बढ़ते चीड़ के जंगल, सूखते भूजल स्रोत

सूबे में तेजी से फैल रहे चीड़ के वनों को यदि समय रहते ही नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश प्राकृतिक जलस्रोत विहीन हो जाएगा। इतना ही नहीं चीड़ के इन वनों में प्रति वर्ष लगने वाली आग से जल संरक्षण करने वाले वनों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा और प्रदेश को पेयजल के लिए सरकारी पंपिंग योजनाओं के भरोसे ही रहना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार को आने वाली इस विपदा के बारे में चेताया न गया हो परंतु सरकार वर्षों बीतने के बाद भी इस आने वाले संकट से मुंह मोड़े हुए हैं। सूबे के गढ़वाल मंडल में 12 हजार वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र है इसमें से 4.2 हजार वर्ग कि.मी.चीड़ वन क्षेत्र है। इस चीड़ वन क्षेत्र में प्रति वर्ष गर्मियों में लगने वाली दावाग्नि से लगभग 8 हजार वर्ग कि.मी. मिश्रित वन क्षेत्र लगातार प्रभावित होकर घटता जा रहा है।

लगातार घटते इन वन क्षेत्र में चीड़ के वन प्राकृतिक रूप से पनप रहे हैं। जिसके कारण गढ़वाल मंडल के चीड़ वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हो रही है जोकि आने वाले समय के लिए खतरे की घंटी है। वन विभाग व्दारा कई दशकों तक सूबे में चीड़ के वनों को विकसित किया गया क्योंकि चीड़ के वन एक बार विकसित होने के बाद प्राकृतिक रूप से दूर-दूर तक फैलने की क्षमता रखते हैं। जोकि वन विभाग के लिए बिना काम-दाम से फायदे का सौदा था। इस फायदे को देखते हुए वन विभाग तीन दशक तक उत्तराखंड में वन विकसित करने के नाम पर चीड़ के वनों का विकास करता रहा। अब यही चीड़ का वन प्रदेश के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। तेजी से फैल रहे इन चीड़ के वनों के कारण जहां एक ओर पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है वहीं दूसरी ओर चीड़ वनों के कारण प्राकृतिक जलस्रोत समाप्त हो रहे हैं। इतना ही नहीं चीड़ की सुईनुमा पत्तियों जिनको पिरूल कहा जाता है,दावाग्नि के लिए पेट्रोल का काम करती है।

चीड़ के वनों से आच्छादित वनभूमि में किसी अन्य प्रजाति की वनस्पति पनपने का प्रश्न ही नहीं होता है क्योंकि चीड़ की पत्तियाँ आसपास के क्षेत्र को पूरी तरह ढक देती है जिसके कारण वनभूमि की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। चीड़ के आक्रामक परिणामों को देखते हुए भारत सरकार के कृषि व सहकारिता मंत्रालय ने कई बार सूबे की सरकार को यह निर्देशित किया था कि प्रदेश में वन विभाग चीड़ उन्मूलन के कार्यों को भी अपने हाथों में ले जिसके तहत ग्रामीणों को उनके हकहुकूक की लकड़ी को देने में चीड़ के पेड़ों को प्राथमिकाता से आबंटित करे तथा जल संसाधन बढ़ाने के लिए नीला संवर्ध्दन कार्यक्रम पर भी विशेष ध्यान दें। लेकिन प्रदेश सरकार ने चीड़ उन्मूलन के दिशा-निर्देशों को ताक पर रख नौला संवर्ध्दन कार्यक्रम में बजट का प्रावधान किया गया था। लेकिन बिना चीड़ उन्मूलन के नौला संवर्ध्दन कार्यक्रम को चलाया जाना सरकारी धन का दुरुपयोग सिध्द हुआ। प्रदेश में जलस्रोतों से समाप्ति के कगार पर पहुंच जाने के बाद भी प्रदेश सरकार चेती नहीं है। गढ़वाल मंडल के लगभग 8 हजार वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र जिसमें कि चौड़ी पत्ती वाले वन हैं, को विस्तारित करने दिशा में सरकार का ध्यान नहीं है। ऐसी परिस्थियों में वे दिन दूर नहीं जबकि प्रदेश से सभी प्राकृतिक जलस्रोत समाप्त हो जाएंगे। ऐसे में पहाड़ी प्रदेश में पेयजल के लिए चलाई जा रही हैंडपम्प योजना भी फ्लाप साबित हो जाएगी,क्योंकि पहाड़ों में हैंडपंप भी जमीन के पाए जाने वाले प्राकृतिक जलस्रोत से ही पानी खींचते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स (नई दिल्ली), 24 Jun. 2005

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