वीराने में वसंत
फरवरी का एक-एक दिन बीतने के साथ बेचैनी बढ़ती जाती थी। बंद कमरे में चुपचाप पढ़ते रहने को दिल नहीं करता था और किसी के घर चले जाना निषिद्ध सा बना हुआ था। कभी हिम्मत करके जाओ तो कहने-सुनने को दोनों तरफ से ही कोई बात नहीं होती थी। चुप्पी की एक चादर बीच में तनी रहती थी। कोई भी बात शुरू करो, पता नहीं कैसे घूम-फिर कर वहीं पहुंच जाती थी जहां कोई भयंकर नस तड़-तड़ तड़क रही होती थी।
एक सुबह तय किया कि आज तो निकल ही जाना है। गणित पढ़ने में वैसे भी कुछ खास झंझट नहीं है। एक पतली किताब में चार-छह सादे पन्ने खोंसो, कलम जेब में डालो और कहीं भी जम जाओ। इतने दिन से शहर के इस इलाके में रह रहा था लेकिन आने-जाने का रास्ता कमोबेश एक ही बना हुआ था। यहां से निकलकर शहर के बीच की दो-चार जगहें, फिर वापस यहीं। सोचा, आज उल्टी तरफ चलते हैं।
थोड़ी दूर चलते ही खेत शुरू हो गए। धूप को अपने रंग में रंगते सरसों के गहबर फूलों और गेहूं की कचर हरियर दुद्धी बालियों से लदे हुए पानी से गदबद खेत। दिल किया, यहीं कहीं रुक जाते हैं। सड़क से किनारे होकर एक ट्यूबवेल की तरफ बढ़ा कि वहां थोड़ी सूखी जमीन मिल जाएगी। कि तभी हल्ला सा मचा और कई लोग छत से कूद-कूद कर बगटुट भागते नजर आए। वहां वे चैन से बैठे जुआ खेल रहे थे और मुझे देखकर डर गए थे। उनके खेल में खलल डालना ठीक नहीं लगा।
वापस सड़क पर आ गया और शहर की उल्टी दिशा में सीधे बढ़ता चला गया। ट्रैफिक नहीं के बराबर था। सड़क अपने आप मुड़ती हुई किधर जा रही है, इसका कोई भान नहीं था। अचानक सामने ढलान दिखी। तीखा मोड़ काटती हुई मंथर बहती नदी आगे राह रोके खड़ी थी।
आजमगढ़ शहर में टौंस नदी ऐसे ही चौंकाती है। सांप जैसी शक्ल में यह शहर को तीन तरफ से घेरे हुए है और इसके हर मोड़ पर कोई न कोई रहस्य छिपा है। यह कोई गहरी नदी नहीं है। फरवरी के महीने में कुछ जगहों से आप इसे बिना अपना अंडरवियर भिगोए पार कर सकते हैं। मुझे लगा कि कोई थ्योरम हल करने की तुलना में यह काम कहीं ज्यादा जरूरी है।
नदी के उस पार बहुत सारे कुत्ते थे- भागादौड़ी का शाश्वत खेल खेलते हुए। उनके पेट भरे हुए थे और अपने बीच दो पैरों से चलने वाला एक जानवर पाकर वे रत्ती भर भी प्रभावित नहीं हुए थे। आसपास राख, हंड़िया और एक-दो चिरे हुए बांस भी दिख रहे थे। शायद इस जगह का इस्तेमाल मुर्दे जलाने में होता हो, जिनके जल चुकने के बाद बची हुई चीजें कुत्तों के काम आती हों।
उधर वाले तट की चढ़ाई कुछ ज्यादा खड़ी थी। ऊबड़-खाबड़ बलुअर जमीन खेती के लिए मुफीद नहीं थी, शायद इसीलिए लालच की चोट भी उसपर कम पड़ी थी। खेत थे, लेकिन दूर-दूर थे। पेड़ और झाड़ियों ने तब तक उनसे हार नहीं मानी थी। चारो तरफ वीरानी थी। लेकिन 'वीरानी सी वीरानी' यह नहीं थी। जिंदगी यहां अलग ही लय में भरपूर धड़क रही थी। यहां के पेड़ों में लंबी पीली दुम वाले तोतों के घर थे। नीले-सफेद फूलों भरी जंगली झाड़ियों में टिड्डे फुदक रहे थे। झींगुरों की झूं-झूं और दूर शहर की घूं-घूं को रगेदती कठफोड़वे की ठक-ठक ही यहां की सबसे ऊंची आवाज थी।
कुछ ऊंचाइयां और ढलानें और पार करके यहां मैंने हठयोगियों, नाथपंथियों या शायद बौद्धों के काम आने वाली छोटी-छोटी गिरी-पड़ी कोठरियों से भरी, लाहौरी ईंटों से बनी एक बहुत पुरानी इमारत खोज निकाली। एक संदेहास्पद बाबा ने कुछ गोल पत्थर गाड़कर इसे शिवमंदिर बना डाला था। उस साल की शिवरात्रि पर बाबा के ठंढई प्रसाद के असर में की गई गणित की 'मौलिक खोजें' तो नशा उतरते ही साफ हो गईं लेकिन जगह का खुमार जेहन पर आज भी तारी है।
साभार - पहलू
http://pahalu.blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html