आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-4
राकेश दीवान
छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में आबादी का घनत्व कम रहा है और उसकी पेट पूजा के लिए जंगल तैनात रहे हैं। नतीजे में अन्न की पैदावार को मैदानों की तरह का महत्व नहीं दिया गया। जंगल में पैदा होने वाली कई प्रकार की वनस्पतियां, फल, कंद, मूल भोजन का मुख्य आधार रहे हैं। अबूझमाड़ में आज भी नरम, कोमल बांस बांस्ता का पेय 'जावा' या माड़ियां पेज बहुत स्वाद से पिया जाता है और उसकी साग भी खाई जाती है। जंगल की सौगातों के अलावा पेंदा यानि झूम खेती करके उड़द, कोस्ता (कुटकी), बाजरा, माड़िया, झुणगा (बरबटी) और ककड़ी की फसलों से लोग मजे में जीते हैं। पानी के इंतजाम का तानाबाना भी खेती की इस पध्दति के अनुसार ही बनाया गया है।
करीब सौ-डेढ़ सौ सालों में सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ लेकर लगातार जंगलों के छिनते जाने और नए जमाने के साथ एक जगह टिककर बस जाने के उत्साह में खेती पर भी जोर दिया जाने लगा और नतीजे में पानी के बड़े और स्थाई भँडार बनाने की जरूरत भी पैदा हुई। रायपुर-जगदलपुर मार्ग पर स्थित राज्य की पुरानी राजधानी बस्तर गांव में कहा जाता है कि 'सात आगर सात कोरी' यानि 147 तालाब होते थे। कोरी कम मतलब है बीस और इसके सात अतिरिक्त। गौंड सरदार जगतू के इलाके जगतमुडा को जब राजा दलपतदेव ने सन् 1772 के आसपास अपनी राजधानी बनाकर जगदलपुर नाम दिया तो वहां पहले से मौजूद झारतरई, गोंडन तरई और शिवना तरई को मिलाकर दलपतसागर तालाब भी बनाया। यह तालाब चार मील यानि करीब सवा तीन सौ एकड़ में फैला था और इसे समुंद यानि समुद्र कहा जाता था। इसके पहले नागवंशी राजाओं की राजधानी बारसूर में 1070 ई. से 1111 ई. के बीच चंद्रादित्य समुंद्र नामक तालाब बनाया गया था और इसके बीच में चंद्रदित्येश्वर मंदिर का निर्माण भी करवाया गया था। कहा जाता है कि राजा चंद्रादित्य बस्तर के नागवंशी राजा सोमेश्वर देव के ससुर थे और मंदिर तथा तालाब निर्माण करने के लिए उन्होने अपने
दामाद से पूरा गांव ही खरीद लिया था। छतीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो के कई कस्बों, शहरों और राजधानियों में तालाब बनाए जाते रहे हैं। कहते हैं कि आज का तीन चौथाई रायगढ़ शहर तालाबों पर बसा है। शहर की सब्जी मंडी, कॉलेज, बाजार, बस स्टै.ड कई तरह के रहवासी और दुकानों के काम्पलेक्स और समाज भवन इन्ही पुराने तालाबों पर बने हैं या बनाए जा रहे हैं। स्टेडियम के लिए तालाब पर निर्माण करने का तो शहर में जमकर विरोध किया गया था। इसी तरह जशपुर, अंबिकापुर, प.थलगांव, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, नारायणपुर आदि कस्बों-शहरों में तालाबों का तानाबाना बनाया गया था। ये तालाब मुख्यत: पेयजल, निस्तार और कहीं-कहीं सिंचाई के काम के होते थे।
रायगढ़ के आसपास लोगों ने सिंचाई से ज्यादा अहमियत जमीनों को खेती योग्य बनाने को दी। इसके लिए अपेक्षाकृत नई पद्धति विकसित की गई जिसमें ऊंचाई से आने वाले नालों को बंधान या मूड़ा बांधकर रोका जाता है। इस तरह से मिट्टी का कटाव-बहाव रूकता है और कुछ दिनों में पूरा बंधान भर जाता है। इस नए खेत के बाजू से एक नहर, जिसे पैड़ी या पाइन कहते हैं, के जरिए पानी निकाला जाता है। धीरे-धीरे सीढ़ीनुमा खेत और उन्हे पानी देने के लिए बाजू से निकलने वाली एक छोटी नहर तैयार हो जाती है। इस तरह से बनी जमीनों को 'गड्डी खल' यानि गाद से बनी जमीनें कहा जाता है। गाद भर जाने को उराव भाषा में 'पट्टी केरा' कहते हैं। इस तरह बनी पाइन आगे के खेतों को भी पानी पहुंचाती है। रायगढ़ के ग्रामीण इलाकों में इस तरह से बनाए गए कई खेत दिखाई देते हैं। अभी कुछ साल पहले 'छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा' के कुछ लोग 'नर्मदा बचाओ आँदोलन' के निमाड़-मालवा के संपन्न क्षेत्रो में गये थे और वहां तालाबों की कमी को पानी की गरीबी मानकर भौचक्के थे। वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई गांव बिना तालाब के भी रह सकता है। छतीसगढ़ और खासकर वहां के मैदानी क्षेत्रो के लगभग हरेक गांव कभी-कभी एक, दो और अक्सर कई तालाबों से भरे-पूरे रहते हैं। कई गांवों में कहा जाता है कि 'छै आगर, छैर कोरी' यानि की 126 तालाब होते हैं।
भूगोल के हिसाब से देखें तो इसकी वजह यहां की गिट्टी की बनावट दिखाई देती है। मोटे-तौर पर छतीसगढ़ की मिट्टी को चार प्रकारों में बांटा जा सकता है। पहला होता है-भाठा। यह कड़ी और थोड़ी ऊंचाई पर होती है इसलिए इसमें बसाहट तो हो सकती है लेकिन उत्पादन नहीं होता। कई-कई किलोमीटर में फैली ऐसी भाठा के कारण तालाब भी बन जाते हैं। लेकिन इनमें पानी नहीं ठहरता। अलबत्ता ऐसी अनुत्पादक मिट्टी में भी आम और सागौन के विशाल बगीचे मिल जाते हैं। भाठा के बाद की दूसरी मिट्टी को मटासी कहा जाता है। इस मिट्टी में तालाब और कुएं बनाए जाते हैं क्योँकि इसमें जलस्तर करीब 25 फुट पर रहता है। मटासी के बाद तीसरी तरह की मिट्टी दुरसा या ढोर्सा कही जाती है। इसमें भी कुएं और तालाब बनाए जाते हैं, जिनमें बारहों महीने पानी रहता है। चौथी मिट्टी को कन्हार या कछार कहा जाता है। यह सबसे नीचे और नदी, नालों की सतह के बराबर होती है। सबसे बेहतरीन मानी जाने वाली इस मिट्टी में रेत भी रहती है। इसमें छोटे-कुएं या झिरिया तो बनाई जाती है लेकिन तालाब नहीं बनते। इसमें पानी का स्तर आमतौर पर 15 फुट के आसपास रहता है। कहा जाता है कि मानव बसाहट और संस्कृतियां जल-स्रोतों, नदियों, समुद्रों के किनारे बनी फली, फूली है लेकिन छ्त्तीसगढ़ में मानव बसाहट के साथ-साथ जल-स्रोत या तालाबों का निर्माण भी किया जाता रहा है। जमीनों की पहचान करके गांव बसाए जाते रहे हैं और उसी के साथ-साथ तालाबों की खुदाई भी होती रही है। आज के समाज में तो तालाब या कुंआ खोदना सभी को आता है लेकिन शुरूआत में संभवत: आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से आने वाले मिट्टी खोदने के विशेषज्ञ यह किया करते होंगे। छ्त्तीसगढ़ में सबरिया जाति इसीलिए सब्बलिया या सबरिया कहलाने लगी है क्योँकि वे सब्बल से मिट्टी खोदने का काम कहते थे। उड़ीसा की प्रसिध्द जसमत ओढ़िन का किस्सा छ्त्तीसगढ़ ही नहीं पूर्वी भारत के उड़ीसा से लेकर मालवा-निमाड़ होता हुआ पश्चिम के गुजरात, राजस्थान तक फैला है। दुर्ग में एक लोकगीत है-
“ पहिले के रहिगे धार नगर , अबके दुरूग कहाय
धार नगर के च्म्पक भाँठा, डेरा बने नौ लाख”
आज के दुर्ग शहर में इंदिरा मार्केट से स्टेशन के रास्ते पर बना हरिनाबांधा चम्पक भाठा में नौलाख डेरे बनाकर रहने वाले इन्ही उड़िया लोगों ने राजा महानदेव के कहने पर खोदा था
“ नौ लाख ओढ़्निन , नौ लाख ओढ़िया,
नौ लाख परत हे कुदाल “
कहा जाता है कि तालाब खोदने का काम पुरूष करते थे और मिट्टी फेंकने का काम औरतें। इन औरतों के टोकनी झाड़ने से शिवनाथ नदी के पास 'टोकनी झिरनी' नाम की पहाड़िया बन गई थी।
साभार- http://www.cgnet.in/W/Rakesh/rakeshdiwan4