस बनाने में प्रयोग किया जा सकता है परन्तु हानिकारक तत्व कचरे में मौजूद रहते हैं। उपचारित टैंक या तालाब से नियमित रूप से पौधों को निकाला न जाय तो वहाँ पर आक्सीजनरहित वातावरण उत्पन्न हो जाता है तथा रोगाणु, मच्छर व कीड़े फैलने लगते हैं।

जल संधाधनों में बढ़ते प्रदूषकों के जहर को रोकने में जलीय पौधों व शैवालों की प्रमुख भूमिका हो सकती है। तटवर्ती क्षेत्रों के कुशल प्रबन्धन के द्वारा नदियों तथा झीलों में गिरने वाले विषैले कार्बनिक तथा अकार्बनिक तत्वों को रोका जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बावड़ी, तालाबों व झीलों के गन्दे पानी को भी साफ करने में जलीय पौधों पर आधारित तकनीक प्रभावी होगी। देश के विभन्न भागों में उपयुक्त पौधों की खोज करनी होगी जिससे अधिक से अधिक प्रदूषकों को दूर करना सरल हो सकेगा। विभिन्न विधियों की क्षमता बढ़ाना, पौधों का समुचित उपयोग तथा विषैले तत्वयुक्त पौधों का विसर्जन आदि अनेक कार्य हैं जिसे जल शुद्धीकरण प्रक्रिया में जलीय पौधों की उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है।
साभार- http://www.abhyuday.org

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