पानी का रास्ता और हमारे रोड़े

विनोद वर्मा
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

कहने को तो मेरे बचपन का घर एक शहर में था. लेकिन व्यावहारिक रुप से शहर का वह हिस्सा एक गाँव की तरह ही था.
घर के सामने एक मैदान सा था. मैदान के बीचों-बीच से एक रास्ता गुज़रता था और वह रास्ता एक बड़े तालाब के किनारे जाकर ख़त्म हो जाता था.
वह रास्ता सिर्फ़ आने-जाने वाले लोगों के लिए भर नहीं था. वह पानी का भी रास्ता था. जब बारिश होती तो मोहल्ले भर का पानी उसी रास्ते बहकर तालाब में चला जाता था. दो-ढाई घंटों की बारिश में तालाब लबालब हो जाता था.
जब बारिश होती तो हम भाई-बहन या तो बाहर भीग रहे होते या फिर खिड़की पर बैठे बारिश का मज़ा ले रहे होते. देख रहे होते कि जिस रास्ते पर लोगों की आमदरफ़्त रुकती नहीं थी वहाँ से पानी लगातार बहता जा रहा है.
इस बीच हम अपने लिए कागज़ की कश्तियाँ बना रहे होते. जैसे ही पानी बरसना रुकता हम कश्तियाँ लेकर चल पड़ते. और फिर कश्तियों के आगे-पीछे दौड़ते न जाने कितना समय बीत जाता.
आज भी कभी अपने उस पुराने शहर के पुराने घर के पास से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि मैदान के बीच से जो रास्ता गुज़रता था वह पक्की सड़क में तब्दील हो चुका है. सड़क अब भी तालाब तक जाती है लेकिन वह तालाब में जाकर ख़त्म नहीं होती. वह तालाब के किनारे से होकर गुज़र जाती है.
अब बारिश में वहाँ से गुज़रें तो पता चलता है कि बारिश में मोहल्ले भर का पानी तो अब भी बहकर आता है लेकिन सड़क बन जाने से वह तालाब तक जाने का रास्ता नहीं ढूँढ़ पाता. नतीजा यह होता है कि सारा पानी वहीं भरता जाता है और जब बारिश रुकती है तो लोगों के घरों में पानी घुस चुका होता है.
‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ जैसी महत्वपूर्ण किताबों के लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं कि ‘पानी अपना रास्ता कभी नहीं भूलता’ तो बात एक बार में समझ में आ जाती है.
पानी न मेरे उस शहर में रास्ता भूलता है और न कोलकाता और मुंबई जैसे शहरों में.
बारिश होती है तो स्वाभाविक रुप से पानी बह निकलने के लिए अपना पुराना रास्ता ढूँढ़ता है. लेकिन कहीं हमने डामर की पक्की सड़क बना रखी है, तो कहीं रास्तों को अट्टालिकाओं में बदल दिया है.
अगर छोटे-बड़े शहरों के गज़ेटियर निकाल कर पन्ने पलटें तो पता चलता है कि शहरों में भी तालाबों की भरमार थी. लेकिन जहाँ तालाब थे अब वहाँ या तो शॉपिंग कॉम्पलेक्स है या फिर कोई बहुमंज़िली इमारत खड़ी हुई है.
अगर पानी को अपना रास्ता मिल भी गया तो वह आख़िर जाएगा कहाँ, किसी मॉल में या फिर किसी बड़ी बिल्डिंग के बेसमेंट में ही न?
या तो हमारे योजनाकारों की पढ़ाई इतनी सतही या किताबी है कि उन्हें प्रकृति ख़याल आता ही नहीं. वे प्रकृति के स्वभाव को पढ़ने की ज़रुरत ही नहीं समझते. या फिर वे समझते सब कुछ हैं लेकिन कथित विकास की धुन इतनी पक्की है कि वे अपनी समझ को हाशिए पर रखकर चल रहे होते हैं.
दो साल पहले मुंबई बाढ़ में इतनी बुरी तरह डूबी थी कि इस बार थोड़ा जमकर पानी बरसा तो फिर दिन बैठने लगा, फिर थरथराहट होने लगी. अब हाईकोर्ट ने प्रशासन को फटकारा है कि अगली बार से पानी नहीं भरना चाहिए.
लेकिन प्रशासन करे तो क्या करे. पानी को बह निकलने के लिए अब कौन सा रास्ता बनाए? बारिश का पानी नालियों में बहकर जाने वाला नहीं है. न वह यह भूलने वाला है कि उसका पुराना रास्ता कौन-सा था और पुराना घर कहाँ था.
पानी की स्मृति को न अदालतें बदल सकती हैं और न प्रशासन की कोशिशें. न मुख्यमंत्री इस मामले में कुछ कर सकते हैं और न प्रधानमंत्री.
बाढ़ एक तरह से प्राकृतिक आपदा है. प्रकृति का प्रकोप है. उसे तो यदाकदा झेलना ही पड़ेगा. लेकिन मुंबई में, कोलकाता में, बैंगलौर में, चेन्नई में, वड़ोदरा में और तिरुवनंतपुरम में जो पानी ठहर रहा है, वह विपदा है और इस विपदा को हमने ख़ुद न्यौता दिया है.
जिस तरह से शहरी विकास की योजनाएँ बन रही हैं और जिस तरह का विकास हो रहा है उसमें तय दिखता है कि आने वाले बरसों में कई शहरों में पानी भरेगा और अज्ञानी बहस करेंगे कि यह ग्लोबल वार्मिंग है या क़यामत के दिन क़रीब आ रहे हैं.
पानी का भरना सिक्के का एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि जब पानी का घर हमने छीन लिया है तो वह बारिश के जाते-जाते ग़ायब होने लगता है और गर्मियों में वही शहर जो डूब से थर्रा रहे थे, पानी की कमी से कराहने लगते हैं. पीने तक को पानी नहीं मिलता.
पानी प्रकारांतर से संकेत दे रहा है. चेता रहा है. अब नहीं चेते तो पछताने के अवसर भी कम ही मिलेंगे.

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