'हलफनामे' : उपन्यास में पानी का यह प्रसंग बहुत बड़ा है

हिन्दी उपन्यासों की परम्परा में ÷ हलफनामे' को श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ÷ रागदरबारी' की परंपरा में रखा जा सकता है। इसका एक कारण तो यह है कि इस उपन्यास की कथा में गांव को लेकर ÷ अहा, ग्रामजीवन भी क्या है' जैसा भाव नहीं है। उपन्यास की कथा में जो गांव है वह जमीन के इर्द गिर्द चलती राजनीति और पानी के भ्रष्ट तंत्र का शिकार है। गांवों के जीवन के बारे में यह प्रचलित धारणा रही है कि वहां का जीवन इसलिए अच्छा होता है, क्योंकि वहां लोगों को प्रकृति के समीप रहने का मौका मिलता है। साफ हवा, साफ पानी मिलता है। लेकिन उपन्यास के गांव ÷ सवेरा' को पानी के मामले में ÷ डार्क एरिया' घोषित कर दिया गया है, किसान कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं। ऐसे में नौजवान गांव छोड़ कर शहरों की ओर रोजगार की तलाश में माग रहे हैं। उपन्यास के समर्पण में लेखक ने लिखा है ÷ उत्तर प्रदेश के किसी भी, सभी गांव को...।' वास्तव में, उपन्यास की कथा को लेखक ने उत्तर प्रदेश के गांव की रूपक कथा की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। एक ऐसी कथा जिसमें किसानी समाज का भयावह यथार्थ है।

लेकिन यह इस उपन्यास में यथार्थ का एक स्तर भर है। काफ्का के उपन्यास ÷ द ट्रायल' में यह विस्तार से बताया गया है कि किस तरह राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था के तन्त्र के तले न्याय का दम घुट रहा है। प्रशासन, नौकरशाही के तन्त्र की जकड़ इतनी मजबूत होती है कि जो उस तन्त्र का नियामक होता है वह भी उसे नहीं तोड़ पाता है। उसे भी उस तन्त्र का हिस्सा बन जाना पड़ता है। ÷ हलफनामे' का कथानायक 40 वर्षीय मकईराम प्रसाद अपने पिता स्वामी राम प्रसाद द्वारा आत्महत्या कर लेने के बाद मुख्यमंत्री द्वारा घोषित लोकलुभाऊ ÷ किसान आत्महत्या योजना' के अन्तर्गत जब मुआवजे के लिए हलफनामा दाखिल करते हैं, तो उसके सामने भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था और न्याय तन्त्र का एक नया ही यथार्थ प्रकट होता है।

मकईराम का पिता स्वामीराम किसान था और खेती के लिए जब पानी की कमी पड़ने लगती है तब वह बोरवेल डालने के लिए कर्ज लेता है। एक नहीं , तीन तीन बार कर्ज लेकर बोरवेल डालने पर भी जब पानी नहीं निकलता है तब स्वामीराम सन्दिग्ध परिस्थितियों में एक भूखे कुएं में मृत पाया जाता है। यह बात सामने आती है कि उसने आत्महत्या कर ली। बहरहाल, हलफनामा दाखिल करने के बाद मकईराम को यह पता चलता है कि वास्तव में विकास और सुधार सम्बन्धी सारी घोषणाएं कागजी ही क्यों बनी रह जाती हैं। उसके माध्यम से उपन्यास में यह खुल कर आता है कि सरकारी व्यवस्था किस हद तक कागजी, हृदयहीन और भ्रष्ट हो चुकी है। उसे पहली बार यह अहसास होता है कि ÷ विकास' की फाइलें कहां गुम हो जाती हैं। वह इस तन्त्र में इस कदर उलझता है कि ÷ एक साल बाद मकई हलफनामे की महिमा पर घण्टों बोल सकता था।' ( पृ. - 40)

मकईराम और मुआवजे की इस कथा में कहीं न कहीं शासन तन्त्र की विफलता का पाठ भी उभर कर आता है। मारियो वर्गास ल्योसा जिसे ÷ गुप्त अर्थ' कहता है। इस उपन्यास की मूल कथा अगर कर्ज के जाल में उलझे किसानों की आत्महत्या और विस्थापित होते किसानों के जीवन को लेकर मान ली जाए, तो उसमें कहीं न कहीं उस शासन तन्त्र की विफलता का भाव भी निहित है, जिसका गठन समाज के ÷ विकास' के लिए हुआ था। उपन्यास में एक स्थान पर यह टिप्पणी भी आती है - ÷÷ हर कोई जानता है सरकार बेबस है, भ्रष्ट और अत्याचारी है, उसकी नीयत सन्दिग्ध है। पर राजपाट इन्सान ही चलाते हैं, माथे से कलंक मिटाना उसकी भी जरूरत है। इस खास प्रयोजन के लिए प्रतिज्ञाओं के दिन मुकर्रर किये जाते हैं : स्वतन्त्रता और गणतन्त्र दिवस, सद्भावना दिवस, अखण्डता दिवस, गांधी जयन्ती, शान्ति दिवस...। मकई को यह आभास नहीं था कि ऐसे दिन देश के लाखों कार्यालयों में करोड़ों कर्मचारी एक ही वक्त, साढ़े दस या ग्यारह बजे एक समान सार्वजनिक प्रतिज्ञा करते हैं... उनका समवेत स्वर, जिसे शायद अन्य नक्षत्र की सभ्यता ने सुना हो, कितना बुलन्द है इसके बारे में कभी विचार नहीं हुआ... पर इतना तय है कि ये शपथ सरकारी नौकरों को सर्वथा विपरीत आचरण के लिए क्षमादान देती है।'' ( पृ.-72)

वास्तव में , ÷ हलफनामे' की कथा में शासन तन्त्र की विफलता और उस परम्परागत वैकल्पिक जीवन का सन्दर्भ बार बार आता है, जिसे पुनः जागृत किये जाने की आवश्यकता है। इस उपन्यास में अगर एक ओर नौकरशाही तथा उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार और जड़ता का बारीक चित्रण हुआ है, तो दूसरी ओर इसमें पानी बचाने के परम्परागत कौशल का भी सूक्ष्म चित्रण है। उपन्यास की कथा में पानी का सन्दर्भ स्वामीराम की कथा से पैदा होता है।

तीन तीन बार बोरवेल डलवाने के बाद भी जब स्वामीराम पानी की समस्या से मुक्त नहीं हो पाता तो वह पनिया बाबा और पादरी की संगत में जन संरक्षण के पारम्परिक और आधुनिक तकनीकों के बारे में सीखता है। पादरी के सहयोग से एक नीला नक्शा तैयार करता है , जो गांव के जलक्षेत्र का होता है। पनिया बाबा से स्वामीराम जल संरक्षण के परम्परागत तकनीकों के बारे में सीखता है। उसके बाद वह सूखे से निजात पाने के लिए गांव में जल संचयन का काम शुरू करता है। गांव के लोग उसे पागल समझने लगते हैं।

यह इस उपन्यास का एक अन्य यथार्थ स्तर है। जल की विकट होती जाती समस्या ने किसानी को किस तरह बर्बाद कर दिया है। पानी को लेकर किस तरह की राजनीति चल रही है - उपन्यास में स्वामीराम जैसे इन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश करता दिखाई देता है। इस उपन्यास के सवेरा गांव के लोगों को इस बात का अहसास है कि ÷ बुद्धिमान लोग कहते हैं तीसरी महालड़ाई पानी पर होगी।' उपन्यास में पानी का यह प्रसंग बहुत बड़ा है और मानीखेज भी। इस औपन्यासिक कथा को पढ़ते हुए सहज ही प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र की पुस्तक ÷ आज भी खरे हैं तालाब' का स्मरण हो आता है। इस पुस्तक में अनुपम ने विस्तार से बताया है कि पांचवीं से 15 वीं सदी तक किस तरह देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते चले आये थे। 15 वीं शताब्दी के बाद यह परम्परा कुछ कमजोर पड़ने लगी तथा 18 वीं-19 वीं शताब्दी के बाद तो लोग तालाब बनाने की परम्परा को भूलने लगे। उन्होंने अपनी पुस्तक में देश के सबसे सूखे समझे जाने वाले राज्य राजस्थान के उदाहरण से बताया है कि किस तरह तालाबों, कुंओं के माध्यम से इस राज्य में जल संरक्षण किया जाता था। परम्परागत समाज में यह काम स्वयंसेवा के द्वारा ही अधिकतर सम्पन्न होता था। आधुनिक काल में हमने इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह शासन पर छोड़ दी है। इसके कारण आये दिन पानी को लेकर फसाद भी होने लगे हैं।
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