अलोकतांत्रिक शासनों की विफलता - वजह पानी का निजीकरण

सभी अभियानों में एक तत्व समान रहा है-निजीकरण की अवधारणा की समीक्षा, उसकी आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं और निर्धनों तक सेवाएं पहुंचाने में उसकी असफलता की समीक्षा। लेकिन इन अभियानों को पूर्ववर्ती वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के, विशेषकर विकासशील देशों में, संचालकों (आपरेटरों) की असफलताओं और सीमाओं को भी स्वीकार करना पड़ा। 1980 के दशक में विशेषकर ये संरचनाएं विकास बैंकों द्वारा कर्ज
उपलब्ध कराये जाने के बावजूद जल सेवाओं का उल्लेखनीय विस्तार कर पाने में व्यापक रूप से असफल रही थीं और 1990 के दशक की निजीकरण की नीतियों को न्यायसंगत ठहराने में इन असफलताओं की आड़ ली गई थी।

लेकिन इन असफलताओं का दोष इस तथ्य पर मढ़ना बहुत भोंडा बहाना है कि पानी सार्वजनिक स्वामित्व के तहत था। अनेक विकासशील देश इस अवधि में तानाशाहियों और भ्रष्ट शासनों के अधीन थे जिनमें पारदर्शिता की तो बात ही छोड़ें मानवाधिकारों और जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति भी एक अवमानना का भाव था। ये शासक किसी के प्रति जवाबदेह न थे। ऐसे में गरीबों को दी जाने वाली सेवाओं की हालत खराब हुई और भ्रष्ट शासनों ने पानी के लिए लिये गये कर्जों से खुद को लाभान्वित किया। निजीकरण की शुरुआत इन्हीं अलोकतांत्रिक शासनों में फली-फूली। स्वेज उस दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थी जहां रंगभेद छाया था। जकार्ता के पानी के निजीकरण का प्रबंधा भ्रष्ट तरीकों से सुहार्तो की तानाशाही ने किया था। कैसाब्लांका की सुविधाओं के निजीकरण का इंतजाम नगर परिषद द्वारा आयोजित प्रतिस्पर्धात्मक टेंडर द्वारा नहीं बल्कि शाह हसन के एक आदेश द्वारा हुआ था। इन कम्पनियों ने जो अनुबंध हासिल किये थे उन्हें गोपनीय रखा गया था, यहां तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी उन्हें नहीं देख सकते थे। यह ग्दान्स्क (पोलैंड) और बुडापेस्ट (हंगरी) जैसे शहरों में विशेष रूप से विडंबनापूर्ण था जो अलोकतांत्रिक साम्यवादी शासन से एक तथाकथित अधिक जवाबदेह जनतांत्रिक व्यवस्था में संक्रमण के दौर से गुजर रहे थे।

इसलिए 1980 के दशक में सार्वजनिक क्षेत्र की असफलताओं की समस्या को
सार्वजनिक क्षेत्र की समस्या मानने के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र में जनतांत्रिक प्रक्रिया के अभाव के रूप में देखा जा सकता है। सैनिक तानाशाही की समाप्ति के बाद ब्राजील का अनुभव इसकी पुष्टि करता है। नये जनतंत्र के अवसरों का लाभ अनेक तरह से उठाया गया जिसमें नये क्षेत्रों तक पानी और सफाई की आपूर्ति का विस्तार करने की नई दृष्टियां शामिल हैं। स्वयं तानाशाहियों द्वारा समर्थित निजीकरण ने नहीं बल्कि इन पहलकदमियों ने जनतंत्र पर आधारित एक नये रवैये की आवश्यकता तथा जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली सार्वजनिक सहभागिता के एक स्तर की जरूरत की ओर संकेत किया।

यही विश्लेषण विकास बैंकों और दानकर्ताओं की इन शिकायतों के संदर्भ में भी लागू किया जा सकता है कि सरकारें अन्य नीतियों की तुलना में पानी को समुचित प्राथमिकता नहीं देतीं, मानो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रबुद्ध नौकरशाहों की तुलना में विकासशील देशों की सरकारों और जनता को पानी और सफाई की कम परवाह है। दरअसल, समस्या जनता द्वारा पानी और सफाई सेवाओं की मांग के अभाव की नहीं है बल्कि इस मांग को पूरा करने में सरकारों की असफलता की है। 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में ब्राजील में राष्ट्रीय स्वच्छता नीति के लिए एक बहुत व्यापक जनाधार वाला अभियान चला था जिसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आई.एफ.आई.) के चहेते उम्मीदवार कारडोसो ने 1995 में राष्ट्रपति बनते ही अचानक खारिज कर दिया। इसकी जगह उसने टुकड़ों-टुकड़ों में निजीकरण को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई जो सरकार द्वारा कर्ज लेने को प्रतिबंधित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्राथमिकताओं के अनुरूप थी। इसके कारण पानी (तथा बिजली जैसी अन्य बुनियादी जरूरतों) में बहुत कम निवेश हुआ। अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भी इस बात को स्वीकार करता है।
जब लटविया सोवियत संघ के अधीन था तब भी वहां बेकार पानी के शोधन यंत्रों के लिए अभियान चले थे। नगरों के आस-पास की बस्तियों में जहां सरकार आवश्यक सेवाएं प्रदान करने मे असफल रहती है वहां, जैसे पाकिस्तान में ओरांगी में, लोगों ने पानी और सफाई योजनाएं बनाने के लिए अपनी खुद की मेहनत और बचावों का इस्तेमाल करने की इच्छा प्रदर्शित की है।

सरकारों की प्रभावहीनता को, इस प्रकार, राजनीतिक प्रक्रियाओं की असफलता के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है जो स्वयं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की नीतियों द्वारा और तीव्र कर दी जाती हैं। वास्तविक समस्या जनतांत्रिक प्रक्रिया के अभाव की रही है।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 8...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

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