1- भाखड़ा बांध: विकास मंदिर की अंतर्कथा - श्रीपाद धर्माधिकारी
आजादी का मतलब बार-बार ना पूछें तो आजादी बेमानी हो जाती है। आजाद हिंदुस्तान में तो यह सवाल सबसे पहले और हर लम्हा पूछने की जरूरत है। देश के अस्सी फीसदी लोगों के पास जीवन-जीविका के महज बीस फीसदी संसाधनों का होना इस बात की दलील है कि देश में ऐसा कुछ है जो बड़ा जालिम है। क्या जुल्म का एक रास्ता बड़ी बांध परियोजनाओं की कंक्रीटों से होकर जाता है? भाखड़ा नांगल की यह भीतरी कथा तो कम से कम यही कहती है। 'भाखड़ा: परत-दर-परत पड़ताल' नामक शोध रिपोर्ट के एक अधयाय की अविकल प्रस्तुति।
'भाखड़ा: परत-दर-परत पड़ताल' नामक शोध रिपोर्ट के एक अध्याय की अविकल प्रस्तुति।
भाखड़ा बाँध से विस्थापित हुए लोगों के बारे में शायद सबसे अहम बात यही कही जा सकती है कि आज विस्थापन के 50 बरस बाद भी वे अपनी जिदंगी को पटरी पर लाने की कोशिशों में संघर्षरत हैं।
भाखड़ा-ब्यास प्रबंधन बोर्ड ने भाखड़ा बांध के प्रभावों का अध्ययन किया। यह अध्ययन एक परिस्थिति पत्रक के रूप में हमारे सामने है। इस अध्ययन के मुताबिक भाखड़ा बाँध से 17,876 हेक्टेयर जमीन डूब में आयी। इसमें 371 गांवों को उजड़ना और विस्थापित होना पड़ा।
यह अध्ययन आगे बताता है कि बाँध से 7,206 परिवार यानी करीब 36,000 लोग प्रभावित हुए। लेकिन ये केवल वो परिवार थे जिनके पास जमीन थी। भूमिहीन परिवारों की कोई गिनती मौजूद नहीं है। बिलासपुर शहर भी डूब में आया और इससे 4,000 लोग प्रभावित हुए।
परिस्थिति पत्रक जो तस्वीर देता है, वह एक सूचना संपन्न और न्यायपूर्ण नीति, सुव्यवस्थित पुनर्वास योजना, काबिल संवेदनशील क्रियान्वयन मशीनरी और बेहतर जिंदगी में पुनर्वसित लोगों की तस्वीर है। सच्चाई इस तस्वीर से कोसों दूर है। हमने प्रभावितों के साक्ष्यों, और आधिकारिक व अन्य दस्तावेजों से प्राप्त जानकारियों से भाखड़ा के विस्थापितों की एक सच्ची तस्वीर बनाने की कोशिश की है। इस तस्वीर में विस्थापन, बेदखली और 'पुनर्वास' की प्रक्रिया शामिल है। यह तस्वीर कतई खुशगवार नहीं है।
भाखड़ा का निर्माण ऐसे वक्त में हुआ जब देश को नयी-नयी आजादी हासिल हुई थी - लोगों के मन देशभक्ति, त्याग, बलिदान और राष्ट्र निर्माण की भावनाओं से भरे हुए थे। हमने विस्थापितों की आवाजों में शामिल गौरवपूर्ण अहसास को सुना कि उनका त्याग देश के लिए कुछ करने के काम आया। लेकिन इन कहानियों से वह बेहिसाब दर्द भी सापफ दिखा जो दो पीढ़ियां अपनी जिंदगी को ठीक ठाक ढर्रे पर लाने की जद्दोजहद में भुगतती रही हैं - और अभी भी जिदंगी है कि पटरी पर ही नहीं आ रही है। लगातार विश्वासघात और फिर कृतघ्न देश के द्वारा अपने को आसानी से भुला दिया गया पाकर उभरे गुस्से के अनगढ़ जज्बे को भी हमने महसूस किया।
भाखड़ा बाँध निर्माण से पहले के हालात
भाखड़ा परियोजना का डूब क्षेत्र एक ऐसी घाटी में था, जिसकी खूबसूरती देख पलकें झपकना भूल जाती थीं। नदी के दोनों किनारों पर जंगलों भरे पहाड़ सीना ताने खड़े थे। वो जगह अब एक विशाल तालाब यानी बाँध का जलाशय बन चुकी है। वहां रहने वाले लोगों का मुख्य धंधा खेती था। नदी किनारे पर मौजूद मैदान सोना उगाने वाले उपजाऊ खेत थे। खरीफ और रबी- दोनों की फसलें वहां उगायी जा सकती थीं।
सिंचाई का पानी सतलज से और ढेर सारे प्राकृतिक पहाड़ी जलधारकों से आता था। तमाम किस्म की फसलें वहां हुआ करती थीं। लोगों के पास अपने बाग-बगीचे थे। लोगों ने हमें बताया कि बाँध बनने के पहले अपने और अपने जानवरों के लिए दाने-पानी के मामले में वे पूरी तरह आत्मनिर्भर थे। बाजार की जरूरत उन्हें केवल नमक और कपड़े खरीदने के लिए हुआ करती थी। इस इलाके में चौपायों की विशाल अर्थव्यवस्था थी। लगभग हर घर में 25-30 गाय-बैल-भैंसें हुआ करती थीं। घी भरपूर बनाया और बेचा जाता था। बहुत सारे लोग फौज की नौकरी में भी थे। यह न केवल आमदनी का अतिरिक्त और अच्छा जरिया था बल्कि अपने समुदाय पर गर्व करने का भी एक स्रोत था।
हमने विस्थापितों की आवाजों में शामिल गौरवपूर्ण अहसास को सुना कि उनका त्याग देश के लिए कुछ करने के काम आया। लेकिन इन कहानियों से वह बेहिसाब दर्द भी साफ दिखा जो दो पीढ़ियां अपनी जिंदगी को ठीक ठाक ढर्रे पर लाने की जद्दोजहद में भुगतती रही हैं - और अभी भी जिदंगी है कि पटरी पर ही नहीं आ रही है।
- सामयिक वार्ता