पानी का निजीकरण और सरकारी रवैया

संदीप पांडे
आलेख. जल जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो पूरे समाज के उपयोग के लिए उपलब्ध हैं तथा जिन पर समाज का सामूहिक स्वामित्व है, के प्रति सरकारों के नजरिए में परिवर्तन आ गया है। अब इसको एक ऐसे संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है जिसका व्यावसायिक मुनाफे के लिए दोहन किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में क्षेत्रीय भू-गर्भ जल स्तर में न सिर्फ गिरावट आ रही है, बल्कि उसके जहरीले होने के मामले भी सामने आ रहे हैं।
पिछले वर्ष अक्टूबर माह में उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के बाहर स्थानीय ग्रामीणों ने धरना दिया हुआ था। वे जानना चाहते थे कि यह कारखाना अपने खतरनाक कचरे का निपटारा कैसे करता है?
ज्ञात हो कि 2005 में केरल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पलक्कड़ जिले में स्थित प्लाचीमाडा गांव के कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र को बंद करने का आदेश दिया था क्योंकि इस कारखाने से निकलने वाले कचरे में कैडमियम, क्रोमियम व लैड जैसे तत्व पाए गए थे जिनसे भू गर्भ जल के जहरीले होने का खतरा था।
ऐसे में बलिया के किसानों के लिए यह जानना जरूरी था कि उनके गांव में स्थित कोकाकोला संयंत्र कहीं रासायनिक कचरा भूगर्भ में तो नहीं दफना रही है? वहां ग्रामीणों को पुलिस अधीक्षक के स्तर पर निरीक्षण की अनुमति तो दी गई, लेकिन ऊपरी दबाव के आगे फिर रद्द कर दी गई।
कोकाकोला व पेप्सी कंपनियों के भारत में 90 के ऊपर बॉटलिंग संयंत्र हैं, जो प्रत्येक जगह से रोजाना 15 से 20 लाख लीटर पानी का दोहन करते हैं। इन कंपनियों द्वारा एक लीटर शीतल पेय बनाने के लिए छह से दस लीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
लगातार इतने पानी के दोहन की वजह से उन इलाकों में जहां ये बॉटलिंग संयंत्र स्थित हैं, भूगर्भ जल स्तर में तेजी से गिरावट आई है। प्लाचीमाडा में तो संयंत्र के आसपास के गांवों में कोकाकोला टैंकरों से पीने के पानी की आपूर्ति करती है। भूगर्भ जल पीने, नहाने, खाना बनाने अथवा कपड़े धोने लायक भी नहीं रह गया है।
मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र से तीन किमी के दायरे में स्थित प्रत्येक जलस्रोत का सर्वेक्षण करने पर यह मालूम हुआ कि 1996-2006 के दौरान भूगर्भ जलस्तर में 18 फीट की गिरावट आई है जबकि 1986-96 के दौरान यह गिरावट मात्र 1.6 फीट थी। कुओं व तालाबों के सूख जाने पर बड़ी संख्या में हैंडपंप लगाए गए हैं।
1996 में यहां सिर्फ 45 हैंडपंप थे, जबकि 2006 में इनकी संख्या बढ़कर 220 तक पहुंच गई। स्पष्ट है कि जल की उपलब्धता का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है। दर्जन भर गांवों में राजकीय व निजी नलकूपों से पानी निकलना बंद हो चुका है तथा एक चौथाई हैंडपंप भी जवाब दे चुके हैं।
ऐसा प्रस्ताव था कि बिना अनुमति के इस इलाके में हैंडपंप या नलकूप लगाने पर रोक लगाई जाए। कृषि या पेयजल की जरूरत को पूरा करने के लिए तो ऐसी अनुमति देने पर विचार किया जा सकता है, किंतु कोकाकोला कंपनी द्वारा व्यावसायिक उद्देश्य से जल दोहन पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।
यही नहीं पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, देहरादून द्वारा मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के आसपास के भूगर्भ जल, सतही जल व मिट्टी के नमूनों की जांच करने पर यह पाया गया कि जल के ज्यादातर नमूनों में कैडमियम व क्रोमियम आपत्तिजनक मात्रा में विद्यमान हैं।
ऐसी आशंका है कि कोकाकोला अपना विषैला कचरा भूगर्भ जल में ही दफना रहा है जिसकी वजह से आसपास के ग्रामीणों के लिए पेयजल के विषाक्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। मिट्टी में भी लैड, कैडमियम व क्रोमियम पाए गए।
जल के निजीकरण का सबसे हास्यास्पद किंतु गंभीर मामला रायपुर से है जहां मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड ने एक स्थानीय निजी कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड को 20 वर्षो की अवधि के लिए व्यावसायिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से राज्य का एक प्रमुख जलस्रोत व नैसर्गिक साधन शिवनाथ नदी पूर्णरूपेण हस्तांतरित कर दिया।
राज्य शासन की अनुमति के बिना रुपए 500 लाख से अधिक की जल प्रदाय योजना की परिसंपत्तियां निजी कंपनी को लीज पर मात्र एक रुपए के प्रतीकात्मक मूल्य पर सौंप दी गई थीं यानी प्रकृति से निशुल्क जल प्राप्त कर उसे बोतल में बंद कर बेच देना अब एक वैध व्यावसायिक गतिविधि है।
कोकाकोला व पेप्सी खुद किनले व एक्वीफिना नाम से बोतलबंद पानी का व्यापार करती हैं। इसलिए इनके कारखानों के खिलाफ तमाम शिकायतें होते हुए भी इन कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करवाना बहुत मुश्किल हो गया है।
इन देशी-विदेशी निजी कंपनियों ने हमारी शासन-प्रशासन व्यवस्था में जबदस्त घुसपैठ की है तथा हमारे राजनेताओं व अधिकारियों की सोच बदली है, यह प्रक्रिया अत्यंत खतरनाक है। एक प्राकृतिक संसाधन व आम जनता का उस पर पारंपरिक अधिकार कुछ मुनाफा कमाने की सोच से प्रेरित निहित स्वार्थ वाला वर्ग छीनना चाहता है। यदि जनता जागरूक न रही तो उसके जीवन का एक प्रमुख आधार देखते ही देखते उसके हाथों से निकल जाएगा।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
साभार - भाष्कर

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