एक अकालजयी पुस्तक - आज भी खरे हैं तालाब

ऐसी विरली ही पुस्तकें होती हैं जो न केवल पाठक तलाशती हैं, बल्कि तलाशे पाठकों को कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में तराशती भी हैं. अपनी प्रसन्न जल जैसी शैली तथा देश के जल स्रोतों के मर्म को दर्शाती एक पुस्तक ने भी देश को हजारों कर्मठ कार्यकर्ता दिए हैं. पुस्तक का नाम है ‘आज भी खरे हैं तालाब’. श्री अनुपम मिश्र द्वारा लिखित तथा गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का पहला संस्करण 1993 में छपा. पांचवां संस्करण 2004 में छपा और कुल प्रतियां 23000 छपीं. लेकिन 93 से 2004 के बीच पुस्तक ने देश भर में आवारा मसीहा की तरह घूम-घूम कर अपने-अपने क्षेत्र के जल स्रोतों को बचाने की अलख जगा दी और यह सिलसिला आज भी जारी है.

अपने देश में बेजोड़ सुंदर तालाबों की कैसी भव्य परंपरा थी, पुस्तक उसका पूरा दर्शन कराती है. तालाब बनाने की विधियों के साथ-साथ अनुपमजी की लेखनी उन गुमनाम नायकों को भी अंधेरे कोनों से ढूढ लाती है, जो विकास के नए पैमानों के कारण बिसरा दिए गए हैं.
पुस्तक के बारे में मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी ने इसके छपने के तुरंत बाद ही जो लिखा था वही शायद इस पुस्तक को सही स्थान देने की सही कोशिश कर पाता है. प्रभाष जी के लेख के कुछ अंश ज्यों के त्यों दायीं तरफ़ दिए गए बक्से में है.

पुस्तक के पहले संस्करण के बाद देशभर में पहली बार अपने प्राचीन जल स्रोतों को बचाने की बहस चली, लोगों ने जगह-जगह बुजुर्गों की तरह बिखरे तालाबों की सुध लेनी शुरू की. इसकी गाथा बेशक लंबी है, लेकिन फिर भी देखने का प्रयास करते हैं.

मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित जल राणा राजेंद्र सिंह बताते हैं कि राजस्थान की उनकी संस्था तरुण भारत संघ के पानी बचाने के बड़े काम को सफल बनाने में इस पुस्तक का बहुत बड़ा हाथ है. मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर श्री बी. आर. नायडू, जिन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती थी, पुस्तक पढ़ने के बाद इतना प्रभावित हुए कि जगह-जगह लोगों से कहते फिरे, ‘अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा.’ श्री नायडू की ये मामूली अलख सागर जिले के 1000 तालाबों को निरंजन कर गई. ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गई. मध्यप्रदेश के ही सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की सौ-सौ प्रतिया बांटी.

पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई. पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं. पानी बचाने के लिए सबसे दक्ष माने गए राजस्थान के समाज को भी इस पुस्तक ने नवजीवन दिया. राजस्थान के प्रत्येक कोने में पुस्तक के प्रभाव के कारण सैकड़ों जल-यात्राओं के साथ-साथ हजारों पुरातन जल-स्रोत संभाले गए. ऐसी अनेक यात्राएं आज भी जारी हैं.

जयपुर जिले के ही सालों से अकालग्रस्त लापोड़िया गांव ने इस पुस्तक को आत्मा में बसाया. लापोड़िया गांव ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर न केवल अपनी जलगाहें बचाईं, बल्कि अपने प्रदेश की चारागाहें तथा गोचर भी बचाए. लापोड़िया के सामूहिक प्रयासों का नतीजा यह रहा कि आज 300 घरों का लापोड़िया जयपुर डेयरी को चालीस लाख वार्षिक का दूध दे रहा है. जल-जंगल संरक्षण के ऐसे ही आंदोलनों से लापोड़िया को लक्ष्मण सिंह जैसा नेतृत्व क्षमता वाला नायक मिला. उनकी इन्ही क्षमताओं के कारण आज लापोड़िया के आसपास के 300 गांव अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं. शहरों की ओर पलायन में निरंतर गिरावट आई है.

पुस्तक का प्रभाव उत्तरांचल में भी हुआ. यहां पौड़ी-गढ़वाल के उफरेखाल क्षेत्र के दूधातोली लोक विकास संस्थान के श्री सच्चिदानंद भारती ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर पहाड़ी क्षेत्रों की विस्तृत चालों(पानी बचाने के लिए पहाड़ी तलाई) को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया. इस दौरान पिछले 13 सालों में उन्होंने 13 हजार चालों को बचाया-बनाया. उनके इन्हीं प्रयासों से उजड़े हिमालय के शीश पर फिर से हरियाली का मुकुट दिखने लगा है.

गैर हिंदी भाषी राज्य कर्नाटक में इस पुस्तक का सीधा प्रभाव राज्य सरकार पर पड़ा. कर्नाटक सरकार ने तालाब बचाने का काम सीधे अपने ही हाथ में ले लिया और वहां एक जल ‘संवर्धन योजना संघ’ बनाया गया तथा विश्व बैंक की मदद से पूरे राज्य के तालाब बचाने की योजना तैयार की गई है. इसी राज्य की ही इंफोसिस कंपनी के मालिक श्री नारायणमूर्ति की पत्नी सुधामूर्ति ने इस पुस्तक का कन्नड़ में अनुवाद किया है और 50 हजार प्रतियां छपवाकर कर्नाटक की प्रत्येक पंचायत में भिजवाने की योजना बनाई है.

हरित क्रांति के जेहादी नारे के बाद निरंतर रेगिस्तान की ओर अग्रसर पंजाब में इस पुस्तक का नाद सुनाई दिया. सर्वप्रथम इसका पंजाबी अनुवाद मालेरकोटला से प्रकाशित ‘तरकश’ नामक पत्रिका में शुरू हुआ. फिर इसका एक संक्षिप्त पंजाबी संस्करण छपा जो मुफ्त में बांटा गया. कुछ वर्षों बाद इसके अनुवाद के साथ पंजाब के सुख-दुख जोड़कर एक पुस्तक की शक्ल दी गई. इस नए अनुवाद का व्यापक प्रभाव रहा. पंजाब के साहित्यकारों, आलोचकों, लोकगायकों, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं के साथ-साथ प्रमुख संतों, यहां तक कि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों पर भी इसका खासा प्रभाव पड़ा. पंजाबी अनुवाद का श्री गुरुनानक देवजी की नदी का उद्धार करने वाले संत बलवीर सीचेवालजी ने बेहद रचनात्मक उपयोग किया. वे अब नदी किनारे होने वाले वार्षिक साहित्यिक सम्मेलनों में पुस्तक खरीद कर रचनाधर्मियों को भेंट करते हैं. पंजाब के लोकगायकों ने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अपने तरीके से जलस्रोतों को बचाने की मुहिम शुरू की है. देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं. पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है. और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है? श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है. ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है.

बंगाल का किस्सा भी मजेदार है. जहाज से हथियार गिराए जाने के बाद सूर्खियों में आए पुरुलिया नामक कस्बे की एक घुमक्कड़ पत्रकार निरुपमा अधिकारी वहां के एक अकाल क्षेत्र का दौरा करती-करती अचानक हरियाली देखकर ठिठक गईं. गांव वालों से पता चला कि उस गांव में कुछ तालाब जिंदा थे, इसलिए वहां धरती के भीतर की नमी अभी शेष थी. तालाबों की उपयोगिता के बारे में निरुपमा की दृष्टि साफ होती चली गई. इसी बीच निरुपमा के एक मित्र ने उन्हें तालाब पुस्तक भेंट की. निरुपमा का जीवन पुस्तक पढ़ते-पढ़ते बदलता गया. रोजी-रोटी का पक्का प्रबंध न होने के बावजूद निरुपमा ने इसका बांग्ला अनुवाद किया. अब इस अनुवाद का दूसरा संस्करण भी छप चुका है.

कई राज्यों से गुजरते हुए पुस्तक के किस्से महाराष्ट्र भी पहुंचे. कभी जलसंसाधन मंत्रालय के सचिव रह चुके औरंगाबाद के प्रसिद्ध इंजीनियर माधव चितले की आंखों के सामने से जैसे ही यह पुस्तक गुजरी, उन्होंने इसके मराठी अनुवाद की तत्काल जरूरत महसूस की. बेशक यह पुस्तक आज की इंजीनियरिंग शिक्षा पद्धति को आईना दिखाता है, फिर भी माधवजी ने इसका मराठी अनुवाद ‘औरंगाबाद संस्कृति मंडल’ के सौजन्य से छापा.

भूकंप में ध्वस्त हो चुके गुजरात में भी इस पुस्तक का अनुवाद किया गया. श्री दिनेशभाई संघवी ने पुस्तक का अनुवाद किया तथा गुजराती समाचार पत्र ‘जन्मभूमि प्रवासी’ ने इसे धारावाहिक रूप में छापा.

देशभर में अमृत छिड़कने के बाद यह पुस्तक फ्रांस की एक लिखिका एनीमोंतो के हाथ लगी. एनीमोंतो ने इसे दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए तड़पते लोगों के लिए उपयोगी समझा. फिर उन्होंने इसका फ्रेंच अनुवाद किया. ताजा जानकारी के अनुसार पुस्तक के प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में पानी की संभाल में काफी तेजी आई है.

भारत ज्ञान-विज्ञान परिषद् ने इसकी 25 हजार प्रतियां छापकर मुफ्त में बांटी. मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग ने भी 25 हजार प्रतियां छापकर प्रदेश की प्रत्येक पंचायत तक पहुंचाया. भोपाल के राज्य संसाधन केंद्र ने इसकी 500 प्रतियां 500 गांवों में बांटी. अहमदाबाद की ‘उत्थान माहिती’ नामक संस्था ने 500 प्रतियां छापकर सामाजिक संस्थाओं में मुफ्त बांटी. नागपुर के स्वराज प्रकाशन ने 5 हजार प्रतियां छापकर मुफ्त में बांटी. बिहार के जमालपुर की संस्था ‘नई किताब’ ने भी इसकी 11 सौ प्रतियां बांटी. देशभर के 16 रेडियो स्टेशन पुस्तक को धारावाहिक रूप में ब्रॉडकास्ट कर चुके हैं. कपार्ट की सुहासिनी मुले ने इस पुस्तक पर बीस मिनट की फिल्म भी बनाई है. सीमा राणा की बनाई फिल्म दूरदर्शन पर आठ बार प्रसारित हो चुकी है.

भोपाल के शब्बीर कादरी ने पुस्तक का उर्दू अनुवाद किया और मध्यप्रदेश के मदरसों में मुफ्त में बांटी. उर्दू तथा पंजाबी अनुवाद पाकिस्तान भी पहुंच चुके है.

गुजरात की एक संस्था ‘समभाव’ के श्री फरहाद कांट्रैक्टर पर इस पुस्तक का गहरा प्रभाव पड़ा. श्री फरहाद राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, अलवर, जोधपुर, महाराष्ट्र तथा गुजरात के कई हिस्सों में पुराने जल स्रोतों को बचाने के एक विराट काम में जुटे हैं. गुजरात की ही श्रीमती डेजी कांट्रेक्टर इस पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद कर रही हैं.

सदियों से ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जाति का विकास मीठे जल-स्रोतों के मुहानों पर ही हुआ. जीवन के राग-विराग मनुष्य ने वहीं पर सीखे, लेकिन विकास की अंधी होड़ में मनुष्य के चारों ओर अंधेरा बढ़ता जा रहा है. इस अंधेरे की बाती को हम सब तथा हमारी तरह-तरह की नीतियां-प्रणालियां दिन-ब-दिन बुझाने की कोशिश में लगी हुई हैं.

देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं. पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है. और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है?

श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है. ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है.

सुरेंद्र बांसल

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और अब अनुपम मिश्र ने 'आज भी खरे हैं तालाब' निकाली है. यह संपादित नहीं है. अनुपम ने ख़ुद लिखी है. नाम कहीं अन्दर है छोटा सा, लेकिन हिन्दी के चोटी के विद्वान् ऐसी सीधी सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिन्दी तो ज़रा लिखकर बताएं. जानकारी की तो बात कर ही नहीं रहा हूँ. अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है. समझा है. अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है. कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है. लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, शोधक विद्वान् नहीं, भारत के समाज और तालाब से उसके सम्बन्ध को सम्मान से समझने वाला विनम्र भारतीय. ऐसी सामग्री हिन्दी में ही नहीं अंग्रेज़ी और किसी भी भारतीय भाषा में आपको तालाब पर नहीं मिलेगी. तालाब पानी का इंतज़ाम करने का पुण्य कर्म है जो इस देश के सभी लोगों ने किया है. उनको, उनके ज्ञान को और उनके समर्पण को बता सकने वाली एक वही किताब है. आप चाहें तो कलकत्ता का राष्ट्रीय सभागार देख लें. यह किताब भी दूसरी किताबों की तरह ही निकली है. पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है. उसके जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं. यह उसका और हमारा दोनों का सौभाग्य है.

प्रभाष जोशी (17.10.1993)

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