आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-3

राकेश दीवान

बिलासपुर जिले के डभरा गांव के पास एक जोसी है जिनके बारे में कहते हैं कि उन्हे जमीन में पानी की आवाज सुनाई देती है। वे सिर्फ धरती माता पर कान लगाकर बता देते हैं कि कितने हाथ पर कैसा कितना पानी और बीच में कितने हाथ पर रेत और पत्थर मिलेंगे। ये जोसी सबरिया जाति के
हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये चूंकि आंध्रप्रदेश से बरसों पहले सब्बल लेकन मिट्टी का काम करने के लिए यहां आए थे इसलिए उन्हे सब्बलिया या सबरिया कहा जाता है। एक नाता रामायणा की प्रसिध्द शबरी से भी बैठाया जाता है। जिसने साक्षात भगवान को ही जूठे बेर इसलिए खिलाए थे ताकि उन्हे खट्टे या जहरीले फल न मिलें। सबरिया इसी शबरी भील के वंशज बताए जाते हैं। इसी तरह बस्तर के कोंडागांव में पूर्व कृषि अधिकारी श्री उइके हैं जो कमर में जामुन की डगान बांध कर कुआं खोदने के प्रस्तावित क्षेत्र में घुम जाते हैं। यह करते हुए उनकी जामुन की मामूली डगान उन्हे बता देती हैं कि कहां पर कुआं खोदना सबसे उपयुक्त होगा । श्री उइके का कहना है कि आज तक सिर्फ दो जगहों पर वे कुछ कारणो से फेल हुए हैं हालांकि उन्हे दूर दराज के इलाकों से बुलाकर कुआं खोदने की जगहों की पहचान करवाई जाती है। ऐसे ही एक गुनिया हैं जो बैठे बैठे जमीन की गरमी ठंडाई का अंदाजा लगाकर पानी होने न होने की बात बता देते हैं। वे मानते हैं कि जहां जमीन ठंडी होगी वहां जरूर पानी होगा। चांपा के पास एक बाबा थे जिन्हे रसातल की आवाज सुनाई देती थी। वे इसे सुनकर पानी की पक्की जानकारी दे देते थे। एक और तरीका नदी नाले सरीखे जलस्रोत से एक पत्थर लाकर उसे धागे में बांधकर जमीन पर फिराने का है। जहां यह पत्थर घुमना शुरू कर दे वहां पानी माना जाता है और यह जितनी बार .घुमे उतने हाथ पानी होगा। इस तरीके से चट्टानों और उनकी मोटाई का पता भी चल जाता है। हालांकि यह बहुत कम लोगों के बस की बात है। लेकिन इस तरह बने कई कुंज आज भी मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे इलाकों में थोड़ी विनम्रता से देखें तो कई ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएंगे जो निन्यानबे प्रतिशत तक सही साबित होते हैं। इतनी ग्यारंटी तो हमारे बाकायदा पढ़े लिखे विशेषज्ञ भी नहीं दे पाते।

सही जगह मिल जाने पर कुआं खोदने का काम होता है। पूस, मास या अधिक से अधिक चैत तक कुआं खोदने का काम शुरू हो जाता है। ताकि बैशाख-जेठ तक काम पूरा हो जाए। भर गर्मी के इन महीनों में पानी निकलने का मतलब होता है बारहों महीने पानी की आपूर्ति।

खुदाई के साथ साथ कुओं की चिनाई का काम भी चलता है। बांस तरी होने के कारणा पहचाने जाने वाले बस्तर में बांस की चटाई से कुएं पाटे जाते हैं। कई जगहों पर सरई या जामुन की लकड़ी के चाक बनाकर उन्हे कुओं में उतारा जाता है। ये चाक लकड़ी के चौकोन या वर्गाकार फ्रेम होते हैं जो कुएं में एक एक करके खुदाई के साथ ही उतारे जाते हैं। आज के उपयुक्त तकनीक के हल्ले में नई ईजाद कहकर बनाए जाने वाले मिट्टी के सस्ते रिंग और इसके लिए खड़ी की जाने वाली धनी संस्थाओं के बहुत पहले से इन आदिवासी कहे जाने वाले इलाकों में ये रिंग कुएं पाटने की जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं।भाठा जमीनों में जहां कुएं और तालाब नहीं खोदे जाते, को छोड़कर छतीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रो में भी कुएं खूब हैं। रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिध्द हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है।
इसके अलावा सिर्फ पत्थर से पाटकर बनाए गए चार कुएं भी इसी गांव में हैं जिनमें खूब पानी रहता है। (जारी)

साभार- http://www.cgnet.in/W/Rakesh/rakeshdiwan4

Hindi India Water Portal

Issues