..ऐसे में सूख जाएंगे प्राकृतिक जलस्त्रोत्र
हीरानगर, राजेंद्र माथुर :
रियासत में जहां अधिकतर आबादी पेयजल समस्या से जूझ रही है, वहीं सरकारी स्तर पर हो रहे प्रयास भी उंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रहे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर इस समस्या का समाधान करने के किए जा रहे प्रयास भी नाकाफी साबित हो रहे हैं। लेकिन गांवों में मौजूद प्राकृतिक जल स्रोतों की तरफ ध्यान न दिए जाने से उनका आस्तित्व भी मिटने की कगार पर पहुंच रहा है। जबकि कुछ साल पूर्व यही स्रोत लोगों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराते थे। आजादी के साठ साल गुजर जाने के बाद भी जम्मू-कश्मीर में सिंचाई के उचित प्रबंध न होने के कारण किसानों को हर साल सूखे का सामना करना पड़ रहा है। हजारों कुएं, तालाब, बावलियां बिना देखरेख के जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुकी हैं। जबकि आजादी से पहले 80 प्रतिशत लोग कुओं, तालाबों के पानी से न केवल फसलों की सिंचाई करते थे, बल्कि पीने की जरूरतें भी इन्हीं स्त्रोतों से पूरा करते थे। आज जनस्वास्थ्य विभाग द्वारा लगाए गए ट्यूबवेल, हैडपंपों का पानी भी सूखने लगा है। पेयजल योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे है। उधर, ट्यूबवेल द्वारा आपूर्ति शुरू होने पर लोगों ने कुओं, तालाबों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और ना ही सरकार ने इनकी मरम्मत के लिए कोई योजना बनाई। जिस कारण गांवों में लगाए गए 50 प्रतिशत कुएं या तो बिल्कुल ही दब गए है या अभी वीरान पड़े हुए है। अगर इन्हीं बंद पड़े कुओं की मरम्मत कराई जाए तो शायद पानी के लिए मची हाय-तौबा कम हो सकती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इससे सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों ने पूरी तरह आंखें मूंद रखी हैं।
जानकारी के अनुसार तहसील हीरानगर में 1965 तक दो हजार के करीब कुएं, तीन सौ तालाब व सौ के करीब बावलियां थीं। ग्रामीण विकास विभाग द्वारा करवाए गए सर्वे के अनुसार हीरानगर ब्लाक में 258 कुएं, 112 तालाब व 36 बावलियां, ब्लाक बरनोटी में 76 कुंए, 96 तालाब व 41 बावलियां रह गई है। बरबाद हो रहे जल स्त्रोतों के बारे में जब कुछ बुजुगरें से बात की गई तो 80 वर्षीय ज्ञान चंद 90 वर्षीय करतार चंद, 100 वर्षीय मिलखी राम का कहना था कि 1965 से पहले तक जब पानी की आपूर्ति के लिए ट्यूबवेल नहीं थे तो लोग तालाबों व कुओं के पानी पर ही निर्भर थे। इस कारण कुओं पर दिन-रात रौनक रहती थी। खेतों में सिंचाई के लिए प्रत्येक गांव में चार-पांच कुएं होते थे। जिसके पानी से सिंचाई कर सब्जियां- अनाज पैदा किया जाता था। उन्होंने बताया कि कुएं खोदने में भी कई माह का समय लगता था। उस समय जिस व्यक्ति का कोई बच्चा नहीं होता था, वह अपनी याद बनाए रखने के लिए गांव में कुएं या पीपल का पेड़ लगा देता था। उसके बाद जब पेयजल आपूर्ति के लिए सरकार ने ट्यूबवेल और लोगों ने घरों में हैडपंप लगाने शुरू कर दिए तो कुएं बिना देखरेख के बरबाद हो गए। ट्यूबवेलों का पानी पूरा न होने से और कई हैंडपंपों का पानी खारा होने के कारण लोगों को एक बार फिर इन प्राकृतिक जलस्त्रोतों की याद आने लगी है।
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कुंआ बनाने के लिए लाहौर
से मंगवाया गया था सीमेंट
कूटा गांव में बने कुएं को सन 1944 में जब नेकां के जिला प्रधान अजीत कुमार शर्मा के पिता दिवंगत सेठ पाल शर्मा ने बनवाया था तो इसके निर्माण कार्य के लिए लाहौर से सीमेंट मंगवाया गया था। इसे खोदने के लिए दस साल का समय लगा था। कंडी क्षेत्र के लोग इसी कुएं के पानी पर निर्भर थे, लेकिन जब यहां ट्यूबवेल लग गया तो किसी ने कुएं की देखरेख नहीं की तथा उसे पत्थरों से भर दिया गया। टयूबवेल खराब हो जाने के बाद लोगों को पानी की जरूरत महसूस हुई तब इस पर दो लाख रुपये खर्च कर इसकी पिछले साल ही मरम्मत करवाई। आज पूरा गांव इस कुएं का पानी पी रहा है।